शुक्रवार, 21 जून 2013

सर्वांगीन सामाजिक परिवर्तन


माजाचे मुख्ये अंग १.सत्ता, २.संपत्ती, ३.शिक्षण आणि ४.संकृती आहेत. भारताला इंग्रजांनी सत्तेचे हस्तांतर केले. भारताची राज्यघटना बनली. राजकीय लोकशाही आली. मात्र आर्थिक आणि सामाजिक लोकशाही आली नाही. सत्ता चालविणाऱ्यांवर ती जबाबदारी घटनेच्या उद्देश पत्रिकेत दिली आहे. मात्र उद्देश पुर्तीच्या दिशेने कार्य झाले नाही. 


आज देश पुंजीवादी आणि जातीवादी तर आहेच पण अंधश्रद्धा आणि विविध विकृतीने व्याप्त आहे. जनता जगायचे आहे म्हणून जगत आहे, मात्र जगण्याचा उद्देश राहिला नाही. घटना चांगली पण तिची अंमलबजावणी शून्य आहे. 

भारतात आर्थिक लोकशाही प्रस्तापित करून समान नागरी कायदा, कमाल संपत्ती धारण कायदा आणि समान वेतन आयोग इत्यादी महत्वपूर्ण बदल घडविले गेले तरच ही घटना जनतेला सुख देऊ शकेल अन्यथा केवळ घटना सांभाळून गरीबांना नागवत ठेवणेच होईल. 

ही परिस्थिती लवकर बदलवली गेली नाही तर देशांतर्गत यादवी युद्ध होईल, संविधान सुद्धा जाईल त्या शिवाय देश सुद्धा गुलामीत जाईल. काळजीवाहू लोकांनी घराबाहेर निघून एकत्रित चर्चा करून सुयोग्य पद्धतीने विचार करून त्यावर त्वरित अंमलबजावणी करण्याची वेळ जवळ आली आहे.

अन्ना का राजकीय आन्दोलन

नलोक पाल यह बिल पास होने से भारतीय संविधान को दुय्यम दर्जा मिलेगा. आरएसएस को बली का बकरा बना रही है. भारतीय संविधान को निरस्त, प्रभाव शुन्य करने के लिए जनलोक पाल का सहारा लेकर भारतीय संविधान पर हमला करने का कार्य अन्ना कर रहे है. अन्ना हिंदु है, हिंदु जातिवादी है, वर्णवादी है. भारतीय संविधान जाती-धर्म-वर्ण को नही मानता बल्कि उनकी तानाशाही खत्म करना चाहता है. इसलिए संघ परिवार कही बर्षो से संविधान पर टिप्पनी करते आया है.


जनलोक पाल के पदाधिकारी जनता के प्रतिनिधि नही होंगे, जो जनतंत्र चलनेवाले शासन और प्रशासन पर रोंब बनाते रहेंगे, इससे तो जनतंत्र का अपमान होगा. जनलोक पाल नाम है लेकिन इससे जनता का पालन-पोषण कैसे होगा? इस विषय पर उसमे कोई चर्चा और उपाय नही है. भ्रष्टाचार केवल आर्थिक ही नही होता, वह सामाजिक और नैतिक भी होता है. नीतिया अगर स्वार्थी रही तो परोपकार कैसे होगा?

जनलोक पाल से कही अच्छा भारतीय संविधान है, मगर उनका ईमानदारी से पालन किया होता तो भ्रष्टाचार नही होता. हम जिन धर्म को पालन करते है उनका हम पर ज्यादा प्रभाव है. भ्रष्ट धार्मिक नीतिया पालन करना जबतक सुरु रहेगा तब तक कितने भी कानून बनेंगे, उनका उल्लंगन होते ही रहेगा. भ्रष्टाचार को रोखने के लिए कानून बनाने की जरुरत नही तो धर्म बदल करने की जरुरत है, धम्म स्वीकार की जरुरत है. धम्म स्वीकार से ही भ्रष्टाचार नष्ट होगा. भ्रष्टाचार की शिक्षा देनेवाली मनुस्मृति निरस्त होगी. संविधान का यानि बुद्ध का शासन आएगा, जो भ्रष्टाचार से मुक्त होगा

दलितों की जातिवादी राजनीती


भारत देश किसी विशिष्ट जाती, धर्म, वंश या वर्ग का नही है. भारतीय संविधान के तहत एकता और अखंडता लाने के लिए न्याय, स्वतंत्र, समता और बंधुभाव के नैतिक मूल्यों पर अधिष्टित कानून बनाये. अफ़सोस की बात यह है की इन कानूनों के रखवाले ही कानूनों का उल्लंघन करेंगे तो संविधान का उद्धेश सिद्ध कैसे होगा? एकता और अखंडता कैसे आएगी? यह संविधान जितना अमीरों शोषण से सामान्य लोगों को मुक्ति दिलाने का कार्य करता है. मगर अमीरों के दलाल बने शासकीय, प्रशासकीय, न्यायपालिका और प्रेस मिडिया के लोग सामान्य लोगों का हित सुख, देश मे शांती, एकता और अखंडता को भूलकर कानून की धज्जिया उड़ा रहे है. 

सामान्य लोगों के हितों की रक्षा हो इस सच्चे उद्देश से भारतरत्न डॉ. बाबासाहब आम्बेडकर ने २ साल ११ माह १८ दिन लिखने के लिए लगाए मगर उनको चलाने वाले राजनेता सामान्य लोगों के हितों के रक्षा करने के बजाय खुद के हितों की रक्षा करने मे लगे हुए है. हर पार्टी के लोग बेईमान हो गए. चोर चोर मौसेरे भाई बने है. भारत को तुम भी लूटो और हम भी लुटते है. 

ईमानदार बाबासाहब आम्बेडकर का नाम लेकर सत्ता मे आयी मायावती बेईमानी करके करोडो रुपने भ्रष्टाचार से लेकर चुम्ब्ली मांडकर बैठी है. उनके चमचे चेले उसे जायेज समजते हुए तर्क देते है की कांग्रेस, बीजेपी और अन्ये पार्टियों के लोग करते है तो उन्हें क्या नही कहा जाता? क्या सचमुच नही कहा जाता? 

चोरी या अन्याय अगर दूसरे लोग करते है तो वे संविधान और देश के दुश्मन है तो क्या संविधान के रचयिता डॉ. बाबासाहब आम्बेडकर का नाम लेकर वे जनता से वोट तो नाही बटोर रहे है, कोई उनके नामसे वोट माँग भी ले तो जनता उनको वोट नही देती क्यों की वे जानती है की वे उनका हित करने मे हमेश आनाकानी करते है और जो पिछड़े जाती के उमीदवार है वे उनके जैसा व्यवहार नही करते. लेकिन जनता के साथ जैसा धोका कांग्रेस, बीजेपी ने किया वैसा ही धोका पिछडों के पार्टियों ने भी किया है.

बिसपी भी अगर कांग्रेस के क़दमों पर कदम डालकर चलना चाहती है तो वे जरुर चले, वे आझाद है मगर बाबासाहब आम्बेडकर के नामपर वोट मांगना बंद करे. वे अगर इतनी बाबासाहब की हिमायती होती तो आर.पी.आय. को ही सुधार के राजकीय क्ष्रेत्र मे विजय दिलाती. बाबासाहब के लोगों को गुमराह करके वोट बटोरकर बिसपी को आगे नही बढाती. बिसपी एह कांशीराम की पार्टी है और आर.पी.आय. यह बाबासाहब आम्बेडकर की पार्टी है. 

मायावती कांशीराम का काम आगे बढ़ा रही है, बाबासाहब का नही. कांशीराम कांग्रेस जैसी पार्टी बनाना चाहता था, जो पूंजीवादियों की हिमायती है वैसी ही पार्टी बाबासाहब को पसंद नही थी. बाबासाहब की पार्टी बुद्ध के विचारोंपर चलाने का उनका सपना था, गाँधी और कांग्रेस के विचारों पर नही...

जाती विहीन समाज और दलित

भारत पर हिन्दुधर्म के वर्ण, जाती, पंथ और भाषा का प्रभाव रहा है. चार वर्णों का धर्म रहा है. अतिशूद्र यह शूद्रों से पतित समझा जाता रहा है. जिसका सबसे ज्यादा शोषण किया गया, उन्हें मानवीय अधिकारों से वंचित किया गया. भारत मे अंग्रेजों के पहले कही विदेशी लोग आये लेकिन उन्होंने अतिशूद्र यानि अछुत वर्ग को मानवीय अधिकार देने के बारे मे कभी विचार नही किया. बाबासाहब आम्बेडकर के प्रयास से अंग्रेजों ने उन्हें अपने विचार रखने के लिए मौका दिया. उन्हें उनके मानवीय अधिकार देने के लिए बाबासाहब ने अथक प्रयास किए.

अछूतों को मागासवर्गीय जाती का दर्जा मिला. इस जातिओं के लोगों को स्पर्श करने को भी अकुशल समझा जाने लगा. अपने ही (हिन्दुधर्म) बांधव के साथ सौतेले ढंग से व्यवहार किया गया. यह व्यवहार किसी को भी अनुचित और अपमानित करने जैसा प्रतीत होता है. “पूना समझौते” का परिणाम यह हुआ की भारत मे अछुतता पालन करना कानूनन गुनाह समझने जाने लगा. अछूतों के लिए एम् के गाँधीने “हरिजन” शब्दों का प्रयोग किया था. अछुत, हरिजन और गरीब है. उन्हें अब नया शब्द मिला जिसका नाम “दलित” है. यह विशिष्ट जातियों के समूह को संबोधित करने के लिए प्रयोग मे आनेवाला शब्द है. “जातीया” हिन्दुधर्म मे पायी जाती है. हिंदुधर्म का पालन करनेवाले एक तबके को “दलित” समझते थे और अब भी समझ रहे है.

जिन्होंने हिन्दुधर्म त्याग किया उन्होंने हिन्दुधर्मो मे पायी जानेवाली जातियों का भी त्याग किया. उन्हें अब अछुत, एस.सी., मागासवर्गीय जाती, दलित कहने का सवाल ही नही उठता. जो लोग बौद्ध बने है वे न अब अछुत रहे है, न मागासवर्गीय जाती और न दलित. वे सिर्फ बौद्ध है और बौद्धों मे जातीया नही होती. फिर उन्हंु दलित कैसे कह सकते? बौद्ध दलित नही है और न उन्हें दलित कहना चाहिए. बौद्धों को “दलित” कहना उनका उपहास और अपमान है. बौद्धों ने खुद को “दलित” कहकर खुद का अपमान नही करना चाहिए. अब तो कानूनने भी स्वीकार किया की “दलित” यह अपमानित करनेवाला शब्द है. उन्हें किसी के लिए प्रयोंग करनेपर आपत्ति हो शकती है. Untouchable यानि अछुत और Depressed यानि दलित, इन दोनों शब्दों का अर्थ समान है जिसका अर्थ है गरीब. बाबासाहब आम्बेडकर ने सुरु मे “डिप्रेस क्लास” शब्दों का प्रयोग किया और उनके लिए संघटन भी बनाया था. मगर बाद मे उन्हें बौद्धधम्म मे परिवर्तित कर दलित, दलितपन और दलित्दरी से निजात दिलाई. 

