मंगलवार, 18 जून 2013

ॐ मनी पद्मे हूँ"

बुद्ध धम्म में मुख्यतः दो पंथ प्रमुख हैमहायान और हीनयानदोनों पंथों की विचारधारा भिन्न हैडॉबाबासाहब आंबेडकर इन्होने दिनांक१४ अप्रैल १९५६ को धम्म दीक्षा दिया थाउसमे उन्होंने  हीनयान की वकालत की थी और  महायान कीपर अब आंबेडकर अनुयायी ज्यादात्र महायान के  चंगुल में दिन   दिन फंसे जा रहे है

"जय भीमको अभिवादन में अपनाने के बजाए अब वे " मनी पद्मे हूँकहने लगे हैबुद्ध पौर्णिमा के अवसरपर उसको एस्मेस में भी भेजे जा रहे हैतब बड़े चिंता की बात हैबुद्ध की धम्मक्रांति सफल हुयी या विफलअगर " मनी पद्मे हूँको बौद्ध लोग जब  प्रचारित  कर  रहे है तो वे महायानी विचारों के चंगुल में फंस गए ऐसा निश्चित ही प्रतीत होता हैमहायान यह मंत्रतंत्र की तथा अवतार को स्थान देता हैपूजापाठ द्वारा आशीर्वाद दिलाने में भरोसा दिलाता है.

हिन्दू धर्म में "को ईश्वर का निर्माता कहते हैमहायानी भी  को मानते हैयह  उनके पास क्या बुद्ध से आया हैअगर यही सही है तो "हिनयानीभिक्षु उनका विरोध क्यों करते हैवे उसे क्यों नही मानतेबुद्धिज़्म को भ्रमित करने के लिए महायानी भिक्षुओं ने काफी प्रयास कियाउशिक नतीजा है की भारत में बुद्धिज़्म विलुप्त हुआतिबेटी लोग महायानी हैअर्थात हिन्दू हैबौद्ध नहीहिन्दुधर्म के विचारों को अमल में लानेवाले बुद्धिस्ट  कैसे  क्या कहा जा सकताहिन्दुधर्म के कोकशास्त्र में "मणिको "शिश्नऔर "पद्मेको "योनिकहा गया है," भगवानशिश्न योनि में हैइस अर्थ के " मनी पद्मे हूँको अभिवादन में वापर करना बुद्ध की शिक थीक्या वह आंबेडकर साहब की शिक थी?

पद्मासन पर बैठे बुद्धपद्म यानि पाँवपालथी मरकर बैठे बुद्धक्या आसन से ज्ञान प्राप्त होता हैअगर ऐसा ही होता तो बुद्ध को "आर्य अष्टांगिक मार्गसमझाने की क्या जरुरत थी कमल से बुद्ध को कोई सम्भन्ध है और  पद्मासन से.. क्या कोई व्यक्ति कमल के फुल पर बैठ सकता हैबुद्ध को कमल पर बैठने का मतलब यही है की उन्हें अलौकिक शक्ति सम्पन्न बतातना हैईश्वरीय अवतारी पुरुष बताना हैक्या इससे बुद्ध का अनात्मवाद और अनीश्वरवाद के सिद्धांतों का खत्म होते हुए नजर नहीं आता?

क्या भंते आनंद कौसल्यायन महायानी नहीं थेभंते सुरई ससाईभंते संघरक्षित मानकेसंघ रक्षित महास्थविर (त्रैलोक्य बौद्ध महासंघमहायानी लोग नहीं हैओशो रजनीश और सत्यनारायण गोयनका यह महायानी विचारों के उपासक नहीं हैक्या महायान बुद्धयान हैमहायान हिन्दुधर्म के आलावा और कुछ भी नहीं हैतिबेटी लामा यह अवतारवादी विचारों का प्रतिफल हैबुद्ध के पहले भी बुद्ध हुएबुद्ध पहले के जन्म में बोद्धिसत्व थेयह विचार क्या वैज्ञानिक सोच को साबित करते हैक्या महायान के नामपर अवैज्ञानिक व् तर्कसंगत सोच को छोड़ देना चाहिएबोद्धिसत्व क्या हैबुद्ध होने के पहले जन्म की अवस्था."दस पारमिताको जो पूरा करेगा वह बोद्धिसत्व बनेगाजो दस जन्म तक बोद्धिसत्व के नियमों का अर्थात १० पारामिताओं  का पालन करगा वही व्यक्ति "बुद्धबनेगायह सोच क्या वैज्ञानिक हैतर्कविसंगत सोच के साथ अगर भिक्षु भी रहे तो वह विचार धम्म विचार होने के लिए पर्याप्त नहीं है.

