हर व्यक्ति अधिकाधिक सुख पाना चाहता है. उसका उद्धेश भौतिक आवश्यकताओं के अतिरिक्त सम्मान भी पाना होता, मगर वह उसे ही मिलता, जो पहले दूसरों को सम्मान देता. जो देने में... जितना कंजूसी करेगा, उतना ही उसे सम्मान भी कम ही मिलेगा. कोई व्यक्ति सम्मान स्वयं दे रहे, तो कोई ईश्वर द्वारा दिलाने का बहाना बना रहे. बहुसंख्याक लोग सुख-सम्मान पाने के लिए मंदिर-मज्जिद, गिरजाघर में चक्कर लगा रहे.
ईश्वर को कितना भी सम्मान दो वह कभी वापस नही आता, पर ईन्सान को दिया सम्मान वापस जरुर आता. ईन्सान ने इन्सान को सम्मान देने के बजाए ईश्वर को सम्मान दिया तो ईन्सान सम्मान से वंचित रहेंगे. ईश्वर से प्यार करना कोई जरुरी नहीं पर ईन्सान से नफरत बहुत भारी महँगी साबित होगी. जो लोग ईन्सान से नफरत और ईश्वर से प्यार करते है, वे लोग पढ़े-लिखे हो सकते पर वैज्ञानिक सोच का उसमे अभाव जरुर रहा. क्या पत्थर के देवता से प्यार करना वैज्ञानिकता साबित होती?
जर्मनी में सन १८१८ में कार्ल मार्क्स का उदय हुआ. उन्होंने काफी धर्मों का अध्ययन किया, जिसमे ईसाई और मुस्लिम धर्म प्रमुख रहे. उन्होंने अपने अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला की हर ‘धर्म’ के ठेकेदार ईश्वर के जरिए भक्तों का आर्थिक शोषण करने में मदत करते है. उसके पोप, मुल्ला, पंडित आर्थिक विषमता को बढ़ावा देने के लिए स्वर्ग-नरक की लालच या डर बताकर लोगों को वास्तविक जीवन से गुमराह करते रहे. हर धर्म कार्ल मार्क्स के नज़रों में “अफीम” रहा.
सन १८८३ में उनके प्रेरणा से ही रूस (रशिया) में पुरोहितों का मजहबी शोषण और सामंती झारशाही ख़त्म हुयी. आगे चीन का सन १९३६ में ७७% अफीमी (महायानी, हिन्दू) विचारों का खात्मा किया. अभी-अभी युगांडा में “आर्थिक क्रांति” हुयी, जिसमे ‘इदी अमिन’ नामक शासक ने सभी निजी उद्दोगों का राष्ट्रीयकरण किया. अभी सामंती आतंकी गदाफ़ी को गोलियों से भुना व शोषित जनता ने उनके शासन पर धावा बोला.
बाबासाहब आंबेडकरने गोलमेज परिषद् में कहा था, जब भी स्वतंत्र भारत का संविधान बनेगा वह “एक व्यक्ति, एक मत” के साथ “एक व्यक्ति, एक मूल्य” के पायाभूत सिद्धांत पर निर्भर हो, जिससे “आर्थिक जनतंत्र” की बहाली हो, इस क्रान्तिकारी भूमिका का आग्रह किया था. वही उनके जीवन का अंतिम उद्धेश रहा था।
सन १९४६ में भारत का संविधान कैसा हो? इस विषय पर एक “प्रारुप” लिखा, जो बाद में भारतीय कांग्रेसी नेताओं के सामने चर्चा के लिए दिया गया. पर भारतीय शोषित-पीड़ित लोगों के हितों को दुर्लक्षित करते हुए उसे भुला दिया गया. अकेले बाबासाहब के मतों से वह क्रान्तिकारी विचार भारतीय संविधान के धारा के रूप में पास नही हो पाए.
