शनिवार, 12 सितंबर 2020

दिशाहीन आम्बेडकरी समाज

अगर आप आम्बेडकरी समाज में पैदा हुए पर आम्बेडकरी साहित्य से वाकिब नही हो इसलिए यह सवाल - संदेह आपके दिमाग़ में आए है। सवाल पर टिप्पणी १) यह भी बाबा साहब का काम करता और वह भी बाबा साहब का काम करता यह ऐसा आपको लगता यह बाद ग़लत है। सबसे पहले हमने आम्बेडकरी इझम क्या है इसे देखना चाहिए, मेरे दृष्टि से बुद्धीइझम ही आम्बेडकरी इसम है

बुद्धिइसम क्या है? बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय के उद्धेश पूर्ति के लिए आर्य अष्टांगिक मार्ग का पालन करना या आदर्श जनतंत्र का पालन करना। क्या कांशीराम, मायावती, वामन मेश्राम और उनके संघटन में जनतंत्र या बुद्धी इसम दिखायी देता है? जनतंत्र का मतलब न्याय, स्वतंत्रता, भाईचारा और समता है, क्या यह जनतंत्रांतिक ४ नैतिक मूल्य बिएसपी या बामसेफ के अंदर दिखाई देते है?

अगर यह मूल्य होते तो उन्मे विभिन्न गुट क्यूँ बने होते? दोनो सघटनो में अध्यक्ष पद का चुनाव संदेहास्पद ढंग से होता है। पुराने ही व्यक्ति को क्यू चुना जाता? इसी के कारण हीरो वर्शिप का उदय हुआ, पहले कांशीराम और अब वामन हीरो बने_बनने के लिए वे वैसी स्थिथि संघटन में पैदा करते है, किसका यह नतीजा होता है की जनतंत्र की हत्या की जाती है।

जो भी व्यक्ति अपने आचरण से ४ नैतिक मूल्यों का पालन करता है उसके विरोधक बन ही नही सकते_कांशीराम के विरोधक डी के खापरडे, वामन मेश्राम और बि ड़ी बोरकर रहे, क्यू? बाद में वामन मेश्राम के विरोध में ड़ी के खापरडे, बि ड़ी बोरकर, एस के पाटिल रहे, क्यूँ ? मै ख़ुद ४ साल बामसेफ में फुलटैम काम किया, वामन मुझे जानता है, क्यूँकि नागपुर विभाग का कार्य मै देखता था, मैंने त्यागपत्र दिया और कारण बताया, बामसेफ में जनतंत्रिक मूल्यों का अभाव होने से मै तानाशाही संघटन का त्याग करता हूँ। रजिस्टर पोस्ट द्वारा त्यागपत्र मुंबई के आफिस के भेजा लेकिन उसका जवाब नही आया।इसका मतलब बामसेफ पर मैंने जो आरोप लगाए वह सही है।

मेरे बाद में राजरत्न अम्बेडकर का बामसेफ में आगमन हुआ, उन्हें भी यह स्थिति नज़र आयी होगी इसलिए उन्होंने बामसेफ का त्याग कर बुद्ध धम्म प्रचार, बौद्ध आंदोलन में ख़ुद को झोंक दिया। रज़रतन्न विदेश में बामसेफ की असलियत बताता है इसलिए वामन मेश्राम को विदेश चाहने वाले लोगों की कमी नज़र दिखाई दी होगी। जो भी व्यक्ति वामन मेश्राम के लिए प्रतिस्पर्धी नज़र आता है, उसका चरित्र हरण करने के लिए उनपर ग़लत आरोप लगाना का उनका पुराना इतिहास रहा है।

उनके आरोप में अगर सच्चाई है तो उनके ख़ुद के पाक्षिक/साप्ताहिक/दैनिक में क्यूँ नही छपवाता? लोग तय करेंगे की वामन सही है या राजरत्न? बामसेफ ने बुद्ध को धार्मिक पुरुष माना, क्या बाबा साहब भी बुद्ध को धार्मिक पुरुष मानते है? बुद्ध धार्मिक नही तो नैतिक पुरुष थे, जनतंत्र की निव रखनेवाले पहले पुरुष थे। अलग अलग जातियों के लोगों को उनके बनर पर जगह मिलती है पर बुद्ध को क्यू नही? बुद्ध को जो लोग धार्मिक पुरुष मानते है वे बुद्धिसम के जानकार नही है, जो लोग जानकार नही है वे बुद्धिसम के प्रचारक कैसे हो सकते?

जो लोग बामसेफ और बि एस पी को बौद्धों का संघटन मानते है उनका पहला यह कर्तव्य है की वे उसे साबित करे। बाबा साहब के नामपर राजनीति करना यानी बाबा साहब के विचारों प्रचार करना या उनके उद्धेशो की पूर्ति करना नही है। अगर ऐसा है होता तो ४० साल में भारत बुद्धमय बन चुका होता, शिवधर्म का उदय नही हुआ होता।

२) हमने हमारा नेता किसे कहना चाहिए? हमने वोट किसे देना चाहिए? यह सवाल काफ़ी बौद्धों के मन में आते है। आने भी चाहिए तभी उनका जवाब मिलेगा। बुद्ध ने धम्म का शास्था किसी व्यक्ति को रखा था। फिर हमें व्यक्ति क्यूँ चाहिए? समाज को व्यक्तिवादी बनाना है या विचारवादी? "रानाडे, गांधी और जिंहा" किताब में बाबा साहब ने व्यक्तिवाद के दुस्परिणाम बताए है, फिर भी बामसेफ ने जातिवादी विचारों के प्रचारक, तानाशाही के उपासक कांशीराम, मायावती और वामन मेश्राम दिए है। यह लोग न सच्चे आम्बेडकरी रहे है और न सच्चे बुद्धिष्ट।

बुद्ध, संत कबीर, गाडगे महाराज, बाबा साहब अम्बेडकर इन्होंने जातिवाद, वंशवाद अंध श्रद्धा का विरोध किया और बामसेफ / बीएसपी उनका प्रचार करते आ रही है फिर भी उन्हें आम्बेडकरी आंदोलन का हिस्सा समझा जा रहा है यह बड़े ताज्जुब की बात है! बुद्ध धम्म की क्या मूलभूत शिक्षा रही है_ "आर्य अष्टांगिक मार्ग" । आर्य = श्रेष्ट, महान, गुणवाचक शब्द है परंतु वामन मेश्राम में उसे वंशवाचक बना दिया।

प्राचीन भारत में "आर्य बनाम नाग वंश" का काल्पनिक संघर्ष खड़ा किया गया, आर्य वंश के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने के लिए "मूलनिवाशी" (नाग) संकल्पना को उछाला गया। जयभिम के बजाए मूलनिवाशी का संबोदन करना सुरु किया, क्या यह अम्बेडकर प्रेम की निशानी है? बुद्ध के गुणवाचक शब्द को वंश वाचक क़रार देकर मेरा ही कहना सही कहना, क्या बुद्धिसम के साथ न्याय है?

