शुक्रवार, 14 जून 2013

जनतंत्र : आतंकवाद, नक्षलवाद और ब्राह्मणवाद

पिछले सदी में २ विश्व महायुद्ध हुए. काफी जानमाल का नुकसान हुआ. तानाशाही के खिलाफ विश्व के कही देश एक हुए, जिससे विश्व के काफी देश तानाशाही से मुक्त हुए, जहाँ पर जनतंत्र बहल किया गया. भारत में अंग्रेजों के गुलामी से आझादी पाने के लिए संघर्ष चालू थे, भारत आझाद हुआ और भारत में भी राजकीय जनतंत्र बहाल किया गया. 

डॉ बाबासाहब आंबेडकर महान बुद्धिमान व्यक्ति के रूप में वे उभरकर आये. आझाद भारत का संविधान लिखने के लिए उनका भी काफी समय व्यतीत हुआ, २ साल, ११ माह और १८ दिन में भारत का संविधान कांग्रेस के नेताओं के बहुमतों से बना. मगर बाबासाहब के मतानुसार उसमे कुछ खामिया रही. वह राजकीय जनतंत्र बहाली के योग्य रहा पर आर्थिक जनतंत्र बहाल करने में यह संविधान असफल रहा. जिसके वजह से गरीब और अमिर ऐसे दो गुठों में जनता विभक्त हुयी. दोनों आपस में लड़ते रहे. अमिर अपने मुनाफे के लिए मजबूर गरीबों का शोषण लगातार करते रहा.


गरीब लोगों ने अपने विकास के लिए जातिगत आरक्षण को अपना हक समझकर स्वीकार किया पर उससे सभी गरीबों का विकाश नहीं हुआ. अभी भी भारत में गरीबों की हालात बहुत दयनीय है. कुछ लोगों ने आंबेडकर साहब के साथ बौद्ध धम्म को अपनाया, पर उससे भी गरीबी दूर करने के लिए कुछ मदत नहीं हुयी. कुछ लोग अपना जनतांत्रिक रास्ता भूल गए.

कुछ लोग जातियों के तानाशाही को अपने विकाश का रास्ता समझकर "बहुजन", व् "मुल्निवाशी" लहर में बह गए. कुछ लोगों को वह कम बिचमे ही छोड़ना पड़ा, क्योंकि उनमे तानाशाही हावी हुयी, संघटन में तानाशाही के काफी लोग शिकार हुए. और कुछ लोग मार्क्स वाद के माध्यम से अपनी गरीबी भगाने लगे, वे माओवादी नक्शली बने.

बहुजन लहर जातिवादी बनी तो कुछ लोग बगावती बने जिसमे से कुछ लोग माओवाद को बुद्ध धम्म समझ बैठे. हकीकत यह है की बुद्ध का रास्ता न जातिवाद का है और न मार्क्सवाद का. बाबासाहब ने जातिवाद और मार्क्सवाद से दूर रहने की हमेशा हिदायत दी थी.

बाबासाहब ने भाषण में स्पष्ट कहा था," विश्व के सामने, विशेषतः आशिया खंड में आज दो ही रास्ते बाकि है, एक बुद्ध का रास्ता और दूसरा मार्क्स का रास्ता. बुद्ध तत्वज्ञान का विश्व ने समय रहते हुए अंगीकार नही किया तो, कम्मुनिष्ट तत्वज्ञान का विजय होना तय है. बुद्ध का तत्वज्ञान यही विश्व को एकमेव आधार है. उसका प्रचार जितना ज्यादा होगा उतना ही विश्व युद्ध से वंचित रहेगा और शांति के करीब जायेगा."

मार्क्सवाद एक प्रकार की गरीबों की, मजदूरों की तानाशाही है. तानाशाही जनतंत्र के खिलाफ है, यह सोचकर बाबासाहब ने जनतंत्र के हिमायती बुद्ध को अपनाया, अपना गुरु कहा. तानाशाही फिर जाती की रहे या वर्ग की वह इंसानी हिंसा को बढ़ावा देती है, इसलिए बाबासाहब आंबेडकर ने हमेशा ब्राह्मणवाद और कम्मुनिष्ट विचारों का जमकर विरोध किया है.

जो लोग जनतंत्र में विश्वास करते है, उन्होंने जनतंत्र के रक्षा के लिए हमेशा आगे रहना चाहिए. काठमांडू, नेपाल के अपने प्रसिद्ध भाषण में भी उन्होंने "बुद्ध बनाम मार्क्स" साबित किया और भिक्षुओं को हिदायत दी थी की अगर विश्व में कम्मुनिस्ट (माओवाद) फैला तो उसके जिम्मेदार भिक्षु ही रहेंगे, ऐसा स्पस्ट कहा था.

न जातिवाद धम्म विचार है और न कम्मुनिस्ट विचार धम्म विचार है. जातिवादी लोगों और कम्मुनिस्ट लोगों ने धम्म या आंबेडकर साहब से अपना रिश्ता बताने का, जोड़ने का प्रयास करना उनका अपमान करना है. भारत सर्कार ने भी जातिवाद के प्रचार को तथा कम्मुनिस्ट के विचारों को आतंकवादी विचार करके घोषित करना चाहिए, तभी ही देश में जनतंत्र की उचित रक्षा होगी.

क्या राजसत्ता से जातिवाद मिट सकता?

भारत देश किसी विशिष्ट जाती, धर्म, वंश या वर्ग का नही है. भारतीय संविधान के तहत एकता और अखंडता लाने के लिए न्याय, स्वतंत्र, समता और बंधुभाव के नैतिक मूल्यों पर अधिष्टित कानून बनाये. अफ़सोस की बात यह है की इन कानूनों के रखवाले ही कानूनों का उल्लंघन करेंगे तो संविधान का उद्धेश सिद्ध कैसे होगा? 