दिनांक १७ दिसंबर १९४६ के संविधान सभा में भी बाबासाहबने “आर्थिक जनतंत्र” का ही जिक्र और आग्रह किया. फिर भी केवल मनुवादी, कांग्रेसी नेताओं के विरोध के कारण भारत में “राज्य समाजवाद” नही आ सका. जिसका नतीजा आज भारत में अमीर और गरीब वर्ग है.
संविधान सभा में दिनांक १९ नवम्बर १९४८ को बाबासाहब ने और आर्थिक जनतंत्र की पेशकश की, “राजनैतिक जनतंत्र को प्रतिपादित करते हुए हमारी यह भी इच्छा है कि आर्थिक जनतंत्र को आदर्श स्वरुप प्रतिपादित किया जाना चाहिए....इस संविधान सरकार के घटकों के सम्मुख भी एक आदर्श रखना चाहता है.
आदर्श है, “आर्थिक जनतंत्र” का, मेरे ख्याल में इसका अर्थ है – “एक व्यक्ति, एक मूल्य.” बाबासाहब आंबेडकरने “राज्य समाजवाद” को निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया था, “राज्य समाजवाद योजना में, राज्य के प्रभुत्व में, सामूहिक ढंग की खेतीबाड़ी के साथ कृषि और औद्धोगिक क्षेत्र में, संशोधित रूप में, राज्य समाजवाद की स्थापना की गयी है. इस योजना में कृषि और उद्धोग में, पूंजी लगाने का दायित्व राज्य पर सोंपा गया है.
राज्य द्वारा पूंजी लगाए बगैर न भूमि और न ही उद्धोग बेहतर उत्पादन दे पाएंगे. इसमें बिमा राष्ट्रीयकरण की प्रस्तावना दोहरे उद्धेश से की गई है. राष्ट्रीयकरण की हुई बिमा कंपनी एक निजी बिमा कंपनी की तुलना में व्यक्तिगत धन के सुरक्षा की गारंटी अधिक देती है. राज्य विमा कंपनी, चाहे कैसी भी परिस्थितिया हो, धन लौटाने का पूरा उत्तरदायित्व लेती है.
व्यक्ति को किसी प्रकार का भय नहीं रहता है. राज्य के पास बिमा कंपनी द्वारा नियमित एक निश्चित पूंजी आ जाती है, जिसे वह अपने औद्धोगिक कार्यों में लगा सकता है, अन्यथा राज्य के खुली बाजार से पूंजी लेनी पड़ती है, जिसके ब्याज की दरे ही बहुत ऊँची होती है. अता राज्य को घाटा उठाना पड़ता है. भारत में, तेजी के साथ औद्धोगिककरण के लिए “राज्य समाजवाद” अति आवश्यक है.” (डॉ. आंबेडकर और भारतीय संविधान; लेखक- एल. आर. बाली; दूसरा संकरण, पृष्ट-४९-५०)
भारतीय संविधान में कांग्रेसी प्रयास से ‘धारा-३१’ (काली धारा) के तहत संपत्ति को व्यक्ति का मौलिक हक़ दिया गया. व ‘धारा- २४’ के तहत संपत्ति का मुहवजा दिए बगैर नही छिना जा सकता. व्यक्ति को उसके संपत्ति का मुहावजा दिए बिना नही छीन सकती. सरकार व्यक्ति के सामने अपाईज बनी. इन दो धाराओं के जरिए पूंजीवाद को जन्म दिया.
जिससे आर्थिक विषमता को बढावा मिला. इसे वे कांग्रेसी बहुमतों का नतीजा मानते रहे. उनका पाप वे अपने सिर ढोने को और तयार नही थे. इसी वजह डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर अपने ही हातों से भारतीय संविधान को ही जलाना चाहते थे. जो संविधान आर्थिक विषमता को पैदा करता है, वह अब ९९% गरीबों के लिए किस काम का है? उसके समाप्ति के बगैर भारत में ‘आर्थिक जनतंत्र’ आना असंभव है. बिना आर्थिक जनतंत्र के भारत में सार्वजानिक जनकल्याण असंभव है.
