सोमवार, 11 मई 2020

मज़दूरों का तारणहार : बुद्धधम्म


भारतीय मज़दूरों के कल्याण का राश्ता कार्ल मार्क्स के पास नही है, उनके भरोसे मज़दूर बनकर जन्मे है और मज़दूर बनकर ही मरेंगे_ मज़दूर हिंदू/मुस्लिम के ईश्वर/अल्ला के झुट मानसिकता में अटका हुआ है, उनके दुश्मन पंडित/मुल्हा है, इनसे कैसे निपटा जाए इसका इलाज सिर्फ़ गौतम बुद्ध के पास है, उसी को सही ढंग से समझो -समझाओ और जंग जीतो नही ही अंधेरे / दुःख के काल कोठरी में मरो। भारतीय मज़दूरों के उद्धार के लिए न पंडित आएँगे, न मुल्ला आएँगे और न कार्ल मार्क्स आएँगे _चाहे कितने भी समय तक इंतज़ार करे, भारतीय मज़दूरों के लिए एक मात्र रोशनी है, बुद्ध धम्म।

सवर्ण हिंदुओ के ख़िलाफ़ जंग जितने के लिए खुला युद्ध बौद्धिक हो तो ही हम जीत सकते, शक्ति के साधनो के द्वारा हमारा पराजय निश्चित है। सवर्ण हिंदू क्या चाहते है? क्या उनकी माँग न्यायपूर्ण है? अगर हाँ जवाब है तो उसकी पूर्ति करो नही तो ग़ैर ज़रूरी, फ़ालतू कहकर उसके दुस्परिणाम गिनाओ तो वे मान सकते है, नही समज सके तो उदाहरण देकर समजाओ वे न समज़ने के लिए भगवान/ईश्वर तो नही है। एक पत्तर तबियत से उच्छालो ज़रा फिर देखो उसका परिणाम क्या आता है, यह कार्य करने के लिए हमें बौद्धिक परिपक्व होना जरूरी है, जो बुद्धिमत्ता हम उसे देने जा रहे है उसपर अगर अमल नही कर रहे है तो उस महान बुद्धी का विशेष असर नही होगा।

जन्म से कोई व्यक्ति ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र यानी सवर्ण नही हो सकते या अछूत - भटके अ-वर्ण नही हो सकते, पर ऐसा अगर अगर मान बैठे है तो हम ब्राह्मणवाद के शिकार है_ इस मनुवादी मानसिकता से हम अगर अलग विचार करना सुरु नही करते तो न हम "कल्याण"को प्राप्त कर सकते और न "सुख"प्राप्त कर पाएँगे। आप अच्छाई के लिए अपने पीड़ित वर्ग को जागृत करते रहेंगे और पिडक पीड़ा देने के लिए हमेशा कार्यरत रहेंगे तो पीड़ा/दुःख/शोषण से मुक्ति कभी भी नही होगी। पीड़ा उत्पन्न करनेवाले पेड़ को जड़ से काटा जाए, यानी इंसान की हत्या करो जो बुरा है, इसका ऐसा अर्थ नही है।

पीड़ा देने के विचार दिमाग़ में होते है, जिसके दिमाग़ में ऐसे विचार है उनके भी कुछ महा गुरु होते है, आप उसने जाकर शालीनता से मिलो, पीड़ा उत्पति के निजी और सामाजिक, राष्ट्रीय व वैश्विक असर-बे-असर समझाओ, विविध उदाहरणो द्वारा समझाओ, एक ही बार नही तो बारंबार समझाओ तो एक न एक दिन वह अपनी ग़लती समझ जाएगा, अगर फिर भी वह न माने तो उसके जवाब में जनता की एकता क्या क्या नही कर सकती? इसका डर बताओ तो पीड़ा का उगमस्थान सुधर सकता है।

परंतु हम इस क़दम को फ़ालतू मानकर उनके खिलाप जंग करने लगते हो, उचित साधनो के अभाव में जंग जीत नही पाते, पहले भी पीड़ा में थे और बादमे भी पीड़ा में ही रहते। यह दुःख/पीड़ा उत्पीड़न का राश्ता छोड़कर कही ब्राह्मण बुद्ध के शरण में आए। यह रास्ता कल्याणकारी है, यह बुद्ध ने साबित किया है। पीड़ा के कारण ही ख़त्म होंगे तो पीड़ा ही निर्माण नही होगी, जनता आपसी भाईचारे के साथ जीवन यापन करेगी। कोई भी व्यक्ति ख़राब नही होता, उसकी सोच ख़राब होती है, हम अगर सोच के डाक्टर है तो बीमारी का अंत ज़रूर होगा, सिर्फ़ उसका सही ढंग से इस्तेमाल करते आना चाहिए।

