प्राचीन वैदिक युग से भारत में पूंजीवाद फल-फुल रहा है. वर्ण व्यवस्था के
अनुसार मुनाफा कमाने का हक़ वैश्य वर्ण को दिया गया था. उसे ही आगे
मनुस्मृति ने शक्ति से लागु किया, उसके ही
रजिस्टर कानूनों के वजह से वह और भी ज्यादा फलने-फूलने लगा. समाज में वर्ण
व्यवस्था के साथ वर्ग व्यवस्था भी कार्य करने लगी. राजतन्त्र के आशीर्वाद
से समाज में गरीब और अमीर ऐसे दो गुट गिर चुके थे. अमीर अपने घरेलु कामकाज
के लिए गरिबो को खरीद भी सकता था. इसलिए दास प्रथा भी भारत से अछूती नही
रही.
मनुस्मृति के आर्थिक विचार कितने विषमता को बढ़ावा देनेवाले थे? इसका अंदाजा निम्नांकित उनके विधान से लग ही जाएगा, “ईश्वर ने ब्राह्मण का धर्म- पढना व पढ़ाना, यज्ञ करना व कराना तथा दान देना और लेना निश्चय किया है. क्षत्रिय का धर्म- रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना और संस्कार से विरक्तता. वैश्य का धर्म है- पशुपालन, यज्ञ करना, पढना और व्यापार करना, सूद खाना और खेती करना. शुद्र का केवल एक ही धर्म है- अपनो से ऊँचे वर्णों की श्रद्धा के साथ सेवा करना.” (१, ८७, ९१).
यह है प्राचीन भारत का अर्थशास्त्र. यह समता पर आश्रित है या विषमता पर? हजारो वर्षों से भारत में मनुवादी अर्थशास्त्र का राज चलते रहा तो उसके परिणाम भी तो रहे होंगे? उसके परिणाम यह रहे है की समाज में काफी बड़ा वर्ग धार्मिक शोषण का शिकार बना. कार्ल मार्क्स के शब्दों में उसे मजूर वर्ग कहा जा सकता है. डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने विषमतामय समाज में जन्म लिया, उसमे वे जिए, उसके परिणाम उन्होंने देखे जो अन्याय पर निर्भर रहे है, उन्होंने न केवल वर्ण व्यवस्था के खिलाफ बगावत की थी तो उसके साथ उनके विषमतामय परिणामो को भी मिटाने के लिए उचित कदम उठाये थे.
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने अपने “स्टेट एंड मायनारिटीज” में उजागर किया है. विषमता पर उन्होंने यह इलाज बताया की सभी भारतियों के सम्पत्ती का राष्ट्रीयकरण किया जाए, जैसा की राजों के सम्पत्ती का हुआ था और सभी भारतीयों को अन्न, वस्त्र, निवारा, शिक्षा, रोजगार, दवा, मनोरंजन को मुहय्या किया जाए.
बाबासाहब का वर्ण और उसके परिणामो को जड़ से उखाड़कर फेकने का इरादा वर्णवादी शोषक लोगो को अनुचित लगा और वे उनसे हमेशा चार हाथ दूर ही रहे. भारतीय संविधान के माध्यम से वर्णवादी आर्थिक परिणामो को उचित समझकर धारा-३१ के तहत आधुनिक आझाद भारत में वर्णवादी विषम अर्थव्यवस्था को कायम किया, क्या इसे ही सही जनतंत्र कहा जा सकता है?
न मनुवादी शासन में गरीबों को सुख मिला और न आझाद भारत में उन्हें सुख मिल रहा है, तो क्या इस विषमतामय अर्थ व्यवस्था को जो राष्ट्रीयकरण के एवज में कुछ मुट्टीभर लोगो के स्वार्थ के लिए कार्यरत है, उसे उखाड़ कर फेकने की जरुरत नहीं है? पूंजीवादी व्यवस्था का ही परिणाम है, वस्तुओं के दामो पर काबू पाना सरकार के बहस की बात नही रही है. दाम करने के सभी उपाय खोखले साबित हो रहे है. बढ़ते महंगाई में गरीब लोग चोरी, डकैती, लूटमार, खून-खराबा नहीं करेंगे तो और क्या?
ब्राह्मणों ने अपने हिन्दुधर्म ग्रंथ “मनुस्मृति” में लिखा है, “ब्राह्मण शुद्र के सम्पत्ती को बिना संकोच ले (लुट) सकता है. क्योंकि वह किसी सम्पत्ती का मालिक नही होता. जो कुछ उस (शुद्र) के पास है, वह उसके स्वामी (ब्राह्मण) का है. (८, ४१७). वास्तव में शुद्र को सम्पत्ती इकट्टा करते देखकर ब्राह्मण को दाह उत्पन्न होती है.” (१०, १२९). अगर भारत में अंग्रेजी शासन गलत था तो उसका विरोध हुआ, उसके बाद राजाओ के भी शासन को गलत समजकर उसका भी राष्ट्र में विलीनीकरण हुआ यानि राष्ट्रीयकरण हुआ तो ब्राह्मण, उनके मठ और वैश्यों के सम्पत्ती का राष्ट्रीकरण क्यों नहीं होना चाहिए? जो लुटने का कार्य मनुस्मृति ने उच्च वर्नियो के हितो में किया, वह न्याय था और जनतंत्र वही लुट को जप्त करेगा तो वह अन्याय कैसे क्या होगा?
