सोमवार, 22 जुलाई 2013

मनुवादी आर्थिक परिणाम

प्राचीन वैदिक युग से भारत में पूंजीवाद फल-फुल रहा है. वर्ण व्यवस्था के अनुसार मुनाफा कमाने का हक़ वैश्य वर्ण को दिया गया था. उसे ही आगे मनुस्मृति ने शक्ति से लागु किया, उसके ही रजिस्टर कानूनों के वजह से वह और भी ज्यादा फलने-फूलने लगा. समाज में वर्ण व्यवस्था के साथ वर्ग व्यवस्था भी कार्य करने लगी. राजतन्त्र के आशीर्वाद से समाज में गरीब और अमीर ऐसे दो गुट गिर चुके थे. अमीर अपने घरेलु कामकाज के लिए गरिबो को खरीद भी सकता था. इसलिए दास प्रथा भी भारत से अछूती नही रही.

मनुस्मृति के आर्थिक विचार कितने विषमता को बढ़ावा देनेवाले थे? इसका अंदाजा निम्नांकित उनके विधान से लग ही जाएगा, “ईश्वर ने ब्राह्मण का धर्म- पढना व पढ़ाना, यज्ञ करना व कराना तथा दान देना और लेना निश्चय किया है. क्षत्रिय का धर्म- रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना और संस्कार से विरक्तता. वैश्य का धर्म है- पशुपालन, यज्ञ करना, पढना और व्यापार करना, सूद खाना और खेती करना. शुद्र का केवल एक ही धर्म है- अपनो से ऊँचे वर्णों की श्रद्धा के साथ सेवा करना.” (१, ८७, ९१).

यह है प्राचीन भारत का अर्थशास्त्र. यह समता पर आश्रित है या विषमता पर? हजारो वर्षों से भारत में मनुवादी अर्थशास्त्र का राज चलते रहा तो उसके परिणाम भी तो रहे होंगे? उसके परिणाम यह रहे है की समाज में काफी बड़ा वर्ग धार्मिक शोषण का शिकार बना. कार्ल मार्क्स के शब्दों में उसे मजूर वर्ग कहा जा सकता है. डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने विषमतामय समाज में जन्म लिया, उसमे वे जिए, उसके परिणाम उन्होंने देखे जो अन्याय पर निर्भर रहे है, उन्होंने न केवल वर्ण व्यवस्था के खिलाफ बगावत की थी तो उसके साथ उनके विषमतामय परिणामो को भी मिटाने के लिए उचित कदम उठाये थे.

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने अपने “स्टेट एंड मायनारिटीज” में उजागर किया है. विषमता पर उन्होंने यह इलाज बताया की सभी भारतियों के सम्पत्ती का राष्ट्रीयकरण किया जाए, जैसा की राजों के सम्पत्ती का हुआ था और सभी भारतीयों को अन्न, वस्त्र, निवारा, शिक्षा, रोजगार, दवा, मनोरंजन को मुहय्या किया जाए.

बाबासाहब का वर्ण और उसके परिणामो को जड़ से उखाड़कर फेकने का इरादा वर्णवादी शोषक लोगो को अनुचित लगा और वे उनसे हमेशा चार हाथ दूर ही रहे. भारतीय संविधान के माध्यम से वर्णवादी आर्थिक परिणामो को उचित समझकर धारा-३१ के तहत आधुनिक आझाद भारत में वर्णवादी विषम अर्थव्यवस्था को कायम किया, क्या इसे ही सही जनतंत्र कहा जा सकता है?

न मनुवादी शासन में गरीबों को सुख मिला और न आझाद भारत में उन्हें सुख मिल रहा है, तो क्या इस विषमतामय अर्थ व्यवस्था को जो राष्ट्रीयकरण के एवज में कुछ मुट्टीभर लोगो के स्वार्थ के लिए कार्यरत है, उसे उखाड़ कर फेकने की जरुरत नहीं है? पूंजीवादी व्यवस्था का ही परिणाम है, वस्तुओं के दामो पर काबू पाना सरकार के बहस की बात नही रही है. दाम करने के सभी उपाय खोखले साबित हो रहे है. बढ़ते महंगाई में गरीब लोग चोरी, डकैती, लूटमार, खून-खराबा नहीं करेंगे तो और क्या?