एकता और अखंडता कैसे आएगी? यह संविधान जितना अमीरों शोषण से सामान्य लोगों को मुक्ति दिलाने का कार्य करता है. मगर अमीरों के दलाल बने शासकीय, प्रशासकीय, न्यायपालिका और प्रेस मिडिया के लोग सामान्य लोगों का हित सुख, देश मे शांती, एकता और अखंडता को भूलकर कानून की धज्जिया उड़ा रहे है.


सामान्य लोगों के हितों की रक्षा हो इस सच्चे उद्देश से भारतरत्न डॉ. बाबासाहब आम्बेडकर ने २ साल ११ माह १८ दिन लिखने के लिए लगाए मगर उनको चलाने वाले राजनेता सामान्य लोगों के हितों के रक्षा करने के बजाय खुद के हितों की रक्षा करने मे लगे हुए है. हर पार्टी के लोग बेईमान हो गए. चोर चोर मौसेरे भाई बने है. भारत को तुम भी लूटो और हम भी लुटते है.

ईमानदार बाबासाहब आम्बेडकर का नाम लेकर सत्ता मे आयी मायावती बेईमानी करके करोडो रुपने भ्रष्टाचार से लेकर चुम्ब्ली मांडकर बैठी है. उनके चमचे चेले उसे जायेज समजते हुए तर्क देते है की कांग्रेस, बीजेपी और अन्ये पार्टियों के लोग करते है तो उन्हें क्या नही कहा जाता? क्या सचमुच नही कहा जाता?

चोरी या अन्याय अगर दूसरे लोग करते है तो वे संविधान और देश के दुश्मन है, तो क्या संविधान के रचयिता डॉ. बाबासाहब आम्बेडकर का नाम लेकर वे जनता से वोट तो नही बटोर रहे है, कोई उनके नामसे वोट माँग भी ले तो जनता उनको वोट नही देती क्यों की वे जानती है की वे उनका हित करने मे हमेश आनाकानी करते है और जो पिछड़े जाती के उमीदवार है वे उनके जैसा व्यवहार नही करते. लेकिन जनता के साथ जैसा धोका कांग्रेस, बीजेपी ने किया वैसा ही धोका पिछडों के पार्टियों ने भी किया है.

बिसपी भी अगर कांग्रेस के क़दमों पर कदम डालकर चलना चाहती है तो वे जरुर चले, वे आझाद है, मगर बाबासाहब आम्बेडकर के नामपर वोट मांगना बंद करे. वे अगर इतनी बाबासाहब की हिमायती होती तो आर.पी.आय. को ही सुधारकर राजकीय क्ष्रेत्र मे विजय दिलाती. बाबासाहब के लोगों को गुमराह करके वोट बटोरकर बिसपी को आगे नही बढाती. बिसपी एह कांशीराम की पार्टी है और आर.पी.आय. यह बाबासाहब आम्बेडकर की पार्टी है.

मायावती. कांशीराम का काम आगे बढ़ा रही है, बाबासाहब का नही. कांशीराम कांग्रेस जैसी पार्टी बनाना चाहता था, जो पूंजीवादियों की हिमायती है, वैसी ही पार्टी बाबासाहब को पसंद नही थी? बाबासाहब की पार्टी बुद्ध के विचारोंपर चलाने का उनका सपना था, गाँधी और कांग्रेस के विचारों पर नही..

|| गरीबी हटाओ, अमीरी हटाओ ||

विश्व में आर्थिक शोषण के विरुद्ध कार्ल मार्क्स खड़े हुए. गरीबों के रहनुमा के नाम से उन्हें नवाजा गया. मजदुर वर्ग यह मेहनतकश वर्ग कार्लमार्क्स के पीछे गया. रशिया में झार शाही के खिलाफ उन्होंने अपना मोर्चा खोला. उसमे वे विजयी हुए. लेनिन ने उसमे काफी म्हणत ली. उनकी देखा देखि करके चयन के मेहनतकश वर्ग भी इकट्टा हुए और उन्होंने वहां पर भी झेंडा गाढ़ा.


चाइना यह चाहता है की भारत में भी माओवाद का झंडा ऊँचा रहे इसलिए वह "नक्षलवाद" को अन्दर से सहयोग दे रहा है. जहाँ पे भी गरीबी और शोषण सुरु है ऐसे ही जमीं में माओवाद फलता है, फूलता है. भारत आझाद होने के बाद यहाँ पर बढ़ता हुआ धार्मिक और उनके जरिए आर्थिक शोषण माओवाद को जड़े कायम करने के लिए उचित साबित हुआ.

जातिवाद यह धार्मिक शोषण बहुत पुराना शोषण रहा है. जिसे ख़त्म करने के लिए आझादी के बाद कांग्रेस सरकारने कोई भी कार्य नहीं किया, वर्णवादी अर्थनीति को बढ़ावा दिया. जो लोग वर्ण से ऊँचे थे वे ही ज्यादा पैमाने में आमिर, धनवान बने, उनके ही हाटों में शासन, प्रशासन, न्याय व्यवस्था और मिडिया है. जो मजलूमों की चीखे हमेशा दबाते रहा है.

भारत से धार्मिक और आर्थिक शोषण ख़त्म करने के लिए भारत सर्कार अगर कुछ भी उचित कार्य नहीं क्र रही है. और शिर्फ़ बन्दुक के जरिए अगर बरिबों की चीखे दबाना चाहती है, तो यह नक्षलवाद को ख़त्म करने का उचित रास्ता नहीं है. इससे नक्षलवाद ख़त्म तो नही होगा, बल्कि नक्षलवाद और भी बढेगा. यह दिमागी जंग नहीं तो बारूदी, बन्दुखी जंग सुरु होगी, जिसमे निरपराध काफी लोगों को अपने जानों की क़ुरबानी देनी पड़ेगी.

