बुधवार, 17 जुलाई 2013

बौद्ध धम्म और उनके परिणाम

प्राचीन भारतीय इतिहास को टटोलने से यह पता चलता है कि बुद्ध (ई.सा.पु.५६३) पूर्व काल में दो सभ्यताए थी. पहली श्रमण और दूसरी ब्राह्मण. पहली प्राक्रुतिक चीजों को भगवान मानती थी और उसकी पूजा अर्चा भी करती थी. तो दूसरी अप्राकृतिक अर्थात अलौकिक कल्पनाओ के भगवान मानती थी और उसकी पूजा अर्चा भी करती थी. पहली के ईश्वर वास्तविक दुनिया से होते थे, तो दूसरी के ईश्वर अवास्तविक दुनिया के होते थे. वान, काया, शरीर, वनस्पति और प्राणी यह भग, छिद्र, भोक, गड्डे से निकलते है इसलिए उसे “भगवान” कहा गया.

भोक से निकलनेवाले चीज को “भगवान” कहा गया. अर्थात भग = भोक और वान = शरीर यानि ‘भगवान’. स्त्री-पुरुष के शंकर, मिलन, सहवास, सम्भोग से संतति, परिवार बनता है. इसलिए उसे प्रतीक स्वरुप भगवान शंकर को अपनाया गया, उसकी मुर्तिया बनायीं गयी, उन्हें पुँजा गया. जहाँ पर भी शंकर भगवान की मुर्तिया होती है उसके ठीक सामने ही (स्त्री) लिंग और (पुरुष) पिंड होते है, जो एक दुसरे के साथ दिखाए जाते है.

इंसाने के माता-पिता ही उसके असली भगवान् है और संताने उसकी (माता-पिता की) भक्त है. शंकर के मंदिरों में जाकर ही पूजा, भक्ति, भाव किया जाता है. जो पुराणी, प्राचीन धारणाए है. बाबा बर्फानी, यानि शंकर का लिंग जो बर्फ से बना है. उसकी उपासना, भक्ति करने के लिए लोग हरसाल जाते है. बर्फ लिंग के आकार में जमना यह एक प्राकृतिक घटना है. लिंग पूजा केवल भारत में ही चालू नही है तो अन्य भी देशो में होती है, थायलंड में भी उसे बड़े पैमाने में की जाती है.

प्राचीन भारतीय लोग प्राकृतिक चीजों से ही अपने ज्यादा प्रभावित थे. वे खेती करते थे, उसमे विविध जानवरों की मदत लेते थे और भरपूर उत्पादन किया करते थे, वे सुखी, समाधानी थे. उनके देवता “भगवान शंकर” थे जिसे ‘नाग’ धारी दिखाया जाता है. श्रमण लोग वंशनुगत शंकर, लिंग-पिंड और नाग के पुजारी रहे है, भक्त रहे थे. नाग के वंशगत भक्त होना यानि नाग के वंशज होना नहीं है. जो लोग नाग के पुजारी, भक्त होने को ही उसके वंशज मानते है, वह उनकी गलत धारणाए है. जिसे पहाड़ो में दिखाया जाता है, क्यों की प्राचीन लोग पहाड़ों और गुफानो को ही अपने निवास का सुरक्षित स्थान मानते थे.
 

जो लोग अपने श्रम से उत्पादन किया करते थे, मेहनतकश थे, उनके सभ्यता को “श्रमण” सभ्यता के रूप में इतिहासकारों ने नवाजा है. उनमे जो सामाजिक ढांचा था, वह चार अंगो में विभाजित था, उसमे पहला अंग था- ब्रह्मचर्य, दूसरा था- गृहस्थ, तीसरा था- वानप्रस्थ और चवथा था- संन्यास. श्रमण संकृति भी पुरुष प्रधान ही थी. उसमे भी स्त्रियों का दमन होता था, इतना ही नही तो उन्हें सन्यास लेने पर भी पाबंधी थी.

श्रमण संकृति से भिन्न नयी सभ्यता बनायीं गयी थी, जिसके कर्ता ब्राह्मण, ब्रह्म के अनुयांयी, भक्त कहा जाता था. ब्राह्मण सभ्यता के अनुसार व्यक्ति के निर्माता ब्रह्मा देव है. उसकी रक्षा विष्णु देव करते है और उसपर संस्कार महेश करते है. हर व्यकी ब्रह्मा से ही निजात पाया है, ऐसी उनकी धारणा रही है. ब्राह्मण ब्रह्म के मुख से, क्षत्रिय ब्रह्म के बाहू से, वैश्य ब्रह्म के मांडी से और शुद्र ब्रह्म के पैरों से पैदा हुआ है. ब्राह्मण सभ्यता चार वर्णों पर निर्भर थी, ब्राह्मणों ने उसे निजात किया था, तो जायज है की वे अपने फायदे के लिए ही उसे बनाए.