मुल्कराज आनंद यह एक जानेमाने साहित्यिक हैउन्होंने आंबेडकर साहब की मुलाखत की थीउसमे बाबासाहब ने " मणि पद्मेको अभिवादन के रूप में बौद्धों ने अपनाना चाहिएऐसा उद्बोध किया थाऐसी बाते उन्होंने "१९९०में प्रकाशित की थीउन्होंने बाबासाहब आंबेडकर के  "अन्हीलेसन आप कास्टइस ग्रन्थ को प्रकाशित किया थाउसी के साथ उन्होंने आंबेडकर साहब के साथ उनकी जो वर्तालाफ़ हुयी थी उसे भी छापा थापर मुल्कराज आनंद के इस महायानी विचारों का धम्मानुयाई स्वीकार नहीं कर सकतेक्योंकि अगर बाबासाहब " मणि पद्मेको स्वीकार करते तो उन्होंने दीक्षाभूमि समारोह में सार्वजानिक रूप से उसकी घोसना करतेपर उन्होंने एशिया नहीं कियामुल्कराज आनंद जैसे ही ओशो रजनीश भी रहे हैबुद्ध विचारों में घालमेल करके धम्म क्रांति को भ्रमित करने का कार्य करेंगेउनके अनुयायी भी महायान को ही सही धम्म होने का दावा करेंगेउसके लिए डॉभाऊ लोखंडे जैसे कुछ छद्म अम्बेडकरी भी सहयोग देंगेकदम कदम पर महायानीहिन्दू घाट लगाकर बैठे हैअगर अम्बेडकरी बेफिक्र रहे तो धम्म का अंत होना तय है.

महाराष्ट्र सरकार ने "डॉबाबासाहेब आंबेडकर : राइटिंग एंड स्पीचेसके व्यालुम१६ के पृष्ट- 743 पर भी " मणि पद्मे हूँको स्थान मिला हैआखिर क्योंअम्बेडकरी धम्म क्रांति को भ्रमित करने के प्रयास महायानियों द्वारा हमेशा हुए हैउसने ही बुद्ध को भगवानभगवंतलार्ड बनायाजो विचारवंत महायानी विचारों को "धम्मसमझकर प्रचारित कर रहे हैवे प्रतिक्रांति के हिमायती हैउनसे क्रांतिकारी अम्बेडकरी अनुयायियों ने दुरी बने रखना जरुरी हैनहीं तो धम्म्प्रचार के नामपर हिन्दुधर्म को गले लगाने का कार्य होगाधम्म के जगह पर धर्म का विजय होगा.

युद्ध चाहिए या बुद्ध चाहिए?