३) आम्बेडकरी समाज को नेते के ज़रूरत नही है, सही विचार की ज़रूरत है, जो उन्हें अभी तक मिल नही पाए, जो नेता को पता है और न उनके अनुयायीयो को पता है क्योंकि अध्ययन का अभाव है। यूनिवर्सिटी की डिग्री हासिल करना यानी बुद्धिसम या आम्बेडकरी इसम की पढ़ाई करना नही है, कुछ किताबे पढ़े भी है तो उनका सही अर्थ लगाते भी आना चाहिए। ग़लत अर्थ लगाकर ग़लत नेताओं को पूजा गया है, बाद में उसने समाज को धोका दिया है।

बहुजन हित-सुख प्रदान करनेवाले विचार है हमें सुख और समृद्धि दे सकते है, न कोई दूसरा नेता या संघटन। फिर हम वोट किसे दे? जो नेता / पार्टी बहुजन हित-खुख दे सकती है उसे दे, हर समय वह बदलते रहेगी तो हमारा वोट भी बदलते रहना चाहिए। हमारे जाती/धर्म/समाज/परिवार का नेता भी ज़ालिम निकल सकता है, जो हमेशा बात तो जनतंत्र की करता है पर आचरण में जनतंत्र नही दिखाई देता, उनसे हमेशा सावधान रहना चाहिए, दूर रहना चाहिए।

जो लोग बामसेफ को चंदा दे रहे थे वे लोग अब रज़रतन्न को चंदा दे रहे है, साथ में उन्हें बड़े बड़े समारोह में बुलाते है और राजनैतिक है, बुद्ध की नैतिक शिक्षा का प्रचार कर रहे है यह बामसेफ/वामन मेश्राम के लिए दुःख की बात है इसलिए नेता लोग एक दूसरे को पानी में देखते रहते है, उससे ज़्यादा दुखी नही होना चाहिए, हमें क्या अच्छा करना जमता है? वह करते रहना चाहिए। यह मेरी आम्बेडकरी समाज को सलाह है। चाहे तो मानो नही तो जानो, उसके बाद मानो।

धम्मक्रांति का जनतांत्रिक सफ़र - 3

सिद्धार्थ गौतम बुद्धने ईसापू- ५२८ में “अश्विन शुद्ध पूर्णिमा” के दिन सारनाथ (वाराणसी, काशी) के ॠषिपत्तन, मृगदाव बन में ब्राहमण संन्याशी १. कौण्डिन्य, २. वप्प, ३. भद्दीय, ४. महानाम, और ५. अश्वजित को क्षेम कुशल पूछने के बाद धम्म प्रवचन दिया जो “धम्मचक्र परिवर्तन सूत्र” में मौजूद है. तथागत गौतम बुद्ध ने पांच ब्राह्मण सन्यासियों को धम्म का प्रथम सन्देश दिया, “अनादी काल से ... (चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को चलाने के लिए ब्राह्मणों द्वारा ईश्वर, आत्मा, यज्ञ, पूजा, पाप-पुन्य, स्वर्ग, नरक की बेबुनियाद कल्पना चल रही है जिसका व्यक्ति और समाज के हितों से कोई भी रिश्ता और लगाव नहीं है, उसे कुछ मुट्टीभर लोगों के हितों में बढावा दिया जा रहा है. जो नही होना चाहिए. इसलिए ... )
“भिक्षुओं! “कामवासना” और “शरीरपीड़ा” इन दो के अतियों को नही अपनाना. मैंने नया मध्यम मार्ग खोज निकाला है, जो नई दृष्टी देनेवाला है. वह यही “आर्य (परम) अष्टांगिक मार्ग” है. जैसे की “सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प.....सम्यक स्मृति, सम्यक समाधी.

