शुक्रवार, 22 मई 2020

धम्मक्रांति का जनतांत्रिक सफ़र - ९


डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने नासिक जिले के “येवला” शहर में जो धर्मान्तर की धम्म ललकार दी थी, उसे पूरा करने का दिन आया था. प्राचीन इतिहास में महाराष्ट्र या “महारों का राष्ट्र” रहा है. “नागपुर” यह उनके राजधानी का शहर रहा. वे लोग बुद्ध के धम्मक्रान्ति के वाहक रहे है. इसी प्राचीन ऐतिहासिक स्थान पर बाबासाहब ने आधुनिक युग में धम्म दीक्षा का आयोजन करके यह साबित किया की वे अभी भी बुद्ध के समता मूलक तत्व के वाहक है.
बड़े प्यार से बाबासाहब अम्बेडकर को जिस “कृष्णाजी अर्जुन केलुसकर’ गुरूजी ने स्वलिखित “भगवान् गौतम बुद्धाचे चरित्र” बहाल किया था, उनका इसी तारीख को १९३४ में देहान्त हुआ था. उनके धम्मप्रेम को यादगार करने का यह उचित दिन रहा. इसलिए तारीख- “१४ अक्टूम्बर” का दिन “धर्मान्तर” समारोह समारंभ तय किया गया था. तारीख- १४ अक्टूम्बर १९५६ को इस दिन “माता कचहरी” के मैदान में पाँच लाख लोगों से भी उपर हिन्दूधर्म के “महार” जाती की जनता उमड़ पड़ी थी. बौद्ध जगत के महान विद्वान् और भिक्षु गण उपस्थित हुए थे. अन्याय, गुलामी, विषमता और परस्पर द्वेष फ़ैलाने वाले तानाशाही हिन्दू धर्म से “पर्मानंट” रिश्ता ख़त्म करने का समय करीब आ चूका था.
हिन्दू धर्म से भावनिक रिश्ता तोड़ते वक्त बाबासाहब बहुत भावुक हो चुके थे, मगर सभी पर्याय ख़त्म हो चुके थे. न हिन्दूधर्म बदला और न भारतीय संविधान से आशा रही. पर्याप्त समय उन्हें बदलने को दिया गया, मगर हिन्दू नही बदले. इसलिए बाबासाहब ने स्वयम में परिवर्तन किया. तुम नही तो हम सही, पर क्रान्तिकारी कल्याणमय परिवर्तन, बदल जरुरी है, यह समज कर बाबासाहब ने प्रथम अपने पत्नी के साथ भिक्षु चन्द्रमणि द्वारा दीक्षा ली और बाद में उन्होंने अपने विश्वासु हिन्दू जातीभाईयों को धम्मदीक्षा देना सुरु किया. तब उनके ऑखों से आंसु बह रहे थे. उन्होंने भंते चन्द्रमनी की ओर देखा, वे भी भावुक हो चुके थे. उनके भी आँखों से आँसू बहाना सुरु हुआ. वे भी अपने आँसूओं कों नही रोख सके थे. दोनों देखकर जनता भी अपने ऑखों से आँसू बहा रही थी.
बाबासाहब दीक्षा देते रहे और देखते देखते २२ प्रतिज्ञा लेने का कार्य भी ५ लाख लोगों का पूरा हुआ. इन आंसुओं ने कब लोगों को बुद्ध और उनके धम्म के स्वाधीन किया, इनका पता ही नही चला. सबके ओंठो पर बाद में मुस्कराहट पैदा हुयी. “बाबासाहब करे पुकार, बुद्ध धम्म का करो स्वीकार, तथागत गौतम बुद्ध की...जय! बाबासाहब आंबेडकर की...जय! की घोषणाए चारों दिशाओं में दूर-दूर तक जोरो-शोरों से गूंजने लगी थी. सभी ने बड़ी रहत ली थी की उनकी हिन्दुधर्म के नर्क से मुक्ति हो चुकी है. इतना वह गूंगों के हजारों सालों के इतिहास में यादगार पल था. जिनका आन्तर राष्ट्रिय प्रसार माध्यम भी गवांह रहा. यह एक महान विश्वव्यापी धम्मक्रान्ति रही, जो भारत में ही नही तो पुरे विश्व में आर्थिक समता के साथ सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने में सहयोग देती रहे.