कहते है की मनमोहन सिंह जो भरत के प्रधान मंत्री है, वे "अर्थशास्त्रज्ञ" है. कांग्रेस में हमेशा अर्थ मंत्री और कहीं बार प्रधान मंत्री होते हुए भी भारत में गरीबों की समस्याए कैसे बढ़ी? जीडीपि बढ़ने से गरीबों के शोषण से मुक्ति हुयी है? कुछ लोग कहते है की भारतीय लोगों का जीवन स्तर बढ़ा है. पर कितिने प्रतिशत लोगों का? केवल मुत्तिभर १०५% लोगों का जीवन अगर सुधर है तो बाकि ९०% गरीबों को उसका क्या फायदा?

गरीबी केवल आदिवाशी में ही नहीं है. जहाँ जहाँ गरीबी है वहा वहां नक्षलवाद फ़ैल सकता है. क्या सिर्फ आदिवाशियों का ही देश में शोषण चालू है? मुझे तो अर्थ शास्त्र के प्रधान मंत्री के अध्ययन पर ही संदेह हो रहा है. आर्थिक शोषण को ख़त्म किये बगैर नक्षलवाद ख़त्म कैसे होगा? शोषण को बढ़ावा देकर क्या नक्षलवाद को ख़त्म किया जा सकता है?

गरीबी हटाओ, अमीरी हटाओ अर्थात "आर्थिक जनतंत्र" को लागु किए बगैर, भारतीय संविधान की "धारा- ३१" को निरस्त किये बगैर भारतीय राजकीय जनतंत्र के सामने नक्षलवादी, आतंकवादी संघर्ष कायम रहेगा. बाबासाहब आंबेडकर ने पहले ही राजनेताओं को हिदायत दी थी की उन्होंने शिग्र ति शिग्र "आर्थिक जनतंत्र" को कायम करने के लिए प्रयास करना चाहिए, अन्यथा राजकीय जनतंत्र को ख़त्म करने के लिए शोषित लोग ही प्रयास करेंगे.

बाबासाहब के वचनों पर कांग्रेस ने हमेशा दुर्लक्ष किया जिसका यह नतीजा है की कार्ल मार्क्स के चेले, माओवादी लोग भारत के जनतंत्र को ख़त्म करके भारत में "साम्यवाद" को, उनके तानाशाही को कायम करना चाहते है. इसमें दोष साम्यवादी लोगों का नहीं है तो भारतीय जातिवादी राजकीय नेताओं का है, जो सिर्फ अमीरों की राजनीती करते जा रहे है.

सभी अमिर भी इकट्टा हो गए तो भी साम्यवाद का अंत अगर रशिया से, बाद में चायना से नहीं कर सके तो इसके बाद भारत से कैसे कर पाएंगे? मनमोहन सिंह नमक भारतीय प्रधान मंत्री ने अपने धमंड को दूर करके बाबासाहब के आर्थिक विचारों पर अमल करने के लिए उचित कदम उठाए. अन्यथा परिस्तिथि और भी बिघड सकती है.

समय रहते हुए बाबासाहब के विचारों पर अमल होनी चाहिए. चाहे सर्कार किशी भी पार्टी का क्यों न रहे, जबतक भारत में मार्क्स के नजरों में धार्मिक "अफु" को नष्ट नहीं किया जायेगा तथा आर्थिक गरिबबरी को नष्ट नहीं किया जायेगा, नक्षलवाद आतंकी हमले करते रहेगा, जो बढे मुस्किल में प्राप्त हुए राजकीय जनतंत्र को खोखला करते रहेगा.

अगर नक्षलवादी जन्तात्न्त्रिक विचारों पर नहीं चलते है. तो वह उनका दोष है, पर क्या सर्कार जनतांत्रिक मूल्यों को भारत में बढाने के लिए कुछ उचित कार्य कर सकी? क्या वह जातिवाद ख़त्म कर सकी? क्या जातिवाद आतंकवाद नहीं है? जातिवाद यह केवल हिन्दुधर्म पर ही कलंक नहीं है तो वह भारतीय जनतंत्र पर भी कलंक है. क्या भ्रष्टाचार करना, करवाना जनतांत्रिक कार्य है? यह भी एक गैरबराबरी का दूसरा नाम है, जो मजलूमों के शोषण को सही साबित करते रहता है. सबसे पहले

जातिवादियों ने "बहुजन" नाम को पलीद किया



बुद्ध का बहुजन और बामसेफ का बहुजन इसमें क्या अंतर है? बामसेफ को यह शब्द जिस अर्थ से अभिप्रेत है, उस अर्थ से बुद्ध को कदापि अभिप्रेत नही था. जिस प्रकार बामसेफ ने भेदभाव किया,उस प्रकार का भेदभाव बुद्ध ने नही किया. फिर हम कैसे कहे की बामसेफ यह बाबासाहब और बुद्ध विचारों पर चलनेवाला संघटन है? जो जाती/वर्णवादी विचारों के समर्थक है, वे मानवता के नामपर कलंक है.


बुद्ध के भिक्खु संघ मे ब्राह्मण. क्षत्रिय. वैश्य और शुद्र भी थे. भिक्खुसंघ मे ७५% तो ब्राह्मण ही थे. मात्र बामसेफ ने ब्राह्मण, क्षत्रिय. और वैश्य को उच्च वर्णीय समजकर उन्हें शत्रु कहा. सिर्फ सत्ता हासिल करने शुद्र-अतिशूद्र और उनसे धर्मान्तरित जनता को ८५% बनाने का प्रयास किया. बुद्ध के "बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय" का मतलब वर्नातित था, जो सुखों से वंचित है उन्हें सुख प्रदान करना यही धम्म का उद्धेश था.

खुद बाबासाहब ने भी अपने जीवन मे ब्राह्मणों के साथ मित्रता की, सहयोंग भी लिया तथा रिश्तेदारी भी निभाई. वे व्यक्ति के विरोधक नही थे. उन्होंने पेरियार रामासामी से दोस्ती की मगर उनके विचारों के वे दास नही बने. बुद्ध और बाबासाहब के विचारों से बामसेफ बिचारधारा हमेशा दूर रही है. इसलिए उसे आम्बेडकरी संघटन समजकर सहयोग देना यानि अपने घर मे विषैला सांप पालना है.