“मेरे धम्म का उद्देश विश्व की निर्मिती करना नही है, उसकी पुनर्रचना करना है, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय, आदि कल्याण, मध्य कल्याण और अन्त्य कल्याण करना है तथा जो असामान्य (ब्राह्मण, देव (मुनि), बुद्धिमान) और सामान्य (श्रमण, गृहस्थ, अनाड़ी) इन लोगों के लिए सुखकर है...वह दुख निरोध गामिनी, प्रतिपदा परम सत्य, “आर्य अष्टांगिक मार्ग” है.” वह इस प्रकार है.
१. सम्यक दृष्टि: सम्यक दृष्टी यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ठ, (मध्यम) आदर्श विचार है. यह “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति के महत्तम, मुलभुत “आदर्श विचार” है.
सम्यक दृष्टी में निम्नलिखित पांच महत्वपूर्ण सिद्धांत है.
अ. प्रतित्यसम्मुत्पाद- कारणों से ही कार्य होता, विज्ञान कार्य है, तो उसकी जड कारण है.
१. अज्ञान – सहवास – परिवार, सहजीवन, स्त्री-पुरुष
२. संस्कार – गर्भ – चार महाभूत – पृथ्वी, आप, तेज, वायु
३. विज्ञान – चेतना – जागृत मन, चित्त
४. नामरूप – सजीव – सप्त धातु – रस, रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि, मेद, वीर्य
५. षडायतन – इन्द्रिय – मस्तिष्क, आँखे, कान, नाक, जिन्हा, त्वचा
६. स्पर्श – जन्म – विचार, आहार, विहार, संशोधन, संयोग
७. वेदना – तर्क – समझ, देखना, सुनना, सूंघना, चव, संवेदना, सुख, दुःख, पीड़ा
८. संज्ञा – व्याख्या – पहचान. कुशल, अकुशल, योग्य, अयोग्य
९. उपादान – निषेध – तृष्णा, इच्छा के कारणों को मिटाकर इच्छा पूर्ति करना
१०. भव – समाज – रिश्ते, नाते, माँ, बाप, भाई, बहन, पडोसी, मित्र, शत्रु, संसार
११. जाती – विकास – गॉव, शहर, देश, दुनिया में प्रसिद्धी
१२. दुःख – मृत्यु – महाभूतों का विलग, इच्छाओं का अंत, बदल, रोना, हँसना, शोक अज्ञान से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नामरूप, नामरूप से षडायतन, षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से संज्ञा, संज्ञा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाती, जाती से जन्म और जन्म से मृत्यु के कारण बताए है. व्यक्ति बिना कारणों से नही तो बहुत कारणों से ही बना है, बनता है और बिघड़ता भी है.
ब. अनित्य - पदार्थ नित्य नही है. वैसा ही व्यक्ति में भी पलपल परिवर्तन होता है. पदार्थ नित्य कैसा?
क. अनात्म - आत्मा नही है. आत्मा न होने से व्यक्ति अमर, अजर, अविनाशी कैसा? आत्मा कहा है?
ड. अनीश्वर - ईश्वर नही है, व्यक्ति को माँ-बाप ने बनाया. बिना कारण ईश्वर की घटना सम्भव कैसी?
इ. अ-सर्वज्ञ – संसार में कोई भी व्यक्ति बुद्धी से सर्वज्ञ नही, परिपूर्ण नही है. तो ईश्वर सर्वज्ञ कैसे?
२. सम्यक संकल्प :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श हौसला है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति का महत्तम, मुलभुत “आदर्श निर्धार” है.
३. सम्यक वाचा :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श वाणी है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति की महत्तम, मुलभुत “आदर्श संवाद” है.
४. सम्यक कर्म :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श कार्य है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति का महत्तम, मुलभुत “आदर्श कार्य” है.
५. सम्यक आजीविका :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श आचरण है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति का महत्तम, मुलभुत “आदर्श आचरण’ है.
६. सम्यक व्यायाम :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श आदत है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति का महत्तम, मुलभुत “आदर्श प्रयास” है.
७. सम्यक स्मृति :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श स्मरण है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति का महत्तम, मुलभुत “आदर्श स्मरण” है.
८. सम्यक समाधी :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श एकाग्रता है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति की महत्तम, मुलभुत “एकाग्रता” है. (मन लगाकर काम करना)