अगर त्रिपिटक के मिलावट का असर “द बुध्द एंड हिज धम्म” पर हुआ है, तो इन “२२ प्रतिज्ञा” पर उसका गलत असर न होने का दावा कौन कर सकता है? “२२ प्रतिज्ञा” में एक प्रतिज्ञा है की, "मै “१० पारमिता“ का पालन करूँगा" जो की “बोधिसत्ब” को लगातार १० जन्मो तक करना होता है, फिर वह व्यक्ति ‘अर्हत’ (जागृत) होता है. जो अर्हत होता है, वही “बुद्ध” होता है. क्या “दस पारामिता” के आचरण के अलावा व्यक्ति जागृत (अर्हत) नही होता? यह जो बुद्ध तक पहुँचने की सीढ़िया बनाई गयी है, यह सही में वैज्ञानिक है या यह महायानी शिक्षा है? क्या बुद्ध “आत्मा” का अस्थित्व मानते थे? क्या मरने के बाद का जन्म (पुनर्जन्म) बुद्ध ने मान्य किया? क्या अभी का “विज्ञान” या “तर्क” भी इस विषय पर सहमत है? फिर बोधिसत्व की सोच कहाँ से आ टपकी? अनुचित बातों को तवज्जो देने से क्या फ़ायदा होगा?
बोधिसत्व की कल्पना ही "जातक कथा" पर निर्भर है. जिसे कोई भी वैज्ञानिक नही स्वीकार सकता? क्या बाबासाहब को धम्म दीक्षित बौद्धों तक ही सिमित रखना था? या अन्य भी लोगों तक पहुँचाना था? किस आधार पर उसे पहुँचाया जाएगा? जो विचार बाबासाहब ने बताए है उसे हमने “शब्द प्रामान्य” वादी बनकर नही स्वीकारना चाहिए. तो उसे वैज्ञानिक आधार पर और तर्क पर परख पर स्वीकारना चाहिए. “२२ प्रतिज्ञा” में बुद्ध के सामने “भगवान” शब्द छापा गया है उसे अब हमने हटाना जरुरी है, नही तो लोग बुद्ध को ही बिष्णु “भगवान” का नववा औतार मनाकर पूजा आरम्भ करेंगे. बुद्ध के नामपर हजारो सालों से जो कूड़ा-कचरा ढोया जा रहा है उसे अब उतार कर फेंकना आवश्यक है.
“परित्राण सूत्र पाठ कथन” विधी यह एक हिन्दू धर्म के “सत्यनारायण कथा” के नक़ल में बौध्द भिक्षु पेश कर रहे है. क्या इससे धम्म में पुरोहितशाही को उदय नही होगा? बौद्ध धम्म के दुश्मन तो हमेशा चाहेंगे की, ग़लत ढंग से धम्म प्रचार हो, धम्म दीक्षित लोग भ्रमित रहे, हमने पहले यह तो तय करना चाहिए की यह हमारी सभ्यता है, तथा यह हमारा धम्म विचार है. क्या बाबासाहब ने हमें विदेशी धम्म दिया है? फिर हम विदेशी भिक्षुओं के भ्रमित विचारों का सत्कार क्यों करते है? विदेशी बौद्ध धम्म का पालन नही करते, वे सिर्फ धम्म के नाम पर धर्म का पालन करते है जो हीनयान और महायानों के बिच में फँसा हुआ है.
बाबासाहब के बौद्ध धम्म प्रचार के “ब्लू प्रिंट” के मुताबिक धम्म प्रचार से हम वंचित क्यों है इसका भी हमने गंभीर विचार करना चाहिए. केवल “आरपिआय” के कार्य को धम्म का कार्य नही कहा जा सकता. न “एसएसडी” के कार्य को धम्म का कार्य कहा जा सकता. न जाती अंतर्गत विवाह मोहिम चलाने के कार्यों को धम्म कार्य कहा जा सकता है. सुजान बौद्धों का क्या कर्तव्य है? आन्तरजातीय विवाह को प्राधान्य और मान्यता दे. उनका प्रचार प्रसार करे. कोई भी बौद्ध आर्थिक विसमता के पक्ष में नही रहना, चाहिए मगर वह है. क्या गरीब और अमीर एक साथ खंदे से खंदा मिलकर धम्म प्रचार का कार्य निरंतर कर सकता है? समश्याओं को उत्तरों से लिलिट करते रहने से ही धम्म विज्ञान के जरिए आगे लिया जा सकता है. समश्याओं के साथ धम्म का प्रचार करना अपने ही पावों पर कुल्हाड़ी मारने के समान कार्य है.
“भारतीय बौद्ध महासभा” के साथ मिलकर हमने कार्य करने को सीखना चाहिए. उसी के तहत कार्यक्रमों का निर्माण होना चाहिए. विविध विचारों से संघटन चलाने से मतभेद नही जाते. धम्म जो बाबासाहब आंबेडकर के दृष्टी से सही हो उसे ही हमने प्रचारित करना चाहिए. तो ही धम्म दीक्षा के नागपुर का कुछ महत्त्व बन पाएगा. अन्यथा दीक्षाभूमि का महत्त्व मिट जाएगा. ईंट और पत्थरों के विहारों, मठों, स्तूपों से धम्म प्रचार नही होती. धम्म यह विचारधारा है. विचारों से उसका प्रचार होता है. हम अगर विहारों और स्तूपों को बनाने में ही व्यतीत रहे तो बाबासाहब ने धम्म दीक्षा क्यों दी थी और हमारे पुरखों ने क्यों ली थी यह भी हमें पता नही चलेगा. लोग हमेशा पूजापाठ में रहे यह न बुद्ध की सीख है और न बाबासाहब अम्बेडकर की.