क्या जनतंत्र के लिए "धर्म" गर्व उचित है?

हिन्दू पर गर्व कर रहे है तो दुसरे मुस्लिम पर गर्व करेंगे, तीसरे शिख पर गर्व की बाते दोहराएंगे और बाद में ख्रिचन, जैन, बौद्ध, इसाई तो भारत में धार्मिक दंगे होने से कोई रोक सकते? हिंसा से शांति कबतक करना चाहिए? अगर विचार करने के लिए समय ही नही देता तब हिंसा जरुरी है... पर हमने संकुचित विचारों पर गर्व करने या न करने के बारे में दुबारा सोचना चाहिए, तीसरी बार भी सोचना चाहिए, नहीं तो चीन और पाक का संकट कभी भी हावी होगा.

नफरत को नफरत से नही तो मुहबत से जीता जा सकता है, नफरत नादानी है और मुहबत हौसीयारी है, कोई अगर निर्लज है तो उसके जैसा ही होना चाहिए यह सोच हमारी नही तो हम जिसका विरोध करना चाहते है उसकी है, हम दुसरे के विचारों के आदि होते है, फिर हमारी खुद की क्या विचारधारा है, हमारा क्या उद्धेश है? तलवार की जुबान इन्सान को मिटा देगी, हो सकता है उसमे हिन्दू ही ज्यादा मारे जाए...

हिन्दू बहादुर होते तो मुस्लिमों को भारत में आने से रोख सकते पर वैसा नही हुआ, बातों में बहादुर होना और हकीकत में बहादुर होना इसमें फर्क है, हिन्दू लोग विभक्त है, जातियों में विभक्त है, क्या जित पायेगी? आझादी के पहले से सावरकर साहब ने हिन्दुधर्म की वकालत की पर सत्ता से उनकी पार्टी (बीजेपी) हमेशा दूर रही, क्यों? उसका नतीजा "अल्पमत" ... गर्व बेकार है, बाजी कब कौन मारेगा, इसकी कोई ग्यारंटी नही... क्या मराठी के मुद्दे पर राज और शिवसेना एक है? कहा गया गर्व?

आर्थिक जनतंत्र : एक सुनहरे कल की आहट है.

आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध किया की, विश्व को ईश्वरने नही बनाया. शरीर में आत्मा या परमात्मा नाम की कोई भी वस्तु नही. भौतिक जगत के अनेक शोध और संशोधन यह सिद्ध करते जा रहे है की, पदार्थ हमेशा गतिशील है. पल-पल परिवर्तन उसका मूलाधार है. मानव और उसकी बुद्धि भी परिवर्तनीय है. बुद्धि कल्याणकारी होगी तो सुख, नही तो दुःख होगा. कोई भी विचार केवल आर्थिक नही होता, उनके शैक्षणिक, सांस्कृतिक तथा राजकीय भी परिणाम होते है. किसी भी विचारधाराओं का विचार करते समय उसके सामाजिक सभी अंगों पर ध्यान देना जरुरी है. दुनिया के हर धर्म सर्वांगीन रहे.  उनका समाज पर सर्वांगीन असर हुआ. वह कभी सही तो कभी गलत भी रहा. विश्व में कई व्यक्तियो ने सुख के रास्ते बताएं. आजसे करीब २५७६ साल पहले (इ.सा.पू. ५६३ में) सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का जन्म हुआ. उनकी निति वैज्ञानिक, जनतांत्रिक और कल्याणकारी रही. आज से २०१३ साल पहले जेरुसलेम में येशु ख्रिस्त का जन्म हुआ. मुहम्मद पैगम्बरने (मृत्यु-इ.सा. ६३२) पुरोहितों और सामंतो के खिलाफ लड़कर शोषितों का शासन प्रस्थापित किया.


जर्मनी में सन १८१८ में कार्ल मार्क्स का उदय हुआ. उन्होंने काफी धर्मों का अध्ययन किया, जिसमे ईसाई और मुस्लिम धर्म प्रमुख रहे. उन्होंने अपने अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला की हर ‘धर्म’ के ठेकेदार ईश्वर के जरिए भक्तों का आर्थिक शोषण करने में मदत करते है. उसके पोप, मुल्ला, पंडित आर्थिक विषमता को बढ़ावा देने के लिए स्वर्ग-नरक की लालच या डर बताकर लोगों को वास्तविक जीवन से गुमराह करते रहे. हर धर्म कार्ल मार्क्स के नज़रों में “अफीम” रहा. सन १८८३ में उनके प्रेरणा से ही रूस (रशिया) में पुरोहितों का मजहबी शोषण और सामंती झारशाही ख़त्म हुयी. आगे चीन का सन १९३६ में ७७% अफीमी (महायानी, हिन्दू) विचारों का खात्मा किया. अभी-अभी युगांडा में “आर्थिक क्रांति” हुयी, जिसमे ‘इदी अमिन’ नामक शासक ने सभी निजी उद्दोगों का राष्ट्रीयकरण किया. अभी-अभी सामंती, आतंकी गदाफ़ी को गोलियों से भुना व शोषित जनता ने उनके शासन पर धावा बोला.


बाबासाहब आंबेडकरने “गोलमेज परिषद” में कहा था, जब भी स्वतंत्र भारत का संविधान बनेगा वह “एक व्यक्ति, एक मत” के साथ “एक व्यक्ति, एक मूल्य” के पायाभूत सिद्धांत पर निर्भर हो, जिससे “आर्थिक जनतंत्र” की बहाली हो, इस क्रान्तिकारी भूमिका का आग्रह किया था. वही उनके जीवन का अंतिम उद्धेश रहा था, उसे विशद करने के लिए सन १९४६ में भारत का संविधान कैसा हो? इस विषय पर एक “प्रारुप” लिखा, जो बाद में भारतीय कांग्रेसी नेताओं के सामने चर्चा के लिए दिया गया. पर भारतीय शोषित-पीड़ित लोगों के हितों को दुर्लक्षित करते हुए उसे भुला दिया गया. अकेले बाबासाहब आंबेडकर के मतों से वह क्रान्तिकारी विचार भारतीय संविधान के धारा के रूप में पास नही हो पाए. दिनांक १७ दिसंबर १९४६ के संविधान सभा में भी बाबासाहबने “आर्थिक जनतंत्र” का ही जिक्र और आग्रह किया. फिर भी केवल मनुवादी, कांग्रेसी नेताओं के विरोध के कारण भारत में “राज्य समाजवाद” नही आ सका. जिसका नतीजा आज भारत में अमीर और गरीब वर्ग है.