बौद्ध उपासकों को गरीब बौद्धों की फ़िक्र नही है और न भिक्षुओं को, दोनों भी सिर्फ मनोरंजन और पूजापाठ में विलीन है. क्या आर्थिक परिवर्तन को बुद्ध धम्म में कुछ भी स्थान नही है? क्या जातिगत आरक्षण से बौद्धों की भुकमरी, गरीबी, लाचारी, बेबसी जाएगी? क्या गरीब सही ढंग से भिक्षु या उपासकों का प्रवचन सुनने के लिए काबिल है? हम एक ओर से धम्म शिक्षा दे रहे है मगर वह कितने प्रतिशत लोगों के ध्यान में आ रही है? इसका कभी भी किसी ने जायजा लेना उचित नही समझा. ऐसा केवल हमारे ही देशो में नही हुआ तो अन्य भी देशो में यही हुआ है. हमने आर्थिक विसमता को कभी अपना लक्ष नही बनाया. जो लोग आर्थिक विषमता के खाई में गिरे है उन्हें बाहर निकालने का कोई भी कार्य नही होने से वे परेशान होकर कभी कार्ल मार्क्स के सेना में भर्ती हुए तो कभी नक्सलवादी बने. तो कोई ख्रिश्चन बने. अगर पीड़ित जनता को “जाती-वर्ग-वर्ण विहीन समाज निर्मिती” में बौद्धों ने साथ नही दिया तो उनके “आर्य अष्टांगिक मार्ग” को कौन कहेगा की यह मार्ग “बहुजन हिताय, बहुजन  सुखाय” है तथा वह “विश्व की पुनर्रचना” करना चाहता है?
हमारे पडोसी देशों मे हमेशा आपस मे झगडे होते रहे है, नतीजा वे हतियारों के खरेदी मे वे गरीब और लाचार हुए है. क्या हम भी उनके जैसे होने चाहिए? क्या हमारा देश भी वैसा ही गरीब होना चाहिए? चाइना को युद्ध, तो हमें बुद्ध चाहिए. युद्ध से युद्ध नही जीता जा सकता. बुद्ध से युद्ध को जीता जा सकता है. इसी कारण डॉ. बाबासाहब आम्बेडकर ने हमें युद्ध के बदले बुद्ध का हथियार दिया है. वह हर प्रकार के शत्रुओं से मुकाबला करने के काबिल है. बस उसे चलाते आना चाहिए.

राजनीति मे “एक व्यक्ति, एक मत” को मान्यता मिली है और हम समान हो गए लेकिन हमारे सामाजिक और आर्थिक विषमता की वजह से सामाजिक तथा आर्थिक जीवन मे “एक व्यक्ति – एक मूल्य” यह तत्त्व अस्विकार कर रहे है. लोग ऐसे विपरीत परिस्थिति मे कबतक जीवित रह सकते और कितने दिन तक? कबतक सामाजिक तथा आर्थिक जीवन मे समानता को पालते रहेंगे? यदि समानता का हमारे सामाजिक और आर्थिक जीवन से नकारते रहे, तो राजकीय लोकतंत्र के भविष्य को खतरा जरुर होगा. इसलिए अभी शिग्रतिशिग्र इस विसमतामय जीवन का अंत करना होगा, अन्यथा जो लोग विषमता के शिकार है, वे बहुत कष्ट एवं परिश्रम से खड़े हुए इस राजनितिक लोकतंत्र का ढांचा ध्वस्त करेंगे.

बाबासाहब आंबेडकर के प्रेरणा से जो बौद्ध हुए और बुद्धिमान भी बने है, उन लोगों का यह रुख होना चाहिए की, न केवल बौद्धों के लिए बल्कि सभी मानव प्राणियों के समाज में आर्थिक समता भी लाने के लिए उचित प्रयास करे. केवल शैक्षणिक, राजकीय, सांस्कृतिक समानता रहने से समाज समतामय नही हो पाएगा. इसलिए समाज का आर्थिक अंग भी समतामय होना चाहिए तभी भी ममता आएगी. जिस समाज में ममता नही वह समाज चाहे फिर हिन्दुओं का हो, मुस्लिमों का हो, शिखों का हो, ईसाईयों का हो या बौध्दों का लम्बे समय तक इकठ्ठा नही रह सकता. बौद्धों के इतिहासों में सिर्फ डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ही ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें बुद्ध और उनके धम्म की गरिमा सही ढंग से समझी थी. जिसे हमने पुरे विश्व में उसे फैलाए और बुद्ध, बाबासाहब आंबेडकर के समतामय क्रांति को शान्ति के उद्धेश से जनजन तक ले जाने का प्रयास करे. 