ग़रीबी, भुक मरी, अशिक्षा और जाती उत्पीड़न यह हिंदू धर्म के परिणाम है, परिणामों को छोड़कर कारनो की और लक्ष केंद्रित करना चाहिए, भारत की ग़रीबी धर्म की उपज है, इसलिए धर्म के ख़िलाफ़ ख़ून ज़रूर खौलना चाहिए, अगर धर्म के ज़ंजीरो से ग़रीबों की मुक्ति करने में हम कामयाब होते है तो ही हम ग़रीबी मिटाने के जंग को जीत सकते है, जबतक वह ईश्वर-आत्मा-स्वर्ग-नर्क के बौद्धिक ज़खड़न में है तबतक उनका उद्धार और दूसरा कोई भी व्यक्ति नही कर सकता। हिंदू धर्म शोषण करने की सलाह देता है, शोषण का कारोबार फल-फूल रहा है। भारत में अगर शोषण रोखना है तो हिंदू धर्म चिकित्सा सतत करते रहो।

बहुजन हिताय - बहुजन सुखाय



बुद्ध विचार और भिक्षु विचार ऐसे दो प्रकार के विचार त्रिपिटक में पढ़ने मिलते है, जो विचार आपने पढ़े है वे बुद्ध विचार नही है, भिक्षु विचार है। महायानी भिक्षुओं पर धम्म को पलिद करने का आरोप लगा और उसे धम्म और संघ का हिस्सा मानना ग़लत है। बुद्धत्व का मतलब मन पर विजय नही है, समश्याओ का हल करने के लिए मदत करनेवाले विचार है। पहले समश्या को समझो और उसे निराकरण करने के क्या क्या तरीक़े है उसका इस्तेमाल करो।कोई भी समस्या दुःख से लिप्त होती है, उसे सुलझाना यानी समाधान, सुख है।

गंगा उगम के पास शुद्ध पानी देती है पर बादमे किनारे के गावों का गंधा पानी जमा होते रहता है जिसे अशुद्ध पानी कहते है भले ही उसका उगम शुद्ध पानी से क्यूँ न हो_ अनित्य = परिवर्तन है, जो पहले था वह अब नही_ बुद्ध धम्म ईश्वरवादी नही पर बादमे महात्मा फुले ईश्वर (निर्माता) वादी बने _ मुझे बताओ_ ईश्वर वाद और अनिश्वर वाद में फ़र्क़ है या नही? अमृत + ज़हर = ज़हर। तो हमने गंगा का पानी पीना चाहिए की पलिद गाँव के नाले का?

तथागत गौतम बुद्ध ने अपने पहले और आख़री भी प्रवचन में इस बात पर बल डाला था, संसार में दुःख है और उसका इलाज "आर्य अष्टांगिक मार्ग" का पालन (सुख प्राप्ति) करने में ही है।उसे समझने के लिए क्रमश: आठ सम्यक् = साम्य (२ अंतो/अतियों का अंत) यानी "मध्यम" को समझना होगा, उसके बाद पहला मार्ग "सम्यक् दृष्टि" समझनी होगी, यानी "प्रतित्य समुत्पाद" सिद्धांत समझना होगा।

अगर यह समज गए तो "सम्यक् दृष्टि" के ज़रिए "सम्यक् संकल्प" करना होगा, फिर किए हुए संकल्प के अनुसार "सम्यक् वाणी" करनी होगी" फिर वाणी के अनुसार "सम्यक् कर्म" करने होंगे, फिर किए कर्मों की अनुसार "सम्यक् आजीविका" यानी अर्थार्जन करना होगा।

फिर अर्थार्जन के प्रक्रिया के अनुसार "सम्यक् व्यायाम" यानी आदत डालनी होगी, फिर डाले हुए आदत के अनुसार "सम्यक् स्मृति" करनी होगी यानी याद रखना होगा और अंत में किए हुए याददास्त के अनुसार "सम्यक् समाधि" यानी उचित, वांछित समश्याओ का समाधान, निराकरण करना होगा।

तभी ही हमें सुकून यानी संतोष, सुख मिलेगा। (याद रखे_ सम्यक् समाधि = विपस्सना, निर्वाण या ध्यान भावना प्राप्त करना नही है।) यह आठ कड़ियाँ एक दूसरे पर निर्भर है, एक के बाद दूसरी इस क्रम से करना ज़रूरी है। उसे सिलसिले ढंग से समझने के लिए नीचे जानकारी दी गयी है उसे समझे, एक दूसरे को साझा करे, जनहितो में प्रचार करे। जय भीम_!