 संविधान सभा में दिनांक १९ नवम्बर १९४८ को बाबासाहबने और आर्थिक जनतंत्र की पेशकश की, “राजनैतिक जनतंत्र को प्रतिपादित करते हुए हमारी यह भी इच्छा है कि, आर्थिक जनतंत्र को आदर्श स्वरुप प्रतिपादित किया जाना चाहिए....इस संविधान सरकार के घटकों के सम्मुख भी एक आदर्श रखना चाहता है. वह आदर्श है, “आर्थिक जनतंत्र” का, मेरे ख्याल में इसका अर्थ है – “एक व्यक्ति, एक मूल्य.” भारत आझाद होने पर उनके सत्ता और संपत्ति का मसला छुड़ाने के बारे में कहीं मतभेद थे, हिन्दू और मुस्लिम इन विषय पर एक नही हो सके इसलिए देश का विभाजन हुआ. जिन्हा और गाँधी के विचारों में यह मतभेद कायम रहा. एकसंघ भारत के लिए गाँधी अपने विरोधक जिन्हा को नही समझा सके तथा सवर्ण हिन्दुओंने अपने अड़ियल धोरण के वजह से जिन्हा को हिन्दुओं के साथ रहना सही नही लगा.


दिनांक १४ अगस्त १९४७ में धार्मिक आधार पर अंग्रेजों के सत्ता और संम्पत्ति का बटवारा हुआ. जो मुस्लिम लोग जिन्हावादी थे वे पाकिस्तान गए और गाँधीवादी मुस्लिम लोग भारत में रहे. किसी भी धार्मिक अल्पसंख्याक व्यक्ति पर आझाद भारत में अन्याय हो इस विचार के बाबासाहब थे. इसलिए उन्होंने “स्टे्ट एंड माइनॉरिटीज़” के अपने राज्य समाजवादी धोरण को गाँधीवादी कांग्रेस के नेताओं के सामने विचार करने के लिए रखा पर उसका नतीजा निराशाजनक रहा. जबतक हिन्दू मेजारिटी देश में अन्य धार्मिक अल्पसंख्याक लोग सुखी नही रहेंगे, तबतक वे हिन्दुओं के खिलाफ बगावत करते रहेंगे और जनतंत्र के सामने हमेशा खतरा बना रहेगा. उसका नतीजा यह होगा की हमारा देश और किसी दुसरे किसी देश के गुलामी में चल बसेगा. देश में दुबारा देशी-विदेशी गुलामी न रहे. सभी को न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुभाव जीवन के हर स्तर पर प्राप्त हो, इस दृष्टी से बाबासाहब के प्रयास थे.


वर्णवादी मोहनदास गांधीने मुस्लिमों को ज्यादा हिस्सा दिया इसलिए उन्हें भारत का दुश्मन समझकर भारतीय सवर्ण ब्राह्मणों के संघटन आर.एस.एस के माध्यम से उन्हें ३० जनवरी १९४८ को नाथूराम घोडसे के जरिए मारा गया. बाबासाहब आंबेडकर अखंड देश के साथ थे. तिलक का सपना “स्वराज” था पर बाबासाहब का सपना “सुराज” प्रस्थापित करना था. भारत को आदर्श जनतंत्र देना बाबासाहब का सुरु से ही प्रयास रहा. इसलिए भारत को “सुराज” बनाने के प्रयास सुरु किये थे. हर व्यकीने अपने चुने प्रतिनिधियों के जरिए अपनी सत्ता प्रस्थापित करना चाहिए तथा अंगेजों के संपत्ति का सामान बटवारा होना चाहिए, इस विषय पर उन्होंने अपना मत दिया था की जनता में संपत्ति बांटने के बजाए सभी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण किया जाए.


बाबासाहब आंबेडकरने “राज्य समाजवाद” को निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया था, “राज्य समाजवाद योजना में, राज्य के प्रभुत्व में, सामूहिक ढंग की खेतीबाड़ी के साथ कृषि और औद्धोगिक क्षेत्र में, संशोधित रूप में, राज्य समाजवाद की स्थापना की गयी है. इस योजना में कृषि और उद्धोग में, पूंजी लगाने का दायित्व राज्य पर सोंपा गया है. राज्य द्वारा पूंजी लगाए बगैर न भूमि और न ही उद्धोग बेहतर उत्पादन दे पाएंगे. इसमें बिमा राष्ट्रीयकरण की प्रस्तावना दोहरे उद्धेश से की गई है. राष्ट्रीयकरण की हुई बिमा कंपनी एक निजी बिमा कंपनी की तुलना में व्यक्तिगत धन के सुरक्षा की गारंटी अधिक देती है. राज्य विमा कंपनी, चाहे कैसी भी परिस्थितिया हो, धन लौटाने का पूरा उत्तरदायित्व लेती है. इसमें व्यक्ति को किसी प्रकार का भय नहीं रहता है. राज्य के पास बिमा कंपनी द्वारा नियमित एक निश्चित पूंजी आ जाती है, जिसे वह अपने औद्धोगिक कार्यों में लगा सकता है, अन्यथा राज्य के खुली बाजार से पूंजी लेनी पड़ती है, जिसके ब्याज की दरे ही बहुत ऊँची होती है. अता राज्य को घाटा उठाना पड़ता है. भारत में, तेजी के साथ औद्धोगिकीकरण के लिए “राज्य समाजवाद” अति आवश्यक है.” (डॉ. आंबेडकर और भारतीय संविधान; लेखक- एल. आर. बाली; दूसरा संकरण, पृष्ट-४९-५०)