हम हमारे आचार-विचारों के कारण आगे-पीछे है, इस में न सरकार का दोष है और न भगवान, अल्ला, ईश्वर, गाड या लार्ड का दोष है. सरकार शिक्षा तो देना चाहती है लेकिन शिक्षा का उद्देश्य तय नहीं है. फिर वह शिक्षा व्यक्ति विकास मे मदत कैसे करेगी? ऐसे निति से न देश का विकास होगा और न व्यक्ति का. ज्ञान के नामपर अज्ञान सिखाना; यह शिक्षा के नामपर कलंक है, जिनका पूरा विश्व शिकार है. शिक्षा की यही निति जारी रही तो तीसरे महायुद्ध की सम्भावना हमेशा बनी रहेगी. अगर उसे टालना है तो बुद्ध धम्म के सिवाय दूसरा सही पर्याय नही है. हमें युद्ध चाहिए या बुद्ध? कोई देशी हो या विदेशी, जो युद्ध की बाते करे, वे शान्ति के विनाशक है. वे शान्ति भंग करने के लिए टोलिया बना रहे है, जिसे वे संघटन का नाम देते है. विकाश का मुद्दा छोडकर नुकसान के मुद्दों को बढ़ावा दे रहे है. देश मे भारी आर्थिक विषमता है जिससे गरीब लोग महंगाई के साथ मुकाबला नही कर पा रहे है, वे अपने ही हातों से अपनी जान गवां रहे है, यह बड़े चिंता की बाते है. जितने जल्दी हो सके इसपर हल निकाले, नही तो यह गरीब लोग ही बड़े कुर्बानियों के बाद मिला राजकीय जनतंत्र तहस-नहस करेंगे. समय से पहले ही सजग होना बुद्धिमानी है.

वैज्ञानिकों का कहना रहा है की नए ज़माने में कोई भी धर्म नही टिक पाएगा क्योंकी उनके विचारधारा में विज्ञान का अभाव है. हर धर्म आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नरक, पाप, पुण्य, पुँजा-पाठ के आधी हो चूका है, जो विज्ञान के कसौटी पर नही उतरता. इसलिए उनका दौर अब जा रहा है. धर्म के ठेकेदार मुल्हा, पुरोहित, पंडित, पोप का जमाना निकल रहा है और जल्द ही उन्हें अफ़सोस करने के सिवाय कुछ भी बाकि नही रहेगा. हर धर्म ईश्वर, आत्मा से इंसानी रिश्ता रखता है, अगर ईश्वर का अस्तित्व वे साबित नही कर सके तो, उनके धर्म उपासक भी उनका साथ छोड़कर, नए वैज्ञानिक विचारों से लेंस व्यक्तियों से अपना लगाव रखेंगे. एक व्यक्ति ही व्यक्ति के कार्य में मदत के लिए आ सकता, न की भगवान. धम्म यह इन्सान ने इंसानों के लिए बनाया है, किसी भगवान ने नही, जो अन्ध विचारों का पालन करे. धम्म को वैज्ञानिक साबित करना बौद्धों का प्रथम कर्तव्य है. फिर प्रचार करना उतना ही आसान और गतिशील होगा.

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने मुम्बई के अलावा बुद्धधम्म दीक्षा समारोह नागपुर में लिया. वह भारत का मध्यवर्ती स्थान होने से वहां पर पुरे भारत के लोग जरुर इकठ्ठा होगे, उन्हें आने जाने में असुविधा कम होगी. पर अफ़सोस की बात यह रही की महाराष्ट्र के महार जातियों के अलावा और कोई खास दुसरे जगहों से जनता सम्मिलित नही हो सकी. नागपुर यह धम्म प्रचार और प्रसार का महान केंद्र बने यह उनकी आशा रही थी. मगर यहाँ पर अभी तक सही मायने में धम्म प्रचार का कार्य सुरु नही हो सका. दीक्षा भूमि पर हर साल गिराह के दिन “दिनांक १४ अक्टूम्बर” को देश विदेश से लोग इकठ्ठा होते है. पर सिर्फ माथा टेकने के लिए ही. बहुत कम लोग होते है की जो किताबों को खरीदते है. और उसे लगाव से पढ़कर धम्म कार्य को बढ़ाने में सहयोग देते है. इसी वजह अभी अर्ध शतक पार होंने पर भी भारत धम्ममय नही हो सका तो विश्व धम्ममय कब होगा?

डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर का देहान्त नई देल्ही में दिनांक- ६ दिसम्बर १९५६ के पहटिया के करीब चार बजे हुआ. उसके पहले उन्होंने “द बुद्ध एंड हिज धम्म” ग्रन्थ के “प्रास्ताविक” (प्रिफेस) में कुछ दुरुस्तिया की थी, वह बाजु के टेबल पर ही मौजूद थी. “द बुद्ध एंड हिज धम्म” बाबासाहब आंबेडकर के मृत्यु उपरान्त “पीपल एज्युकेशन सोसायटी, मुंबई” द्वारा उसका विमोचन हुआ. पर वह “प्रस्तावना” (प्रस्ताविक, प्रिफेस) जातिवादी अम्बेडकरी अनुयायिओं ने प्रकाशित नही होने दी. जिस वजह से लोगों ने धम्म को समझने के लिए “द बुद्ध एंड हिज धम्म” को पढ़ा लेकिन उन्हें सही ढंग से जानने का मौका नहीं मिला. उसके बाद महाराष्ट्र सरकार द्वारा भी उसका विमोचन हुआ लेकिन उसमे भी जातिवादी अम्बेडकरी लोगों ने शेंद मारी. क्या यह धम्म प्रचार का सही तरीका है? क्या ऐसे जातिवादी व्यक्ति बाबासाहब के “आर्थिक जनतंत्र” को समझ के काबिल है?

विश्व के सामने आज पूंजीवाद, साम्यवाद, नक्षलवाद, आतंकवाद, जातिवाद, धर्मवाद और भ्रष्टाचार जैसी महान समस्याए ऊँचे-ऊँचे पर्वत जैसी खड़ी है. उन्हे धम्म के वैज्ञानिक मशीन द्वारा सपाट और एकसमान बनाना अति आवश्यक कदम है. दुनिया के हर गरीबों को धम्म में सम्मिलित करके उनके जरिए दुनिया की पुनर्रचना करने का कार्य हातों में लेना होगा. हमें “मॉर्क्स” नही, “बुद्ध” चाहिए! हमें “कॉमरेड” नही “धम्मचारी” चाहिए! हमें “तानाशाही” नही, “जनतंत्र” चाहिए! हमें “राजनेता” नही, “कार्यकर्ते” चाहिए! हमें धम्म प्रदूषित नही, शुद्ध चाहिए! हमें “अज्ञान” नही, हमें “विज्ञान” चाहिए! हमें “युद्ध” नही, “बुद्ध” चाहिए! 

विश्वव्यापी स्थर पर “शुद्ध धम्म सूत्रों” का संकलन करना होगा. धम्मक्रांति का जनतांत्रिक कार्य “धम्मचारी” ही बखूबी ढंग से कर सकते. आधुनिक सोशल मिडिया और आधुनिक तन्त्रज्ञान साथ में है, जो सदियों का काम वर्षों में और बर्षों का काम मिनटों में करने को तयार है. बस! अब धम्मचारीयों ने सामने होकर संघटित ढंग से कार्य करने की जरुरत है. तो ही डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर का सर्वांगीन समता मूलक धम्मक्रांति का आन्दोलन कामयाब होगा. तथा महकरुनिक तथागत बुद्ध का “विश्व की पुनर्रचना” करने का उद्धेश पूरा होगा. जिस उद्धेश से बाबासाहब अम्बेडकर ने धम्म दीक्षा नागपुर में दी थी, वह उनका “बुद्धमय विश्व” बनाने का सपना साकार होगा. इस धम्म क्रान्तिकारी कार्य की नए तरीके से शुरुवात करना जरुरी है. इन्तजार काफ़ी हुआ, अब उचित प्रयास बाकी है. इसके लिए "आर्थिक जनतंत्र जनांदोलन" की निहायत जरुरत है. उसके शिवाय "धम्मक्रांति का जनतांत्रिक सफ़र" अधुरा है.

धम्म का उद्धेश "विश्व की पुनर्रचना" करना है!