सम्यक दृष्टी और सम्यक संकल्प से “न्याय”; सम्यक वाणी और संम्यक कर्म से “स्वतंत्रता”; सम्यक आजीविका और सम्यक व्यायाम से “समता” तथा सम्यक स्मृति और सम्यक समाधी से “भाईचारा” का बोध होता है. जनतंत्र के लिए काफी उद्बोधक यह क्रान्तिकारी नैतिक मूल्य है, नैतिक कृति है. उसी प्रकार सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प से प्रज्ञा; सम्यक वाचा, सम्यक कर्म, सम्यक आचरण से शील तथा सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधी से “करुणा” प्रकाशित होती है. गौतम वर्ण व्यवस्था के खिलाफ हमेशा चिंतित रहे, उनके विनाश के लिए नए अहिंसक रास्ते की तलास करते रहे, चिंतन से जो ज्ञान प्राप्त किया. उन्हें वही ज्ञान, वर्ण व्यवस्था से लड़ने के लिए पर्याप्त लगा. उसपर ही वे समाधानी हुए, उसी ज्ञान के मदत से उन्होने ब्राह्मणों के ज्ञानदान कार्य पर अतिक्रमण किया.
‘वासेट्टा सुत्त’ में बुद्ध वशिष्ट और भारद्वाज से चर्चा में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की पोल खोलते है, “प्राणियों की जातियों में एक दुसरे से जाती भेद है, तृण और वृक्ष में भी जानते हो (इसके लिए) वह प्रतिज्ञा नही करते, जाती का लिंग है, उनमे जातिया एक दुसरे से (भिन्न) है. फिर किट, पतंग से चीटी तक .....जैसा इन जातियों में जाती का अलग अलग लिंग है. इस प्रकार जाती, लिंग मनुष्य में अलग नही है.
........मनुष्य के शरीर में एक (भेदक लिंग) नही मिलता.
........मनुष्य में भेद (सिर्फ) संज्ञा में है.
.......माता और योनी से उत्पन्न होने के कारण मै ब्राहमण नही कहता. जो बिना दूषित (चित्त) किए गाली, बढ़ और बंधन को सहन करता है, क्षमा बल ही जिसके बल (सेना) का सेनापति है, उसे मै ब्राह्मण कहता हूँ. जो अक्रोधी, ब्रती, शीलवान, बहुश्रुत, संयमी (दांत) और अंतिम शरीरवाला है, उसे मै ब्राह्मण कहता हूँ.
.......अज्ञों की धारणाओं में जो चिरकाल से (यह) घुसा हुआ है. जाननेवाले नही कहते – ब्राह्मण जन्म से होता है. जन्म से न ब्राह्मण होता है, न जन्म से अब्राह्मण. कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से ही अब्राह्मण. कर्म से कृषक होता है, और कर्म से ही शिल्पी. कर्म से ही बतिया होता हैं, कर्म से ही प्रेस्यक. कर्म से ही चोर होता है, योद्धा जीव भी कर्म से. कर्म से याजक होता है, राजा भी- कर्म से प्रतीत्य समुत्पाद दर्शी कर्म विपाक को विद, पंडित इस प्रकार कर्म को यथार्थ से जानते है.” (बापूसाहेब राजभोज इन सर्च ऑफ़ बुद्धिस्ट आइडेंटीटी, लेखक- डॉ. मुंशीलाल गौतम, पृष्ट- १५९-१६०)
बुद्धने कोई ऐसे सवाल बाकि नही रखे है जिसके जवाब उन्होंने नही दिए हो. “दस अव्याकृत बातों” का भी उन्होंने अपने इन दर्शन में उत्तर दिए है. यह “१० बाते” इसलिए अव्याकृत कही गयी थी क्यों की उसका “समाज के पुनर्रचना” से कोई ताल्लुख नही था, उनका ताल्लुख सिर्फ विश्व निर्मिती से था. जो बुद्ध धम्म के उद्धेश विपरीत बाते, थी उस विषय पर क्यों वक्त बर्बाद करना चाहिए? वह “१० अव्याकृत बांते” कोंशी है?
१. क्या लोक (दुनिया) नित्य है?
२. क्या लोक अनित्य है?
३. क्या लोक अन्तवान है?
४. क्या लोक अनन्त है?
५. क्या जीव और शरीर एक है?
६. क्या जीव दूसरा, शरीर दूसरा है?
७. क्या मरने के बाद तथागत (मुक्त) होते है?
८. क्या मरने के बाद तथागत नही होते ?
९. क्या मरने के बाद तथागत होते भी है, नही भी होते है?
१०.क्या मरने के बाद तथागत, न होते है, न नही होते है ?
तथागत बुद्ध ने कहा था, “मालुंक्यपुत्त! मैंने इन्हें .... अव्याकृत (इसलिए).... (कहा) है. (क्योंकि)...यह (इनके बारे में कहना) सार्थक नही, भिक्षु-चर्या (ब्रह्मचर्य) के लिए उपयोगी नही, (और) न यह निर्वेद, वैराग्य, निरोध (शान्ति) ...परम ज्ञान, निर्वाण के लिए (आवश्यक) है. इसलिए मैंने उन्हे अव्याकृत किया. (बौद्ध दर्शन, राहुल संकृत्यायन, किताब महल, १९९२, पृष्ट-३८)
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प्राचीन भारतीय इतिहास में "आर्य" नामक कोई भी वंश नही हुआ