भारतीय संविधान में कांग्रेसी प्रयास से ‘धारा-३१’ (काली धारा) के तहत संपत्ति को व्यक्ति का मौलिक हक़ दिया गया. व ‘धारा- २४’ के तहत संपत्ति का मुहवजा दिए बगैर नही छिना जा सकता. व्यक्ति को उसके संपत्ति का मुहावजा दिए बिना नही छीन सकती. सरकार व्यक्ति के सामने अपाईज बनी. इन दो धाराओं के जरिए पूंजीवाद को जन्म दिया. जिससे आर्थिक विषमता को बढावा मिला. इसे बाबासाहब कांग्रेसी बहुमतों का नतीजा मानते रहे. कांग्रेस का पाप वे अपने सिर ढोने को और तयार नही थे. इसी वजह डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर अपने ही हातों से भारतीय संविधान को ही जलाना चाहते थे. जो संविधान आर्थिक विषमता को पैदा करता है, वह अब ९९% गरीबों के लिए किस काम का है? उसके समाप्ति के बगैर भारत में ‘आर्थिक जनतंत्र’ आना असंभव है. बिना आर्थिक जनतंत्र के भारत में सार्वजानिक जनकल्याण असंभव है.


अमरीका के १६ वे राष्ट्राध्यक्ष अब्राहम लिंकनने कहा था, “जब आवाज उठाने की जरुरत होती, तब जो लोग चुपचाप बैठते, वे डरपोक होते है और वे डरपोक लोगों की ही फ़ौज बनाते.” तो सुप्रसिद्ध निग्रो क्रांतिकारक मार्टिन ल्युथर किंगने कहा था, “दुर्जनों के दुष्ट और बुरे कर्मों से सज्जनों का मौन अधिक धोकादायक होता है क्योंकि वह दुष्ट कर्मों के लिए ही मौन सम्मति होती है.” तो डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर (सन-१८९१-१९५६) का कहना था, “गुलामों को गुलामी का अहसास करा दो, फिर वही अपने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए बगावत करेंगे.” तथा संविधान सभा में बाबासाहबने कहा था, “जो लोग आर्थिक विषमता के शिकार है, वे ही लोग बढ़े मेहनत से बनाए इस “राजकीय जनतंत्र” की धज्जिया उडाएंगे. वह दिन भारत के इतिहास में सबसे दुखदायी होगा.”


डॉ. बाबासाहब आंबेडकरने ख्रिश्चन, ईस्लाम, हिन्दू, शिख और जैन धर्म का अध्ययन कर उसमे ईश्वर, भगवान, अल्ला, आत्मा परमात्मा, पूजा-पाठ और स्वर्ग-नर्क की अवैज्ञानिक विचारधारा देखी तथा कार्ल मार्क्स के साम्यवाद में हिंसक तानाशाही को पाया. उन्हें न धर्मो के पास ‘जनतंत्र’ दिखा और न ‘साम्यवाद’ में. हर धर्म के ठेकेदार ईश्वर के शासन की वकालत करते है, जो तानाशाही से लिप्त है तथा जो अधार्मिक साम्यवाद है. उनमे भी जनतंत्र का अभाव पाया. इसलिए उन्होंने ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ इस कल्याणकारी नैतिकता (धम्म) का राश्ता अख्तियार किया. गरीब लोगों को आर्थिक समता के लिए धम्म में सम्मिलित किया.


धर्म बनाम धम्म क्यों है? डॉ. बाबासाहब अम्बेडकरने (‘इनसायक्लोपीडिया ऑफ़ रिलिजन एंड इथिक्स’, वालुम-१०, पेज-६६९ के हवाले से) बुद्ध विचारों को तात्विक और वैज्ञानिक होने से धम्म कहा, मगर धर्म नही. इसका मतलब निती, न की रिलिजन या धर्म नही.. बुद्ध के विचार ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग-नरक, पूजापाठ के खिलाफ होने से वे धर्म, रिलिजन के परिभाषा में सम्मिलित नही किया जा सकता, ऐसा बाबासाहब का ही तर्क रहा था. उन्होंने जो महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा उसका शीर्षक “द बुद्ध एंड हिज रिलिजन” के बजाए “द बुद्ध एंड हिज धम्म” इसी कारण रखा. धम्म का मतलब ‘धर्म’ नही, निती है, आर्थिक जनतंत्र है, आदर्श जनतंत्र है.


बाबासाहब अम्बेडकरने दिनांक १५ अक्टूबर १९५६ को नागपुर के अपने भाषण में कहा, “धम्म की जरुरत गरीबों को है. धम्म की जरुरत पिडित लोगों को है. गरीब व्यक्ति आशाओं पर जीता है. Hope! जीवन का मूलाधार आशाएं है. अगर आशा ही नष्ट हुयी तो जीवन कैसा होगा? धम्म आशावादी बनाता और गरीबों को सन्देश देता है, ‘बिलकुल मत डरों, होगा, जीवन आशादायी होगा......इसके विपरीत धर्मों का कहना है, ईश्वर ने सृष्टि, आकाश, वायु, सूरज, चाँद आदी सभी कुछ निर्माण किया. हमें ईश्वर ने कुछ भी और बनाने के लिए बाकी नही रखा, इसलिए ईश्वर की हमने आराधना करनी चाहिए. ख्रिश्चन धर्म के अनुसार तो मृत्यु के बाद एक “निर्णय का दिन” होता है. उसी दिन के निर्णय के अनुसार सभी कुछ तय होता है, उससे ही कोई स्वर्ग या नर्क में जाते है.