डॉ. बाबासाहब आम्बेडकर के प्रयाससे जो लोग बौद्ध बने मगर धम्म का पर्याप्त ज्ञान न होने के वजह से वे भटक गए. वे जातिगत धर्महिंदु को छोड़ने के बाद भी खुद को और जनता को “दलितस” या अनुसूचित जातियों के बंधनों मे बांधना चाहते है. जातियों के आधारपर आरक्षण लागु हुआ है, उसीके माध्यम से लोग नोकरिया करने लगे इसलिए वे धम्म को भूलकर जातियों को अपनाना भलाई समझ बैठे. अब कोनसे जाती का कोण है यह उस व्यक्ति के उपनाम को जानकर बता सकते है मगर धम्म मे “मध्यम मार्ग” क्या है? प्रतित्य सम्मुत्पाद क्या है? यह नही जानते.

बाबासाहब आंबेडकर अछुत जाती मे जन्मे मगर जातिविहीन बौद्ध धम्म मे जिए और मर भी गए, वे खुद को दलित कहना ना पसंद करते थे और ना उन्होंने दलित कहनेवालों को गौरवान्वित किया. जो लोग बाबासाहब के जनता को अनुसूचित जाती मे हमेशा देखना चाहते है वे जातिओं के समर्थक है, जातियों के आधारपर हमेशा उन्हें आरक्षण मिलते रहना चाहिए यही उनकी सोच है. जातिओं के आधारपर बामसेफ और बीएसपी संघटन बने, जबतक जातीय रहेगी तबतक उनका अस्तित्व रहेगा बाद मे उनका अस्तित्व नष्ट हो जायेगा. बामसेफ यह हिंदु जातियों का संघटन है, चाहे कुछ जातिओं के लोगोंने धर्मांतर भी किया क्यों न हो, वे उनको हमेशा याद दिलाना चाहते है की तुम्हारे पुरखे नीच जातियों के थे इसलिए तुम भी जातियों के जरिए नीच हो. जो व्यक्ति अपनी नीचता त्यागना चाहता है उसे जबरदस्ती से नीच कहना और नीचता का अहसास करा देना अनुचित कार्य है,जो हमेशा बामसेफ/बीएसपी करते आयी है. 

बामसेफने कभी बौद्ध धम्म का प्रचार नही किया और न धर्मांतर के लिए प्रयास किया है. बौद्ध धम्म के प्रचार से जाती नष्ट होने पर जातिगत आरक्षण नष्ट होगा तो बामसेफ/बीएसपी का अस्तित्व कैसे रहेगा? इसी चिंता के साथ वे हमेशा बौद्ध धम्म और बाबासाहब आम्बेडकरके धम्माव्ल्म्बी आर.पी.आय. को कोसने का कार्य किया. 

“समता सैनिक दल” के द्वारा कार्य करने के बजाए “बामसेफ वालिंटियर फ़ोर्स” का गठन किया. बामसेफ और बीएसपीने बाबासाहब आम्बेडकर के विचारों का अन्वयार्थ निकालकर उसे गलत ढंग से पेश किया. बामसेफ/बीएसपी हमेशा जातिवादी विचारों का समर्थन करते रही है. जातिगत विचार बाबासाहब आम्बेडकर के विचारानुरूप कदापि नही थे और न रह सकते. बाबासाहब किसी भी जातियों के व्यक्तियों का विरोध नही करते थे बल्कि जातीयवाद के वे कड़े विरोधक थे. मगर बामसेफ/बीएसपी यह केवल विचारों के ही नही तो व्यक्तियों के भी विरोधक रहे है. वे विचार और व्यक्ति मे अंतर नही मानते, जब की बाबासाहब आम्बेडकर व्यक्ति और विचारों मे अंतर मानते थे.

बामसेफ/बीएसपी के लोग बाबासाहब आम्बेडकर के विचार जानने के काबिल नही है, और न ही उनके विचारों को मानते है. बाबासाहब के हर संघटनो को उनका विरोध रहा है. उनके कार्यों को भी विरोध रहा है, उनके उपदेशों पर भी अमल करने के बजाए उन्हें पलीद करने मे वे गौरव महसूस करते है. संघटन मे व्यक्तिपूजा का बाबासाहबने जमकर विरोध किया फिर भी बामसेफ/बीएसपी के माध्यम से कांशीराम, मायावती, वामन मेश्राम को हीरो बनाया, जो तानाशाही कर रहे है और बाबासाहब को भी तानाशाही के समर्थक के रूप मे देखते है इतना ही नही तो वे बाबासाहब को भी तानाशाही समझने मे कोई कसर नही छोड़ते. 

अगर बाबासाहबने तानाशाही का इस्तेमाल करके संघठन चलाया है तो हमने क्यों नही चलाना चाहिए? यह उनका स्पष्ट उत्तर रहा है. जो लोग “जय भीम” के अभिवादन को पर्यायी “जय मुलनिवाशी” देते है क्या वे आम्बेडकरी विचारक या प्रसंशक हो सकते है? बामसेफ/बीएसपी के लोग हिंदुधर्म के जाती, वंश और वर्ण से प्रभाबित है, वे उसे प्रचारित करते आये है और उनके समर्थक है, जो हमेशा बौद्ध धम्म के विरोधक रहे है.

धम्म विचारों के साथ आम्बेडकरवाद है. आम्बेडकरी विचारों से धम्म विचार निकालने पर जो सिल्लक रहता है वह हिंदुधर्म है. जो लोग धम्म को छोडकर बाबासाहब आम्बेडकर को मानने का दावा करते है, वे झूटे है, ढोंगी है, अवसरवादी है, छद्म आम्बेडकरी है. उनपर किसी भी सच्चे बुद्धिस्ट व्यक्तिने विश्वास नही करना चाहिए. बामसेफ/बीएसपी के नए दो चेले “बहुजन मुक्ति मोर्चा” और “एम्बस” जातियों को मजबूत बनाने के लिए आगे आ रहे है, जिनसे आम्बेडकरी विचारों को तहस नहस करने का प्रयास किया जायेगा, आम्बेडकरी जनताने सजग रहकर धम्म की रक्षा करनी चाहिए, अन्यथा बड़े प्रयास से दीक्षाभूमि मे बोया गया नवयानी धम्मवृक्ष मुरझा जाएगा.

'द बुद्ध एंड हिज धम्म' - की अप्रकाशित प्रस्तावना, दिसम्बर 6, 1956 - बी आर अम्बेडकर

क सवाल हमेशा मुझसे पूछा है: मैं कैसे होता है. में शिक्षा की उच्च डिग्री लेने के लिए. एक और सवाल पूछा जा रहा है: क्यों मैं बौद्ध धर्म की ओर झुकाव रहा हूँ. इन सवालों के लिए कहा जाता है क्योंकि मै एक समुदाय के रूप में भारत में जाना जाता है में पैदा हुआ था "अछूत. इस प्रस्तावना में पहले सवाल का जवाब देने के लिए जगह नहीं है. लेकिन इस प्रस्तावना में दूसरे सवाल का जवाब देने के लिए जगह हो सकती है.


इस सवाल का सीधा जवाब है कि मैं बुद्ध धम्म सबसे अच्छा होना करने के लिए संबंध है. कोई धर्म नहीं की तुलना में किया जा सकता है. यदि एक आधुनिक आदमी जो विज्ञान knws है एक धर्म है, वह केवल धर्म हो सकता है बुद्ध का धर्म है. यह विश्वास मुझ में सभी धर्मों के पास अध्ययन के पैंतीस साल बाद हो गया है.
कैसे मैं अध्ययन करने के लिए नेतृत्व किया गया था बौद्ध धर्म एक और कहानी है. यह पाठक के लिए पता करने के लिए दिलचस्प हो सकता है. यह है कि यह कैसे हुआ.

मेरे पिता एक सैन्य अधिकारी था, लेकिन एक बहुत धार्मिक व्यक्ति एक ही समय पर. उसने मुझे एक सख्त अनुशासन के तहत लाया. मैं अपने शुरुआती उम्र से मेरे पिता के जीवन के धार्मिक रास्ते में कुछ विरोधाभास पाया. उन्होंने एक Kabirpanthi था, हालांकि उसके पिता Ramanandi था. जैसे, वह मूर्ति पूजा मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं था, और अभी तक वह गणपति पूजा प्रदर्शन हमारे लिए पाठ्यक्रम की है, लेकिन मुझे यह पसंद नहीं था. वह अपने पंथ की किताबें पढ़ते हैं. एक ही समय में, वह मुझे और मेरे बड़े भाई [] महाभारत के एक हिस्से को बिस्तर पर जाने से पहले हर दिन पढ़ने के लिए मजबूर है और मेरी बहनों और अन्य व्यक्ति जो अपने पिता के घर पर इकट्ठे कथा सुन करने के लिए रामायण. इस साल का एक लंबा संख्या के लिए पर चला गया.

वर्ष मैं अंग्रेजी चौथा मानक परीक्षा पारित कर दिया, मेरे समुदाय के लोगों के लिए एक सार्वजनिक बैठक पकड़े मुझे बधाई देने के अवसर को मनाने के लिए चाहता था. अन्य समुदायों में शिक्षा की स्थिति की तुलना में, यह शायद ही उत्सव के लिए एक अवसर था. लेकिन यह आयोजकों है कि मैं इस स्तर तक पहुँचने के लिए मेरे समुदाय में पहला लड़का था महसूस किया गया, वे सोचा कि मैं एक महान ऊंचाई पर पहुंच गया था. वे मेरे पिता के लिए गया था उसकी अनुमति के लिए पूछना. 

मेरे पिता ने साफ़ - साफ़ इनकार कर दिया, कह रही है कि ऐसी बात लड़के के सिर बढ़ होगा, सब के बाद, वह केवल एक परीक्षा पारित कर दिया गया है और अधिक कुछ नहीं किया. जो घटना मनाना चाहते थे बहुत निराश थे. वे, लेकिन रास्ता नहीं दिया. वे दादा Keluskar, मेरे पिता के एक निजी दोस्त के पास गया, और उनसे हस्तक्षेप करने को कहा. वह सहमत हुए. एक छोटे से विवाद के बाद, मेरे पिता मिले, और बैठक आयोजित की गई थी. दादा Keluskar अध्यक्षता की. वह अपने समय के एक साहित्यिक व्यक्ति थे. अपने संबोधन के अंत में वह बुद्ध के जीवन, जो उन्होंने बड़ौदा सयाजीराव ओरिएंटल श्रृंखला के लिए लिखा था पर अपनी पुस्तक की एक प्रति मुझे एक उपहार के रूप में दिया. मैं बहुत रुचि के साथ किताब पढ़ी, और बहुत प्रभावित किया गया था और यह द्वारा ले जाया गया.


मैं क्यों मेरे पिता हमें बौद्ध साहित्य से परिचय नहीं था पूछना शुरू किया. इस के बाद, मैं अपने पिताजी को इस सवाल पूछना करने के लिए निर्धारित किया गया था. एक दिन मैंने किया था. मैं अपने पिता से पूछा कि वह क्यों हमारे महाभारत और रामायण, जो ब्राह्मणों और क्षत्रियों की महानता को याद किया और शूद्रों और अछूत की गिरावट की कहानियों दोहराया पढ़ने पर जोर दिया. मेरे पिता ने सवाल पसंद नहीं आया. वह केवल ने कहा, "आप इस तरह के मूर्खतापूर्ण सवाल नहीं पूछना चाहिए कि आप केवल लड़के हैं, आप के रूप में आप बता रहे हैं करना चाहिए." मेरे पिता एक रोमन पैट्रिआर्क था, और अपने बच्चों पर सबसे व्यापक Patria Pretestas का प्रयोग किया. मैं उसे अकेला के साथ एक छोटे से स्वतंत्रता ले, और सकता है कि क्योंकि मेरी मां मेरे बचपन में मर गया था, मुझे मेरी चाची की देखभाल करने के लिए छोड़ने.

