कांशीराम ने डी. के. खापर्डे को धोका दिया, क्योकी उनकी इजाजत लिए बगैर ही
उन्होंने बीएसपी बनाई. तो बाद में बी डी. बोरकर, एस ऍफ़ गंगावने, वामन मेश्राम, तेजेंदर्सिंग झल्ली के साथ खापर्डे
ने बामसेफ को अपने बलबूते पुनर्जीवित किया. कांशीराम
से बदला लेने के इरादे से बामसेफ को चलाया गया. उसी का नतीजा है, बामसेफ
भी, भारतीय मुक्ति मोर्चा के माध्यम से आगे राजनीती करने के उद्धेश से
कार्य कर रही है. कांशीराम ने जीते जी वामन मेश्राम को कोई तवज्जो नही दिया
था, उसके जाने के बाद भी मायावती ने भी उसे भिक नहीं डाली, उसी का नतीजा
है, मुल्निवाशियों को भारत मुक्ति मोर्चा के काम में लगा दिया. बहुजन बनाम
मूलनिवासी हो गए. यह दोनों भी हिन्दुधर्म के जातिवादी और वंशवादी विचारों
पर कार्य कर रहे है. दोनों भी अम्बेडकरवाद से भटक गए है. दोनों भी
बुद्धिज़्म के खिलाफ है, ब्राह्मणवाद के चंगुल में दोनों भी फसे है, क्योंकि
दोनों भी कांशीराम के तानाशाही के शिकार है...
जो बाबासाहब आंबेडकर के खिलाफ है, उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है? वे तो बाबासाहब के विचारो का आदर करने के बजाए उसे झुटलाने में तुले है, वामन मेश्राम हो या मायावती/कांशीराम.... कांशीराम ने भी समय समयपर बाबासाहब, उनकी जाती और उनके आन्दोलन को निरसकृत किया है, उसी के रास्तो पर अब वामन मेश्राम जा रहा है. जब कांशीराम बाबासाहब को भला बुरा बोलते है तो बीएसपी के लोग उसे विरोध करने के बजाए उचित मानते है, अगर वामन मेश्राम ने भी कांशीराम के बाद बाबासाहब पर आरोप किया तो उसे गलत क्यों मानते है? यह तो भेदभाव है? जो दुसरो के साथ बेदभाव करते है, उन्हें कोई नैतिक हक़ नहीं तोता की वे दुसरो को भी नैतिकता शिखाए... कांशीराम भक्त भी प्रबोधन के बजाए, गलिया, बकते है, धमकिया देते है.. उन्हें दिग्दर्शित करने का काम कीसका है?
बामसेफ के दो राजकीय ग्रुप १) मायावती और २) वामन मेश्राम.... अभी आमने सामने एक दुसरे के खिलाफ वोटो को बटोरने के लिए कार्य कर रहे है... कुछ दिन के बाद... ३) विजय मानकर (एम्बस) भी बहुजन जातियों के वोटों को बटोरने के लिए आनेवाला है... आगे कतार में ४) माजी जिलाधिकारी, गजभिये भी राजनीती में अपनी नयी पार्टी लेकर आनेवाली है.... ८) स्वाभिमानी रिपब्लिकन पार्टी भी कांशीराम भक्त खोब्रागडे ही चला रहे है... क्या होगा बीएसपी का? जो बोवोगे, वाही उपजेगा... सत्ता को मास्टर चाबी कहने का नतीजा है... सभी के सभी अंधभक्त... सत्ता के नशा में सामाजिक शिक्षा, संकृति, आर्थिक उत्थान को भूल गए है.. पि.सी. निकोद्रे साहब! माया का अब क्या होगा?
कांशीराम के गुरु डी. के. खापर्डे, ठवरे ग्रुप के थे, जो हरिजन थे, हरिजनों ने गाँधी के इशारे पर कार्य किया, कांग्रेस ने भी उन्हें बहुत शिक्षा संस्थाए दिया, उनका बहुत कल्याण किया. उन्होंने भावुराव बोरकर को बाबासाहब के खिलाफ भंडारा निर्वाचन क्षेत्र से पीछे छोड़ा... जो लोग सामाजिक कल्याण के बजाए स्वार्थी बने, वे आंबेडकर साहब के खिलाफ गए. उन्होंने गलत प्रचार किया. बाबासाहब के बाद उनके विचारों को ख़त्म करने के उद्धेश से खापर्डे ने कांशीराम के साथ समता सैनिक दल में कार्य करने के बजाए बामसेफ को उजागर किया... यह नाशिकराव तिरपुडे और ठवरे के पक्ष में थे... कांशीराम ने भी बुद्धधम्म को नहीं अपनाया, क्योंकि वे जानता थे की वह कदम गांधीवाद के खीलाफ होगा, आंबेडकर के समर्थन में होगा... क्या कभी हरिजनों ने आंबेडकर साहब को नवाजा है?