मनुस्मृति ने ब्राह्मणों को गरीबों के सम्पत्ती को लुटने की इजाजत दी थी उसके अनुसार ही ब्राह्मणों ने उनके सम्पत्ती को लुटा तो लुटे हुए मॉल को सरकारने जप्त करने में क्या गुनाह है? अगर सरकार लुटे हुए मॉल को नही छिनना चाहती है तो उसने राजाओ के शासन और सम्पति पर किस कानून के हिसाब से डाका डाला था? अगर राजाओ के सम्पत्ती का राष्ट्रीयकरण करना उचित है तो अन्य भी धनिकों के सम्पत्ती का राष्ट्रीकरण क्यों नहीं होना चाहिए? टाटा, मफतलाल, बाटा, अम्बानी, किर्लोस्कर आदि धनिक परिवार के सम्पत्ती का राष्ट्रीयकरण क्यों नहीं? मठ, मठाधीश और मदिर-मज्जिदो के सम्पत्ती का राष्ट्रीकरण क्यों नहीं होना चाहिए?
भारत में पूंजीवादी लोग और उनकी निजी अनाफ-सनाफ सम्पत्ती रहते हुए, गरीबो का हित नहीं हो सकता. अमीरों के अमीरी का राष्ट्रीकरण होंना चाहिए और उसके बाद भारत में “राज्य समाजवाद” को कायम करना चाहिए, तभी ही महंगाई, बेरोजगारी, भुकमरी, कुपोषण, कुशासन ख़त्म होगा. जो लोग राष्ट्रिय चिन्तक है, उन्होंने उचित टिपण्णी दे और देश में खुशयाली बहाल करने में अपना सहयोग दे, यह कार्य किसी काल्पनिक भगवान के आशीर्वाद से होना असंभव है, इसके लिए बुद्धिजीवी, जनतांत्रिक, राष्ट्रिय विचारधारा की जरुरत है, जिसे जिन्दा इन्सान ही दे सकते.
देश का कल्याण राष्ट्रीयकरण से ही होगा, निजीकरण से नहीं. गरीबो! बहुत सालों से काफी नींद ले चुके, अब उठो और निजीकरण के खिलाफ बगावत करो, राष्ट्रीयकरण को साथ दो. उसके पहले हमने यह जल्दी से जल्दी जान लेना चाहिए की ‘जनांदोलन’ से ही हजारो बर्षों के मनुवादी परिणाम भी मिटेंगे, अमीरी हटेगी तथा गरीबी, बेबसी, बेरोजगारी भी 'एक ही झटके में' हटेगी.
मनुस्मृति के आर्थिक विचार कितने विषमता को बढ़ावा देनेवाले थे? इसका अंदाजा निम्नांकित उनके विधान से लग ही जाएगा, “ईश्वर ने ब्राह्मण का धर्म- पढना व पढ़ाना, यज्ञ करना व कराना तथा दान देना और लेना निश्चय किया है. क्षत्रिय का धर्म- रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, पढ़ना और संस्कार से विरक्तता. वैश्य का धर्म है- पशुपालन, यज्ञ करना, पढना और व्यापार करना, सूद खाना और खेती करना. शुद्र का केवल एक ही धर्म है- अपनो से ऊँचे वर्णों की श्रद्धा के साथ सेवा करना.” (१, ८७, ९१).
यह है प्राचीन भारत का अर्थशास्त्र. यह समता पर आश्रित है या विषमता पर? हजारो वर्षों से भारत में मनुवादी अर्थशास्त्र का राज चलते रहा तो उसके परिणाम भी तो रहे होंगे? उसके परिणाम यह रहे है की समाज में काफी बड़ा वर्ग धार्मिक शोषण का शिकार बना. कार्ल मार्क्स के शब्दों में उसे मजूर वर्ग कहा जा सकता है. डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने विषमतामय समाज में जन्म लिया, उसमे वे जिए, उसके परिणाम उन्होंने देखे जो अन्याय पर निर्भर रहे है, उन्होंने न केवल वर्ण व्यवस्था के खिलाफ बगावत की थी तो उसके साथ उनके विषमतामय परिणामो को भी मिटाने के लिए उचित कदम उठाये थे.
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने अपने “स्टेट एंड मायनारिटीज” में उजागर किया है. विषमता पर उन्होंने यह इलाज बताया की सभी भारतियों के सम्पत्ती का राष्ट्रीयकरण किया जाए, जैसा की राजों के सम्पत्ती का हुआ था और सभी भारतीयों को अन्न, वस्त्र, निवारा, शिक्षा, रोजगार, दवा, मनोरंजन को मुहय्या किया जाए.