तो कुछ समय के बाद, मैं फिर से वही सवाल पूछा. इस समय मेरे पिता जाहिर है एक उत्तर के लिए खुद को तैयार था. उन्होंने कहा, "कारण है कि क्यों मैं आप से पूछना महाभारत और रामायण पढ़ने के यह है: हम अछूत हैं, और आप एक हीन भावना विकसित करने के लिए, जो स्वाभाविक है की संभावना है महाभारत और रामायण के मूल्य में निहित है. इस हीन भावना को दूर द्रोण और कर्ण - वे छोटे आदमी थे, लेकिन ऊंचाइयों क्या वे गुलाब वाल्मीकि पर देखो - वह कोली था, लेकिन वह रामायण के लेखक बन गया है यह इस हीनता हटाने के लिए है.! जटिल है कि मैं आप महाभारत और रामायण पढ़ने के लिए पूछना.

मैं देख सकता था कि मेरे पिता के तर्क में कुछ बल था. लेकिन मैं संतुष्ट नहीं था. मैं अपने पिता से कहा कि मैं महाभारत में आंकड़े की कोई पसंद नहीं आया. मैंने कहा, "मुझे पसंद नहीं है भीष्म और द्रोण, न ही कृष्ण. भीष्म और द्रोण कपटी थे. वे एक बात और कहा कि काफी विपरीत कृष्णा धोखाधड़ी में विश्वास किया है. उनका जीवन कुछ भी नहीं है लेकिन धोखाधड़ी की एक श्रृंखला बराबर नापसंद मैं राम के लिए [= Shurpanakha] प्रकरण [और] Vali Sugriva प्रकरण, और अपने क्रूरतापूर्ण व्यवहार में सीता की ओर Sarupnakha में उसके आचरण की जांच करना. " मेरे पिता चुप था, और कोई जवाब नहीं दिया. वह जानता था कि वहाँ एक विद्रोह था.

यह कैसे मैं दादा Keluskar द्वारा मुझे दिया किताब की मदद के साथ बुद्ध को दिया. यह एक खाली मन के साथ नहीं था कि मैं कि कम उम्र में बुद्ध के पास गया. मैं एक पृष्ठभूमि था, और बौद्ध विद्या पढ़ने में मैं हमेशा तुलना और विषमता कर सकता है. यह बुद्ध और उनका धम्म में मेरी रुचि के मूल है.

इस किताब को लिखने के लिए आग्रह करता हूं कि एक अलग मूल है. 1951 में महाबोधि सोसायटी कोलकाता के जर्नल के संपादक ने मुझसे पूछा Vaishak संख्या के लिए एक लेख लिखने के. मैं उस लेख में तर्क दिया कि बुद्ध धर्म ही धर्म है जो विज्ञान से जागा समाज स्वीकार कर सकता था, और यह जो बिना नाश होगा. मैं यह भी बताया कि आधुनिक दुनिया के लिए बौद्ध धर्म ही धर्म है जो वह खुद को बचाने के लिए होना चाहिए था. कि बौद्ध धर्म बनाता है [एक] धीमी अग्रिम तथ्य यह है कि इसका साहित्य इतना विशाल है कि कोई भी इसका पूरा पढ़ सकते हैं के कारण है. कि यह कोई एक बाईबल के रूप में ऐसी बात है, के रूप में ईसाई है, इसकी सबसे बड़ी बाधा है. इस लेख के प्रकाशन पर, मैं कई कॉल प्राप्त है, लिखित और मौखिक, इस तरह एक किताब लिखने के. यह कि मैं कार्य शुरू किए गए इन कॉल के जवाब में है.

सभी आलोचना है कि मैं यह स्पष्ट है कि मैं पुस्तक के लिए कोई मौलिकता का दावा है कि बनाने के लिए चाहते हैं वश में कर लेना है. यह एक संकलन और विधानसभा संयंत्र है. सामग्री को विभिन्न पुस्तकों से इकट्ठा किया गया है. मैं विशेष रूप से Ashvaghosha Buddhavita उल्लेख करना चाहते हैं. कविता जिसका कोई भी उत्कृष्टता प्राप्त कर सकते हैं. कुछ घटनाओं की कथा में मैं भी उसकी भाषा उधार लिया है.

केवल मौलिकता है कि मैं का दावा कर सकते हैं. विषय, जिस में मैं सादगी और स्पष्टता परिचय करने की कोशिश की है की प्रस्तुति के क्रम. वहाँ कुछ मामलों जो बौद्ध धर्म का छात्र है, सिर दर्द दे रहे हैं. मैं उनके साथ परिचय में पेश किया है.

यह रहता है के लिए मुझे जो मेरे लिए उपयोगी है के लिए अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए. मैं श्री नानक चंद Rattua - गांव Sakrulli और होशियारपुर (पंजाब) का बोझ वे खुद पर ले लिया है बाहर पांडुलिपि टाइप के लिए जिले में गांव नांगल खुर्द के श्री प्रकाश चंद का बहुत आभारी हूँ. वे यह कई बार किया है. श्री नानक चंद रत्तु विशेष दर्द ले लिया और इस महान कार्य को पूरा करने में बहुत कठिन परिश्रम में डाल दिया. उन्होंने टाइपिंग आदि का पूरा काम बहुत खुशी से किया था और अपने स्वास्थ्य की देखभाल और [= या पारिश्रमिक की किसी भी प्रकार के बिना. दोनों श्री नानक चंद रत्तु और श्री प्रकाश चंद उनकी सबसे बड़ी और मेरे प्रति प्यार और स्नेह के टोकन के रूप में उनके काम किया है. उनके मजदूरों को शायद ही चुकाया जा सकता है. मैं बहुत आभारी हूँ.

जब मैं पुस्तक की रचना का कार्य लिया मैं बीमार था, और अभी भी बीमार हूँ. इन पांच वर्षों के दौरान मेरे स्वास्थ्य में कई उतार चढ़ाव थे. कुछ चरणों में मेरी हालत इतनी महत्वपूर्ण है कि डॉक्टरों को एक मर लौ के रूप में मेरे की बात बन गया था. इस मरने लौ के फिर से जगाने सफल मेरी पत्नी और डॉ. Malvankar की चिकित्सा कौशल के कारण है. वे अकेले मेरे काम को पूरा करने के लिए मदद की है. मैं भी श्री एमबी चिटनिस, जो ले लिया आभारी हूँ , उन को सही करने में विशेष रुचि ली थी.

मैं उल्लेख कर सकते हैं कि यह एक तीन किताबें जो बौद्ध धर्म की उचित समझ के लिए एक सेट के रूप में की है. अन्य पुस्तकें हैं: (i) बुद्ध और कार्ल मार्क्स, और (ii) क्रांति और प्राचीन भारत में काउंटर क्रांति. वे भागों में लिखा जाता है. मैं उन्हें जल्द ही प्रकाशित करने की उम्मीद है.

बी आर अम्बेडकर
26 अलीपुर रोड, दिल्ली
6-4-56
 (अप्रकाशित प्रस्तावना, दिसम्बर 6, 1956 )

महाभ्रम : आर्य बनाम नाग

डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या " शुद्र पूर्वी कोण ?" या ग्रंथात “आर्य” हे विदेशी नसून देशी आहेत असे लिहिले असतांना त्यांच्या विचारांवर मात देण्यासाठी "मूलनिवासी" मोहिम हाती घेतली. जनता "जयभीम" म्हणत असतांना त्यांना "जय मूलनिवासी" म्हणायला शिकवीणे हे आम्बेडकर प्रेमी असण्याचे धोतक नाही. हे माथेफिरू लोक बाबासाहेब आम्बेडकर यांच्या द्वितीय विवाहाला वादाच्या भोवऱ्यात अडकवून ते माईसाहेब ह्या चरित्याहीन होत्या असे समजावून देवू पाहत आहेत.

डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर यांचे विचार चुकीचे होते हे सिद्ध करण्यासाठी "ब्राह्मण कन्या ह्या विष कन्या असतात, त्यांच्याशी विवाह करणारे मुर्ख आहेत” या विचारांचा प्रचार वामन मेश्राम नावाच्या माथेफिरुने सुरु केला आहे. आंतरजातीय विवाहाने आमच्या चळवळीचे फार मोठे नुकसान झाले असा खोटा आरोप यांनी चालविला आहे. स्त्रियांना दोषी समजण्याचा हा प्रकार आहे. सर्व स्त्रियांनी या विचारांचा धिक्कार करायला पाहिजे. ही मनुवादी विचारसरणी आहे. जातीच्या आधारे स्त्रिया वाईट ठरविणे चुकीचे आहे. या आधी पुणे करारावर सही करणारे गुन्हेगार सांगुन बाबासाहेब यांचा "धिक्कार" करणारी मोहिम चालविली होती.

बाबासाहेब यांनी माईसाहेब यांच्याशी केलेला विवाह हा बाबासाहेब यांच्यावर लादलेला विवाह होता असा खोटा प्रचार चालू केला आहे. बाबासाहेब हे ब्राह्मनांच्या फाश्यात अडकले होते म्हणजे ते ब्राह्मण लोकांपेक्षा किती निर्बुद्ध होते? असे सिद्ध करण्याचा हा यत्न आहे. बाबासाहेब यांनी त्यात कायदेशीर आंतरजातीय विवाहाला स्वतः पासून सुरुवात केली आणि मुख्य म्हणजे बाबासाहेब हे मधुमेह नावाच्या जर्जर आजारांनी ग्रस्त होते, त्यामुळे डाक्टर लोकांनी त्यांना मिनमिनत्या पंथिची उपमा दिली होती. बाबासाहेब यांनी स्वतः आपल्या डॉ. राव नावाच्या मित्राच्या मदतीने सविताला स्वताच्या प्रेमात पाडून घेतले होते. डॉ. सविता यांनी बाबासाहेब यांच्यासी जो विवाह केला तो म्हणजे बाबासाहेब यांच्यावर वैद्यकीय मदतीसाठी केलेला उपकाराच ठरला. हा विवाह जातीयवादी नव्हता तर तो जाती मोड्न्याचा होता. यात बाबासाहेब यांनी एकाच निर्णयात कितीतरी उद्धिष्ट गाठले होते, हे लक्षात घेण्यासारखे आहे.

बाबासाहेब आम्बेडकर "द बुद्ध एंड हिज धम्म" या ग्रंथाच्या "प्रस्तावना" या ठिकाणी लिहितात की डॉ. मालवंकर आणि डॉ. सविता कबीर यांची वैद्यकीय मदत झाली नसती तर त्यांना धम्म ग्रन्थ लिहिता आला नसता म्हणून त्यांच्या सेवेबद्दल बाबासाहेब यांनी आभार मानले, हे लक्षात घेण्यासारखे आहे. अड़. प्रकाश आम्बेडकर (बाबासाहेब यांच्या नातवाने) ब्राह्मण मुलीशी विवाह केला हा फार मोठा गुन्हा केला हे सिद्ध करण्याचा जातीयवादी प्रयत्न लावून धरलेला आहे. त्याऐवजी माझे स्वताचे नेतृत्व किती अफाट आहे असे दाखवून प्रौढी मारण्याचा हा प्रयत्न आहे.