ब्राह्मणों ने अपने हिन्दुधर्म ग्रंथ “मनुस्मृति” में लिखा है, “ब्राह्मण शुद्र के सम्पत्ती को बिना संकोच ले (लुट) सकता है. क्योंकि वह किसी सम्पत्ती का मालिक नही होता. जो कुछ उस (शुद्र) के पास है, वह उसके स्वामी (ब्राह्मण) का है. (८, ४१७). वास्तव में शुद्र को सम्पत्ती इकट्टा करते देखकर ब्राह्मण को दाह उत्पन्न होती है.” (१०, १२९). अगर भारत में अंग्रेजी शासन गलत था तो उसका विरोध हुआ, उसके बाद राजाओ के भी शासन को गलत समजकर उसका भी राष्ट्र में विलीनीकरण हुआ यानि राष्ट्रीयकरण हुआ तो ब्राह्मण, उनके मठ और वैश्यों के सम्पत्ती का राष्ट्रीकरण क्यों नहीं होना चाहिए? जो लुटने का कार्य मनुस्मृति ने उच्च वर्नियो के हितो में किया, वह न्याय था और जनतंत्र वही लुट को जप्त करेगा तो वह अन्याय कैसे क्या होगा?

मनुस्मृति ने ब्राह्मणों को गरीबों के सम्पत्ती को लुटने की इजाजत दी थी उसके अनुसार ही ब्राह्मणों ने उनके सम्पत्ती को लुटा तो लुटे हुए मॉल को सरकारने जप्त करने में क्या गुनाह है? अगर सरकार लुटे हुए मॉल को नही छिनना चाहती है तो उसने राजाओ के शासन और सम्पति पर किस कानून के हिसाब से डाका डाला था? अगर राजाओ के सम्पत्ती का राष्ट्रीयकरण करना उचित है तो अन्य भी धनिकों के सम्पत्ती का राष्ट्रीकरण क्यों नहीं होना चाहिए? टाटा, मफतलाल, बाटा, अम्बानी, किर्लोस्कर आदि धनिक परिवार के सम्पत्ती का राष्ट्रीयकरण क्यों नहीं? मठ, मठाधीश और मदिर-मज्जिदो के सम्पत्ती का राष्ट्रीकरण क्यों नहीं होना चाहिए?

भारत में पूंजीवादी लोग और उनकी निजी अनाफ-सनाफ सम्पत्ती रहते हुए, गरीबो का हित नहीं हो सकता. अमीरों के अमीरी का राष्ट्रीकरण होंना चाहिए और उसके बाद भारत में “राज्य समाजवाद” को कायम करना चाहिए, तभी ही महंगाई, बेरोजगारी, भुकमरी, कुपोषण, कुशासन ख़त्म होगा. जो लोग राष्ट्रिय चिन्तक है, उन्होंने उचित टिपण्णी दे और देश में खुशयाली बहाल करने में अपना सहयोग दे, यह कार्य किसी काल्पनिक भगवान के आशीर्वाद से होना असंभव है, इसके लिए बुद्धिजीवी, जनतांत्रिक, राष्ट्रिय विचारधारा की जरुरत है, जिसे जिन्दा इन्सान ही दे सकते.

देश का कल्याण राष्ट्रीयकरण से ही होगा, निजीकरण से नहीं. गरीबो! बहुत सालों से काफी नींद ले चुके, अब उठो और निजीकरण के खिलाफ बगावत करो, राष्ट्रीयकरण को साथ दो. उसके पहले हमने यह जल्दी से जल्दी जान लेना चाहिए की ‘जनांदोलन’ से ही हजारो बर्षों के मनुवादी परिणाम भी मिटेंगे, अमीरी हटेगी तथा गरीबी, बेबसी, बेरोजगारी भी 'एक ही झटके में' हटेगी.