पुजारी लोगों को भी तर्क शक्ति होती है, उन्हें भी धम्म समझने की काबिलियत होती है, मगर वह हम ही सही ढंग से नही समझ पाए तो औरों को क्या समझाने के लिए काबिल है? पहले वैज्ञानिक कल्याणकारी धम्म तत्वों को ठीक से समझकर ही दूसरों को समझाया जा सकता है. अब उसे प्रचारित करने का कार्य सिर्फ भिक्षुओं का नही है तो वह उपासको का भी है. उपासकों ने शादी आदि त्यौहारों में केवल “त्रिशरण” और “पंचशील” की पोपटपंची सुनाने के कार्य को धम्म प्रचार का कार्य नही समझना चाहिए. बहुत सारे सम्भ्रमों के बिच भिक्षु और उपासक भी है. पुराने अंधों का अनुकरण किया जा रहा है. न पुराना धम्मी था और न नया धम्मी है.
स्त्री-पुरुष एक दुसरे के गुलाम नही तो मित्र समझे गए. विवाह यह एक तह है. जो दोनों में से किसी को भी भंग करने का अधिकार है. जातिमत विषमता समाज के जिन-जिन अंगों में फैली थी उन सभी अंगों में समानता सत्ता के जरिए नही तो सांस्कृतिक निति के जरिए फैलाने के लिए प्रयास होना जरुरी है. बाबासाहब ने अपनी द्वितीय शादी एक ब्राहमण कन्या से करके जाती प्रथा का जोरदार विरोध किया. यह एक सामाजिक प्यार बांटकर जातिप्रथा विरोधी महान कार्य रहा है. बाबासाहब आंबेडकर ने न केवल बौद्धों को ही धम्म दीक्षा दी थी तो ब्राह्मणों को भी धम्म दीक्षा दी थी. मगर उनसे रिश्तेदारी रखने में बौद्ध कामयाब नही हुए.
केवल हर साल दीक्षाभूमि का दर्शन करने से धम्म नही समझता. उन्हें याद भी करने से धम्म नही समझता. बुद्ध पूजा के जरिए भी धम्म को नही समझा जा सकता, और न केवल प्रवचन सुनने मात्र से धम्म समझता है. धम्म बहुत आसान है मगर जिनके मन में उसे जानने की इच्छा है उसे वह जल्दी समजता है. धम्म कोई कहानी नही है जो याद करनी है. धम्म यह तत्वज्ञान है जो दस मिनिट में भी समझा जा सकता है. उसे समझने के लिए कोई तंद्री लगाने की जरुरी नही है और विपस्सना द्वारा उसे समझा या समझाया जा सकता.
धर्मान्तरित बौद्धों का आर्थिक लाभ क्या हुआ? सन १९५६ के में ८ लाख महार जाती के लोगों से बुद्ध धम्म की दीक्षा ली, उनके साथ अन्य भी जातियों के कुछ गिनेचुने लोगों ने दीक्षा ली थी. मगर वे कोई गिनती में लेने लायक नही थे. भारत में बौद्धों की जनसंख्या सन १९६१ में ३२,००, ३३३, सन १९७१ में ३८,१२,३२५ तथा १९८१ में ४७,१९,७८६ थी. सन २००१ के जनगणना के अनुसार हिन्दू ८०.५%, इस्लामी १३.५% ईसाई २.३%, सिख १.९%, जैन ०.८%, बौद्ध ०.८% और पारसी ०.२% थे. तो अब करीब १.५ करोड़ बौद्ध हो सकते. इनमे से केवल १०% लोग सरकारी कर्मचारी मानते है तो वे १५ लाख होते है. डेड करोड़ से पंद्रह लाख लोग नोकरी के सहारे जी रहे है. इसका मतलब १.३ करोड़ लोग खेती मजदूरी और हाथ मजूरी करके जी रहे है. वे मुलभुत सुविधाओं से वंचित है.

धम्मक्रांति का जनतांत्रिक सफ़र - ११


दुनिया पीड़ा पर नही, धम्म पर खड़ी करनी है..! धम्म न्याय, आझादी, समानता और भाईचारे का नैतिक तत्वज्ञान है. यह समाज न केवल एक अंग में सहयोगी है तो आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और राजकीय स्थर पर भी महत्वपूर्ण है. बाबासाहब अम्बेदकर का यह चिन्तनशील मत रहा है, “सामाजिक और आर्थिक जनतंत्र ही राजकीय जनतंत्र की कोशिका और स्नायु है. यह दोनों भी जितने मजबूत रहेंगे, उतनी ही ज्यादा शरीर को मजबूती मिलेगी. जनतंत्र का दूसरा नाम समानता है.” (डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर: राइटिंग एंड स्पीचेश, वालुम– १०, पेज- १०८) बुद्ध का धम्म ही “आदर्श जनतन्त्र” है, जिसकी गरिमा हमें “आर्य अष्टांगिक मार्ग” से मिलती है.