हुकुमशहा वामन मेश्राम हा एक माथेफिरू आहे. बामसेफ संघटनेचा अध्यक्ष असल्याचा खोटा प्रचार करीत आहे. हे सर्व गैर प्रयत्न का करतोय? या प्रश्नाचे उत्तर म्हणजे डोळेझाक तानाशाह कांशीराम यांच्या विचारांचे समर्थन होय. जातीयवादी "बहुजन" नावाच्या निर्माण झालेल्या लाटेचा फायदा घेण्याचा आटोकाट प्रयत्न आहे. हे सर्व काही कार्य स्वनिर्मित "भारत मुक्ति मोर्चा" नावाच्या राजकीय पार्टीच्या विजयासाठी आहे. बीएसपी आणि आरपीआय या दोन्ही पक्षांवर मात करण्यासाठी "कु" धडपड चालू झालेली आहे. जनता सर्व ओळखून आहे की कोण खरे बोलत आहे आणि कोण खोटे? आता वामन मेश्राम जनतेला खोटेनाटे पुरावे दाखवित आहे की बाबासाहेब यांच्या मारेकऱ्यानना शिक्षा देण्यासाठी, भावनिक शोषण करण्याचा हा वामन मेश्राम नावाच्या राजकीय हुकुमशाहाचा डाव आहे. सुजान जनतेने यांच्या 'मुलनिवासी" विचार सरणी पासून सावध रहावे.

वामन मेश्राम को बामसेफ का मुखिया किसने किया? और वह कितने साल तक रहेगा? बामसेफ जनतंत्र को मानती है क्या? उसे जातियों का जनतंत्र पसंद है या समाज का? बामसेफ के कुल कितने अध्यक्ष है? और उनके नाम क्या है?

कुणाचे विचार खोडुन काढता आले नाही की त्यांना दलाल, भडवे संबोधने योग्य आहे का? हा बुद्धीमानी प्रकार आहे का? वामन मेश्राम बुद्धिमान असेल तर त्यांनी वरील माझ्या विचारांचे खंडण करून दाखवावे. तो जोपर्यंत तसे करणार नाही तोपर्यंत तरी निर्बुद्ध आहे, असे म्हणण्याशिवाय पर्याय नाही.

मुर्ख बनाओ, राज करो

ह हिन्दुधर्म के प्रचार मे भगवान बन बैठा, कहते है की जो मांगे वह मिल जाता तो यह फी क्यों मांगता? अगर किसी पाकिस्तानी व्यक्ति ने भारत को बर्बाद करने की आतंकी माँग की तो क्या वह भी पूरी हो सकती? भारत मे मुर्ख और उन्हें मुर्ख बनाने वालों की कमी नही, यह हिन्दुधर्म को बचाव का आखरी रास्ता है, जिसे आर.एस.एस. चल रही है, इंसानों को "भगवान" बनाना वेवकूफी के अलावा और क्या है? देश मे अंधश्रद्धा फैलाना यानि अफ़वा है, विज्ञान को यह चुनौती है, जनता को मुर्ख बनाओ और राज करो का यह उत्तम नमूना है. सावधान गरीबो बाबाओं के चक्कर मे जाओंगे तो लुट लिए जाओगे, विनाश ही विनाश होगा. इसलिए बुद्ध ने अनीश्वर, अनात्म और विज्ञान की शिक्षा दी, व्ही सही दीपक है.

    जात न पूछो साधू को, पूछ लीजिए ज्ञान | 
    किम्मत करो तलवार की, पड़ा रहन दो म्यान ||
                                                                                                                                  - संत कबीर.

जातिवादी पिछड़े और उनकी जातिवादी राजनीती

बामसेफ यह पिछड़े जातियों के कर्मचारियों का संघटन है मगर अचंबे की बाते यह है की इसका प्रेसिडेंट गैर-कर्मचारी रहे है, जो राजनीती के लिए कार्य करते रहे. सुरु मे आर.पी.आय. के साथ लड़ाई करने के लिए बामसेफ के तहत कार्य किया और बीएसपी को पैदा किया.


वामन मेश्राम भी बामसेफ का गैर-कर्मचारी था जो सामाजिक परिवर्तन के नामपर राजकीय कार्य करते रहा और अब "भारत मुक्ति मोर्चा"उसी के लिए खोल बैठा.

"बिसपी" मे भी और एक कार्यकर्ता के रूप मे काम करने वाला कर्मचारी था जिसे भ्रष्टाचार के आरोप मे नौकरी से निकाला गया वह है विजय मानकर जो "एम्बस" के तहत राजकीय सत्ता लेने के लिए अपनी राजकीय पार्टी बनाने पर तुला है.

उदित राज भी कांशीराम के कार्य से प्रभावित रहे है जिन्होंने अब "जस्टिस पार्टी" बनाई है, जो जातिगत विचारधारा पर खड़ी है. बाबासाहब के नामपर काफी लोग मलाई खाना चाहते है मगर उनके आरपिआय का कार्य करने से कतराते रहे है.

रामविलास पासवान भी जातियों के नामपर वोट बटोरते रहे है जो बामसेफ के विचारों से प्रभावित होकर राजनीती मे कार्य करना सुरु किया, कांशीराम ने उन्हें उचित तवज्जो न देने के कारण वे भी अलग ढंग से कार्य सुरु किया. मगर अब भी वे "आरपीआय" से काफी दूर है. 

इससे यह स्पष्ट है की बामसेफ सामाजिक परिवर्तन के नामपर जनता से चंदा वसूल कर रही थी मगर समाज परिवर्तन कुछ भी नही किया है, अगर किया होता तो ५० साल मे भारत से जातिप्रथा का अन्त हुआ होता. बामसेफ यह देश मे जनता को गुमराह करने का कार्य करती है.

कांशीराम, मायावती, वामन मेश्राम, रामविलास पासवान, उदित राज, विजय मानकर और मराठा सेवा संघ के पुरुषोत्तम खेडेकर यह गैर-आर.पी.आय. के लोग नही है? जो बाबासाहब के आर.पी.आय. से भी पंगा लेने पर उतारू थे और है.

क्या आधे हिंदु और आधे बुद्धिस्ट विचारधारा को अपनानाने वाले लोग बाबासाहब के धम्म विचारों का प्रचार करने के हक़दार है? क्या वे केवल राजनीती के लिए धम्म विचारों की भी क़ुरबानी नही दे पाएंगे? क्या ऐसे स्वार्थी लोगों से अम्बेडकरी स्वप्न्पुर्ती की अपेक्षा पूरी होगी?


इस संघटन का अम्बेडकरी विचारधाराओ पर भरोसा नही है, अगर उनका भरोसा होता तो वे बाबासाहब के धम्म आंदोलन और पूना समझौतों को बेबुनियादी नही कहे होते, यह लोग बाबासाहब को कन्फुज व्यक्ति भी कहने को आगे पिच नही देख रहे है. 

मेरा यह निश्चित मत है की बामसेफ और बीएसपी हिन्दुधर्म के सिद्धांतों पर कार्य कर रहे है, जो जाती, वर्ण, वंश को पुनर्जीवित करना चाहते है, उन्हें बाबासाहब का नाम लेना नही है, उन्हें जयभीम कहने को शर्म लगती है इसलिए वे जय-मूल्निवाशी कहने लगे है. मुलनिवाशी संकल्पना भी बाबासाहब के विचारों से कोसो दूर है, 

बुद्धिजीवी लोगों ने इन सब बातों का विचार करके देश मे शान्ति के लिय कार्य करना चाहिए. जो लोग बाबासाहब को अपना मार्गदर्शक मानते है, वे बाबासाहब के राजकीय पार्टी मे काम करने से क्यों कतराते है? मुह मे भीम और बगल मे छुरी.

जाती जैसा ही वंश है जो भेदभाव करते है और करवाते है, जातिया जातियों से नहीं मिट सकती, वंशवाद यह वंशवाद से नहीं मिट शकता, तलवार का मुकाबला तलवार से नही हो सकता, नफरत को नफरत से नही जित सकते, नफरत को प्रार और बुद्धिसे ही जीता जा सकता है. हिंदुओं को यह बाते समझाए तो वे समझ सकते है, मगर नफरत के साथ समझाया जाए तो कदापि जाती/वर्ण/वंश नही मिट पायेगा, प्रयास करनेवाले मिट जायेंगे पर यह भेदभाव नहीं मिटेगा. || वैर जिन्कावे प्रेमाने, युद्धाने वाढते युद्ध ||

Poona agreement: Memorial Day

"Poona agreement: Memorial Day" should be observed by the name of the Mumbai date - 29/9/1934 Babasaheb Ambedkar to the untouchables, where nearly two thousand years this land was considered not as an integral part of understanding. Deferment of any political or social work Bichar never been untouchable ..

1932 "Round Table Council" untouchables in the Indian state's representative to attend the event, the actors got a call from the beginning of time has changed, so I understand. The first Indian history who never pray, in the Muslim kings who could not, could not be hurt Hindvi self what you have missed in the 20th century.

Without the spirit and hopes of untouchables included the "Decision" Rajkrtaon thought it would be incomplete. Not only that "the decision on" true democracy Adishtit state institution can not receive the form. This understanding and the reason he did the British Rajykrtaon untouchables representative of the "Round Table Council" made the call.

Never met a representative of untouchables in the history of "equality" of high society deems to be given equal value. Untouchables in India's interest lies in the interest of full respect of their rights to self-preservation without Ashanbv Desha has developed.

It made the people understand this phenomenon and the other castes of the country with representatives of other folks got a chance to make a career. The reversal of the "Manu" remains a strong foundation for your Bvishykalin history started on your representative.

5 in pen by the British government - Jation understanding of the fight due to not solve ethnic "decision" was necessary to the government. "Nations in any sense .... then surely the government will accept the agreement.

Pune and the settlement agreement is the agreement the government agreed a hundred percent. Pune agreement Gandhi - Ambedkar agreement being signed, but it's wrong because it is not M.K. Gandhi.

Gandhi, leader of the Hindus can not be said. Pandit Madan Mohan Malviya is the true leader of Hindus and those led by the Hindu leaders in India as all of the current agreement, so the agreement is the first sign of Pandit Madan Mohan Malviya. The agreement Hindu untouchables Untouchables cruel existence of the state was forced to Kbul. The "re-negotiate" the Acutonne his "official day" should coax.

Rights from the agreement to put in or not? Considering the need to stay on the subject .... The parents Iktta - Jadaon ऐyyashi the field, wishes to leave, I will show myself to even exist in the heart should be. (Reference - public speech translation -17/07/1936)

छीन लेना ही बलात्कार है!






छीन लेना ही बलात्कार है. हर चीज चिनकर नही ली जाती है, मांगना कोई चोरी नही, जिसे हम बुरा कह सकते है. छीन कर लेना गुंडा गर्दी है, जो हम नही करना चाहते और न किसी ने करना चाहिए. जो चिज मांगकर ही मिल सकती है उसे पाने के लिए छिनने की बाते हम क्यों करे? 



छीन लेना यह जनतांत्रिक तानाशाही विचार है. आज जो सत्ता में बैठे है तो हम जनतंत्र के साथ तानाशाही से पेश आना चाहते है, अगर कल हमारे होतो में शासन होने पर दुसरे भी छिनने का तानाशाही कदम उठा सकते है.



छिनने के तानाशाही रवय्ये को छोड़कर मांगने के जनतांत्रिक रास्तो का ही कदम अपनाते रहना सही है. जो चीज मांगकर ही नही मिलती और देनेवाले घमंडी अन्याय करने पर तुले होते है तभी ही हमने बगावत करना चाहिए. जनतंत्र में ज्यादा लोगों ने अपनी मांग सरकार के सामने रही तो वह आज नही तो कल जरुर पूरी होगी. उसके लिए जरुरी होता है की हम उस मांग का पीछा कितने समय तक करते रहते है.