ब्राह्मण अपने देवों की रचना गावो में की थी, किसी पहाड़ या जंगलो में नही. चलते-फिरते, रात-दिन उसके दर्शन होने से लोग जंगलों में बिठाए गए भगवान को सालाना एक दो बार ही याद किया करते थे और ज्यादा ब्राह्मणों के देवताओं को ज्यादा नवाजते थे. ब्रह्मा, विष्णु, महेश शहर में और शंकर जंगल पहाड़ो में होते थे. ब्राह्मणों ने उनके सभ्यता को नही माननेवाले, श्रमणों के लिए काफी पाबंदिया लगायी थी. मंदिर में जाते वक्त यह करो, आते वक्त वह करो. पूजा ऐसी ही करो, वैसी नही करो, दान देना जरुरी है. दान लेने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही है.

जो (श्रमण) लोग गंधे रहते थे, उनके नियमो को नही मानते थे, उन्हें वे मंदिरों में प्रवेश पर पाबंधी लगाते थे. ब्राह्मण सभ्यता के चातुरवर्ण व्यवस्था के अंतर्गत भी जैसा जुल्म शूद्रों पर होता था, वैसा ही सभी वर्णों में लमाहित स्त्रियों पर भी होता था. स्त्रिया हर माह मासिक धर्म से पलीद होती है, ऐसी उनकी धारणाए रही है, जिसके कारण उन्हें अपवित्र, पलीद समजा गया था. उन्हें सन्यास लेना वर्ज था. शिक्षा लेना भी उसके लिए वर्जित ही था. इसलिए किसी भी ब्राह्मण/हिन्दूधर्म ग्रन्थ की रचयिता स्त्री नहीं दिखाई देती.

ब्राह्मणों के चार वर्ण यह जन्म के आधारपर ही स्थापित हुए है, अगर कोई व्यक्ति शुद्र परिवार में जन्म लेता है तो उन्हें उनके माँ-बाप के काम ही करता पड़ता था. कामधंदे के शिक्षक उनके परिवार के ही लोग होते थे, उनके लिए अलग से शिक्षा संस्थानों को नहीं बनाया जाता था.

बौद्ध साहित्य के अनुसार गौतम बुद्ध पूर्व समय में दोनों श्रमण और ब्राह्मण सभ्यताओ के लगबग ६२ मतों, पन्थो, विचारों का प्रभाव समाज पर था. जिनमे से कुछ प्रमुख विचारक थे, उसमे १) पूर्ण कश्यप, २) मख्खली गोसाल, ३) अजित केशकम्बल, ४) पकुध कात्यायन, ५) संजय वेल्त्तिपुत्र, ६) निगंठीनाथ पुत्र, ७) चार्वाक और ८) आलार कालम. तथागत बुद्ध ने इन सभी के मतों का खंडन करते हुए अपने नए विचारों को “आर्य अष्टांगिक मार्ग” के रूप में विषद किया.

सम्यक दृष्टी के कार्यकारण सिद्धांतो में १) अनात्म = शरीर के अन्दर आत्मा नहीं, जो शरीर मरने पर भी जिन्दा रहती है, केवल चेतन शक्ति; २) अनीश्वर = ईश्वर, भगवान, देव, गाड, लार्ड नही है, जिसने इंसानों को या धरती को बनाया. इन्सान अपने माँ-बाप के औलाद, अवतार, स्वरुप या रूप है, या कोई जड़, भौतिक, अभौतिक शक्ति; ३) अनित्य = नित्य, अजर, अमर, शाश्वत, अप्रमादी, सदा के लिए कोई भी चीज नही, जो कभी बदलती नहीं है, सभी परिवर्तनशील है, बदल ही उनका गुणधर्म है; ४) असर्वज्ञ = सभी प्रकार का ज्ञानी, महाज्ञानी कोई भी भगवान, ईश्वर, देव या व्यक्ति, अन्य प्राणी या वनस्पति भी नहीं है. सही में यही चार आर्य, महान, श्रेष्ट सत्य है. जो आर्य सत्य के सम्यक दृष्टी के कार्यकारण सिद्धांत (प्रतीत्य सम्मुत्पाद) में देखा जाता है.

इतना ही नही तो बुद्ध पूर्व कालीन सभ्यताओ यानि श्रमण और ब्राह्मण ऐसे दोनों सभ्यताओ में गौतम बुद्ध ने खामिया देखी थी और उसे पर्याय दिया, न की वे उनके गुलाम बने. बुद्ध चातुर्वर्ण्य व्यवस्था के घोर विरोधक थे, उन्हें पथविहीन रेगिस्थान से नवाजा, कितिना भी चलते रहो तो न भगवान दिखाई देता और न आत्मा. न स्वर्ग दिखाई देता और न नर्क. केवल पाखण्ड के ऊपर चातुर्वर्ण्य व्यवस्था खड़ी है. अगर ईश्वर नही है, तो उनकी बनाई हुयी चातुर्वर्ण्य व्यवस्था ही सही कैसे साबित हो सकती? ऐसे अनेक तर्क द्वारा उसे नकारा गया.