दुनिया पीड़ा पर नही, धम्म पर खड़ी करनी है..! धम्म न्याय, आझादी, समानता और भाईचारे का नैतिक तत्वज्ञान है. यह समाज न केवल एक अंग में सहयोगी है तो आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और राजकीय स्थर पर भी महत्वपूर्ण है. बाबासाहब अम्बेदकर का यह चिन्तनशील मत रहा है, “सामाजिक और आर्थिक जनतंत्र ही राजकीय जनतंत्र की कोशिका और स्नायु है. यह दोनों भी जितने मजबूत रहेंगे, उतनी ही ज्यादा शरीर को मजबूती मिलेगी. जनतंत्र का दूसरा नाम समानता है.” (डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर: राइटिंग एंड स्पीचेश, वालुम– १०, पेज- १०८) बुद्ध का धम्म ही “आदर्श जनतन्त्र” है, जिसकी गरिमा हमें “आर्य अष्टांगिक मार्ग” से मिलती है.

तथागत बुद्ध से लेकर आजतक का विचार किया जाए तो हमें मालूम होता है की बुद्धधम्म के उपासक कही राजा लोग रहे है. उनके पास राज्य के सुरक्षा के लिए सैन्य भी होते थे. सिद्धार्थ (बुद्ध) खुद सैनिकी शिक्षा ले चुके थे. सैन्य का क्या कार्य होता है? यह उन्हें अच्छी ढंग से पता था. फिर भी उन्होंने सैनिकों का कार्य करने के बजाए युद्ध ही न हो और जंग में जान गंवाने की किसी भी मानव प्राणी पर नौबत ही न आए, इस विषय पर कार्य किया. युद्ध हमेशा व्यक्ति के दिमाग में चलता है. दिमाग विचारों से चलता. जैसे विचार वैसे आचार.

मन से मानव विरोध की गल्त असामाजिक विषमतामय धारणाओं को निरस्त करने के लिए उन्होंने यह धम्म दुनिया को दिया. यह मानव प्राणी की हिन्सा रोखने के लिए दिया. न की उनका संहार करने के लिए. पर बुद्ध धम्म को लोग मानव को रोखने के बजाए अन्य प्राणियों के हिन्सा को रोखने के लिए किया जा रहा है. व्यक्ति आपस में इसलिए लढता और झगड़ते रहता है क्योंकि उनकी मुलभुत आवश्यकताए पूरी नही होती. मानव प्राणियों ने एक जगह बैठ कर वंचित लोगों के दुखों का हल धुंडने का कार्य करना चाहिए.

मानव यह अभी भी व्यक्ति नही तो प्राणी ही है, जानवर है. जैसे जानवर में अपने ही पेठ की ज्यादा फ़िक्र होती है वैसे ही ज्यादातर मानव समूह के बुद्धी में स्वार्थ की भावना कुट-कूट कर भरी है. वे अपने फायदे के लिए आपस में लड़ते रहते है. ऐसे वक्त बुद्ध पहले समझाने का, जागृत करने का बोध करते है, जैसा की प्रसेनजित राजा के “वस्सकार” मन्त्री को किया था. वज्जी घराने से इसलिए नही जीता जा सकता है की उनमे कुछ सद्गुण है, सदाचार है. उनके शत्रु भी उनके गुणों को देखकर उनसे युद्ध करने के बारे में दस बार सोचते थे. इसका दूसरा अर्थ यह है की सद्विचार ही अप्रत्यक्ष ढंग से युद्ध को पराजित करते है. युद्ध को टालते है. युद्ध से पराजित करते है और हिन्सा होने से समाज बचता है.

बुद्ध ने राजा प्रसेनजित को युद्ध करने से नही रोका था या न हिंसा करने से रोका था. बुद्ध ने अपने उपासक राजाओं को यह कभी नही कहाँ की “सैन्य भर्ती बंद करो.” इसका दूसरा अंग यह है की जरुरी है, तो उनका प्रयोग करना उचित है. बुद्ध ने “जरुरत होने पर हिन्सा भी करना उचित समझा था. पंचशील की निर्मिती यज्ञ में होने वाले अन्य प्राणियों के हत्याओं को रोख लगाने के उद्धेश से जैनों ने की थी. पंचशील यह जैनों के पाच बल है. वे नियम है, न की कोई तत्व. यह जैनों के कठोर नियम रहे. जो हर बातों में अति का भाव दर्शाते है. “मै हिंसा नही करूँगा” क्या इस वाक्य में किसी स्थिति का बोध होता है? फिर कैसे कहेंगे की, इस अवस्था में उनका उल्लंघन भी जरुरी है?