बहुजन जातियों की विफल राजनीती

कांशीराम ने डी. के. खापर्डे को धोका दिया, क्योकी उनकी इजाजत लिए बगैर ही उन्होंने बीएसपी बनाई. तो बाद में बी डी. बोरकर, एस ऍफ़ गंगावने, वामन मेश्राम, तेजेंदर्सिंग झल्ली के साथ खापर्डे ने बामसेफ को अपने बलबूते पुनर्जीवित किया. कांशीराम से बदला लेने के इरादे से बामसेफ को चलाया गया. उसी का नतीजा है, बामसेफ भी, भारतीय मुक्ति मोर्चा के माध्यम से आगे राजनीती करने के उद्धेश से कार्य कर रही है. कांशीराम ने जीते जी वामन मेश्राम को कोई तवज्जो नही दिया था, उसके जाने के बाद भी मायावती ने भी उसे भिक नहीं डाली, उसी का नतीजा है, मुल्निवाशियों को भारत मुक्ति मोर्चा के काम में लगा दिया. बहुजन बनाम मूलनिवासी हो गए. यह दोनों भी हिन्दुधर्म के जातिवादी और वंशवादी विचारों पर कार्य कर रहे है. दोनों भी अम्बेडकरवाद से भटक गए है. दोनों भी बुद्धिज़्म के खिलाफ है, ब्राह्मणवाद के चंगुल में दोनों भी फसे है, क्योंकि दोनों भी कांशीराम के तानाशाही के शिकार है...

जो बाबासाहब आंबेडकर के खिलाफ है, उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है? वे तो बाबासाहब के विचारो का आदर करने के बजाए उसे झुटलाने में तुले है, वामन मेश्राम हो या मायावती/कांशीराम.... कांशीराम ने भी समय समयपर बाबासाहब, उनकी जाती और उनके आन्दोलन को निरसकृत किया है, उसी के रास्तो पर अब वामन मेश्राम जा रहा है. जब कांशीराम बाबासाहब को भला बुरा बोलते है तो बीएसपी के लोग उसे विरोध करने के बजाए उचित मानते है, अगर वामन मेश्राम ने भी कांशीराम के बाद बाबासाहब पर आरोप किया तो उसे गलत क्यों मानते है? यह तो भेदभाव है? जो दुसरो के साथ बेदभाव करते है, उन्हें कोई नैतिक हक़ नहीं तोता की वे दुसरो को भी नैतिकता शिखाए... कांशीराम भक्त भी प्रबोधन के बजाए, गलिया, बकते है, धमकिया देते है.. उन्हें दिग्दर्शित करने का काम कीसका है?

बामसेफ के दो राजकीय ग्रुप १) मायावती और २) वामन मेश्राम.... अभी आमने सामने एक दुसरे के खिलाफ वोटो को बटोरने के लिए कार्य कर रहे है... कुछ दिन के बाद... ३) विजय मानकर (एम्बस) भी बहुजन जातियों के वोटों को बटोरने के लिए आनेवाला है... आगे कतार में ४) माजी जिलाधिकारी, गजभिये भी राजनीती में अपनी नयी पार्टी लेकर आनेवाली है.... ८) स्वाभिमानी रिपब्लिकन पार्टी भी कांशीराम भक्त खोब्रागडे ही चला रहे है... क्या होगा बीएसपी का? जो बोवोगे, वाही उपजेगा... सत्ता को मास्टर चाबी कहने का नतीजा है... सभी के सभी अंधभक्त... सत्ता के नशा में सामाजिक शिक्षा, संकृति, आर्थिक उत्थान को भूल गए है.. पि.सी. निकोद्रे साहब! माया का अब क्या होगा?

कांशीराम के गुरु डी. के. खापर्डे, ठवरे ग्रुप के थे, जो हरिजन थे, हरिजनों ने गाँधी के इशारे पर कार्य किया, कांग्रेस ने भी उन्हें बहुत शिक्षा संस्थाए दिया, उनका बहुत कल्याण किया. उन्होंने भावुराव बोरकर को बाबासाहब के खिलाफ भंडारा निर्वाचन क्षेत्र से पीछे छोड़ा... जो लोग सामाजिक कल्याण के बजाए स्वार्थी बने, वे आंबेडकर साहब के खिलाफ गए. उन्होंने गलत प्रचार किया. बाबासाहब के बाद उनके विचारों को ख़त्म करने के उद्धेश से खापर्डे ने कांशीराम के साथ समता सैनिक दल में कार्य करने के बजाए बामसेफ को उजागर किया... यह नाशिकराव तिरपुडे और ठवरे के पक्ष में थे... कांशीराम ने भी बुद्धधम्म को नहीं अपनाया, क्योंकि वे जानता थे की वह कदम गांधीवाद के खीलाफ होगा, आंबेडकर के समर्थन में होगा... क्या कभी हरिजनों ने आंबेडकर साहब को नवाजा है?