तथागत गौतम बुद्ध ने ब्राह्मण सभ्यता के चार्तुवर्ण्य को ख़त्म करने के लिए अपनी विचारधारा बनायीं, जो समाज में अन्याय, गुलामी, विषमता और परस्पर द्वेष पर और जन्म, वंश, जातिगत विचारों पर निर्भर थी. उसके जगह पर बुद्ध ने गुणों के आधारपर जनतान्त्रिक विचारों का प्रचार किया, जिसमे न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारा की शिक्षा दे सके. श्रमण और ब्राहमण ऐसे दोनों भी सभ्यता में जिन स्त्रियों को अपवित्र समझा गया था, उसे सबसे पहले तथागत बुद्ध ने ही भिक्षु संघ में सम्मलित किया, सन्यासी बनने का हक़ दिया. उसके पहले जैन विचारधारा भी प्राचीन भारत में कार्यरत थी मगर उन्होंने भी स्त्रियों को सामाजिक बन्धनों से आझाद नहीं किया था.

ब्राह्मणवादी आलार कालाम नामक एक सन्यासी गौतम बुद्ध के समय हिमायल के गोदी में था, जिनके आश्रम में ध्यान, समाधी और विपस्सना की शिक्षाए दी जाती थी. उनका उद्धेश यही था, की को प्राप्त कर उनसे ऐसा आशीर्वाद माँगा जाए की वे हमारा भला कर सके. आखे मूंदकर उनकी काफी लंम्बे समय तक उपासना की जाए तो वह हमें प्राप्त होता है. यह उनकी धारणाए थी, न की शारीरिक तंदुरुस्ती के लिए उन्हें चलाया जाता था.

गौतम बुद्ध ने उनके पास भी उनके ध्यान, समाधी और पिपस्साना का अभ्यास किया और उसकी गिनती “देह-दंडन’ में किया, जिसका व्यक्ति या समाज के लिए कोई भी उपयोग नहीं है. जो लोगो को गुमराह करने का एक नया फंदा है. उन्होंने अपना अनुभव भी विषद किया तथा उसका भी बुद्ध ने जमकर विरोध किया. जायज है, अगर ब्राह्मण साधू “आलार कलाम” की ध्यान, समाधी और विपस्सना ही सबकुछ सुख प्रदान करने में कामयाब होती तो गौतम बुद्ध को अलग जाकर चिंतन-मनन द्वारा “आर्य अष्टांगिक मार्ग” को इजात करने की क्या जरुरत थी?

तथागत गौतम बुद्ध का ज्ञान तर्क और इन्द्रियों के आधारपर सिद्ध किया जा सकता है, उसे सही ढंग से बुद्ध ने लोगो को समझाया था, उसी का परिणाम था की उस ज़माने में ब्राह्मण वर्ग के लोग भी भारी मात्रा में भिक्शुसंघ में दाखिल हुए थे. प्राचीन वैशाली में ब्राह्मण लोग ज्यादा पैमाने पर बुद्ध के अनुयायी थे, वहां पर खुद ब्राहमण आलार कालम ने ही बुद्ध को पूछा था, की विविध मतों के विचारों को भिक्षु लोग प्रस्तुत करते है. तो हमने कोंसे विचारों को बुद्ध के विचार कहने चाहिए और किसे नहीं? तो बुद्ध ने अपने विचारों को अपने तर्क, विवेक के आधारपर उसे सही या गलत मानना चाहिए, ऐसा हवाला दिया था.

तथागत बुद्ध को बुद्धी-प्रामान्यवादी सिद्धांत के दर्शक के रूप में बौद्ध लोग मानते है. उन्हें महान तत्वज्ञाता मानते है. पर निरर्थक तर्क, विवेक, बुद्धी की यह बाते विश्वासपात्र नही लगती, क्योंकि तर्क, बुद्धी, विवेक तो हर व्यक्ति या प्राणियों के पास होता है. जो किसी के पास कम, तो किसी के पास ज्यादा. उनपर ही विश्वास किया जाए तो बुद्ध के सुखी जीवन के “आर्य अष्टांगिक मार्ग” का प्रयोजन ही नहीं रहता?