तथागत बुद्ध से लेकर आजतक का विचार किया जाए तो हमें मालूम होता है की बुद्धधम्म के उपासक कही राजा लोग रहे है. उनके पास राज्य के सुरक्षा के लिए सैन्य भी होते थे. सिद्धार्थ (बुद्ध) खुद सैनिकी शिक्षा ले चुके थे. सैन्य का क्या कार्य होता है? यह उन्हें अच्छी ढंग से पता था. फिर भी उन्होंने सैनिकों का कार्य करने के बजाए युद्ध ही न हो और जंग में जान गंवाने की किसी भी मानव प्राणी पर नौबत ही न आए, इस विषय पर कार्य किया. युद्ध हमेशा व्यक्ति के दिमाग में चलता है. दिमाग विचारों से चलता. जैसे विचार वैसे आचार.
मन से मानव विरोध की गल्त असामाजिक विषमतामय धारणाओं को निरस्त करने के लिए उन्होंने यह धम्म दुनिया को दिया. यह मानव प्राणी की हिन्सा रोखने के लिए दिया. न की उनका संहार करने के लिए. पर बुद्ध धम्म को लोग मानव को रोखने के बजाए अन्य प्राणियों के हिन्सा को रोखने के लिए किया जा रहा है. व्यक्ति आपस में इसलिए लढता और झगड़ते रहता है क्योंकि उनकी मुलभुत आवश्यकताए पूरी नही होती. मानव प्राणियों ने एक जगह बैठ कर वंचित लोगों के दुखों का हल धुंडने का कार्य करना चाहिए.
मानव यह अभी भी व्यक्ति नही तो प्राणी ही है, जानवर है. जैसे जानवर में अपने ही पेठ की ज्यादा फ़िक्र होती है वैसे ही ज्यादातर मानव समूह के बुद्धी में स्वार्थ की भावना कुट-कूट कर भरी है. वे अपने फायदे के लिए आपस में लड़ते रहते है. ऐसे वक्त बुद्ध पहले समझाने का, जागृत करने का बोध करते है, जैसा की प्रसेनजित राजा के “वस्सकार” मन्त्री को किया था. वज्जी घराने से इसलिए नही जीता जा सकता है की उनमे कुछ सद्गुण है, सदाचार है. उनके शत्रु भी उनके गुणों को देखकर उनसे युद्ध करने के बारे में दस बार सोचते थे. इसका दूसरा अर्थ यह है की सद्विचार ही अप्रत्यक्ष ढंग से युद्ध को पराजित करते है. युद्ध को टालते है. युद्ध से पराजित करते है और हिन्सा होने से समाज बचता है.
बुद्ध ने राजा प्रसेनजित को युद्ध करने से नही रोका था या न हिंसा करने से रोका था. बुद्ध ने अपने उपासक राजाओं को यह कभी नही कहाँ की “सैन्य भर्ती बंद करो.” इसका दूसरा अंग यह है की जरुरी है, तो उनका प्रयोग करना उचित है. बुद्ध ने “जरुरत होने पर हिन्सा भी करना उचित समझा था.
पंचशील की निर्मिती यज्ञ में होने वाले अन्य प्राणियों के हत्याओं को रोख लगाने के उद्धेश से जैनों ने की थी. पंचशील यह जैनों के पाच बल है. वे नियम है, न की कोई तत्व. यह जैनों के कठोर नियम रहे. जो हर बातों में अति का भाव दर्शाते है. “मै हिंसा नही करूँगा” क्या इस वाक्य में किसी स्थिति का बोध होता है? फिर कैसे कहेंगे की, इस अवस्था में उनका उल्लंघन भी जरुरी है?
विचार, संकल्प, वाणी, कर्म, आचरण, प्रयास, स्मरण और चित्ताग्रता की बाते बुद्ध ने क्यों बताई थी? हर ऐसा कार्य करने के लिए बुद्ध ने अपने “सम्यक मार्ग” में अनुमति दी है, जो ‘बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय’ है, फिर चाहे वह हिंसक हो या अहिंसक हो. जो विचार पंचशील के नियमों में है, क्या उसके बारे में बुद्ध के सम्यक तत्वज्ञान में विचार नही हुआ? किसी पंडित नेहरू (ब्राह्मण) ने कहा की यही बुद्ध के विचार है, तो हमने उसपर कुछ भी दुबारा विचार नही करना चाहिए? जो तत्व बुद्ध के थे, महायानी भिक्षुओं ने उसे छुपाने की कोसिस की और गल्त विचार सामने प्रचारित किया. क्या दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति है की उसने जीवनभर “पंचशील” का पालन किया है? जो विचार तर्क पर भी खरे नही उतरते और समाज में सम्भ्रम फ़ैलाने का कार्य करने है, ऐसे विचार बुद्ध देशना नही हो सकते.