हर मांग के लिए पर्याप्त समय और प्रयास की जरुरी होती है. उसकी अगर पूर्ति हो जाए तो कोई भी मांग अधूरी नही रह सकती, वह जरुर पूरी होगी. दुनिया में ऐसा कोई कार्य नही है की जिसके कारणों की पर्याप्त समय में पूर्ति करने के बाद भी वह पूरा नही हो सकता. इसलिए सर्वागीण हितो की मांग करो, उसके लिए उचित समय दो, प्रयास हमेशा जारी रखो तो "मांग" के ही जनतांत्रिक रास्तो से मांग पूरी होगी.

सुशिक्षित लोकांची बौद्धिक दिवाळखोरी

त्यनारायण गोयनका हे हिंदू आहेत आणि त्यांनी जो धम्मावर मार्गदर्शन करण्याचा सपाटा चालविला आहे तो किती प्रमाणात विश्वासपूर्ण आहे? या गोष्टींचा आंबेडकरी जनतेने गंभीरतेने विचार करण्याची गरज आहे. ते बुद्ध विचारात भ्रम निर्माण करणारे भाष्य करीत आहेत. त्यांचे खंडण करण्याची जबाबदारी उच्च शिक्षित आंबेडकरी जनतेची आहे मात्र ती पार पाडण्याऐवजी त्यांचे हस्तक बनून कार्य करीत आहेत. ही फार चिंतेची बाब आहे.

 “शाम तागडे” (“I am an IAS officer of 1991 batch. I graduated in Mechanical Engineering in 1986 from VNIT Nagpur. Since 1999 I am actively involved in the practice and propagation of Buddha Dhamma. My book BUDDHA DHAMMA MISSION OF BODHISATTA AMBEDKAR was published in 2004. It has since been translated in Marathi and Telugu languages. My Marathi book BODHISATTVA AMBEDKARANCHI DHAMMASANKALPANA: VIPARYASA ANI VASTAVA was published in 2007. I am inspiring people for the practice of eight precepts and eightfold path as taught by the Buddha.”- Shyam Tagde). 


हे बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या कृपेने मोठे झाले आणि सत्यनारायण गोयनका सारख्या यांच्या कट्टर हिंदू सोबत एकनिष्ठ होवून कार्य करण्यासाठी लेखणी झिजवित आहेत. ही बाब म्हणजे आंबेडकरी आंदोलनाला बोथड करण्याचे कार्य असून ते कुठेतरी थांबायला हवे. ब्रह्म देशातील बौद्धधर्म म्हणजे “महायानी” अर्थात हिंदुधर्मच आहे आणि डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर यांनी दिलेला “नवयान” बुद्धधम्म यात खूप फरक आहे. हे मला नव्याने समजावून सांगण्याची गरज नाही. 


बघा, “एप्रिल १९९९ मध्ये श्री सत्यनारायण गोयनका यांनी लिहिलेल्या लेखाचा भाग : मी सयागी उ.बा.खिन यांना पहिल्यांदा भेटलो बुद्धाच्या शिकवणी विषयी माझ्या मनात असलेले पूर्वग्रह आणि स्वत:च्या धर्माविषयी मोठी आसक्ती ठेऊन मी त्यांना भेटायला गेलो होतो. मी स्थानिक भारतीय हिंदू समाजाचा नेता आहे. हे सायागींना माहित होते....त्यांना मी हिंदू असल्याची कोणतीही अडचण नव्हती.” (संदर्भ- बोधिसत्व आंबेडकरांची धम्म संकल्पना : विपर्यास आणि वास्तव – शाम तागडे; पृष्ठ– ४०)

कांग्रेस ने ही भारत में “नक्षलवाद” फैलाया!


भारत को आझादी मिली, उसमे हमे सत्ता और संपत्ती मिली. उसका राष्ट्रीयकरण करणे के बजाए तत्कालीन कान्ग्रेसी नेताओ ने उसका निजीकरण किया. हिंदूधर्म के वर्ण व्यवस्था से जो लोग व...िषमता के जालमे फंस चुके थे, उन्हें बहार निकलने के बजाए भारतीय संविधान के "धारा- ३१" के जरिए कायम, मजबूती दी गयी. वर्णवादी अर्थव्यवस्था को भारत में गधा गया, जिसे बाबासाहब आंबेडकर नहीं चाहते थे, उन्होंने उसका विरोध भी किया, पर उनके साथ हमेशा अल्पमत रहा था. जिस धारा को बाबासाहब ने काली धारा के रूप में नवाजा था वह "धारा- ३१" ही थी. यह धारा संविधान में होने से गरीब और आमिर ऐसे दो हिस्से भारत में बने. गरीबों को मजबूरन स्थिथि में लाया गया, नक्शलवाद के लिए गरीब भूमि ही फलने फूलने के लिए चाहिए थी जिसे कांग्रेस ने टायर की थी. जिसका नतीजा १९६७ से अर्थात ४६ साल से भारत में नक्शलवाद गरीबों को ख़त्म कर रहा है. 

राजकीय नेताओं को जो कार्य संविधान के माध्यम से संभव नही वह कार्य उन्होंने नक्शलवादियों के जरिए पूरा करने का कार्य किया है. गरीब सिर्फ अनुयायी है, मगर उनके नेता तो उच्च जातियों के ही है, अम्बेडकरी विचारों से गरीबों को अलिप्त रखने के लिए नक्षलवाद का सहारा लिया गया, जो हिंसा का रास्ता है, जनतंत्र के लिए घातक है. भारत में गरीब केवल आदिवासी लोग ही नही है, जो हिंसा का रास्ता अपना चुके है, जनता से ज्यादा सर्कार जिम्मेदार है जो गरीबों को "एक व्यक्ति, एक मत" के साथ "एक व्यक्ति, एक मूल्य" अर्थात "आर्थिक जनतंत्र को लागु करने में आगे नयी आयीं. भारत के बहुतांश ८०% लोग बढ़ते हुए महंगाई के साथ कैसे क्या जंग लाध सकते है? 

मरता क्या नहीं करता? वह अपनी पे आया तो कुछ भी कर सकता है यह छातिसगढ़ के नक्शली हमले से साबित ही हो चूका, बिचारे कही निरपराध लोगों के जीवन को न्यौछावर होना पड़ा. नक्षलवाद के बिज कांग्रेस के गलत नीतियों के कारन भारत के भूमि में गिरे जिसका नतीजा बेकसूर भारतियों को भुगतना पढ़ रहा है. बाबासाहब आंबेडकर के आर्थिक विचारों की और नजर अंदाज करने का नतीजा ही भारत में नक्षलवाद फल फुल रहा है, इसके लिए कांग्रेस पार्टी सर्वथा जिम्मेवार है, नक्शलवाद ही नही तो आतंकवाद, बेकारी, कुपोषण, भ्रष्टाचार आदि राष्ट्रिय समश्याओं को निर्माण करने के लिए कांग्रेस की गलत निति ही जिम्मेदार है, उनके नीतिओं का मूल्यमापन करना चाहिए और गलत नीतियों को लागु करने के कारन उनपर मुकदमा चलन चाहिए.



सन १९६७ से भारत में नक्षलवाद फ़ैल रहा है, फिर भी कांग्रेस ने उनके साथ सही ढंग से नहीं निपटा उसका यह प्रतिफल है की भारत में हमारे ही देश के कुछ गरीब लोग हमारे ही जनतंत्र के दुश्मन बने है. नक्षलवाद यह आतंकवाद है, हमारे घर में जब हमारे बच्चे जब आतंकी होते है तब हम उनसे किस ढंग से पेश आते? ठीक उसी ढंग से किसी भी आतंकी लोगों से निपटा जा सकता है. पर हम हमारे ही बच्चों ने कुछ गलत कार्य किया तो उन्हें बन्दुक का दर बताकर उनसे नहीं निपटते. पर भारतीय सर्कार ने नक्शालियों के मांगों की ओर नजरंदाज करके बंदूकों के सहारे उसे मिठाने के जो कदम अख्तियार किये उससे देश में "पूंजीवाद" फैला और सामान्य गरीब और भी गरीब होते गया. जबतक गरीब लोग देश से नफरत के बजाय प्यार नहीं करेंगे तबतक देश का "राजकीय जनतंत्र" कभी भी सुरक्षित नहीं रह सकता. 

राजकीय जनतंत्र को कायम करने के लिए "राजकीय जनतंत्र" को शिग्र-ती-शिग्र लागु करने की जरुरत है. आर्थिक जनतंत्र ही नक्षलवाद को देश से समाप्त करने का जनतांत्रिक रास्ता है. खाजगी संपत्ति का मोह छोड़कर हमने अब "राष्ट्रीयकरण" को महत्त्व देना जरुरी है. देश में भूमि सुद्धर के नामपर खेती का निजीकरण करना कोई सही कार्य नहीं है. देश के सभी जमी, उद्धोग और बिमा का राष्ट्रीयकरण ही देश होटों का सही राष्ट है. अन्यथा देश में हमेशा निजी संपत्ति अधिक से अधिक बनाने के चक्कर में भ्रष्टाचार, आतंकवाद, नक्षलवाद, गरीबी, भुकमरी, कुपोषण और बेरोजगार की समश्याए हमेशा सर्कार का पिछा करते रहेगी, और देश में सर्कार, देश तथा जनतंत्र के खिलाफ असंतोष बढ़ते जाएगा. यह सिर्फ गरीबों के ही अहितों में नही तो अमीरों के भी अहितों में रहेगा.

सत्ता का खेल

जिन्हें जाती/वंशवादी विचारधारा से प्रेरणा मिली है वे आम्बेडकरिज्म को जानने के काबिल नही है, ऐसे ही एक महागर्विष्ठ व्यक्ति विजय मानकर का कहना है जो बहुत हास्यास्पद है, वह यह है,"अम्बेडकराईट लोग कभी फेल नही हो सकते. 'आम्बेडकराईट नेतृत्व' से अच्छा नेतृत्व देश और दुनिया मे नही हो सकता. अब २१ वी सदी यह 'आम्बेडकराईट्स' की और "आम्बेडकरिज्म" की होगी". 


आम्बेडकरी विचारधाराम जाती/धर्म/वर्ण/वर्ग/भाषा/वंश और लिंग के आधारपर भेदभाव को नही मानता. फिर भी कुछ लोग जनता को गुमराह करने के लिए बाबासाहब अम्बेडकर को ही जाती/वर्ण/वंश वादी सिद्ध करने पर तुले है, उनके बुद्धी पर बढ़ी हंशी आती है. बाबासाहब ने ब्राह्मण और ब्राह्मणी विचारों मे भेद किया और भेदभावपूर्ण विचारों का डटकर आलोचना की थी, मगर यह जातिवादी लोग व्यक्ति विरोध के लिए संघटन चला रहे है और ब्राह्मणवाद को मदत कर रहे है.

क्या जो लोग आम्बेडकरी है वह कभी फेल नही हुए है? खापर्डे, कांशीराम, मायावती और उनकी बामसेफ/बीएसपी क्या पास हुयी है? अगर वे आम्बेडकरी होने का दावा करने पर भी फेल हुए नही होते तो वामन मेश्राम को "भारत मुक्ति मोर्चा" और विजय मानकर को "AIMBSCS" बनाने की क्या जरुरत होती? 