बाबासाहब का वर्ण और उसके परिणामो को जड़ से उखाड़कर फेकने का इरादा वर्णवादी शोषक लोगो को अनुचित लगा और वे उनसे हमेशा चार हाथ दूर ही रहे. भारतीय संविधान के माध्यम से वर्णवादी आर्थिक परिणामो को उचित समझकर धारा-३१ के तहत आधुनिक आझाद भारत में वर्णवादी विषम अर्थव्यवस्था को कायम किया, क्या इसे ही सही जनतंत्र कहा जा सकता है?
न मनुवादी शासन में गरीबों को सुख मिला और न आझाद भारत में उन्हें सुख मिल रहा है, तो क्या इस विषमतामय अर्थ व्यवस्था को जो राष्ट्रीयकरण के एवज में कुछ मुट्टीभर लोगो के स्वार्थ के लिए कार्यरत है, उसे उखाड़ कर फेकने की जरुरत नहीं है? पूंजीवादी व्यवस्था का ही परिणाम है, वस्तुओं के दामो पर काबू पाना सरकार के बहस की बात नही रही है. दाम करने के सभी उपाय खोखले साबित हो रहे है. बढ़ते महंगाई में गरीब लोग चोरी, डकैती, लूटमार, खून-खराबा नहीं करेंगे तो और क्या?
ब्राह्मणों ने अपने हिन्दुधर्म ग्रंथ “मनुस्मृति” में लिखा है, “ब्राह्मण शुद्र के सम्पत्ती को बिना संकोच ले (लुट) सकता है. क्योंकि वह किसी सम्पत्ती का मालिक नही होता. जो कुछ उस (शुद्र) के पास है, वह उसके स्वामी (ब्राह्मण) का है. (८, ४१७). वास्तव में शुद्र को सम्पत्ती इकट्टा करते देखकर ब्राह्मण को दाह उत्पन्न होती है.” (१०, १२९). अगर भारत में अंग्रेजी शासन गलत था तो उसका विरोध हुआ, उसके बाद राजाओ के भी शासन को गलत समजकर उसका भी राष्ट्र में विलीनीकरण हुआ यानि राष्ट्रीयकरण हुआ तो ब्राह्मण, उनके मठ और वैश्यों के सम्पत्ती का राष्ट्रीकरण क्यों नहीं होना चाहिए? जो लुटने का कार्य मनुस्मृति ने उच्च वर्नियो के हितो में किया, वह न्याय था और जनतंत्र वही लुट को जप्त करेगा तो वह अन्याय कैसे क्या होगा?
मनुस्मृति ने ब्राह्मणों को गरीबों के सम्पत्ती को लुटने की इजाजत दी थी उसके अनुसार ही ब्राह्मणों ने उनके सम्पत्ती को लुटा तो लुटे हुए मॉल को सरकारने जप्त करने में क्या गुनाह है? अगर सरकार लुटे हुए मॉल को नही छिनना चाहती है तो उसने राजाओ के शासन और सम्पति पर किस कानून के हिसाब से डाका डाला था? अगर राजाओ के सम्पत्ती का राष्ट्रीयकरण करना उचित है तो अन्य भी धनिकों के सम्पत्ती का राष्ट्रीकरण क्यों नहीं होना चाहिए? टाटा, मफतलाल, बाटा, अम्बानी, किर्लोस्कर आदि धनिक परिवार के सम्पत्ती का राष्ट्रीयकरण क्यों नहीं? मठ, मठाधीश और मदिर-मज्जिदो के सम्पत्ती का राष्ट्रीकरण क्यों नहीं होना चाहिए?
भारत में पूंजीवादी लोग और उनकी निजी अनाफ-सनाफ सम्पत्ती रहते हुए, गरीबो का हित नहीं हो सकता. अमीरों के अमीरी का राष्ट्रीकरण होंना चाहिए और उसके बाद भारत में “राज्य समाजवाद” को कायम करना चाहिए, तभी ही महंगाई, बेरोजगारी, भुकमरी, कुपोषण, कुशासन ख़त्म होगा. जो लोग राष्ट्रिय चिन्तक है, उन्होंने उचित टिपण्णी दे और देश में खुशयाली बहाल करने में अपना सहयोग दे, यह कार्य किसी काल्पनिक भगवान के आशीर्वाद से होना असंभव है, इसके लिए बुद्धिजीवी, जनतांत्रिक, राष्ट्रिय विचारधारा की जरुरत है, जिसे जिन्दा इन्सान ही दे सकते.
देश का कल्याण राष्ट्रीयकरण से ही होगा, निजीकरण से नहीं. गरीबो! बहुत सालों से काफी नींद ले चुके, अब उठो और निजीकरण के खिलाफ बगावत करो, राष्ट्रीयकरण को साथ दो. उसके पहले हमने यह जल्दी से जल्दी जान लेना चाहिए की ‘जनांदोलन’ से ही हजारो बर्षों के मनुवादी परिणाम भी मिटेंगे, अमीरी हटेगी तथा गरीबी, बेबसी, बेरोजगारी भी 'एक ही झटके में' हटेगी.