सम्राट अशोक को युद्ध करना जरुरी था तो उन्होंने किया. क्या उन्होंने पंचशील का पालन किया था? उन्होंने मानव हिंसा भी की तथा अन्य प्राणी हिंसा भी की थी. कोई हमारे घर में तलवार लेकर आए और हम उसके सामने पंचशील का पाठ पढाए तो क्या वह “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ का धम्म मार्ग होगा? जब एक ही नही बचेगा तो बहु कैसे बचेंगे? बहुजनों का हित कैसे होगा? बाबासाहब आंबेडकर ने जनतंत्र की परिभाषा की और उसमे कहा. “बिना खून का बूंद बहाए जनता के सामाजिक और आर्थिक जीवन में होने वाला क्रान्तिकारी परिवर्तन ही जनतंत्र है.” (भी. रा. अम्बेडकर : चरित्र ग्रन्थ, खंड- ११, चां. भ. खैरमोडे, प्रकाशन- १९९०, पृष्ठ- २९) तो दूसरी ओर बाबासाहब अम्बेडकर हर साल के १ जनवरी को “भीमा कोरेगाव” को मानवंदना करने जाते रहे. क्या “भीमा कोरेगाव का क्रान्ति स्तंभ” बिना खून बहाए खड़ा हुआ? बाबासाहब आंबेडकर ने “साइमन कमीशन” को क्यों निवेदन दिया था की अछूतों को सैन्य और पुलिस में भर्ती करना चाहिए?
डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने नागपुर स्थित “सिरसपेठ” के मैदान में, तारीख- १९ जुलाई १९४२ में आवाहन किया था, “यह (द्वितीय महायुद्ध) तानाशाही और जनतन्त्र के बिच में है. जर्मनी की तानाशाही किसी भी नैतिक मूलों पर खडी नही है. नाझीवाद ने सभी मनुष्यों के अस्थित्व के लिए महान संकट खड़ा किया है. इस संसार के भूतल पर अधिष्ठित मानव प्राणियों के बिच मानवता के रिश्ते बनाने वाले जनतन्त्र अन्त न हो इस के लिए आपने महापराक्रम करना चाहिए. इसी वजह बहिष्कृत लोगों ने संसार के अन्य जनतांत्रिक देशों के साथ जनतांत्रिक मूल्य और सभ्यता के रक्षा करने के लिए कान्तिकारी संघर्ष करना चाहिए.” (द्वितीय महायुद्ध आणि डॉ. आंबेडकर, लेखक- विमलसूर्य चिमनकर, सन- १९९३, पृष्ट-१५३ का अनुवाद)
व्यक्ति-व्यक्ति में भाईचारा बढ़ाने वाले जनतन्त्र को बचाने के लिए और व्यक्ति-ब्यक्ति में वांशिक नफरत फैलानेवाले जर्मन तानाशाह हिटलर का खात्मा करने के लिए अंग्रेज सैन्य में भर्ती होने का आग्रह किया था.” इन तीन प्रसंगों से बौद्धों ने यह सिख लेनी चाहिए की जब जरुरी है, तो हिन्सा करने की धम्म और अम्बेडकरी विचारों में आझादी है. प्राचीन भिक्षु सारिपुत्त और महामोग्ल्यायन भिक्षुओं के बिना खून बहाए नही आयी है. बुद्ध ने भी अपने देवदत्त के हमले में खून बहाया था. अपने मुक्ती के लिए खून बहाना धम्म विचारों में वर्जित नही है. बुद्ध-अम्बेडकर यह महामानव शांतिवादी नही तो क्रांतीवादी थे. पहले कलम नहीं तो बन्दुक, जो जब जरुरी हो तब किसी भी साधनों का इस्तेमाल करने की आझादी धम्म में है, उसका उद्धेश मात्र “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” होना चाहिए.
केवल “त्रिशरण” की रट लगाने से या “पंचशील” का पालन करने से धम्म पालन नही होता. अब यह बताने की जरूरत है की उसका पालन ‘मै तो करूँगा ही, पर तुमने भी करना चाहिए’. ‘हम संन्यासी और तुम चोर’; ऐसी विसंगत स्थिती समाज में नही चाहिए. लोगों को बौद्ध बनाना तो ठीक ही है, त्रिशरण, पंचशील को पालान करने या २२ प्रतिज्ञाओं का पालन करने के लिए नही तो "आर्थिक जनतंत्र" को धम्म द्वारा बहाली कर सुख-शांति बहाल करने के लिए "आर्य अष्टांगिक मार्ग" के मध्यम मार्ग पर. दुखी बौद्धों की देखभाल भी करना उससे भी बड़ी जिम्मेदारी है.