क्या बाबासाहब ने रखा था, की मै मरने के बाद पूना करार धिक्कार परिषद् को मनाते रहना....? पर हरिजन डि. के. खापर्डे के साथ, बाबासाहब का विरोध करने के उद्धेश से कांशीरामने वह कदम उठाया था या नहीं? जाती-धर्म-वंश के राजनीती से कोई भी पार्टी, कभी भी बहुमत प्राप्त नहीं कर पायेगी. बुद्धधम्म के नैतिक सिद्धांतो को जो भी किनारे करके राजनीती या अर्थनीति करने की कोशिस करे, वे आखिर पछताते ही रहेंगे.... यही तो दुःख है, जिसमे अभी बीएसपी गिरी है, कुछ समय बाद और कोई पार्टी गिरेगी. जो खुद दुःख में गिरे है वे क्या दुसरो को सुख प्राप्ति का रास्ता समझा सकते है? बीएसपी निराशावादी पार्टी है, उससे क्या आशा की जा सकती है? क्या जातिवाद आशावाद है?

बुद्धधम्म ही "आदर्श जनतंत्र" है!

ह सत्य है की, बुद्ध के बाद, धम्म ग्रंथो को ब्राह्मण भिक्षुओँ ने भी लिखा है. सारे संप्रदाय मानते है, भारत मे बुद्ध का धम्म जनतंत्र पर अधिष्टित है, जहा से न्याय, स्वतन्त्र, समता और बंधुभाव की शिक्षा दी जाती है. जाती यह जन्म पर अधिष्टित रही है, बुद्धिपर नही. जिन्होंने बुद्ध को माना है उन्होंने जाती, धर्मगत विचार छोडना चाहिए. भारत मे जब सिद्धार्थ पैदा हुए तो वर्ण, जाती व्यवस्था थी, उनके शिकार सिद्धार्थ भी बने. साक्यसंघ वर्ण व्यवस्था पर निर्भर था, जिनके शिक्षा को भुगतने के लिए सिद्धार्थ को कपिलवस्तु नगरी, माँ-बाप, मित्र, पुत्र और पत्नी भी त्यागना पड़ा. उसके लिए वर्ण व्यवस्था जबाबदार है, इसका सिद्धार्थ को पता था.

सिद्धार्थ ने जंगल मे ज्ञान हासिल करने के लिए काफी प्रयास किया. लेकिन वर्णव्यवस्था को खत्म करने का ज्ञान किसी से भी नही मिला और वे हमेशा असंतुस्ट रहा करते थे, जिसका परिणाम यह हुआ की उन्हें "गया" के जंगल मे अलग से चिंतन करना पड़ा. उन्हें चिंतन से यहसास हो गया था की यह ज्ञान वर्ण व्यवस्था को खत्म करने के लिए पर्याप्त है, उसी समय उन्होंने संतुष्टी हुयी और कल्याणकारी रास्ता बताना सुरु किया, जिसमे सुरु के ५ लोग ब्राह्मण ही थे.

बुद्ध ने ब्राह्मण द्वेष किया होता तो पहले अपने ज्ञान को उन्हें नही बताया होता. वे वर्णव्यवस्था के विरुद्ध थे, ब्राह्मणों के नही. ब्राह्मणों पर बुद्ध ने विश्वास किया की यह लोग उनका धम्म जनता को सही ढंग से समझा सकते है. उन्होंने ब्राह्मण सारिपुत्त को संघ सेनापती नियुक्त किया. ब्राह्मण लोग बुद्ध के नजर मे बुरे होते तो उन्होंने ऐसा नही किया होता.