आठवले, कवाडे, खोब्रागडे, गवई और प्रकास यह सब मिलकर आर.पी.आय. को जित दिलाने मे कामयाब नही हुए है, तो हम कैसे माने की विजय मानकर का कथन सही है? जो लोग धम्म के आधार पर अपना संघटन बनाने के बजाए धर्म/जाती/वंश के आधारपर बनाते है वे आम्बेडकरी विचारवंत कैसे हो सकते?
जनता को बाबासाहब के नामपर गुमराह करना और अपनी राजनीती चलाना यह आजकी फैसन है जिसके शिकार काफी अम्बेडकरी जनता हुयी है जिसमे विजय मानकर भी है.

"लोका सांगे ब्रह्म ज्ञान, आपण असे कोरडे पाशान" ऐसी मराठी में कहावत है. बाबासाहाब का आंदोलन चलाने के बजाए जो खुद का आंदोलन चलाते है वह छद्म अम्बेडकरी है. जनता ने ऐसे छद्म नेताओं को पहचान ने की काबिलियत निर्माण करना जरुरी है, अन्यथा आर्थिक रूप से जो प्रताड़ित हुआ वर्ग है वह हमेशा पछताते रहेगा.

डॉ. अम्बेडकर और उनका मिशन


बाबासाहब का जन्म भारत के एक अछुत समझे जानेवाले “महार” नामक जाती में हुआ. जाती व्यवस्था हिन्दू धर्म की उपज रही. हिन्दू का मतलब भले ही “हिन” हो, पर उसके हिन होने के अन्य कुछ कारण है, उसमे पहला कारण है, वह कुछ लोगों को मानवीय अधिकार देने से इंकार करता है, जैसे की अस्पृश्य जातियों को. जो अवर्ण जातियों का एक हिस्सा है. दूसरा की कुछ लोगों को मानवीय अधिकार तो बहाल किया जाता है, पर वह जन्म के आधार पर, बुद्धि के आधार पर नहीं. जिस जाती, वर्ग के परिवार में जन्म हुआ उनकी जात ही उसे मिलती है, व्यक्ति चाहकर भी दुसरे जाती में नही जा सकता. जिसे जनतंत्र नही कहा जा सकता. क्योंकि उसमे न न्याय है, न आझादी है, न समता है और न भाईचारा है. व्यकी का जिस जाती में जन्म होगा, उसे उसी जाती में मरना है. अगर वह जाती नीच है, तो उसे नीच ही समझा जाएगा. यह “वर्ण” के आधार पर तय होता है. जन्म आधारित वर्ग ही वर्ण है. तीसरा कारण जन्म के आधारपर अन्याय, गुलामी, विषमता और तिरस्कार निर्भर होता है. 

जो सबसे ऊँचे जाती के परिवार में पैदा हुआ है, उसे उस जाती के अनुसार अन्याय, गुलामी, विषमता और तिरस्कार फ़ैलाने का अधिकार है. कहा जाता रहा है की वर्ण व्यवस्था ईश्वर, परमात्मा, भगवानने बनाई है, जिसने मानव और पुरे विश्व को बनाया. उनके बनाने में कोई दोष नहीं है. उसपर जीवनयापन किया जाए तो जीवन सुखदायी होगा. लेकिन इसे ईश्वर ने कब बनाई? क्या ईश्वर को संस्कृत भाषा आती थी जिसमे वेद, पुराण, ब्राह्मन्य, रामायण, महाभारत तथा मनुस्मृति नामक हिन्दू ग्रन्थ लिखे गए है? इन सभी ग्रंथो में वर्णव्यव्यस्था को उछाला है, सत्कार किया है, प्रसंशा और पालन हुआ है.

जाती जन्म की देन है. जन्म परिवार में होता है. परिवार में स्त्री और पुरुष का होना तय है. दोनों की शादी होना जरुरी है. वह चाहे स्वयंवर पद्धति से हो, या चुनाव के तौर पर हो. पर स्त्री को शादी के बाद "कन्यादान" किया जाता है. बाप, भाई या अन्य व्यक्ति कन्या को पुरुष के लिए दान किया जाता है, और स्त्री उसे मान्यता देती है. धन को मालिक जिस ढंग से, अपने मन मर्जी से प्रयोग में लाता है. जब चाहे उसे बेच भी सकता है, उसी ढंग से भारतीय स्त्री की साथ व्यवहार हुआ है. उसे भी परिवार में अवर्ण में ही जगह मिली है. "शुद्र, पशु और नारी, यह सब ताडन के अधिकारी" इस प्रकार शुद्र (और अतिशूद्र) तथा भारत के हिन्दू धर्मीय स्त्री वर्ग (चाहे वह फिर किसी भी वर्ण/ वर्ग की हो) उसे जानवर के जैसा पिटा जा सकता है. क्या हिन्दू धर्म की वर्ण, जाती व्यवस्था शुद्र, अतिशूद्र, भटके, एनटी, आदिवाशी (वनवाशी) तथा भारतीय हिन्दू धर्मीय स्त्रीयों को न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारा प्राप्त है? क्या उन्हें जनतंत्र के नैतीक मूल्यों के अनुसार आचरण मरने की आझादी हिन्दू धर्म ने दी है? 

हिन्दू धर्म जाती व्यवस्था पर टिका है, जातीयों को वर्ण व्यवस्था के सभी नियम लागु है. वर्ण व्यवस्था परिवार पर निर्भर है, परिवार व्यक्ति पर निर्भर है, व्यक्ति में पुरुष को महान कहा गया है और स्त्रीयों को धन, माया. पुरुष प्रधान समाज व्यवस्था में स्त्री गुलाम है, जैसे जानवर गुलाम होते है. शुद्र भी गुलाम है. व्यक्ति जिस परिवार में जन्मा उस परिवार की जाती शुद्रों को प्राप्त होता है, जो उनके लिए अन्यायकारी है. वैसे ही जिस परिवार का समाज समझा जाता उसमे स्त्रीयों को व्यक्ति, मानव नही, तो “धन” समझा गया है. उस धर्म के निति, नियम, आचार, पूजापाठ, देव, देवी, ईश्वरी विचार धारण करना, क्या अन्याय को बढ़ावा देना नहीं है? क्या यह जनतंत्र की हत्या करना नहीं है? स्त्रीयों को आर्थिक और राजकीय गुलामी से भले ही मुक्त किया जाएगा, पर वह परिवार से तो मुक्त नही होगी. परिवार में वह सौतेले व्यवहार की हमेशा शिकार रही है? जो जनतांत्रिक विचारों की शिकार है, उसकी मुक्ति कैसे संभव है? जिस परिवार में वह समता के लिए संघर्ष करना चाहती है. पुरुष उन्हें उनके मानवीय अधिकार बहाल करना नहीं चाहते, क्योंकि वे जातिवादी और वर्णवादी है, ऐसे परिस्थिति में वह "शादी" को स्वीकारती है? शादी के त्यौहारों में उसे “धन” (निर्जीव) का दर्जा दिया है. अगर वह खुद को धन नही, इन्सान, व्यक्ति मानव के रूप में देखती है, तो उसने परिवार की कल्पना, लालच क्यों करनी चाहिए?

क्या परिवार में औलाद के कोई मालिक होते है? अगर उसके पालक होते है, तो वे अपने अवलादों के साथ मालिक जैसा व्यवहार करके उसपर “शादी” क्यों थोंपते? स्त्री-पुरुष की परस्पर चाहत ही मैत्री है. जबतक चाहत है तबतक मैत्री है. चाहत नहीं, तो मैत्री क्यों? शादी यह जन्म- जन्मान्तर के बंधन कैसे है? परस्पर व्यवहार में खटास पैदा होनेपर भी उसे ढोना और ढोना नही हुआ तो दहेज़ की मांग करना, दहेज़ देना नही हुआ, तो जनतांत्रिक मूल्यों को चोंट पहुँचाना कितने प्रतिशत उचित है? गुनाह करनेवाले जितने दोषी है, उतने ही उसे बर्दास्त करनेवाले भी होते है, इस दृष्टी से देखा जाए, तो स्त्रियाँ भी जनतंत्र की अवहेलना करते रही है, फिर उसे जनतंत्र की मांग करने को कोनसा नैतिक अधिकार है? तथा जो लोग जाती के नामपर सौवलते लेना चाहते है, तो वे जातिविरोधी कैसे? जो जातियों को बढ़ावा देते है, वे जनतांत्रिक कैसे? जाती तो भेदभाव करती है. एक व्यक्ति दुसरे व्यक्ति का जाती के नामपर शोषण करता है, फिर वह योनिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक, राजकीय हो या आर्थिक, तबतक उन्हें जनतांत्रिक अधिकार कैसे मिलेंगे? 

बाबासाहब आंबेडकर जातिगत कोई भी लाभ लेने-देने के पक्ष में नही थे. उन्हें तो समाज के सभी अंगों में जनतंत्र ही चाहिए था. वह मिला सिर्फ राजकीय, पर उससे बाबासाहब संतुष्ट नही थे. उन्हें आदर्श, “आर्थिक जनतंत्र” की जरूरत थी. क्या हिन्दुधर्म के अनुसार जो लोग शुद्र और नारी के वर्ग में आते है, वे सब अम्बेडकरी दृष्टी से, “आदर्श जनतंत्र” पाना चाहते है? अगर उन्हें उसकी जरूरत है, तो उसने जातियों के नामपर दिए गए सभी सौवलते क्यों नही त्यागना चाहिए? परिवार में स्त्रियों को सम्मान नही मिलता हो तो उन्होंने पारिवारिक जीवन क्यों नही त्यागना चाहिए? पशुपक्षी में शादी, ब्याह नही होते, फिर भी उनके संताने बढती है या नहीं? व्यक्ति पर समाज की इच्छा क्यों थोंपनी चाहिए? जिस भारतीय हिन्दू परिवार को जाती का सिख्खा लगा है, वह परिवार जनतांत्रिक कैसे हो सकता? जो परिवार जनतांत्रिक नही है, उसका समाज जनतांत्रिक कैसे हो सकता? जो समाज जनतांत्रिक नही, जातिवादी, वर्णवादी है, उसमे न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारा कैसे हो सकता? जो समाज जातिवादी है, उसका देश जनतांत्रिक है, ऐसा कौन बुद्धिजीवी व्यक्ति कहेगा?

बाबासाहब आंबेडकर भारतीय “जातियों का उच्छेद” चाहते थे, इसलिए उन्होंने "एनिहिलेशन ऑफ़ कास्ट" ग्रन्थ लेखन कर सन १९३६ में भी उनके खिलाफ बगावत सुरु की. जाती के आधारपर अचुतों के साथ जो भेदभाव किया जाता था, उसका उन्होंने विरोध किया. “गोलमेज परिषद” में जातिविरोधी भुमिका ली और जातिगत किसी सवलतों आग्रह करने के बजाए पुरे भारतियों के सुखों के लिए “राजकीय तथा आर्थिक जनतंत्र” की मांग की. उसके पहले “सायमन कमीशन” के सामने भी उन्होंने संयुक्त भारत की वकालत की थी, जिसमे राजकीय तथा आर्थिक जनतंत्र की ही उनकी मांग थी, जिसमे सभी जातियों के लोगों को अपना हितैशी उमेदवार चुनने का अधिकार हो. 