हम अगर हमारे विचारों के लोगों के दुखी जीवन से अस्वस्थ होकर दूर भागते रहे, तो बुद्ध धम्म भारत में कैसे फैलेगा? वह सही ढंग से विदेश में कैसे जाएगा? अन्य धर्मो के लिए पर्याय कैसे बनेगा? कार्ल मार्क्स के तानाशाही साम्यवाद का मुकाबला कैसा करेगा? क्या बाबासाहब आंबेडकर ने साम्यवाद के बजाए धम्मक्रांति को इसलिए गले लगाया की उन्हें "आर्थिक विषमता" पसन्द थी? बाबासाहब की जंग न सिर्फ वर्ण, जाती, वंश, धर्म, पंथ, लिंग वाद के अलावा वर्ग वाद से भी प्ररित रही थी. कॉर्ल मॉर्क्स के मकसद को बाबासाहब ने नही कोसा क्यों की वह समता का समर्थन करता है. सिर्फ उसे पाने के लिए जो साधन और निति को अपनाया गया था उसे बाबासाहब ने जोरदार कोसा.

धम्मक्रांति का जनतांत्रिक सफ़र - १०



त्रि-पिटक के मिलावट का असर “द बुद्ध एंड हिज धम्म” पर भी दिखाई देता है. जिसे छुपाने के लिए बाबासाहब आंबेडकर ने सन्दर्भ देना उचित नही समझा और बिना सन्दर्भ का ही ग्रन्थ लिखा. इसलिए बुद्ध और उनके क्रान्तिकारी धम्म को समझने के लिए “रिवोल्यूशन एंड काउन्टर रिवोलुशन” तथा “बुद्ध और मार्क्स” को इस ग्रन्थ के साथ पढ़ने का सुझाव दिया है. जिन्होंने उनका सुझाव नही माना और उनके जाने के बाद उनके ही अनुयायी बुद्ध को भगवान समझ बैठे, विपस्सना विधि के तंद्री में शान्त बैठे है तथा पूजापाठ को धम्म समझ बैठे है. जिसका विरोध करना अभी भिक्षुओं को भी उचित लग रहा है.
डॉ. भदन्त सावंगी मेधंकर लिखते है, “पुराने ज़माने मे पढाने के लिए किताबे नही होती थी. बुद्ध से जो सुनते थे उसी का मनन-चिंतन करते थे, इसी कारण बुद्ध ने ध्यान भावना पर जोर दिया था. त्रिपिटक मे जहाँ-वहाँ बुद्ध को कहते देखा जाता है “झायथ भिक्खवे” भिक्षुओ ध्यान करो. नियम के अनुसार भिक्षु कोई शारीरिक काम नही कर सकते. 
पढ़ने को कुछ नही, तो फिर एक बचाव था ‘ध्यान भावना’. मगर उस काल मे या बाद मे भी पूर्णकाल ध्यानी उपासक नही थे. यदि उपासक पूर्णकाल ध्यानी बना तो समाज बिगड जायेगा, क्योंकि संसार के प्रति उसका नकारिय दृष्टिकोण बन जायेगा. एक सिमित समय के लिए मन को एकाग्रता की ट्रेनिंग देने के लिए ठीक है. या फिर सेवानिवृति के बाद पारिवारिक झमेलों से अलिप्त करने के लिए अच्छा है.
“बाबासाहब ने धम्म दिया. शिक्षा देने के लिए उनके पास समय नही था. उनके उत्तराधिकारियो ने उसे आवश्यक नही समझा. समाज बिखर गया. नेतृत के अभाव मे लोग उसकी खोज करने लगे. कोई त्रैलोकी बने तो कोई विपस्सी ही रहे एवं धीरे-धीरे उनमे बाबासाहब के प्रति अंध:श्रद्धा पैदा हो रही है एवं वे उनके विरोधी बन रहे है, इसका उनको भी पता नही चल रहा है. 
आज सारा विपस्सना संघ आर.एस.एस. के कब्जे मे चला गया. समाज धीरे-धीरे विपस्सना के माध्यम से आम्बेडकर के विचारों से दूर होते जा रहा है. “मै कोई महान व्यक्ति नही हूँ और न कोई युगद्रष्टा या युगनिर्माता पर बुद्धिजीवी समाज इसे अवश्य याद रखे की यदि चुप-चाप बैठे रहे तो इसका परिणाम बड़ा भयानक होगा.” (संदर्भ:- बुद्ध पुत्र की गाथा, बुद्धभूमी प्रकाशन, नागपुर. प्रकासन- २००१. पृष्ठ- ३११ एवं ३३७, ३३८.)