आधुनिक संसार को काफी खतरनाक समस्याओं ने चपेट में लिया है, उसमे कुछ प्राकृतिक है तो कुछ मानव निर्मित. व्यक्ति ने पहले अपने समस्याओं को सुलझाने का कार्य किया और प्राकृतिक समस्याए बड़ते गयी. अभी मानव के पास दो प्रकार की समस्याए है. दोनों प्रकार के समस्याओं से निपटने के लिए उचित शक्ति की जरुरत होती है. एक दुसरे के सहयोग के बिना कोई वैश्विक समस्याए हल नही होगी. इसलिए वैज्ञानिक और सामाजिक विचारवंत सोच रहे है की कौनसी विचारधारा इस दोनों प्रकार के समस्याओं से राहत दे सकती? ज्यादातर देशों का बुद्ध की ओर रुख है. करीब डेड सौ देशों में बौद्ध फ़ैल चुके है. धर्मो का युग ख़त्म हो रहा और “धम्म” का युग आ रहा है. इव्होल्युशन यानि नैसर्गिक परिवर्तन और रिव्होलुशन यानि मानवी परिवर्तन, जिसे हम “क्रांति” कहते है. विश्व में सिन्धु सभ्यता भी एक महानतम् क्रांति रही है. उसके बाद विश्वव्यापी “धम्म” क्रांति का “जनतांत्रिक” दौर सुरु हुआ.
धम्मक्रांति को जानने के पहले सिन्धु सभ्यता और धम्म क्रांति के बिच का फासला भी ठीक से जानना जरुरी है. उसका सफ़र कैसे रहा? इस विषय पर आने से यह पता चलता है की, भारत में “हिन्दू धर्म” के पहले “सिन्धु सभ्यता” का दौर रहा, जिसके सबुत “हड़प्पा” और “मोहनजोदड़ो” शहरों के उत्खनन से साबित हुए है. वह प्राकृतिक आपदाओ में पूर्णतः लुप्त हुयी. बाद में सिन्धु नदी के तट पर विकसित हुए सभ्यता को “हिन्दू सभ्यता” कहा जाने लगा. हिन्दू सभ्यता ही हिन्दू धर्म है, जो वेदों को प्रमाण मानते है. तथा उसपर पर विश्वास करते है, वह हिन्दू है. भारत में वैदिक सभ्यता का विकास हुआ. करीब एक हजार साल तक उसका प्राचीन भारत पर असर रहा. वैदिक सभ्यता का मुख्य आधार यज्ञ पूजा रहा. जो ईश्वर को खुश करने के लिए की जाती थी. जिस घटना का कोई कारण पता नही होता उसे लोग भगवान की कृति समझते थे. ठीक उसी ढंग से प्राचीन काल के भारतीय जनता के दिमागों में खेल चालू था. जो श्रम करके अपनी उपजीविका करते थे उसे श्रमण कहा जाता था और जो श्रम करने से डरते थे, जो सिर्फ दिमागी कार्य ही करना चाहते थे, ऐसे आलसी लोगों को ब्रह्म (ज्ञानी) ब्राम्हण कहते थे.
भारतीय विख्यात इतिहास तज्ञ, नवल ‘वियोगी’ लिखते है, “पूर्व पाषाण युग के अंत में ईसा पूर्व- १०,००० के लगबग असभ्य मनुष्य के मस्तिष्क में विचित्र विकास हुआ और उसने नवीन पाषाण युग में प्रवेश किया....इसा पूर्व ६ सहस्त्राब्दी के मध्य में इसने कृषि करना सिखा...तथा उसी के साथ पशुपालन भी सुरु किया...मिट्टी के बरतन भी बनाने लगा...इसा पूर्व ५ वी सहस्त्राब्दी के लगबग ताम्ब्र युग का प्रारम्भ हुआ...सिन्धु सभ्यता भी इसी युग के परिवार की सभ्यताओ मे से एक है. इसी युग की तिन प्राचीनम सभ्यताओं में “दजला फरात” नदी के किनारे “मेसोपोटामिया”, “नील के किनारे “मिश्र” तथा “सिन्धु नदी” के किनारे “हड़प्पा” ने जन्म लिया और खूब फली-फुली....मोहनजोदड़ो का शब्दार्थ ही “मुर्दों का टीला” है ...इसमें सबसे ऊँचा “स्तूप टीला” है. उसकी ऊंचाई ७० फुट है...सन १८५६ में मुल्तान-लाहोर रेल्वे लाईन १०० मील के हिस्से के निर्माण का काम करनेवाली अंग्रेज कंपनी के ठेकेदार “जेम्स विलियम वर्टन” ने ...सब से पहले यह पाया...की उपलब्ध वस्तुए १५००-२५०० इसा पूर्व की है.” (सिन्धु-घाटी सभ्यता के सृजनकर्ता शुद्र और वणिक, सन- १९८५, भूमिका)
डॉ. भारत पाटणकर लिखते है, “इन्द्र इस ॠग्वेदीय नायक को “पुरंदर” – शहरों को तोडनेवाला कहते है.... ‘हरियुपिया’ (हरप्पा) नगरी पर हल्ला करके उसे नष्ट करने का सबूत ॠग्वेद (६.२७.५) में (वधिदिन्द्रो वरशिखस्य शेषो अभ्यावर्तिने चायमानाय शिक्षन् | वृचिवतो युद्धरियूपीयांयोहन्पूर्व अर्धेभियसापरो दर्त ||) आया है.... जो सिन्धु सभ्यता के निर्माता थे, उनके शहरों को लुटा और उसे “दस्यु” (दास) कहा... “पनी”, व्यापारी (वाणी) भी उनका नाम था. (हिन्दू की सिन्धु? सुगावा प्रकाशन, सन- १९९३).... डॉ. रूपा कुलकर्णी लिखते है, “ॠग्वेद में कुल १०२८ सूक्ते, उसे लगबग ३९० ॠषिओं ने लिखी. उसमे से कुछ सूक्ते महिलाओं ने भी लिखी है.” (दैनिक लोकमत, नागपुर, २६ अप्रैल २००७) .... वेदों कृतियाँ के बारे में इतिहास तज्ञ, प्रा. मा. म. देशमुख लिखते है, “लगबग २०० साल पहले ब्राह्मणों ने वेदों का गठन किया होगा.” (बौद्ध धम्म आणि शिवधर्म, जुलाई- २००७, पृष्ट-७)
वैदिक धर्म का दूसरा नाम हिन्दू धर्म है. इस काल में समाज जितने वाले व्यक्ति या टोलियों को “आर्य” (श्रेष्ट) कहा जाता था. आर्य कौन थे? इसका साक्षात्कार सन १९४६ में, विश्व विख्यात प्रगाड़ विद्वान् डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने अपने "हूँ वेअर द शुद्राज?" संशोधन पर ग्रन्थ के ‘७ वे अध्याय’ मे दिया है, "यह सिद्ध हो चूका है की, शुद्र अनार्य नही है. तो वे क्या थे? उसका उत्तर है १. शुद्र आर्य है. २. शुद्र क्षत्रिय है. ३. शूद्रों का स्थान क्षत्रियों मे उच्च था क्योंकि प्राचीन काल मे कई तेजस्वी और बलशाली राजा शुद्र थे. यह मत इतना अनोखा है की इसे लोग मानने कों तयार न होंगे. अतेव, अब प्रमाणों की जाँच की जाए. प्रमाण महाभारत, शान्ति पर्व, (६०, ३८-४०) मे है.”
निसर्ग निर्मित भूकंप, भूचाल मे जैसे हालत बस्तियों की होती है, उसी प्रकार जमींन की उथल-पुथल हुयी है. ठीक वैसे ही प्रकार का परिणाम खुदाई में पाया गया. खुद डॉ. बाबासाहब अम्बेडकरने भी स्वीकार किया है की सिंधु संस्कृति पर किसी ने भी हमला नही किया और ना उनके पुक्ता सबूत मिले है. मनगढ़ंत वेदों को प्रमाण मानकर वर्ण, जाती और धर्म के चाहनेवाले सिन्धु संस्कृति पर हमला होने का दावा कर रहे है, हम वेदों का भी विचार करे तो सुरु मे वेद तीन ही थे. चौथा वर्ण बाद मे बना. इसका मतलब वेद हमेशा विकशित होते गए, वेद का मतलब वेध या निचोड़ है.
सिन्धु सभ्यता का विनाश कृतिम कारणों से नहीं तो भूचाल, नैसर्गिक कारणों से हुआ था. जो लोग विदेशी हमला उसका कारण मानते है, वे वंशवादी है, जो वंश के नाम पर मानव समाज में भेदभाव पैदा कर झगड़ा करना चाहते है और उसमे अपनी रोठी शेंकना चाहते है. अगर बौद्ध साहित्य पढ़ते है तो पता चलता है की प्राचीन भारत में आर्य नाम का कोई वंश नही था, वह एक विशेषण है, आर्य का मतलब "श्रेष्ठ" है, न की वंश. इसलिए आर्य बनाम अनार्य, नाग, मुलनिवाशी संकल्पना मनगढ़ंत है. यह जातिवादी, हिन्दुधार्मीय, बामसेफ, बीएसपी, एम्बस, भारत मुक्ति मोर्चा का संशोधन बेबुनियाद है. वह केवल हवा पर निर्भर है, हकीकत पर नहीं.