क्या बाबासाहब ने रखा था, की मै मरने के बाद पूना करार धिक्कार परिषद् को मनाते रहना....? पर हरिजन डि. के. खापर्डे के साथ, बाबासाहब का विरोध करने के उद्धेश से कांशीरामने वह कदम उठाया था या नहीं? जाती-धर्म-वंश के राजनीती से कोई भी पार्टी, कभी भी बहुमत प्राप्त नहीं कर पायेगी. बुद्धधम्म के नैतिक सिद्धांतो को जो भी किनारे करके राजनीती या अर्थनीति करने की कोशिस करे, वे आखिर पछताते ही रहेंगे.... यही तो दुःख है, जिसमे अभी बीएसपी गिरी है, कुछ समय बाद और कोई पार्टी गिरेगी. जो खुद दुःख में गिरे है वे क्या दुसरो को सुख प्राप्ति का रास्ता समझा सकते है? बीएसपी निराशावादी पार्टी है, उससे क्या आशा की जा सकती है? क्या जातिवाद आशावाद है?
जो बाबासाहब आंबेडकर के खिलाफ है, उनसे क्या अपेक्षा की जा सकती है? वे तो बाबासाहब के विचारो का आदर करने के बजाए उसे झुटलाने में तुले है, वामन मेश्राम हो या मायावती/कांशीराम.... कांशीराम ने भी समय समयपर बाबासाहब, उनकी जाती और उनके आन्दोलन को निरसकृत किया है, उसी के रास्तो पर अब वामन मेश्राम जा रहा है. जब कांशीराम बाबासाहब को भला बुरा बोलते है तो बीएसपी के लोग उसे विरोध करने के बजाए उचित मानते है, अगर वामन मेश्राम ने भी कांशीराम के बाद बाबासाहब पर आरोप किया तो उसे गलत क्यों मानते है? यह तो भेदभाव है? जो दुसरो के साथ बेदभाव करते है, उन्हें कोई नैतिक हक़ नहीं तोता की वे दुसरो को भी नैतिकता शिखाए... कांशीराम भक्त भी प्रबोधन के बजाए, गलिया, बकते है, धमकिया देते है.. उन्हें दिग्दर्शित करने का काम कीसका है?
बामसेफ के दो राजकीय ग्रुप १) मायावती और २) वामन मेश्राम.... अभी आमने सामने एक दुसरे के खिलाफ वोटो को बटोरने के लिए कार्य कर रहे है... कुछ दिन के बाद... ३) विजय मानकर (एम्बस) भी बहुजन जातियों के वोटों को बटोरने के लिए आनेवाला है... आगे कतार में ४) माजी जिलाधिकारी, गजभिये भी राजनीती में अपनी नयी पार्टी लेकर आनेवाली है.... ८) स्वाभिमानी रिपब्लिकन पार्टी भी कांशीराम भक्त खोब्रागडे ही चला रहे है... क्या होगा बीएसपी का? जो बोवोगे, वाही उपजेगा... सत्ता को मास्टर चाबी कहने का नतीजा है... सभी के सभी अंधभक्त... सत्ता के नशा में सामाजिक शिक्षा, संकृति, आर्थिक उत्थान को भूल गए है.. पि.सी. निकोद्रे साहब! माया का अब क्या होगा?