अमरीका के १६ वे राष्ट्राध्यक्ष अब्राहम लिंकन ने कहा था, “जब आवाज उठाने की जरुरत होती, तब जो लोग चुपचाप बैठते, वे डरपोक होते है और वे डरपोक लोगों की ही फ़ौज बनाते.” तो सुप्रसिद्ध निग्रो क्रांतिकारक मार्टिन ल्युथर किंगने कहा था, “दुर्जनों के दुष्ट और बुरे कर्मों से सज्जनों का मौन अधिक धोकादायक होता है क्योंकि वह दुष्ट कर्मों के लिए ही मौन सम्मति होती है.”
डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर (सन-१८९१-१९५६) का कहना था, “गुलामों को गुलामी का अहसास करा दो, फिर वही अपने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए बगावत करेंगे.” तथा संविधान सभा में बाबासाहब ने कहा था, “जो लोग आर्थिक विषमता के शिकार है, वे ही लोग बढ़े मेहनत से बनाए इस “राजकीय जनतंत्र” की धज्जिया उडाएंगे. वह दिन भारत के इतिहास में सबसे दुखदायी होगा.”
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने ख्रिश्चन, ईस्लाम, हिन्दू, शिख और जैन धर्म का अध्ययन कर उसमे ईश्वर, भगवान, अल्ला, आत्मा परमात्मा, पूजा-पाठ और स्वर्ग-नर्क की अवैज्ञानिक विचारधारा देखी तथा कार्ल मार्क्स के साम्यवाद में हिंसक तानाशाही को पाया.
न धर्मो के पास ‘जनतंत्र’ दिखा और न ‘साम्यवाद’ में. हर धर्म के ठेकेदार ईश्वर के शासन की वकालत करते है, जो तानाशाही से लिप्त है तथा जो अधार्मिक साम्यवाद है. उनमे भी जनतंत्र का अभाव पाया. इसलिए उन्होंने ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ इस कल्याणकारी नैतिकता (धम्म) का राश्ता अख्तियार किया. तथा गरीब लोगों को आर्थिक समता के लिए धम्म में सम्मिलित किया.
धर्म बनाम धम्म क्यों है? डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने (‘इनसायक्लोपीडिया ऑफ़ रिलिजन एंड इथिक्स’, वालुम-१०, पेज-६६९ के हवाले से) बुद्ध विचारों को तात्विक और वैज्ञानिक होने से धम्म कहा, मगर धर्म नही. इसका मतलब निती, न की रिलिजन या धर्म नही..!
बुद्ध के विचार ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग-नरक, पूजापाठ के खिलाफ होने से वे धर्म, रिलिजन के परिभाषा में सम्मिलित नही किया जा सकता, ऐसा बाबासाहब का ही तर्क रहा था. उन्होंने बुद्ध विचारो पर जो महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा उसका शीर्षक “द बुद्ध एंड हिज रिलिजन” के बजाए “द बुद्ध एंड हिज धम्म” इसी कारण रखा. धम्म का मतलब ‘धर्म’ नही, निती है, आर्थिक जनतंत्र है, आदर्श जनतंत्र है.
बाबासाहब अम्बेडकरने दिनांक १५ अक्टूबर १९५६ को नागपुर के अपने भाषण में कहा, “धम्म की जरुरत गरीबों को है. धम्म की जरुरत पिडित लोगों को है. गरीब व्यक्ति आशाओं पर जीता है. Hope! जीवन का मूलाधार आशाएं है. अगर आशा ही नष्ट हुयी तो जीवन कैसा होगा? धम्म आशावादी बनाता और गरीबों को सन्देश देता है, ‘बिलकुल मत डरों, होगा, जीवन आशादायी होगा......!