तथागत बुद्ध ने सुरु से अन्त तक “आर्य अष्टांगिक मार्ग” को ही सुखी जीवन का मार्ग बताया और उसे नजर अंदाज करके वे लोगों को यह कैसे क्या बता सकते है की ‘तुम तुम्हारे तर्क, विवेक पर भी भरोसा करो, उसे ही मेरे विचार समझो?’ लोग तर्क खुद करेंगे तो वे उनके (बुद्ध के) विचार होंगे, उसे बुद्ध के विचार कैसे क्या माना जाना चाहिए? तर्क, विवेक या बुद्ध हरेक के अलग-अलग होते है. तो क्या हरेक ने अपने-अपने विचारों को ही सही समझना चाहिए? मेरे नजर से बुद्ध के मध्यम, “आर्य अष्टांगिक मार्ग” को पर्याय देने के, पलीद करने के दृष्टी से ‘महायानी’ भिक्षुओ ने उसे पाली साहित्य में ऊपर से चिपकाया है.

तथागत गौतम बुद्ध ने उनके पूर्व के सभी विचारों, मतों, पन्थो, धारणाओं को खंडीय किया और अपना सम्यक विचार लोगो को समझाया, जो जनतांत्रिक तथा गुणों के आधार पर था. जन्म, जाती, वंश. वर्ग. वर्ण इन विषमतामय विचारों के विपरीत बुद्ध और उनके धम्म की विचारधाराए रही है, जिसका प्रचार-प्रसार करने के लिए बुद्ध ने स्त्री-पुरुषो के संघटन को गठित किया था. जो भिक्षु-भिक्षुणी संघ के रूप में सारे विश्व में कार्य (?) कर रहे है.

अफ़सोस की बाते यह है की गौतम बुद्ध ने जिन आठ अंगों के “आर्य अष्टांगिक मार्ग” को सुखी जीवन का मार्ग बताया. पर उनके जाने के बाद उनके भिक्षुसंघ द्वारा निम्नांकित आठ प्रकार के “दुखी जीवन के मार्ग’ का प्रचार कर रहे है. जिसमे ब्राह्मणवाद ही ब्राह्मणवाद भरा पड़ा है, जो महायान (पंथ) के नाम से प्रसिद्ध है. बुद्ध के विचारों का प्रचार करने के बजाए ब्राह्मणवाद का ही प्रचार जोर-शोर से कर रहे है.

उनके यह आठ उदाहरण १) आर्य अष्टांगिक मार्ग के एवज में पंचशील को प्रचारित करना. २) मूर्ति भंजक बुद्ध विचारों को मूर्ति पूजा के अन्दर तलास करने के लिए मूर्तिपूजा करना. ३) देव, ईश्वर, भगवान न मानने वाले बुद्ध को “भगवान” बुद्ध के रूप में प्रस्तुत करना, बुद्ध को अवतारी पुरुष साबित करनेवाले ‘बोधिसत्व’, १० पारमिता का प्रचार करना. ४) आलार कालाम के ध्यान, समाधी और विपस्सना विधि को बुद्ध के नामपर प्रस्तुत करना. ५) हिन्दुधर्म के सत्यनारायण कथा के तर्ज पर “परित्राण पाठ” कथा का प्रचार करना. ६) बहुजनो, सभी दुखियों को सुख का आर्य अष्टांगिक मार्ग का उदबोधन करने के लिए बजाए, मठाधीश होना, लोगों को अपनी ओर बुलाना. ७) अवास्तव दान, दक्षिणा मांगना और उसे संगृहीत करना और ८) समाज में उपस्थित गलत धारणा (हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ख्रिश्चन, आदि) धारणाओं का खंडन करना और उसके एवज में सुख-शांति, जनतंत्र को बहाल करनेवाले बुद्ध विचारों का प्रचार प्रसार करना. पर अपने ही धम्म, संघ में गलत विचारों को प्रचारित किया जा रहा है.

ईसापू-२९ को राजा वटटगामिनी के कार्यकाल में, (श्रीलंका में) भिक्षुओं द्वारा “हिनयानी + महायानी = (पाली) त्रिपिटक” बनाया गया, अमृत + जहर = जहर बनाया गया जिसे अभी खिलाना, पिलाना चालू है तो सामाजिक भेदभाव, अंधश्रद्धा की बीमारी कैसे क्या ख़त्म होगी? पर आजकाल के भिक्षु उसमे संशोधन करने के लिए तयार नहीं है, क्यों? क्या यह छद्म परम्परो का अन्धानुकरण नहीं है? ऐसा और कबतक चालू रहेगा? मंदिर मुक्ति के लिए अभियान किये जाते है पर विचारों के मतभेदों को क्यों नही मिटाया जा रहा है? जो बौद्ध भिक्षु अपने धम्म में अंधश्रद्धा और पाखण्ड पलते रहेंगे तो उन्हें क्या नैतिक अधिकार है की वे दुसरो के धर्म विचारो की निंदा करे और गलत विचारों को हटाने की मांग करे? क्या यही पलीद (महायानी) विचारों को बुद्ध के वैज्ञानिक विचार समझना चाहिए?

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