गौतम बुद्ध "आदर्श जनतंत्र" के जनक है !


बौद्ध धम्म के ग्रंथो को ज्यादातर हिन्दू ब्राह्मण भिक्षुओँ ने भी लिखा है. इसे सारे संप्रदाय मानते है. पर भारत मे बुद्ध का धम्म जनतंत्र पर अधिष्टित है, जो केवल राजकीय जनतंत्र के पक्ष में नही तो आर्थिक जनतंत्र के भी पक्ष में रहा है इसलिए बुद्ध ने भिक्षुसंग को आदर्श जनतंत्र का प्रायोगिक उदहारण पेश किया है. जहा से न्याय, स्वतन्त्र, समता और बंधुभाव की शिक्षा दी जाती है.
जाती यह जन्म पर अधिष्टित रही है, बुद्धिपर नही. जिन्होंने बुद्ध को माना है उन्होंने जाती, धर्मगत विचार छोडना चाहिए. भारत मे जब सिद्धार्थ पैदा हुए तो वर्ण, जाती व्यवस्था थी, उनके शिकार सिद्धार्थ भी बने. साक्यसंघ वर्ण व्यवस्था पर निर्भर था, जिनके शिक्षा को भुगतने के लिए सिद्धार्थ को कपिलवस्तु नगरी, माँ-बाप, मित्र, पुत्र और पत्नी भी त्यागना पड़ा. उसके लिए वर्ण व्यवस्था जबाबदार है, इसका सिद्धार्थ को पता था.
सिद्धार्थ ने जंगल मे ज्ञान हासिल करने के लिए काफी प्रयास किया. लेकिन वर्णव्यवस्था को खत्म करने का ज्ञान किसी से भी नही मिला और वे हमेशा असंतुस्ट रहा करते थे, जिसका परिणाम यह हुआ की उन्हें "गया" के जंगल मे अलग से चिंतन करना पड़ा. उन्हें चिंतन से यहसास हो गया था की यह ज्ञान वर्ण व्यवस्था को खत्म करने के लिए पर्याप्त है, उसी समय उन्होंने संतुष्टी हुयी और कल्याणकारी रास्ता बताना सुरु किया, जिसमे सुरु के ५ लोग ब्राह्मण ही थे.
बुद्ध ने ब्राह्मण द्वेष किया होता तो पहले अपने ज्ञान को उन्हें नही बताया होता. वे वर्णव्यवस्था के विरुद्ध थे, ब्राह्मणों के नही. ब्राह्मणों पर बुद्ध ने विश्वास किया की यह लोग उनका धम्म जनता को सही ढंग से समझा सकते है. उन्होंने ब्राह्मण सारिपुत्त को संघ सेनापती नियुक्त किया. ब्राह्मण लोग बुद्ध के नजर मे बुरे होते तो उन्होंने ऐसा नही किया होता.
तथागत सिद्धार्थ के भाई, क्षत्रिय, देवदत्त बुद्ध और धम्म के विरुद्ध थे. जिन्होंने आजन्म बुद्ध का विरोध किया था. इसका मतलब यह नही होता की लोग जाती, वर्ण के आधारपर अच्छे या बुरे होते है. बुद्ध के मतानुसार व्यक्ति किसी भी समूह का रहे उनके विचार बदले जा सकते है, इसपर उन्हें पूर्ण विशवास था, जो विश्वास जातिवादी लोगों मे नही होता. बुद्ध के संघ मे ७५ % ब्राह्मण थे, इसका मतलब सभी लोग ईमानदार थे, ऐसा भी नही था. बुद्ध के हयात मे "भो गौतम, अरे गौतम" कहनेवाले भी ब्राह्मण थे जो बुद्ध का अपमान भी करने के लिए प्रयासरत होते थे.
महामानव बुद्ध को अपने विचारों पर इतना भरोसा था की चाहे वह कितना भी कपटी और खुन्कार हो उसे समझाया जा सकता है, विचारों से काबू मे लिया जा सकता है. मगर जातिवादी लोग अपने विचारों कों उतने प्रभावी ढंग से नही रख पाते, क्योंकि वे कपटी है. उनके पास ज्ञान के एवज अज्ञान होता है. बुद्ध यह ज्ञानी थे, ज्ञान से अज्ञान पर विजय पाना सम्भब है, इसपर उन्हें महत्तम विश्वास था, इसलिए वे ज्ञान ही बाँटते गए. ज्ञानी व्यक्ति कपटी को भी जल्दी पहचान सकता है तथा उनसे गलती न हो इसके लिए हमेशा जागृत रहता है.
ब्राह्मण जातियों के वजह से महान है और अन्य नही, ऐसा कभी भी बुद्ध ने नही कहा. कोई भी व्यक्ति अपने जाती के भरोसे छोटा या बड़ा नही होता तो अपने विचार तथा आचारों से होता है. हर जाती का व्यक्ति जाती प्रथा पर भरोसा करके ज्ञान को नकारते जा रहा है तो ऐसे लोग चाहे किसी भी समूह के हो वे बौद्ध नही हो सकते. पेरियार रामासामी कहते थे की, ब्राह्मण दिखा तो उन्हें जानसे मार दो, उनके विचार सापों से भी ज्यादा जहरीले होते है, मगर बुद्ध व्यक्ति के विरुद्ध नही थे चाहे वे किसी भी जाती के हो, इसलिए लोग अपने जातिओं के खिलाफ भी आवाज उठाने वाले भिक्खु संघ मे थे. वज्रसुची कों एक ब्राह्मण भिक्खु अश्वघोष ने लिखा है, जहापर जाती,वर्ण, वंश का अभिमान, अज्ञान दूर किया है.
बुद्धी द्वारा बुद्ध ने जातिवादी, वर्णवादी, वंशवादी लोगों को वश मे किया और उनसे अपना उद्धेश पूरा करने के लिए काम करवाया. बुद्ध ने ब्राह्मणों का जनता के कल्याण मे वापर किया जिससे वर्णव्यवस्था चरमरा गयी थी. ब्राह्मणों को हिन्दुधर्म का एक महान शत्रु धम्मधारी बौद्ध ही लगते थे. इस कारण उसमे कुछ गलत लोग भी सम्मिलित हुए और धम्म विचारों मे जहर भी घोल दिया. जहर और अमृत की पहचान करनेवाला ज्ञान जिनके पास है, वे व्यक्ति न ब्राह्मणों के कपट से डरते है और न ब्राहमण जातीय अंगुलिमाल डाकू से डरते है.
कपिलवस्तु से कुछ लोग आए और कहने लगे की हमें संघ मे सम्मलित करे, तो उन्होंने “उपाली” नामक नाई का काम करनेवाले, शुद्र समझे जानेवाले व्यक्ति को पहले संघ दीक्षा दी और उनके बाद क्षत्रिय लोगों को दी थी, उनके पीछे उनका उद्धेश ज्ञान जिसने पहले पाया वह ही गुरु है, चाहे फिर वर्ण व्यवस्था मे उनका दर्जा कोनसा भी क्यों न हो. बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था विरहित अपनी “धम्म् व्यवस्था” बनाई थी, जो पूर्णता जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष थी. जाती, वर्ण, वंश के आधार पर किसे भी उंच या नीच समझना और समझाना अनीति तथा गुना भी है.
सम्यक सम्बुद्ध और बाबासाहब आंबेडकर यह बुद्धिवादी, ज्ञानवादी लोग थे. ज्ञानी को सम्मान और अज्ञानी को अपमान, ऐसा भी भेदभाव वे नही करते थे. बुद्धी कम ज्यादा रह सकती है मगर उनके विचार स्वार्थ निरपेक्ष यानि अनेक (बहु) जन कल्याणकारी जरुरी है. बेईमान और अज्ञानी लोग हमेशा रहेंगे, उनसे कैसे बर्ताव करे? इसका ज्ञान होना चाहिए. हम अगर उसे देते है तो हमने किसी से भी डरना नही है, कपटी लोग खुद ही डरेंगे.
परम वन्दनीय बुद्ध और बाबासाहब ने अपने संघ-संघटनाओ मे ब्राह्मण लोगों को भी सम्मिलित किया था, इसका मतलब यह नही होता की अन्य लोग नही थे. अपेक्षित व्यवस्था का उद्धेश क्या है? यह महत्वपूर्ण है. उसके अनुकूल अगर कोई कार्य नही करे तो उन्हें बाहर निकलने का रास्ता मिल ही जाएगा. उन्हें निकालने के लिए प्रयास करने की जरूरत नही है. अच्छे लोगों मे बुरे विचारों के लोगों से हमेशा दूर ही भागते है तथा वे बुरे लोगों का अलग ग्रुप बनाते है.
चोरों को संघटन मे स्थान नही है ऐसी बाते लिखने की जरुरत नही. नियम ही ऐसे बनाओ और दिखाओ की वे उसे पढकर ही आपसे और आपके संघटन से दूर चला जाएगा. बाबासाहब ने किसे भी गुमराह करने की कोसिस नही की और न हमने करनी चाहिए. कुछ लोग अपने नाम, सम्पति और इच्छाओ को पूर्ण करने के लिए दूसरों को गुमराह करते आए है. उनके संपर्क मे हम रहे तो हम भी गुम हो सकते है. हम जागृत रहे और औरों को जागृत करे.
जय भीम, जय बुद्ध....मन करो शुद्ध .....!