जातिगत आरक्षण पाना यह बाबासाहब का उद्धेश नहीं था, वह मज़बूरी में सवर्ण हिन्दुओं ने किया परिणाम था. जातियों के दुष्परिणामों को धोने के लिए सवर्ण हिन्दू नेताओं ने मज़बूरी में वह दिया है, जो पर्याप्त और अनुचित नही था. इसलिए बाबासाहबने भारतीय संविधान में आर्थिक जनतंत्र सम्मिलित करना चाहते थे. उसके लिए उनका अंतिम समयतक प्रयास रहा. मात्र कांग्रेस ने भारतीय संविधान में "धारा-३१" को सम्मिलित कर बाबासाहब के “आर्थिक जनतंत्र” के सपने पर पानी फेर दिया. बाबासाहब को पूरा पता था, की पुना समझौते में सवर्ण हिन्दू नेताओं ने दिया हुआ जातिगत राजनैतिक आरक्षण भारतीय संविधान लागु होने के बाद केवल १० साल में ही ख़त्म होनेवाला है. जातिगत आरक्षण यह जनतंत्र के लिए हानिकारक है. उसके बजाए "आर्थिक जनतंत्र" असीमित समय के लिए होगा. न की उन्होंने जातियों के अनुपात में आर्थिक सुविधाओं की मांग की थी. उससे जातियों के परिणाम भी सफा होने थे तथा जाती भी. इतनाही नहीं तो सभी वर्ग, वर्ण की स्त्रीया भी आझाद हुयी होती.

बाबासाहब की जय-जयकार करने वाले अम्बेडकरीभक्त, बाबासाहब के उद्धेश को नही जान पाए, जिन्होंने जाना भी होगा उन्होंने उसपर अमल नहीं किया. वे कार्य को कारण समज बैठे और कारण को कार्य. हेतु को भुले और उनके परिणामों को ही हेतु समज बैठे. अम्बेडकरीभक्त लोग परिणामों को साध्य, उद्धेश समझकर उनके प्राप्ति के लिए समय, संपत्ति और बुद्धि बर्बाद कर बैठे. जातिगत आरक्षण यह परिणाम, हेतु था. सभी भारतियों के लिए “राजकीय जनतंत्र के अंतर्गत ही आर्थिक जनतंत्र” की कायम स्वरूपी बहाली करना ही उनका उद्धेश, ध्येय था. भारतीय अछूत जातियों के सरकारी कर्मचारी और सभी भारतीय सक्षम स्त्रीयों ने बाबासाहब को धोका दिया. वे अपने और अपने परिवार को ही अम्बेडकरी समाज क्रांति समझ बैठे. "भीम नाम जपना और पराया धन अपना" समजकर ९०% भारतीय गरीब, शोषित, पीड़ित लोगों का शोषण करते रहे. वे जातीअंत अर्थात आदर्श “आर्थिक जनतंत्र” के अम्बेडकरी मिशन को जातिवादी वना बैठे. क्या वे बुद्धिजीवी थे/है? क्या वे इमानदार थे/है? क्या वे जनतांत्रिक थे/है?

बाबासाहब की जयजयकार करने के बजाए उनके "आर्थिक जनतंत्र" के उद्धेश को पाने के लिए सभी "जयभीम"वाले लोगों ने संघर्ष करना चाहिए, न की उनके "नाम" के लिए, न की उनके "स्मारक" के लिए, न की “जातिगत आरक्षण” के लिए. याद रखे, बाबासाहब खुद के नामों की जयजयकार नहीं चाहते थे, वे तो पुरे भारत के सभी लोगों के जीवन में सुख और चमन चाहते थे, जो "आर्थिक जनतंत्र" के शिवाय संभव नही था. धम्म स्वीकार करना भी यह उनका उद्धेश नही था, धम्म यह एक मार्ग, साधन है जो साध्य तक पहुंचाता है. उनका उद्धेश सिर्फ आदर्श “आर्थिक जनतंत्र” बहाल करना था, धम्म केवल एक महान साधन है, साध्य नही. जो लोग बाबासाहब की केवल जय जयकार करते रहे उन्हें, मूर्तिपूजक, व्यक्तिपुजक रहे, वे बाबासाहब को सर्वांगीन ढंग से नहीं समझे. वे उनके उद्धेश पूर्ति के लिए कार्य कैसे कर सकते? महापुरुष गौतम बुद्ध का भी उद्धेश लोगों को धम्म देना नहीं था, बल्कि “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” के जरिए/बाद मे "सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय" ही करना था. यह निरन्तर सुख प्राप्ति का लक्ष पाना अगर कार्ल मार्क्स के "साम्यवाद" से संभव होता, तो उन्हें धम्म स्वीकार करने की जरुरत ही नही थी. साम्यवाद जनतंत्र के खिलाफ है, वह गुलामों, पीड़ितों की तानाशाही समाज में कायम करना चाहती है, जो दुसरे कुछ लोगों के लिए यानि पूंजीपति लोगों के लिए कष्टदायी है, उनके आझादी पर हमला करता है, यही सोच के साथ बाबासाहबने "साम्यवाद" को नकारा ही नही तो उनका डटकर मुकाबला, विरोध करने का सन्देश भी दिया है.

अगर बुद्धधम्म भी भारतीय लोगों को "आर्थिक जनतंत्र" बहाली का माध्यम, साधन, साबित नही होगा, तो उसे शोषित-पीड़ित जनता के जरिए नकारा जायेगा. हिन्दुधर्म को नकारने का उनका उद्धेश क्या था? जनतांत्रिक मूल्यों का अभाव ही था ना! भारत में "आर्थिक जनतंत्र" का अभाव यह जाती व्यवस्था का विपरीत, अनिष्ट, अनुचित परिणाम है. जाती व्यवस्था को हटाने से उनके परिणाम नही हटेंगे. उनके विषमतामय परिणामों को हटाने के लिए "आर्थिक जनतंत्र" की बहाली सर्वोत्तम उपाय है. उसके बहाली के लिए सतत संघर्ष करना ही "सच्चे अम्बेडकरी अनुयानी" होने का सबुत होगा. केवल जयभीम, जयभीम कहना और उनके उद्धेशों की ओर नजर अंदाज करना, बेईमानी है. इसी ढंग की बेईमानी अबतक बामसेफ, बीएसपी और तत्सम जातिवादी संघटनोंने की है. इसलिए भारत में सुख और अमन नही आ पाया. बाबासाहब के उद्धेशपुर्ती विरोध के लिए जितने जिम्मेवार कांग्रेस, बीजेपी, शिवसेना जैसे राजकीय, धार्मिक हिन्दू संघटन जबाबदार है, उसी तरह आंबेडकरभक्त संघटना भी जबाबदार है. अपनी जबाबदारी निभाना ही सही अम्बेडकरी होने का सबूत होगा. यही उनकी बाबासाहब के प्रति सही श्रद्धांजलि होगी. (साभार - आर्थिक जनतंत्र जनांदोलन)

भ्रमित टिव्ही मिडिया

नागपुर से (१) लार्ड बुद्ध, (२) महाबोधी और (३) आवाज इण्डिया ऐसी ३ टिव्ही चैनल चालू हुयी है, बुद्ध आंबेडकर के नामपर हिन्दुधर्म के विचारों का प्रचार करती है, क्या खाख आंबेडकर साहब का सपना साकार करेगी? समाज से धन बटोरने के काम को कोई धम्म प्रचार कह सकते है? 

क्या महायान या हीनयान पंथ बुद्ध धम्म है? क्या बुद्ध ने त्रैलोक्य महासंघ की शिक्षा दी थी? क्या बुद्ध ने विपस्सना का प्रचार करने का आदेश सत्य नारायण गोयनका को दिया था? क्या बुद्ध ने पंचशील की शिक्षा दी थी? क्या बुद्ध, भगवान या लार्ड थे? जिसे बढ़चढ़कर प्रचारित किया जा रहा है, जिसमे ना वैज्ञानिक विचारधारा है और न जनतंत्र, जिन्हें अम्बेडकर साहब के विचारों के बारे में और उनके उद्धेश के बारे में कुछ भी जानकारी नहीं ऐसे लोग धम्म प्रचार के नामपर भ्रमित करने के शिवाय और क्या करेंगे? 

इलेक्ट्रानिक मिडिया होना अच्छी बात है पर उसका फ़ायदा लेना तो आना चाहिए, बन्दर है पर उसे नचाना तो आना चाहिए? नहीं तो बन्दर हमें नचाए तो हमारे बुद्धि का होने में कोई मतलब है? इन ३ टिव्ही चैनल का बौद्धों को क्या फ़ायदा हुआ? क्या यह टिव्ही देखनेवालों को बुद्धधम्म समझ गया? क्या अब बे खुद धम्म प्रचार कर सकते है? धम्म शिकने के लिए कितना वक्त जरुरी है? क्या उसे समझने के लिए ३ साल लगते है? 

जिस ढंग से इन टिव्ही पर चालू है अगर वैसा ही प्रचार आगे भी चालू रहे तो बुद्धिज़्म को फैलाना तो दूर ही रहा उसे समझ पाना भी मुस्किल होगा. मिडिया दुधारी तलवार है, उसे चलाना आता है तो वह हमें बचाएगा, नही तो हमारी ही मुंडी छाटेगा. अनपढ़ गवार लोग मिडिया को खड़ा कर सकते है पर उसे चलाने, उसका उद्धेश साध्य करने के लिए जीस बुद्धिमत्ता का होना जरुरी है, वह मेरे नजर में अभी तक तो नही है. बौद्ध लोगों ने इन टिव्ही पर प्रचारित विचारों को सही समझने की गलती नही करनी चाहिए, यही मेरी जनता से अपील है.

एक तरफ हिंदुधर्म प्रचारक सत्यनारायण गोयनका का प्रवचन और दूसरी तरफ दीक्षाभूमि पर भीम महोत्सव का आयोजन, यह दोंनो कार्य लार्ड बुद्ध टीवी कर रही है. उन्हें हिन्दुधर्म का प्रचार ही करना है तो अपने टीवी पर करे लेकिन दीक्षाभूमि पर क्यों? एकतरफ राष्ट्रिय स्वयं सेवक संघ के साथ वफ़ादारी तो दूसरी तरफ बुद्ध के साथ मैत्री, यह गोयनका का चरित्र रहा है. जो खुद हिंदु है, क्या वह धम्म प्रचारक भी है? कैसे? लार्ड बुद्ध टीवी वाले बाबासाहब को भी सही कहते और सत्य,नारायण गोयनका को भी सही समजते है जो कभी भी एक विचारों के नही रहे है. क्या यह टीवी धम्म प्रचार करना चाहती है या मजाक करना चाहती है?

आंबेडकरी जनतेवर महायानी प्रभाव


गौतम बुद्धाचे विचार जगातील अनेक देशात वास करीत आहेत, असे अनेक विचारवंताचे मत आहे. परंतु बुद्धाचे नेमके विचार कोणते? ह्या बाबद मतभेद आहेत. महायान व हीनयान या मुख्य दोन संप्रदायांची विचारधारा जगात प्रसिद्ध आहे. या दोन पैकी कोणत्याही संप्रदायांचे समर्थन बाबासाहेब आंबेडकर यांनी केलेले नाही. पण याच संप्रदायांचे भिक्खू भारतात वावरत आहेत. त्यांनी बुद्धगया येथे आपले कार्यालये उभी केलेली आहेत. या कार्यालयाच्या अंतर्गत भारतात ते आप-आपल्या संप्रदायांचा प्रचार करीत आहेत. या भिक्षूंचे प्रमुख लक्ष्य म्हणजे बाबासाहेब आंबेडकर यांनी ज्या महाराष्ट्रातील लोकांना धम्म दीक्षा देवून बौद्ध बनविले आले. त्यांना भ्रमित करून आपल्याकडे ओढण्याचे कार्य चालू आहे.