इसके विपरीत धर्मों का कहना है, ईश्वर ने सृष्टि, आकाश, वायु, सूरज, चाँद आदी सभी कुछ निर्माण किया. हमें ईश्वर ने कुछ भी और बनाने के लिए बाकी नही रखा, इसलिए ईश्वर की हमने आराधना करनी चाहिए. ख्रिश्चन धर्म के अनुसार तो मृत्यु के बाद एक निर्णय का दिन (Day of Judgment) होता है. उसी दिन के निर्णय के अनुसार सभी कुछ तय होता है, उससे ही कोई स्वर्ग या नर्क में जाते है.
“बुद्ध धम्म में ईश्वर और आत्मा को कुछ भी जगह नही है. बुद्धने बताया विश्व में सभी ओर मानव निर्मित पीड़ा है. ९०% लोग उसके पिडित है. पिडित गरीब लोगों को मुक्त करना बौद्ध धम्म का मुख्य लक्ष है. तथागत बुद्ध के अलावा कार्ल मार्क्स ने नया और क्या बताया? बुद्ध ने जो तत्वज्ञान बताए उसे ही कार्ल मार्क्स ने अलग ढंग से बताया.
बुद्ध का यह नया मार्ग बहुत जवाबदेहि है. हमने कुछ संकल्प किया है, उसे युवकों ने ख्याल में लेना चाहिए. उन्होंने केवल स्वार्थी नही बनना चाहिए तो ‘अपने कमाई का २०% हिस्सा धम्म कार्य में दूंगा,’ ऐसा संकल्प करना जरूरी है. मुझे सभी को बराबर लेना है.”
विश्व के राजनैतिक विचारक ‘भारतीय जनतंत्र’ की ओर बड़े आशा के साथ देखते आ रहे है. आधुनिक भारत का जनतंत्र बुद्ध विचारों की केवल राजकीय उपज है. इसलिए यह “आदर्श जनतंत्र” नही, उसे “आदर्श” बनाने के लिए “आर्थिक जनतंत्र” की जरुरत है. विश्व में पूंजीवादी सरकारों के जरिए मुनाफाखोरी, बेरोजगारी, महंगाई, उपासमरी, अशिक्षा, असुरक्षा, आतंकवाद, नक्षलवाद पनप रहा. केवल भारत में ही नही तो पुरे विश्व में “आर्थिक जनतंत्र” की जरुरत है.
भारतीय भूमि “आदर्श जनतंत्र” के लिए उत्तम उपजाऊ है. क्योंकि यहाँ पर “राजकीय जनतंत्र” से उसकी मशागत हो चुकी है. भारतीय लोग “जनतंत्र” के आदि हो रहे है. जिस देश में राजकीय जनतंत्र या धम्म है, उस देश में “आर्थिक जनतंत्र” को कायम करना बहुत ही आसान कार्य है. अभी महंगाई की मार अमीरों को नही, लेकिन गरीब लोगों को जरुर महसूस हो रही है. अनाज के अभाव में उत्तर कोरिया के नरभक्षी (आदमखोर) प्रथा का उदय हुआ, वैसी स्थिति भारत में न हो, इसलिए गरीबों के समस्याओं पर सरकारने विशेष ध्यान देने की बहुत जरुरत है. अन्यथा आदमखोरी निर्माण होने से किसी कोई भी सरकार नही रोक सकती. “आर्थिक जनतंत्र” के बिना सभी प्रयास विफल है.
आन्दोलन क्या है? जाती व्यवस्था के शोषित-पीड़ितों को उस हद तक जागृत करना की वे स्वयं अन्याय के खिलाफ बगावत पर नही उतरते. उन्हें उनके हकों से अवगत करना. उसके प्राप्ति के लिए समय-समय पर कार्यक्रम देना, उसे नियंत्रित करना. हमारी मुख्य मांग भारत में आर्थिक जनतंत्र की है और उसके अवरोधी “भारतीय संविधान की धाराए ३१ और २४ को निरस्त क्या जाए”.