विचार, संकल्प, वाणी, कर्म, आचरण, प्रयास, स्मरण और चित्ताग्रता की बाते बुद्ध ने क्यों बताई थी? हर ऐसा कार्य करने के लिए बुद्ध ने अपने “सम्यक मार्ग” में अनुमति दी है, जो ‘बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय’ है, फिर चाहे वह हिंसक हो या अहिंसक हो. जो विचार पंचशील के नियमों में है, क्या उसके बारे में बुद्ध के सम्यक तत्वज्ञान में विचार नही हुआ? किसी पंडित नेहरू (ब्राह्मण) ने कहा की यही बुद्ध के विचार है, तो हमने उसपर कुछ भी दुबारा विचार नही करना चाहिए? जो तत्व बुद्ध के थे, महायानी भिक्षुओं ने उसे छुपाने की कोसिस की और गल्त विचार सामने प्रचारित किया. क्या दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति है की उसने जीवनभर “पंचशील” का पालन किया है? जो विचार तर्क पर भी खरे नही उतरते और समाज में सम्भ्रम फ़ैलाने का कार्य करने है, ऐसे विचार बुद्ध देशना नही हो सकते.

सम्राट अशोक को युद्ध करना जरुरी था तो उन्होंने किया. क्या उन्होंने पंचशील का पालन किया था? उन्होंने मानव हिंसा भी की तथा अन्य प्राणी हिंसा भी की थी. कोई हमारे घर में तलवार लेकर आए और हम उसके सामने पंचशील का पाठ पढाए तो क्या वह “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ का धम्म मार्ग होगा? जब एक ही नही बचेगा तो बहु कैसे बचेंगे? बहुजनों का हित कैसे होगा? बाबासाहब आंबेडकर ने जनतंत्र की परिभाषा की और उसमे कहा. “बिना खून का बूंद बहाए जनता के सामाजिक और आर्थिक जीवन में होने वाला क्रान्तिकारी परिवर्तन ही जनतंत्र है.” (भी. रा. अम्बेडकर : चरित्र ग्रन्थ, खंड- ११, चां. भ. खैरमोडे, प्रकाशन- १९९०, पृष्ठ- २९) तो दूसरी ओर बाबासाहब अम्बेडकर हर साल के १ जनवरी को “भीमा कोरेगाव” को मानवंदना करने जाते रहे. क्या “भीमा कोरेगाव का क्रान्ति स्तंभ” बिना खून बहाए खड़ा हुआ? बाबासाहब आंबेडकर ने “साइमन कमीशन” को क्यों निवेदन दिया था की अछूतों को सैन्य और पुलिस में भर्ती करना चाहिए?

डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने नागपुर स्थित “सिरसपेठ” के मैदान में, तारीख- १९ जुलाई १९४२ में आवाहन किया था, “यह (द्वितीय महायुद्ध) तानाशाही और जनतन्त्र के बिच में है. जर्मनी की तानाशाही किसी भी नैतिक मूलों पर खडी नही है. नाझीवाद ने सभी मनुष्यों के अस्तित्व के लिए महान संकट खड़ा किया है. इस संसार के भूतल पर अधिष्ठित मानव प्राणियों के बिच मानवता के रिश्ते बनाने वाले जनतन्त्र अन्त न हो इस के लिए आपने महापराक्रम करना चाहिए. इसी वजह बहिष्कृत लोगों ने संसार के अन्य जनतांत्रिक देशों के साथ जनतांत्रिक मूल्य और सभ्यता के रक्षा करने के लिए कान्तिकारी संघर्ष करना चाहिए.” (द्वितीय महायुद्ध आणि डॉ. आंबेडकर, लेखक- विमलसूर्य चिमनकर, सन- १९९३, पृष्ट-१५३ का अनुवाद)