नकली "मानवंदना" से कोई फ़ायदा नही होगा !



भीमा कोरेगाव (महाराष्ट्र) का महार क्रांति स्तम्भ अंग्रेजोने बनवाया था जिसकी ऊंचाई ७० फिट है. अंग्रेज के खिलाफ पेशवा ऐसा एह संघर्ष, युद्ध था. अंग्रेजो के खिलाफ महार लड़कर उसे पराजित करना चाहते थे मगर उन्होंने कहाँ था की 'हमारे महार जाती के लोगों पर जो अनन्वित अत्याचार जारी है, हमें गाँव के बहार रखा जाता है तथा हमें कोई भी उपजीविका का साधन नही है, हम सदा से मानसम्मान से वंचित है तो क्या आप हमारे मांगो को पूरा करने के लिए तयार है ?' तो पेशवा ने कहा "नही"
फिर अंग्रेजो को कहा की हम पेशवा के खिलाफ जंग में लढाई लढना चाहते है. हम उसमे शहीद होने के लिए भी तयार है मगर हमारे महार जातिओं के लोकों को आपके राज्य में मन-सम्मान मिलेगा? क्या हमारे लोगों को जीने के लिए नोकरिया मिलेगी? क्या हमारे जातियों के साथ अछुत जैसा व्यवहार किया जाता है, उससे निजात मिलेगी? पेशवाई ने हमारे जाती के लोगों पर जो कही सालों से अनन्वित अत्याचार किए है उससे निजात दिलवाने के लिए तयार है तो हम इस युद्ध में मर भी जाए तो हम हमारे जातियों के हितों के लिए हमारी कुर्बानी समझेंगे. अंग्रेजोने महारों को आश्वासन दिया की उनकी सभी मांगे पूरी की जाएगी.
पूना के पेशवा शोषित शासन के खिलाफ यानि भारतियों के खिलाफ लढाई में शहीद होने को महार तयार हुए. क्या इस कार्य को देश भक्ति का कार्य कहा जा सकता है? कोई भी कहेगा की यह कार्य देशद्रोह से प्रेरित था. देश यह एक भौगोलिक सीमा से युक्त होता है. देश सर्वश्रेष्ट नही होता. देश यह इंसानों का बनाया हुआ एक इलाका है. उस इलाके में जो लोग है उसके रक्षा, सुरक्षा, पालन-पोषण की जिम्मेवारी उसके मुखिया होती है. अगर वह अपने जिम्मेवारी से मुह मोड़ लेता है तो उपेक्षित जनता ने क्या करना चाहिए? अपने उपर हुए अन्याय के खिलाप आवाज उठानी चाहिए. लेकिन कोई न्यायमूर्ति तो होना जो कहे की यह न्याय है?
अपने देश के अन्याय ग्रस्त लोगों को अन्याय से मुक्ति दिलाना यह कोई देशद्रोही कार्य नही है तो देशभक्ति का कार्य है. अंग्रेजो के लिए यह लढाई नही थी तो यह अछुत प्रथा को मिटाने जंग थी. जिस पेशवा के सामने अंग्रेज घुटने टेकने जा रहे थे उन्हें हिम्मत दिलाई की हम पेशवाई को अब और समय तक नही सह सकते. हम हमारे महार जातियों को उनके गुलामी से मुक्त करना चाहते है, इसलिए आप हमें युद्ध उचित युद्ध सामुग्री प्रदान करे. आप हमारे साथ रहे, हम आपके साथ है. दोनों मिलकर पेशवाई का जमकर मुकाबला करते है. अंग्रेज तयार हुए. अंग्रेजोने महार जाती के लोगों पर भरोसा किया.
अंग्रेजो के तरफ से महार जाती के लोगों ने जंग में सहयोग दिया तो पेशवाई की ओर से मराठे लोग थे. शिवाजी महाराज के लिए भी महारों और मराठो ने मिलकर हिन्दवी स्वराज्य बनाया मगर महारों के जीवन में क्या आया? मराठे पेशवा को सही समज रहे थे क्योंकि वे ब्राह्मण थे. समाज में मराठे ही महारों को गावों के बहार रहने पर मजबूर किया करते थे. इसलिए यह जंग पेशवा विरुद्ध अंग्रेज ऐसी समजने की किसी ने भुल नही करनी चाहिए. यह शुद्ध बनाम अछुत ऐसी जंग रही है. अछुत प्रथा को पेशवा के जरिए जीवित रखने का कु-कार्य मराठों ने किया था, क्या महारों पर अत्याचार करने के लिए हर जगह पर पेशवा आते थे?
था जीवा (महार) इसलिए बचा शिवा (मराठा) ऐसी मराठी में एक कहावत प्रचलित है. शिवा का मतलब शिवाजी महाराज है. जो क्षत्रिय नही तो एक मराठा थे. इसलिए उनका राज्यभिषेक करने को महाराष्ट्रियन ब्राह्मण तयार नही थे.
मराठों का शासन स्थापन करने के लिए महारों ने अपने जीवन की कुर्बानी दी, मुस्लिम लोगों का पराजय हुआ. हिन्दवी स्वराज्य स्थापित हुआ. लेकिन उसका मुहवाजा महार जाती को क्या मिला? महार जाती के लोगों के बलपर शिवाजी मुस्लिम शासन से जीते थे. मगर एक भी महारों के बहादुरी का निशान शिवाजी ने नही बनाया.
महार अंग्रेजो के जरिए पेशवा तथा मराठों के खिलाफ जंग में शहीद हुए तो उन्होंने महार क्रांति विजय क्रांति स्तम्भ बनाया. जो महारों के बहादुरी का निशान है. इस जंग में पेशवा का ही नही तो पेशवाई का भी अंत हुआ. मगर उससे भी बड़ी जित यह हुयी की महार इस युद्ध में मराठों को मारने में पीछे नही रहे. मराठों ने महारों के सामने हत्यार डाल दिए, इस जंग में यह सिद्ध हुआ की महार यह केवल ब्राह्मणों से ही ज्यादा होसियार और बलवान नही है तो वे मराठों से भी ज्यादा योद्धा और युद्ध में ज्यादा निष्णात है.