हमारा आन्दोलन राजकीय या धार्मिक नही है पर उससे कम भी नही है, यह आनिवाले चार साल में, सन २०१७ तक साबित भी करना हमारे आन्दोलन का निश्चित व निर्धारित उद्धेश है. यह आन्दोलन शांतिमय और जनतांत्रिक है क्योंकि आर्थिक जनतंत्र भारत में कायम करना ही उनका मुख्य उद्धेश है. हमें निश्चित आशा है की शोषित-पीड़ित जनता इस आन्दोलन के साथ जुडकर कंधे से कंधे मिलाकर अपने हकों, सुखों के प्राप्ति के लिए सहयोग देंगे.
आर्थिक जनतंत्र ‘जनआंदोलन’ से क्या फायदा होगा? विश्व के हर व्यक्ति को उत्तम १. अन्न, २. कपडे, ३. घर, ४. शिक्षा, ५. आरोग्य, ६. मनोरंजन तथा ७. रोजगार की जरुरत है. क्या विश्व की कोई भी पूंजीवादी सरकार इसे बहाल करने में सक्षम है? संपत्ति धारण करने का हक़ हर व्यक्ति को मालक बनाता है, इससे अगर कुछ लोग मालिक है, तो कुछ निर्धन लोग गुलाम होते है.
क्या मालक और गुलाम के रिश्तों में न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के नैतिक मूल्य पाए जाते है? हजारों सालों से मानवीय समाज संपत्ति के मालिकाना हक्कों को पाने के लिए हमेशा संघर्षरत रहा है. आदर्श नैतिक मूल्यों को शोषको ने हमेशा नकारा, उसका नतीजा विश्व में दुःख की बढौतरी हुयी है.
वर्णव्यवस्था अब व्यापार के रूप में जीवित है. मुनाफाखोरी से ही आर्थिक शोषण और विषमता बढ़ी है. उत्पादन के सभी साधन सरकारी हो. सभी लोग सरकार के अधीन निर्धारित काम ईमानदारी से करे. सरकार उन्हें उचित मोबदला दे. खाजगी शोषण के सभी दरवाजे बंद हो. इसे नकारनेवालों को जल्दी से जल्दी उचित और कठोर सजा मिले.
सहकारी ढंग से मानवीय समाज में व्यवहार हो. व्यक्ति संपत्ति (पैसे) का गुलाम न बने. पैसा व्यक्ति का गुलाम रहे. पैसे से प्यार, समता, न्याय नही खरीद सकते. पैसा इंसानियत से बढ़कर नही. पैसे के लिए मानवी मूल्यों का ध्वंस करना, गुनाह है. आर्थिक जनतंत्र में व्यक्ति के सामने पैसा, संपत्ति दुय्यम है, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुभाव ही अहम् है.
आर्थिक जनतंत्र (राज्य समाजवाद) को कायम करने से....!
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१. जमीन, उद्योग, तथा बिमा का राष्ट्रीयकरण होगा.
२. अनाज, वस्त्र, निवारा, आरोग्य, शिक्षा, मनोरंजन व रोजगार की पूर्ति.
३. हर व्यवहार सहकार से चलेगा, न की खाजगी मुनाफे से.
४. सभी के लिए परिवर्तनीय किन्तु “समान वेतन आयोग” होगा.
५. ‘एक देश, की एक भाषा’ होगी, जिससे राष्ट्रिय भाईचारा बढेगा.
६. जनसँख्या नियंत्रण के लिए ‘समान नागरी कानून’ लागू होगा.
७. राष्ट्रीयता, मानवतावाद, पर्यावरण, वैज्ञानिक विषयों पर शिक्षा का प्रचार होगा.
८. जाति-वर्ण-वंशवाद, भ्रष्टाचार, नक्षलवाद तथा धार्मिक आतंकवाद ख़त्म होगा.
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१. जमीन, उद्योग, तथा बिमा का राष्ट्रीयकरण होगा.
२. अनाज, वस्त्र, निवारा, आरोग्य, शिक्षा, मनोरंजन व रोजगार की पूर्ति.
३. हर व्यवहार सहकार से चलेगा, न की खाजगी मुनाफे से.
४. सभी के लिए परिवर्तनीय किन्तु “समान वेतन आयोग” होगा.