व्यक्ति-व्यक्ति में भाईचारा बढ़ाने वाले जनतन्त्र को बचाने के लिए और व्यक्ति-ब्यक्ति में वांशिक नफरत फैलानेवाले जर्मन तानाशाह हिटलर का खात्मा करने के लिए अंग्रेज सैन्य में भर्ती होने का आग्रह किया था.” इन तीन प्रसंगों से बौद्धों ने यह सिख लेनी चाहिए की जब जरुरी है, तो हिन्सा करने की धम्म और अम्बेडकरी विचारों में आझादी है. प्राचीन भिक्षु सारिपुत्त और महामोग्ल्यायन भिक्षुओं के बिना खून बहाए नही आयी है. बुद्ध ने भी अपने देवदत्त के हमले में खून बहाया था. अपने मुक्ती के लिए खून बहाना धम्म विचारों में वर्जित नही है. बुद्ध-अम्बेडकर यह महामानव शांतिवादी नही तो क्रांतीवादी थे. पहले कलम नहीं तो बन्दुक, जो जब जरुरी हो तब किसी भी साधनों का इस्तेमाल करने की आझादी धम्म में है, उसका उद्धेश मात्र “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” होना चाहिए.

केवल “त्रिशरण” की रट लगाने से या “पंचशील” का पालन करने से धम्म पालन नही होता. अब यह बताने की जरूरत है की उसका पालन ‘मै तो करूँगा ही, पर तुमने भी करना चाहिए’. ‘हम संन्यासी और तुम चोर’; ऐसी विसंगत स्थिती समाज में नही चाहिए. लोगों को बौद्ध बनाना तो ठीक ही है, त्रिशरण, पंचशील को पालान करने या २२ प्रतिज्ञाओं का पालन करने के लिए नही तो "आर्थिक जनतंत्र" को धम्म द्वारा बहाली कर सुख-शांति बहाल करने के लिए "आर्य अष्टांगिक मार्ग" के मध्यम मार्ग पर. दुखी बौद्धों की देखभाल भी करना उससे भी बड़ी जिम्मेदारी है.

हम अगर हमारे विचारों के लोगों के दुखी जीवन से अस्वस्थ होकर दूर भागते रहे, तो बुद्ध धम्म भारत में कैसे फैलेगा? वह सही ढंग से विदेश में कैसे जाएगा? अन्य धर्मो के लिए पर्याय कैसे बनेगा? कार्ल मार्क्स के तानाशाही साम्यवाद का मुकाबला कैसा करेगा? क्या बाबासाहब आंबेडकर ने साम्यवाद के बजाए धम्मक्रांति को इसलिए गले लगाया की उन्हें "आर्थिक विषमता" पसन्द थी? बाबासाहब की जंग न सिर्फ वर्ण, जाती, वंश, धर्म, पंथ, लिंग वाद के अलावा वर्ग वाद से भी प्ररित रही थी. कॉर्ल मॉर्क्स के मकसद को बाबासाहब ने नही कोसा क्यों की वह समता का समर्थन करता है. सिर्फ उसे पाने के लिए जो साधन और निति को अपनाया गया था उसे बाबासाहब ने जोरदार कोसा.

विश्व में नक्षलवाद और आतंकवाद फैला है तो उसका मुख्य कारण आर्य अष्टांगिक मार्ग के ऐवज में "पंचशील" को बढ़ावा देने से. उससे न बौद्ध अपनी रक्षा इंसानी हमलों से करने में सफल रहे और अबौद्ध. जहां जरुरी है वहा शांति, क्रांति का मार्ग बुद्ध का "आर्य अष्टांगिक मार्ग" ही शिक्षा देता है, पंचशील नही. इसलिए पंचशील को छोड़ो, आर्य अष्टांगिक मार्ग को अपनाओ.! उसके सिवाय बुद्ध की धम्मक्रान्ति अधूरी है. धम्म में धन को साधन माना न की साध्य, हम जबतक धन के लालची बनेंगे तबतक धम्मधर होना असंभव है. धन और प्रतिष्ठा प्राप्ति यह धम्म का उद्धेश नही है, विश्व के सभी मानवों को सुखी बनाए रखना, सुखी जीवन का रास्ता बताना भिक्षु और बौद्धों का परम कार्य है.