राजपूत्र सिद्धार्थ उम्र के २८ साल तक कोई अपने घर, महल में बंद नही रह सकता, उसके पहले उसकी शादी हुयी और वह भी स्वयंबर रीति से तो क्या उन्हें एक भी भिकारी, वृद्ध, महारोगी या सन्यासी नही मिला? उनके अपने शादी समारोह में उन्हें इनमे से कोई भी नही मिला हो ऐसे कैसे हो सकता?
सिद्धार्थ अपने खेत में भी जाया करते थे, एक बार हंस पक्षी धरती पर उसके आसपास गिरा मिला जिसे बान लगा था, वह उनके मौसेरे भाई देवदत्त में मारा था, यह हंस किसका? उसे मारनेवाले देवदत्त का या उसे बचानेवाले सिद्धार्थ गौतम का? इस फ़साद का निपटारा करने के लिए राजा के दरबार में निकाल लगा, उसे बचानेवाले गौतम का वह हंस हुआ।
कपिलवस्तु उम्र के २० वे साल में क्षत्रिय लोग शाख्य संघ (संघटन) के सभासद हुए थे, वहाँ पर सैनिकी शिक्षा लेना ज़रूरी होता था, सिद्धार्थ ने उसे हासिल किया था, तो क्या वे हमेशा घर के कोठी में ही बंद रहते है? ग़लत लिखनेवाले लिख सकते है पर पढ़नेवाले लोगों ने उसे अपनाने के पहले अपने विवेक से ऊँचे परखना चाहिए, पर ऐसा नही देखा जा रहा, बढ़े दुःख की बात है।
सिद्धार्थने गृहत्याग करने के कारण वह चार पीड़ादायक घटनाएँ नही थी, असली कारण शाख्य संघ के नियमाओं का पालन नही करना था, बुद्धा ने रोहिणी नदी पानी बँटवारा के विषय पर कोलिय लोगों से जंग के लिए लड़ने के लिए ना थी, शाख्य संघ सेनापति ने उन्हें ना भरने की शिक्षा सुनाई, ३ पर्याय थे उसमें से उन्होंने गृहत्याग का पर्याय चुना, और संन्यासी बने, जंगल में ऋषि से कुछ सिखने के हिसाब से प्रयास रत रहे।
लोग झगड़े करते क्यूँ ? इसका जवाब ढूँढने के लिए उन्होंने काफ़ी प्रयास किया, चिंतन मनन द्वारा उसे हल मिला, उसका नाम "आर्य अष्टांगिक मार्ग" है। यह "बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय" के उद्धेश पूर्ति के लिए उन्होंने दिया, उसके प्रचार के लिए भिक्षु संघ की स्थापना की, उनके ज़रिए जन चेतना की, बुद्ध ने न चार घटना को ध्यान में रखकर सन्यास लिया और न उन्होंने ४ आर्य सत्य को दिया, न उन्होंने ध्यान-समाधि या विपस्सना का प्रचार किया, यह ग़ैरप्रचार ब्राह्मण भिक्षुओं/महायनीयो ने किया।
आर्य अष्टांगिक मार्ग आठ अँगो का मार्ग है उसे समझने के लिए पहला मार्ग सच्ची में जानना ज़रूरी है, वह प्रतित्य समु त्पाद के सिद्धांत के उदबोध करता है, जो लोग इसे न जानते हुए धम्म समजने का प्रयास करते उन्हें धम्म नही समझ सकता। वे ख़ुद हमेशा भ्रमित रहते है और औरों को भ्रमिक करते रहते है। बुद्ध ने न श्वर्ग-नर्क पर विश्वास किया और न आत्मा /ईश्वर पर। उनका यही कहना रहा है, इंसान ने इंसान के साथ प्यार, करना, दया भरा व्यवहार करना चाहिए। पूजा-पाठ पर उनका विश्वास नही था।
इंसान को समाज में न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारा ज़रूरत है, उसे अपने व्यवहार से बाँठे, एक दूसरे को मदत करे, सहयोग की भावना अपनाए तो इंसान को किसी ईश्वर या आत्मा की ज़रूरत नही है, इंसान ख़ुद सुखमय जीवन यापन कर सकता है, इसलिए उन्हें धार्मिक पुरुष के रूप में देखने के बजाए "नैतिक पुरुष" के रूप में देखना चाहिए। उनके फ़ोटो/मूर्ति की पूजा करने के बजाए उनके बताए "आर्य अष्टांगिक मार्ग" का पालन करना चाहिए। तो सारा संसार दुःख से मुक्त होगा, सुखी बनेगा।