“बुद्ध धम्म में ईश्वर और आत्मा को कुछ भी जगह नही है. बुद्धने बताया विश्व में सभी ओर मानव निर्मित पीड़ा है. ९०% लोग उसके पिडित है. पिडित गरीब लोगों को मुक्त करना बौद्ध धम्म का मुख्य लक्ष है. तथागत बुद्ध के अलावा कार्ल मार्क्सने नया और क्या बताया? बुद्धने जो “सम्यक” तत्वज्ञान बताया उसे ही कार्ल मार्क्सने अलग ढंग से बताया. हमसे हुआ तो धम्म के जरिए हमारे साथ केवल भारत देश का ही नही तो पुरे विश्व का भी उद्धार करेंगे..... बुद्ध का यह नया मार्ग बहुत जवाबदेहि है. हमने कुछ संकल्प किया है, उसे युवकों ने ख्याल में लेना चाहिए. उन्होंने केवल स्वार्थी नही बनना चाहिए तो ‘अपने कमाई का २०% हिस्सा धम्म कार्य में दूंगा,’ ऐसा संकल्प करना जरूरी है. मुझे सभी को बराबर लेना है.”


विश्व के राजनैतिक विचारक ‘भारतीय जनतंत्र’ की ओर बड़े आशा के साथ देखते आ रहे है. आधुनिक भारत का जनतंत्र बुद्ध विचारों की केवल राजकीय उपज है. इसलिए यह “आदर्श जनतंत्र” नही, उसे “आदर्श” बनाने के लिए “आर्थिक जनतंत्र” की जरुरत है. विश्व में पूंजीवादी सरकारों के जरिए मुनाफाखोरी, बेरोजगारी, महंगाई, भुकमरी, अशिक्षा, असुरक्षा, आतंकवाद, नक्षलवाद पनप रहा. केवल भारत में ही नही तो पुरे विश्व में “आर्थिक जनतंत्र” की जरुरत है. पर भारतीय भूमि “आदर्श जनतंत्र” के लिए उत्तम उपजाऊ है. क्योंकि यहाँ पर “राजकीय जनतंत्र” से उसकी मशागत हो चुकी है. भारतीय लोग “जनतंत्र” के आदि हो रहे है. जिस देश में राजकीय जनतंत्र या धम्म है, उस देश में “आर्थिक जनतंत्र” को कायम करना बहुत ही आसान कार्य है. अभी महंगाई की मार अमीरों को नही, लेकिन गरीब लोगों को जरुर महसूस हो रही है. अनाज के अभाव में उत्तर कोरिया के नरभक्षी (आदमखोर) प्रथा का उदय हुआ, वैसी स्थिति भारत में न हो, इसलिए गरीबों के समस्याओं पर सरकारने विशेष ध्यान देने की बहुत जरुरत है. अन्यथा आदमखोरी निर्माण होने से किसी कोई भी सरकार नही रोक सकती. “आर्थिक जनतंत्र” के बिनाभी प्रयास विफल है.


आन्दोलन क्या है? जाती व्यवस्था के शोषित-पीड़ितों को उस हद तक जागृत करना की वे स्वयं अन्याय के खिलाफ बगावत पर नही उतरते. उन्हें उनके हकों से अवगत करना. उसके प्राप्ति के लिए समय-समय पर कार्यक्रम देना, उसे नियंत्रित करना. हमारी मुख्य मांग भारत में “आर्थिक जनतंत्र” की है और उसके अवरोधी “भारतीय संविधान की आर्थिक विषमता को बढ़ावा देनेवाली धाराए- २४ और ३१; धार्मिक विषमता को बढ़ावा देनेवाली धारा- २५ तथा जातीय विषमता को बढ़ावा देनेवाली धारा- ३४०, ३४१ और धारा- ३४२” को निरस्त किया जाए”. हमारा आन्दोलन राजकीय या धार्मिक नही है, जातिवादी है पर उससे कम भी नही है, शांतिमय और जनतांत्रिक ढंग से, सन २०१७ तक, इस आन्दोलन का उद्धेश पूरा करना, करवाना हमारा निश्चित ध्येय है. हमें पुरी आशा है की, शोषित-पीड़ित जनता इस आन्दोलन के साथ जुडकर, हमारे साथ कंधे से कंधे मिलाकर, अपने हकों व सुखों के प्राप्ति के लिए सहयोग देंगे.


आर्थिक जनतंत्र ‘जनआंदोलन’ से क्या फायदा होगा? विश्व के हर व्यक्ति को उत्तम १. अनाज, २. कपडे, ३. मकान, ४. शिक्षा, ५. आरोग्य, ६. मनोरंजन तथा ७. रोजगार की जरुरत है. क्या विश्व की कोई भी पूंजीवादी सरकार इसे बहाल करने में सक्षम है? संपत्ति धारण करने का हक़ हर व्यक्ति को मालक बनाता है, इससे अगर कुछ लोग मालिक है, तो कुछ निर्धन लोग गुलाम होते है. क्या मालक और गुलाम के रिश्तों में न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के नैतिक मूल्य पाए जाते है? हजारों सालों से मानवीय समाज संपत्ति के मालिकाना हक्कों को पाने के लिए हमेशा संघर्षरत रहा है. आदर्श नैतिक मूल्यों को शोषको ने हमेशा नकारा, उसका नतीजा विश्व में दुःख की बढौतरी हुयी है.

वर्णव्यवस्था अब व्यापार के रूप में जीवित है. मुनाफाखोरी से ही आर्थिक शोषण और विषमता बढ़ी है. उत्पादन के सभी साधन सरकारी हो. सभी लोग सरकार के अधीन निर्धारित काम ईमानदारी से करे. सरकार उन्हें उचित मोबदला दे. खाजगी शोषण के सभी दरवाजे बंद हो. इसे नकारनेवालों को जल्दी से जल्दी उचित और कठोर सजा मिले. सहकारी ढंग से मानवीय समाज में व्यवहार हो. व्यक्ति संपत्ति (पैसे) का गुलाम न बने. पैसा व्यक्ति का गुलाम रहे. पैसे से प्यार, समता, न्याय नही खरीद सकते. पैसा इंसानियत से बढ़कर नही. पैसे के लिए मानवी मूल्यों का ध्वंस करना, गुनाह है. आर्थिक जनतंत्र में व्यक्ति के सामने पैसा, संपत्ति दुय्यम है, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुभाव ही अहम् है.