सिद्धार्थ के भाई, क्षत्रिय, देवदत्त बुद्ध और धम्म के विरुद्ध थे. जिन्होंने आजन्म बुद्ध का विरोध किया था. इसका मतलब यह नही होता की लोग जाती, वर्ण के आधारपर अच्छे या बुरे होते है. बुद्ध के मतानुसार व्यक्ति किसी भी समूह का रहे, उनके विचार बदले जा सकते है, इसपर उन्हें पूर्ण विशवास था, जो विश्वास जातिवादी लोगों मे नही होता. बुद्ध के संघ मे ७५ % ब्राह्मण थे, इसका मतलब सभी लोग ईमानदार थे, ऐसा भी नही था. बुद्ध के हयात मे "भो गौतम, अरे गौतम" कहनेवाले भी ब्राह्मण थे जो बुद्ध का अपमान भी करने के लिए प्रयासरत होते थे.

बुद्ध को अपने विचारों पर इतना भरोसा था की चाहे वह कितना भी कपटी और खुन्कार हो उसे समझाया जा सकता है, विचारों से काबू मे लिया जा सकता है. मगर जातिवादी लोग अपने विचारों कों उतने प्रभावी ढंग से नही रख पाते, क्योंकि वे कपटी है. उनके पास ज्ञान के एवज अज्ञान होता है. बुद्ध यह ज्ञानी थे, ज्ञान से अज्ञान पर विजय पाना सम्भब है, इसपर उन्हें महत्तम विश्वास था, इसलिए वे ज्ञान ही बाँटते गए. ज्ञानी व्यक्ति कपटी को भी जल्दी पहचान सकता है तथा उनसे गलती न हो इसके लिए हमेशा जागृत रहता है.

ब्राह्मण जातियों के वजह से महान है और अन्य नही, ऐसा कभी भी बुद्ध ने नही कहा. कोई भी व्यक्ति अपने जाती के भरोसे छोटा या बड़ा नही होता तो अपने विचार तथा आचारों से होता है. हर जाती का व्यक्ति जाती प्रथा पर भरोसा करके ज्ञान को नकारते जा रहा है तो ऐसे लोग चाहे किसी भी समूह के हो वे बौद्ध नही हो सकते. पेरियार रामासामी कहते थे की, ब्राह्मण दिखा तो उन्हें जानसे मार दो, उनके विचार सापों से भी ज्यादा जहरीले होते है, मगर बुद्ध व्यक्ति के विरुद्ध नही थे चाहे वे किसी भी जाती के हो, इसलिए लोग अपने जातिओं के खिलाफ भी आवाज उठाने वाले भिक्खु संघ मे थे. वज्रसुची कों एक ब्राह्मण भिक्खु अश्वघोष ने लिखा है, जहापर जाती,वर्ण, वंश का अभिमान, अज्ञान दूर किया है.

बुद्धी द्वारा बुद्ध ने जातिवादी, वर्णवादी, वंशवादी लोगों को वश मे किया और उनसे अपना उद्धेश पूरा करने के लिए काम करवाया. बुद्ध ने ब्राह्मणों का जनता के कल्याण मे वापर किया जिससे वर्णव्यवस्था चरमरा गयी थी. ब्राह्मणों को हिन्दुधर्म का एक महान शत्रु धम्मधारी बौद्ध ही लगते थे. इस कारण उसमे कुछ गलत लोग भी सम्मिलित हुए और धम्म विचारों मे जहर भी घोल दिया. जहर और अमृत की पहचान करनेवाला ज्ञान जिनके पास है, वे व्यक्ति न ब्राह्मणों के कपट से डरते है और न ब्राहमण जातीय अंगुलिमाल डाकू से डरते है.

कपिलस्तु से कुछ लोग आए और कहने लगे की हमें संघ मे सम्मलित करे, तो उन्होंने उपाली नामक नाई का काम करनेवाले, शुद्र समझे जानेवाले व्यक्ति को पहले संघ दीक्षा दी और उनके बाद क्षत्रिय लोगों को दी थी, उनके पीछे उनका उद्धेश ज्ञान जिसने पहले पाया वह ही गुरु है, चाहे फिर वर्ण व्यवस्था मे उनका दर्जा कोनसा भी क्यों न हो. बुद्ध ने वर्ण व्यवस्था विरहित अपनी धम्म्मय व्यवस्था बनाई थी, जो पूर्णता जनतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष थी.