बौद्ध संप्रदायांच्या माध्यमातूनच त्रि-पिठ्कांची निर्मिती. या भेसळयुक्त मतांच्या ग्रंथांचा पुरावा देवून ते अनीश्वरवादी बुद्धाला ईश्वरवादी अर्थात “भगवान” बनविले. ज्याप्रमाणे हिंदू व इतर धर्माचे लोक ईश्वराची पूजा करून आशीर्वाद मिळवितात तसाच हा प्रकार आहे. या याचे समर्थन करतांना “त्रैलोक्य बौद्ध महासंघ”च्या महायानी महास्थवीर संघरक्षित यांनी “भगवान” या शब्दाची व्याख्या बनविली. त्यांच्या मते “भग = भागवणे” आणि “वान = Want = इच्छा, तृष्णा”. ज्यांनी तृष्णेचा, इच्छेचा समूळ नाईनाट केला तो “भगवान”. यांत प्रश्न येतो कि मराठी, हिंदी, संस्कृत व पाली भाषेत तरी “वान = इच्छा, तृष्णा” असा अर्थ नाही. जर तसा अर्थ नसेल तर बुद्धाला अलौकिक, दैवी, देवासारखा वा त्यापेक्षा ही महान बनविण्याच्या नादात बुद्ध धम्मात “भगवान” अवतरला. 

दुसरा प्रश्न हा निर्माण होतो कि कोणता ही जिवंत व्यक्ती आपल्या संपूर्ण इच्छेचा नाईनाट करू शकतो का? इच्छा ह्या शारीरिक व मानसिक प्रकारच्या आहेत. त्या परस्परावलंबी आहेत. शरीराच्या इच्छा मारल्या, संपवल्या तर मनाच्याही इच्छा संपतात आणि मनाच्या इच्छा संपवल्या तर शरीराच्याही इच्छा संपतात. कोणताही व्यक्ती जिवंतपणी आपल्या संपूर्ण इच्छेचा त्याग, अंत करू शकत नाही. यात त्यांना जिवंत बुद्ध हवा कि मृत हे कळायला मार्ग नाही. एखाद्या व्यक्तीला एवढे मोठे करण्याच्या नादात त्यांनी बुद्धाच्या वैज्ञानिक विचारांची ही तमा बाळगलेली दिसत नाही. 

महायानी भिक्षूंनी बुद्धाच्या राखेला पवित्रतेचा मुलामा लावून त्यावर थडगे उभारले, त्याची पूजा करायला सुरुवात केली आणि कालांतराने बुद्धाच्या मुर्त्या बनवून त्यांची “पूजा” सुरु केली. बुद्धाची व त्यांच्या अस्थींची पूजा करणाऱ्या बौद्धांची परंपरा सुरु झाली. आज दोन्ही संप्रदायांच्या लोकांनी “पूजे”चा अंगीकार आणि प्रचार-प्रसार सुरु केला आहे. त्यातून “बौद्ध पूजा पाठ” नावांच्या भाकड परंपरेची निर्मिती झाली. आज वैज्ञानिक युगात “परित्राण सूत्र पूजापाठा”चा पांढरा धागा, दोरा आंबेडकरी बौद्धांचे रक्षण करीत आहे ! किती ही अदभूत विचारसरणी आहे जिला परंपरेच्या नावाने स्वीकारले जात आहे. ह्या आंधळ्या परंपरेला आजचा वैज्ञानिक वर्ग अंगीकार करतांना दिसतो तेव्हा त्यांच्या वैज्ञानिक धम्माची कीव येते.

गौतम बुद्धाने “अनात्म”वादाचा सिद्धांत मांडून हे सिद्ध केले कि जगात “आत्मा” नाही. तरीही जबरदस्तीने महायानी भिक्षूंनी बुद्धाच्या पूर्वजन्माच्या जन्मकथा, जातककथा रचल्या. पूर्वजन्मात चांगले कार्य केले असेल म्हणून तो या जन्मात सुख उपभोगतो व या जन्मात जो चांगले कार्य करील तो येणाऱ्या जन्मात सुखी होईल त्याच प्रमाणे जो या जन्मात “बोधिसत्व” आहे तो पुढील जन्मी “बुद्ध” होईल. या काल्पनिक विचारांचा परिणाम म्हणजे तिबेट “लामा” (बोधिसत्व) पद्धती. 

बुद्ध होण्यासाठी प्रथम “बोधिसत्व” होणे आवश्यक आहे म्हणजे जो पूर्व जन्मी बोधिसत्व असेल तोच “बुद्ध” होऊ शकतो. बोधिसत्व होण्यासाठी “दहा पारमिता”चे आजन्म पालन करावे लागते असा महायानी समज आहे. बाबासाहेब आंबेडकरांनी या दहा पारामितांचे जीवनभर पालन केले आहे याचा शोध या महायानी भिक्षूंनी १४ आक्टोंबर ते ६ डिसेंबर १९५६ ला केवळ दोन महिन्यात लावला. त्याच शोधाच्या आधारे महायानी भिक्षु बाबासाहेबांना “बोधिसत्व” म्हणायला लागले. ज्या बाबासाहेबांनी आत्म्याचा पुनर्जन्म नाकारला त्यांच्या नावासमोर आत्मवादी संकल्पनेचा पुरस्कार करणारा शब्द लावून त्यांना “हिंदू” बनवून सोडले.

बाबासाहेब आंबेडकर मरण पावले ही बातमी जगाच्या काना-कोपऱ्यात वाऱ्याच्या गतीने पसरली. लोक मुंबईत जमत होती. त्यात महायानी “भदन्त आनंद कौसल्यायन” सुद्धा होते. पाहता पाहता लाखोंची गर्दी जमत होती. हिंदूंच्या दहन घाटावर बाबासाहेबांच्या प्रेताला अग्नी देण्यात आली. त्यातून उरलेल्या राखेवर थडगे उभारले. त्याला महायानी परंपरेत “चैत्य” म्हणतात. चैत्य म्हणजे चितेवर उभारलेली वास्तू, जिथे चेतनेचा अभाव असतो. ते ज्या ठिकाणी उभारले आहेत त्या ठिकाणाला “चैत्यभूमी” (मुर्दा घाट) संबोधल्या जात आहे. तिथे बौद्ध उपासक दरवर्षी मोठ्यासंख्येने जमतात. हा प्रकार अवैज्ञानिक, विचार विरोधक, व्यक्तिवादी आहे.

देवी-देवतांच्या मुर्त्या सुद्धा स्मारकाचेच कार्य करतात. मेलेल्या माणसात दैवत्व शोधून “घे भीमा, जन्म तू, पुन्हा-पुन्हा” म्हणत असतात. हि भावना काय दर्शविते? जागोजागी मेलेल्या लोकांची थडगे यांना “स्मारक” समजून पूजण्याची परंपरा चालू आहे. ही उपासना मागील हजारो वर्षापासून सुरु असून सुद्धा जगातील ९०% मानव समूह दु:खी का? आपण थडग्याच्या उपासनेतून आजवर काय कमावले?

कार्ल मार्क्स हे धर्माला “अफू”ची गोळी समजत होते, ते काही मजाक म्हणून नव्हे. भारतीय महायानी बौद्ध भिक्षु सुद्धा भारतात “अफू”ची पेरणी करण्यात मागे नाहीत, मग ती जमिन बुद्धाची असो कि “बाबासाहेबाची.” त्याचा परिणाम बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या “THE BUDDHA AND HIS DHAMMA” या ग्रंथाचे “भगवान बुद्ध और उनका धर्म” असे चुकीचे हिंदी भाषांतर आहे. 

बाबासाहेब आंबेडकर हे अर्थशास्त्राचे गाढे अभ्यासक होते. कार्ल मार्क्सचा “दास कॅपिटल” त्यांनी वाचला नसेल असे होवूच शकत नाही. म्हणूनच हिंदू धर्म सोडण्याआधी त्यांनी आपल्या ग्रंथात बुद्धाच्या विचारांना “धर्म” म्हणून स्वीकारण्या ऐवजी “धम्म” म्हणून स्वीकारले. धर्मात असलेला अवैज्ञानिक विचार त्यांनी काढून फेकण्यासाठी ईश्वर-आत्मा मानणार नाही व त्यांची उपासना करणार नाही असी सामान्य जनतेला प्रतिज्ञा दिली. लोकांनी ती ऐकली आणि दुसऱ्या कानातून सोडून दिली. 

सामान्य भारतीय जनता बुद्ध-भीम “वंदने”च्या माध्यमातून दु:खीतांचे दु:ख हरण करण्यासाठी वाट पाहत आहेत. ही वैज्ञानिक धम्माची अवैज्ञानिक दुरावस्था महायानी भिखुंच्या सानिन्ध्यातून आंबेडकरी बौद्धांना प्राप्त झाली आहे. व्यक्तिवादी बनण्याऐवजी विचारवादी व केवळ विचारवादी बनण्यापेक्षा कर्तुत्ववादी बनणे अधिक फायदेशीर आहे. शेवटी “हफीज जालंधरी”च्या शब्दांत म्हणावेसे वाटते, ”गल्त समझे यह बुद्धिमान गौतन की बसारत को, बलाए-बुत-प्रस्तीने बर्बाद किया भारत को.”

शुद्र शिवाजी क्षत्रिय कैसे बने?

हिन्दू धर्मात "हिन्दवी स्वराज्य" च्या संस्थापकाची तथा एका हिन्दू राज्याची काय लायकी होती हे बाबासाहेब आंबेडकर यांच्या विचारातून स्पष्ट होते. तर त्यांच्या मावळ्यांची काय किंमत असेल हे यातून मराठ्यांनी लक्षात घ्यावे......


"बंधू आणि भगिनीनो !
शिवाजीचे अष्टप्रधान ब्राह्मण होते. त्यांची कुळकथा निराळी आहे. ते मराठ्यांना जेवायला पंगतीला घेत नसत. शिवाजीने बालाजी आवजीला हे सांगितले. तो म्हणाला तुम्ही राज्याभिषेक करून घेतल्याखेरीज तुमचा दर्जा वाढणार नाही. शेवटी शिवाजीने सांगितले, "काय करायचे असेल ते तुम्हीच करा." मोरोपंत पिंगळे हा मुख्य प्रधान होता. तो म्हणाला, "लेका शुद्रा ! तू आमचा राजा होणार?" त्याने शिवाजीची बेइज्जति केली. शेवटी बालाजी आवजी हा राजपुतान्याकडे गेला. तेथे त्याने शिवाजीची वंशावळ तयार केली आणि काशीहून ब्राह्मण आणून राज्यभिषेक करविला."
                                                    - डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर (भाषण, मुंबई, दिनांक- ८/५/१९५५)

जनतंत्र में धार्मिक आतंकवाद

धुनिक भारत के हिन्दू आतंकवादी..! जो समाज में हिन्दुधर्म के नाम पर आर्थिक विषमता चाहते है. धर्म के आड़ में आर्थिक विषमता का प्रचार करना जनतंत्र के समता मूलक सिद्धांतो की अवहेलना है. यह धार्मिक आतंकवादी है. जनतंत्र के दुश्मन है. आतंकवादी घर में ही पालकर रखना और बहार उसे तलाश करना यह कांग्रेसी हिन्दुधर्म प्यार है. कांग्रेस अगर हिन्दुधर्म के समर्थन में इसके बाद खड़ी रहेगी तो उसका देश से पत्ता कट जाएगा. जनता अब अनाड़ी नही रही, वह सब जानती है. अब आर्थिक शोषण धर्म नही कर सकता, तथा राजनीती से भी नही हो पाएगा. किसी भी प्रकार के विसमता को अब बर्दास्त करने को जनता तयार नही है. अब बगावत सुरु हो चुकी है, विषमता को जाना ही है.