पेशवा काल में केवल महार जाती पर ही अन्याय अत्याचार नही होते थे तो चमार जाती पर भी मराठों ने अन्याय अत्याचार किया है. लेकिन किसी चमार जाती के व्यक्ति ने उसके खिलाफ आवाज नही उठाई. शाहू महाराज एक चमार घराने का राजा रहे, उन्होंने अंग्रेजो से दोस्ती की मगर अपने लिए, न की किसी अछूत जातियों के लिए. उन्होंने अपने शासन के पुरे सूत्र, ब्राह्मणों के हवाले किया था. क्या इसे हम अन्याय के खिलाफ बहादुरी का नमुना कह सकते है? एक कायर राजा ब्राह्मणों के तथा अंग्रेजों के सामने घुटने टेकता है, उसे हमने बहादुरी कहना चाहिए?
बाबासाहब के हातों में न शासन था और न प्रशाशन फिर भी उन्होंने अपने महार जाती के बलबूते देश के अन्याय ग्रस्त लोगों के लिए न्याय दिलवाया. उन्होंने यह भेदभाव नही किया की यह महार है, यह चमार है, यह मराठा है, यह ब्राह्मण है, यह वैश्य है. उन्होंने वैश्य मोहनदास गाँधी के येरवडा जेल में प्राण बचाया. मराठा जोतीराव फुले को अपने गुरु जैसा चाहा, मगर जेधे-जवलकर जो फुले के शिष्य थे महारों को हिन्दुधर्म के अन्याय के खिलाफ चलनेवाले जंग में कहा गायब हो गए थे? व्यक्ति दोषी नही होते तो व्यक्ति के विचार में दोष होता है, मगर फुले अनुयायी ब्राह्मण (व्यक्ति) को दोषी समजते रहे और बाबासाहब के मानवमुक्ति के आन्दोलन से दूर रहे.
बाबासाहब आंबेडकर ने महारों को हिन्दू धर्म के नही तो मराठों के अन्याय से मुक्ति दिलाने के लिए बौद्ध धम्म दिया. हिन्दू धर्म के अनुसार मराठे ही महारों पर राज करते रहे. मगर धर्म ही छोड़ दिया तो वे अब महारों पर राज कैसे कर सकते है? मराठा हमेशा ब्राह्मणों के वश में रहे. उनके गुलामी को हमेशा अलंकार समजते रहे. उनके लिए भारतीय संविधान में बाबासाहबने धारा-३४० को स्थापित किया जिससे काका कालेलकर तथा बादमे मंडल आयोग के जरिए आज केंद्र में २७% प्रतिशत आरक्षण रामविलास पासवान ने दिलाया.
मराठे पेशवा के साथ रहकर जंग में पराजित हुए मगर मुस्लिमों के जैसा ही उनका रवय्या रहा. हम हारे हुए तो क्या हुआ, फिर भी हमारी लाल है. यह मराठों की मुजोरी है के वे महारों से पराजित होने पर भी उसे मानने से इंकार करते है. इस मुजोरी का एक नमूना है, "शिव सेना" की स्थापना. उसमे भी उनका ठाकरे ने अपमान करना सुरु किया तो उन्होंने "मराठा महासंघ" बनाया, आगे चलकर वे "शिवधर्म" को अंजाम देते है. मगर बौद्ध बनने से वे डरते है. महारों ने बुद्ध को और उनके धम्म को अपनाया इसलिए वह पलीद हुआ है. ऐसा पलीद धम्म हम अपनाने से हम भी पलीद हो जाएंगे. क्या हम हमारे घरों में किसी ब्राह्मणों के जरिए सत्यनारायण की कथा रखने के लायक रहेंगे? ईश्वर हमें मुक्ति कैसे देगा? इस अंधश्रद्धा तथा मुसलमानी मुजोरी के कारण वे धम्म के जगह पर धर्म को अपने उद्धार का एक जरिया समज बैठे है.
जो आज के बौद्ध भीमा-कोरेगाव को जाकर मानवंदना देते है उन्होंने क्या बहादुरी करने की प्रेरणा अपने पूर्वजों से ली है? मराठों को बौद्ध बनाए बगैर वे अगर मानवंदना देते है तो यह उन महान बलिदानी पूर्वजों के साथ खेल खेलने का कार्य कर रहे है. बहादुरी की प्रेरणा लेने पर भी यह बौद्ध अपनी बहादुरी क्यों नही साबित करते? बुद्ध धम्म ५६ साल से अपनाने के बाद भी वे अपने पड़ोस के मराठों को दोस्त बनाने में पराजित हुए है. मराठों के गुरुर को ख़त्म करने में वे अभीतक कामयाब नही हुए है. बुद्ध धम्म होते हुए भी मराठों को वे बौद्ध बनाने के लिए नाकाम हुए है. जबतक शिवधर्म के लोगों को बुद्ध धम्म की दीक्षा दिलाने में वे कामयाब नही होते तबतक उनका भीमा-कोरेगाव में जाकर मानवंदना देना मेरे नजर से एक दिखावटी वंदना है. तथा जो बहादुर नही है और नही बनना भी चाहते उन्होंने यह वंदना करने का नाटक नही करना चाहिए.
महाराष्ट्र के बौद्धों के पूर्वज महान थे मगर उनके अनुयायी नालायक निकले जो अपने ही परिवार के सुखों के लिए कुर्बानी देने के कार्य को महान समजकर बैठे है.