कांशीराम के गुरु डी. के. खापर्डे, ठवरे ग्रुप के थे, जो हरिजन थे, हरिजनों ने गाँधी के इशारे पर कार्य किया, कांग्रेस ने भी उन्हें बहुत शिक्षा संस्थाए दिया, उनका बहुत कल्याण किया. उन्होंने भावुराव बोरकर को बाबासाहब के खिलाफ भंडारा निर्वाचन क्षेत्र से पीछे छोड़ा... जो लोग सामाजिक कल्याण के बजाए स्वार्थी बने, वे आंबेडकर साहब के खिलाफ गए. उन्होंने गलत प्रचार किया. बाबासाहब के बाद उनके विचारों को ख़त्म करने के उद्धेश से खापर्डे ने कांशीराम के साथ समता सैनिक दल में कार्य करने के बजाए बामसेफ को उजागर किया... यह नाशिकराव तिरपुडे और ठवरे के पक्ष में थे... कांशीराम ने भी बुद्धधम्म को नहीं अपनाया, क्योंकि वे जानता थे की वह कदम गांधीवाद के खीलाफ होगा, आंबेडकर के समर्थन में होगा... क्या कभी हरिजनों ने आंबेडकर साहब को नवाजा है?
क्या बाबासाहब ने रखा था, की मै मरने के बाद पूना करार धिक्कार परिषद् को मनाते रहना....? पर हरिजन डि. के. खापर्डे के साथ, बाबासाहब का विरोध करने के उद्धेश से कांशीरामने वह कदम उठाया था या नहीं? जाती-धर्म-वंश के राजनीती से कोई भी पार्टी, कभी भी बहुमत प्राप्त नहीं कर पायेगी. बुद्धधम्म के नैतिक सिद्धांतो को जो भी किनारे करके राजनीती या अर्थनीति करने की कोशिस करे, वे आखिर पछताते ही रहेंगे.... यही तो दुःख है, जिसमे अभी बीएसपी गिरी है, कुछ समय बाद और कोई पार्टी गिरेगी. जो खुद दुःख में गिरे है वे क्या दुसरो को सुख प्राप्ति का रास्ता समझा सकते है? बीएसपी निराशावादी पार्टी है, उससे क्या आशा की जा सकती है? क्या जातिवाद आशावाद है?
राजानंद मेश्राम - सहीं आप मनुवादी हो.. कुछ भी ऐरे गैरे जातीयवादी विचार रखकर अपने आपको मनुवादी साबित करने पर तुले हो.. मान्यवर कांशीरामजी को आपने कभी अच्छी तरह से जाना ही नहीं.. ना ही उनके भाषण को अच्छी तरह से समझा.. उन्होंने कभी बाबासाहब डॉ. आंबेडकरजी को गाली नहीं दि.. बल्कि एक क्रांतिकारी नारा लगाया था.."जयभीम का नारा गुंजेगा.. भारत के कोने कोने में.." और इसके साथ ही उन्होंने कार्यकर्ताओं के सामने बाबासाहब आंबेडकरजी के दो प्रमुख टार्गेट रखे थे.. जिसमें पहला टार्गेट था.. शासनकर्ती जमात बनना और दुसरा टार्गेट था.. भारत बौद्धमय बनाना.. क्या आप जैसे मनुवादियों ने पिछले ५६ साल में ये टार्गेट पुरे किये है.. बताईये.. आप लोग तो नामर्द मनुवादियों की औलादे हो..जो बिना सोचे समझे किसी पर भौकने का काम करते हो.. बाबासाहब डॉ. आंबेडकरजी का वह टार्गेट अगर इस देश में किसी ने पुरा किया होगा तो वह मान्यवर कांशीरामजीने.. याद करे बहन मायावतीजी ने २००७ में पूर्ण बहुमत के साथ उ.प्र. में अपना बौद्ध शासन चलाया.. अगर ये लोग हिंदू होते तो डॉ.आंबेडकरजी का स्मारक क्यों बनाते.. बौद्ध शांती उपवन क्यों बनाते.. तथागत बुद्ध और उनकी माता महामाया के नाम पर आर्थिक योजनाएं क्यों चलाते.. तथागत बुद्ध के नाम से ग्रेटर नोएडा में गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय.. बुद्ध इंटरनैशनल सर्किट की स्थापना क्यूं करते.. मुझे तो लगता है आप खुद ही बौद्ध नहीं हो.. और हरिजन बनने की भी आपकी औकात नहीं है.. आप हिंदू धर्म के गंदी नदी के गंदे किडे हो.. इसलिये बाबासाहब के नाम पर आने वाली पिढियों के प्रेरणा लेने के लिये पिछले ५६ सालों में आपने कुछ भी नहीं करके रखा है.. जो भी है सिर्फ दीक्षाभूमी और चैत्यभूमी है.. वह भी बौद्ध अनुयायियों के पैसों से बना है.. बाकी कुछ नहीं..
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