५. ‘एक देश, की एक भाषा’ होगी, जिससे राष्ट्रिय भाईचारा बढेगा.
६. जनसँख्या नियंत्रण के लिए ‘समान नागरी कानून’ लागू होगा.
७. राष्ट्रीयता, मानवतावाद, पर्यावरण, वैज्ञानिक विषयों पर शिक्षा का प्रचार होगा.
८. जाति-वर्ण-वंशवाद, भ्रष्टाचार, नक्षलवाद तथा धार्मिक आतंकवाद ख़त्म होगा.
विश्व के सभी जनतांत्रिक जनता का मानव कल्याण कार्य में योगदान जरुरी है. सभी को सुख-शांति के इस जनआन्दोलन में सभासद होकर कार्य करने का मौका है. भारतीय १% अमीर लोग गरीबों को सुख से जीने देना नही चाहते. गरीब लोग अब आन्दोलन के जरिए अपने “एक व्यक्ति- एक मूल्य” मानवीय हकों को पाने के लिए बगावत पर उतरे है. तो विश्वव्यापी “गरीब बनाम अमीर” युद्ध होने से कोई भी व्यक्ति या सरकार नही रोक सकती. यह विश्व का तीसरा महायुद्ध होगा. यह केवल आकलन ही नही, तो प्रयास भी है.
‘लिओ टॉलस्टाय’ने सही कहा है, “आप कितना फासला काटा, यह कम महत्वपूर्ण है, पर आप सही दिशा में गए या नही, यह बात अधिक महत्वपूर्ण है.” हमारे भारतीय राजनेताओ ने कितने दिन शासन किया? यह महत्वपूर्ण नही है, उन्होंने सही “आर्थिक जनतंत्र” के दिशा में कार्य किया या नही? इसे देखना अब बहुत जरुरी है. यही देखने के लिए ‘आर्थिक जनतंत्र जनांदोलन’ हमेशा प्रयास करेगा.
यह सभी देशी-विदेशी बुद्धीजीवी लोगों का महा संघटन है. इसमें होने वाले हर बदलाव को बहुमतों से स्वीकारने पर जोर दिया जाएगा. जिस व्यक्ति के विचार ‘आर्थिक जनतंत्र’ को पूरक है, वे इस संघटन के सभासद बनने हेतु ईमेल द्वारा आवेदन करे और सभी भारतीय लोगों को सुखमय बनाने का संकल्प तथा प्रयास करे. यही हमारी सभी भारतियों से गुजारिश है.
धार्मिक, जाती, वर्ण और वर्ग से भारतीय शोषित-पीड़ित लोगों को पूंजीवादी व्यवस्था ख़त्म करके आर्थिक जनतंत्र प्राप्ति के लिए डॉ. बाबासाहब अम्बेडकरने संविधान सभा में दिनांक १९ सितम्बर १९४९ को सिंहगर्जना की थी, “आप जिन स्वामियों के लिए हल चलाते हो वे आपको निचा दिखाते है. आप मेहनतकश लोग ध्यान से सुन्दर वस्त्र बुनते है उसे आपके दुश्मन पहनते है. तुम बहुत सुस्ता चुके, अब शेरों की तरह उठो पर ओस की तरह उठो, अपने बेड़ियों को उतर के फेंको. आप बहुत बहुत ज्यादा है, और आपके दुश्मन बहुत कम है.”
जबतक भारत में राज्य समाजवाद लागु नही होगा तबतक भारत से धार्मिक आतंकवाद, आर्थिक नक्षलवाद, पूंजीवाद, महंगाई, भुकमरी, कुपोषण तथा जातिगत समस्यओं का निराकरण नही हो सकता इसलिए भारतीय शोषित, पीड़ित जनता ने “राज्य समाजवाद” का आग्रह करना चाहिए. इसलिए हमारा नारा है, भारतीय संविधान की “धारा ३१ और २४” हटाव अर्थात “गरीबी हटाव, अमीरी हटाव!”