“भगवान” क्या है? जो अर्थ संघरक्षित महास्थविर (टिबिएम) ने दिया है यह उनका कहना नही है तो यह आम बौद्धों का कहना है जो महायानी लोग प्रयोग में लाते रहे. वान यानि तृष्णा और भग का मतलब त्याग. इसका अर्थ तृष्णा का त्याग. तृष्णा क्या है? यह एक ईच्छा का प्रकार है. जिसे हम अंग्रेजी में विल कहते है. इच्छा को त्यागना ही "भगवान" हम मानते है, तो प्रश्न यह उठता है की, बुद्ध (इन्सान) जो जीवित थे वे भी इच्छाओं का त्याग कर चुके थे? वे इच्छा तिन प्रकार की होती है, ऐसा धम्म कहता है. 
फिर इसमें से किस प्रकार के इच्छा का त्याग करना और न करना इसके बारे में कोई बोध "भगवान" शब्द से होता है? अगर सभी प्रकार के इच्छाओं का त्याग समझा जाए, तो कोई भी व्यक्ति अपने जी ते जी भगवान नही बन सकता. बुद्ध अगर व्यक्ति थे तो वे जीते जी “भगवान” कैसे बन सके? लॉर्ड यह ख्रिश्चन धर्म में "हे लॉर्ड" यानि "हे भगवान" के अर्थ से लिया जाता है, यह धर्म से ही न्याय व्यवस्था में (ईश्वरीय न्यायदान कर्ता- न्यायाधिस के लिए) स्वीकार किया गया शब्द है.
“भगवान” का तृष्णा त्याग अर्थ बौद्धों की किस शब्दकोष में है? किसी भी कोष में यह अर्थ नही है. और न सामान्य जनता की मान्यता है की भगवान का अर्थ तृष्णा त्याग ही है. भगवान का अर्थ है, भग + वान, भग= भोक, छिद्र, होल तथा वान = काया, शरीर,देह. शरीरधारी केवल मानव प्राणी ही धरती पर नही है. फिर भी यह मानते है की यह मानव के बारे में ही अर्थ ले तो “भोक में से निकली काया” या शरीर यानि “भगवान” है. क्या बुद्ध के अलावा अन्य प्राणी या मानव भी भोक से नही निकले? फिर यह उपाधि सिर्फ बुद्ध के ही सामने रहनी चाहिए, बाबासाहब आंबेडकर के नाम के सामने क्यों नही?
“भगवान” का भारत में सामान्य जनता जो अर्थ लेती है, वह है- ईश्वर, परमेश्वर, अल्ला, महावीर, येशु, शंकर, विष्णु, महेश आदि. फिर यही शब्द अगर हम बुद्ध के नाम के सामने लगाकर कहते है तो वह होता है बुद्ध भगवान, अल्ला बुद्ध, ईश्वर भगवान या देव बुद्ध या बुद्ध देव. बुद्ध का तत्वज्ञान अनिश्वरिय रहा. फिर भी हम उनके नाम के आगे अवैज्ञानिक उपाधि चिपकाते है और ईश्वर के जैसे ही उनके मूर्ति की भी पूजा शुरु करते है, उनके सामने जो अगरबत्ती होती है, उसकी राख अपने गले को लगाते है.
धम्म को बाबासाहब आंबेडकर ने जानबुजकर अपनाया. उनपर बचपन से कबीर बुद्ध का प्रभाव था. बुद्ध के तत्वज्ञान को उन्होंने धर्म कहने पर आपत्ति लगायी और अपने लिखे ग्रन्थ का नाम "द बुद्ध एंड हिज धम्म" रखा. न की "द बुद्ध एंड हिज धर्म". धर्म यानि रिलिजन है, पर धम्म बनाम धर्म है. धर्म यह व्यक्तिगत तो धम्म यह सामाजिक सोच है. 
धर्म का रिश्ता ईश्वर से है जो व्यक्ति से संबध रखता है. तो धम्म ही निति है, जो ईश्वर के एवज में व्यक्ति या समाज से सम्बन्ध प्रस्थापित करती है. बुद्ध के धम्म में अगर ईश्वर और आत्मा का वास होता तो वह धर्म के परिभाषा में आता मगर वह अनिश्वरिय और अनात्मवादी होने से वह धर्म से खलास हो जाता है. धर्म की क्या धारणा होती है? इसका जब विचार करते, या अद्ययन करते है तो पता चलता है की, बुद्ध विचार धर्म नही हो सकते, वह धम्म यानि निति है.
बुद्ध के बाद कॉर्ल मॉर्क्स (जन्म- ५ मे १८१८, मृत्यु- १४ मार्च १८८३) ‘साम्यवाद’ के जनक रहे. उनके विचारों से भी दुनिया बहुत प्रभावित रही. इनके विचार भी क्रांतिकारी रहे. यह सभी बाते भी अर्थशास्त्र के विद्यार्थी होने के कारण बाबासाहब आंबेडकर के अद्ययन में आयी. तभी उन्होंने तुलना किया. बुद्ध युद्ध विरोधी थे, तो मार्क्स युद्ध वादी. बुद्ध सम्पूर्ण सामाजिक परिवर्तन चाहते थे, तो मॉर्क्स सिर्फ आर्थिक. 