     

आर्थिक जनतंत्र को कायम करने से....!

१.       जमीन, उद्योग, तथा बिमा का राष्ट्रीयकरण होगा.
२.       अनाज, वस्त्र, निवारा, आरोग्य, शिक्षा, मनोरंजन व रोजगार की पूर्ति व सुरक्षा मिलेगी.
३.       हर व्यवहार सहभाव, सहकार से चलेगा, न की निजी मुनाफे से.
४.       सभी के लिए मर्यादित किन्तु परिवर्तनीय “समान वेतन आयोग” होगा.
५.       ‘एक देश, की एक भाषा’ होगी, जिससे राष्ट्रिय भाईचारा बढेगा.
६.       ‘समान नागरी कानून’ द्वारा जनसँख्या नियंत्रण किया जायेगा.
७.       राष्ट्रीयता, मानवतावाद, पर्यावरण सुरक्षा, वैज्ञानिक विषयों पर शिक्षा का प्रचार होगा.
८.       जातिवाद, वर्णवाद, वंशवाद, भ्रष्टाचार, नक्षलवाद तथा धार्मिक आतंकवाद ख़त्म होगा.


विश्व के सभी जनतांत्रिक जनता का मानव कल्याण कार्य में योगदान जरुरी है. सभी को सुख-शांति के इस जनआन्दोलन में सभासद होकर कार्य करने का मौका है. भारतीय १% अमीर लोग गरीबों को सुख से जीने देना नही चाहते. गरीब लोग अब आन्दोलन के जरिए अपने “एक व्यक्ति- एक मूल्य” इस मानवीय हकों को पाने के लिए बगावत पर उतरे है. तो विश्वव्यापी “गरीब बनाम अमीर” युद्ध होने से कोई भी सरकार उसे नही रोक सकती. यह विश्व का तीसरा महायुद्ध होगा.     


लिओ टॉलस्टायने सही कहा है, “आप कितना फासला काटा, यह कम महत्वपूर्ण है, पर आप सही दिशा में गए या नही, यह बात अधिक महत्वपूर्ण है.” हमारे भारतीय राजनेताओने कितने दिन शासन किया? यह महत्वपूर्ण नही है, उन्होंने सही “आर्थिक जनतंत्र” के दिशा में कार्य किया या नही? इसे देखना अब बहुत जरुरी है. यह देखने के लिए आर्थिक जनतंत्र जनांदोलन’ हमेशा प्रयास करेगा. यह सभी देशी-विदेशी बुद्धीजीवी लोगों का महासंघटन है. इसमें होने वाले हर बदलाव को बहुमतों से स्वीकारने पर जोर दिया जाएगा. जिस व्यक्ति के विचार ‘आर्थिक जनतंत्र’ को पूरक है, वे इस संघटन के सभासद बनने हेतु ईमेल द्वारा आवेदन करे, सभी भारतीय लोगों को सुखमय बनाने का संकल्प तथा प्रयास करे. सोशियल मिडिया के जरीय घंटों का काम मिनटों में संभव हो सकता है, तो उसीके जरिए हमारा सपना भी कुछ चन्द बरसों साकार क्यों नही होगा?


निजी संपत्ति के लिए मानव हिंसा न हो, शांति से हल निकले इस प्रयास के लिए तन, मन और धन से प्रयास होना चाहिए, ऐसा प्रयास डॉ. बाबासाहब आंबेडकरने किया था, पर उचित सहयोग के अभाव में उनका यह मिशन पूरा नही हुआ. उसे पूरा करने के लिए अपने आमदानी की २०% पूंजी समाज परिवर्तन के कार्य के लिए हर एक व्यक्तिने, हमेशा खर्चा करते रहने की नसीयत भी उन्होंने दिनांक १५ अक्टूम्बर १९५६ को नागपुर के अपने क्रांतिकारी भाषण में कही थी. पर उनके “जयभीम” कहनेवाले अनुयायियों ने उसे तवज्जो नहीं दिया, क्योंकि उन्हें लगा की, “क्रांति मुफ्त में मिलती है.” जिसका प्रतिफल यह है की बाबासाहब आंबेडकर का कारवां आगे नही बढ़ा और भारत में करीब ८०% गरीब लोग २०/- रोजी में अपना परिवार पाल रहे है.


धार्मिक, जाती, वर्ण और वर्ग से भारतीय शोषित-पीड़ित लोगों को पूंजीवादी व्यवस्था ख़त्म करके आर्थिक जनतंत्र प्राप्ति के लिए डॉ. बाबासाहब अम्बेडकरने संविधान सभा में दिनांक १९ सितम्बर १९४९ को सिंहगर्जना की थी, “आप जिन स्वामियों के लिए हल चलाते हो वे आपको निचा दिखाते है. आप मेहनतकश लोग ध्यान से सुन्दर वस्त्र बुनते है उसे आपके दुश्मन पहनते है. तुम बहुत सुस्ता चुके, अब शेरों की तरह उठो पर ओस की तरह उठो, अपने बेड़ियों को उतर के फेंको. आप बहुत बहुत ज्यादा है और आपके दुश्मन बहुत कम है.” 


जबतक भारत में राज्य समाजवाद लागु नही होगा, तबतक भारत से धार्मिक आतंकवाद, आर्थिक नक्षलवाद, वर्णवादी पूंजीवाद, महंगाई, भुकमरी, कुपोषण तथा जातिगत समस्यओं का निराकरण नही हो सकता इसलिए भारतीय शोषित, पीड़ित जनता ने “राज्य समाजवाद” का आग्रह करना चाहिए. इसलिए हमारा नारा है, भारतीय संविधान की “धारा- ३१" और "धारा- २४” को हटाव अर्थात अमीरी हटाव, गरीबी हटाव!