जाती, वर्ण, वंश के आधारपर किसे भी उंच या नीच समझना और समझाना अनीति तथा गुना भी है. तथागत बुद्ध और बाबासाहब आंबेडकर यह बुद्धिवादी, ज्ञानवादी लोग थे. ज्ञानी को सम्मान और अज्ञानी को अपमान, ऐसा भी भेदभाव वे नही करते थे. बुद्धी कम ज्यादा रह सकती है मगर उनके विचार स्वार्थ निरपेक्ष यानि अनेक (बहु) जन कल्याणकारी जरुरी है. बेईमान और अज्ञानी लोग हमेशा रहेंगे, उनसे कैसे बर्ताव करे? इसका ज्ञान होना चाहिए. हम अगर उसे देते है तो हमने किसी से भी डरना नही है, कपटी लोग खुद ही डरेंगे.

बुद्ध और बाबासाहब ने अपने संघ-संघटनाओ मे ब्राह्मण लोगों को भी सम्मिलित किया था, इसका मतलब यह नही होता की अन्य लोग नही थे. अपेक्षित व्यवस्था का उद्धेश क्या है? यह महत्वपूर्ण है. उसके अनुकूल अगर कोई कार्य नही करे तो उन्हें बाहर निकलने का रास्ता मिल ही जाएगा. उन्हें निकालने के लिए प्रयास करने की जरूरत नही है. अच्छे लोगों मे बुरे विचारों के लोगों से हमेशा दूर ही भागते है तथा वे बुरे लोगों का अलग ग्रुप बनाते है.

चोरों को संघटन मे स्थान नही है ऐसी बाते लिखने की जरुरत नही. नियम ही ऐसे बनाओ और दिखाओ की वे उसे पढकर ही आपसे और आपके संघटन से दूर चला जाएगा. बाबासाहब ने किसे भी गुमराह करने की कोसिस नही की और न हमने करनी चाहिए. कुछ लोग अपने नाम, सम्पति और इच्छाओ को पूर्ण करने के लिए दूसरों को गुमराह करते आए है. उनके संपर्क मे हम रहे तो हम भी गुम हो सकते है. हम जागृत रहे और औरों को जागृत करे.

अतिरिक्त सम्पत्ती का मोह बुद्ध ने वर्जित किया. भिक्षु के लिए केवल मर्यादित सम्पत्ती को ही उचित माना गया. अतिरिक्त और अमर्याद सम्पत्ती दुःख का कारण बनती है, उसके सुरक्षा में हम हमेशा लगे रहते है, हमारे जीवन का लक्ष ही सम्पत्ती की उपज और सुरक्षा ही हो जाता है. प्यार के बजाए मुनाफे के लिए नफरत फैलाई जाती है. बुद्ध का भिक्सुसंघ ही "आदर्श जनतंत्र" का उत्तम नमूना है. जिसके बजह से सम्पत्ती के झगड़ों को हमेशा के लिए मिटाया जा सकता.

गौतम बुद्ध की मौसी माँ गौतमी द्वारा अपने हातों से बुने वस्त्र को बुद्ध ने अकेले के लिए स्वीकार करने के बजाए संघ को दान देने का जिक्र किया, बुद्ध ने व्यक्ति के बजाए संघ, समाज को अधिक महत्त्व दिया है. डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने "राज्य समाजवाद' की कल्पना की है, जो बुद्धिज़्म पर निर्भर है. राज्य के अधीन सभी सम्पत्ती, उद्धोग और बिमा का जिक्र किया गया था, राज्य/संघ ही सम्पत्ती धारी होगा, जनता, व्यक्ति नहीं.
सन १९४६ के अम्बेडकरी "आर्थिक कल्याणकारी/ जनतांत्रिक" विचारधारा के पेशकश को उचित सहयोग न मिलने के कारण देश में पूंजीवाद, नक्षलवाद, जातिवाद फैला है. जो दुखदायी है. उसे ख़त्म करने के लिए 'निजीकरण' के एवज में "राष्ट्रीयकरण" की मुहीम चेड्नी जरुरी है.