बुद्ध समाज के १. आर्थिक, २. शैक्षणिक, ३. सांस्कृतिक और ४. राजकीय इन चारो अंगो में परिवर्तन (क्रांति) चाहते थे. क्या मॉर्क्स भी इसी चारों अंगो में परिवर्तन चाहते थे? या सिर्फ अर्थ में ही? शोषण यह सिर्फ आर्थिक ही होता है, यह मार्क्स की भुल थी, जो बाबासाहब को समझी. इसलिए शोषितों का तानाशाही साम्यवाद बाबासाहब ने स्वीकार करने के बजाए बुद्ध के धम्मक्रांति का स्वीकार किया. जिसे आत्मा, ईश्वर और पूजा के अभाव से "अफीम" नही कहा जा सकता. क्या बुद्ध ने पूजा द्वारा कोई आशीर्वाद पाया था?
कॉर्ल मॉर्क्स ने धर्म को आर्थिक शोषण का एक महत्वपूर्ण अंग माना. धर्म में ईश्वर की पूजा करके उसके आशीष पाने का जो मनगढ़ंत कार्य होता है, वहां से ही "पुजारी", पादरी, मुल्ला, बाबा शोषण सुरु कर देते है. भक्तो को गुमराह करने का पादरियों का कार्य रहा है यह कार्ल मार्क्स ने करीब से देखा। 
धर्म को सिर्फ अमीरों का ही दुश्मन नही तो पादरियों, पंडो, पुजारियों का भी दुश्मन समजा जाता है क्यों की उसने धर्म को अफु, अफीम, नशा कहा. कही बुद्ध के धम्म को भी अफु, नशा समजने की भुल कोई मॉर्क्सवादी न करे इस उद्धेश से ही बुद्ध के विचारों को बाबासाहब ने "धम्म" नाम से संकलित किया है. जब की “पाली” साहित्य के “धम्म” का अर्थ हिंदी, मराठी में “धर्म” होता है और “धर्म” का अर्थ “रिलिजन” है. 
इसलिए बुद्ध के विचारों को कॉर्ल मॉर्क्स के हमले से बचाने के लिए बाबासाहब ने बुद्ध विचारो को दूरदृष्टि से "धम्म " मगर यह बाते भदंत आनंद कौसल्यायन को नही समझी और उन्होंने ही सब गडबड की. उन्होंने बुद्ध को भगवान भी माना जब की बाबासाहब ने उसे स्वीकार नही किया. क्या "दी बुद्ध एंड हिज धम्म" का हिंदी अनुवाद "भगवान बुद्ध और उनका धर्म" सही है? क्या “द बुद्ध एंड हिज धम्म” का शीर्षक “द बुद्ध एंड हिज गॉस्पेल” या “लॅार्ड बुद्ध एंड हिज धम्म” है?
अम्बेडकरी विचारधारा जाती, धर्म, वर्ण, वर्ग, भाषा, वंश और लिंग के आधारपर भेदभाव को नही मानती. फिर भी कुछ लोग जनता को गुमराह करने के लिए बाबासाहब अम्बेडकर को ही जाती, वर्ण, वंशवादी सिद्ध करने पर तुले है, उनके बुद्धी पर बडी हंशी आती है. बाबासाहब ने ब्राह्मण और ब्राह्मणी विचारों मे भेद किया और भेदभावपूर्ण विचारों की डटकर आलोचना की, मगर यह जातिवादी लोग व्यक्ति विरोध के लिए अम्बेडकरी संघटन चला रहे है और ब्राह्मणवाद को मदत करते है. 
डॉ. बाबासाहब आम्बेडकरने "रानडे, गाँधी और जिन्हा" नामक किताब मे कहा था की "मै मूर्ति पूजक नही हूँ, मूर्तिभंजक हूँ" मगर अफ़सोस से यह साबित हो चूका है की उनके लोग मुर्तिभंजक नही है, मूर्तिपूजक है. कभी बुद्ध की तो कभी बाबासाहब की मुर्तिया पूजी जा रही है. मूर्तिपूजा को धम्म वन्दना का दर्जा दिया जा रहा है. ‘मूर्ति को माला और विचारों को ताला’ है. मूर्तिपूजा को धम्म समझना गलत है. "गल्त समझे यह बुद्धिमान गौतम की बसारत को, बलाए बुत प्रसति ने किया बर्बाद भारत को." - हफीज जालंधरी. धम्म का पालन यानि विचारों का पालन करना है, न की उनकी मूर्तियों को पूजना.