 





धार्मिक भावना : अफ़ीम


हमारी धार्मिक भावना आहत हो गयी, हमें बचाओ की गुहार सरकार से लगायी जाती है, सरकार अगर इन पापियों के साथ खड़ी हुयी तो वह कबतक खुर्ची पर रहेगी? इसका विचार सरकार ने करना चाहिए, धर्म के नामपर अन्याय स्वीकार करने के दिन गए, भारत में अंध:श्रद्धा प्रतिबंधक क़ानून लागू हो चुका है।

छद्म भिक्षुओं को यह साबित करना होगा की उनके मंदिर में पूजा कितने लोगों ने की थी? क्यूँ की थी? किस उद्धेश से की थी? और क्या उनका उद्धेश पूरा हुआ क्या? प्रोडक्ट बेस कम्पनी मनी बैक गारंटी देती है, उसी तौर पर भक्तों को दान मनी बैक मिलना चाहिए, नही तो इनके तिजोरी पर धावा बोला जाएगा, आख़िर धर्म के नाम पर भक्तों को लूटा जा रहा है, लूट के ख़िलाफ़ आवाज़ तेज़ करनी चाहिए, यह हमारा जनतंत्रिक अधिकार है।

महायान नीच है, वह ब्राह्मणो का दलाल है, उन्होंने ही धम्म को पलिद करने का काम किया है, इन लोगों ने बुद्ध की प्रतिमा/मूर्तियाँ बनायी, उसकी पूजा को पवित्रता कहा और उसे पूजने के लिए मठों का निर्माण किया, जबतक बौद्ध लोग बुद्ध प्रतिमा को देखकर खिंचते गए और दान पेठी भरते गयी, भक्त किस मुसीबत में है इसके और पुजारियों का कोई ध्यान नही रहा।यह महायानी सम्प्रदाय ब्राह्मण वर्चस्व का पैलु रहा। जब इन्हें टोकने वाले थेर भिक्षु भारत से लुप्त हुए है तो उसके लिए महायानी कूटनीति रही है।

भारत से बौद्ध विचारों का प्रभाव कन करने के लिए उन्होंने भरपूर कोसिस की उसे हिंदू धर्म का एक नया अंग साबित किया, जब इस कार्य में वे सफल रहे तो बुद्ध मूर्तियों को इन्होंने ने कपड़ों से ढकना सुरु किया, उस पर नाना रंग लगाए गए और पहले वह मूर्ति बुद्ध की थी ही नही, बह हिंदू मठ है और हम ब्राह्मण पंडित है, यह साबित करने में कोई कसर नही छोड़ी। गिरगिट के माफ़िक़ इन्होंने बुद्ध मूर्तियों और ख़ुद के चिवर को बदला है। यह लोग न्याय के पात्र नही है, इनके साथ अन्याय होना बहुत ज़रूरी है। जैसे को वैसा।बुद्ध के नाम पर ग़रीब भक्तों को धोका देने का काम यह जल्दी से जल्दी बंद करे।

अमीरों/पिड़कों को "धन संचय"की पूरी छूट/लूट करने की शिक्षा देना और ग़रीबों को शोषण को सहन करने के लिए सहनसिलता बढ़ाने की शिक्षा देना, धर्म का उपयोग पंडित/पोप/मुल्लहा/मुनि और भिक्षु यही काम करते रहे है इसलिए विश्व में अमीर और अमीर होते गए और ग़रीब और ग़रीब होते गए। इसे अगर रोखना है तो अन्याय के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करनी होगी, पिडक/अमीरों की दलाली करनी भिक्षुओं ने छोड़नी होगी। यह नीच कार्य महायानी भिक्षुओं ने हमेशा किया है, उन्हें अच्छी सबक़ सिखाना ज़रूरी है।

शांति और सहनशीलता परम तप और निर्वाण उनका उद्धेश > अन्यायी अन्याय करते रहे और अन्याय से पीड़ित व्यक्ति उसे सहन करते रहे तो पिडक को शांति मिलेगी, न की पीड़ित को_बुद्ध धम्म पीड़ितों के लिए था या पिडक के लिए? बुद्ध धम्म बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय का संदेश देता है, बहु = अधिक लोग पीड़ित होते है।

अगर बुद्ध ग़रीबों को सुख दिलाने के लिए उसे पिडक/अमीर को दया और दान का पाठ सिखाते है, पर वह यह पाठ न पढ़े तो पीड़ित ने कबतक पिडक के दया में इंतज़ार करना चाहिए? उसकी सीमा रेखा तय की गयी क्या? पिडक दान करने के बजाए "धन संचय" करने में लगे है, इसमें धम्म शिक्षा की ज़रूरत अमीरों को है की ग़रीबों को? ग़रीबों के हितों के लिए अमीरों/पिड़कों को धम्म धम्म देना ज़रूरी है पर भिक्षु लोग ग़रीबों को उनके ग़रीबी को बरदास्त करने की शिक्षा दे रहे है, जो ग़लत है। भावना केवल धार्मिक ही होती है? आर्थिक या राजकीय नही होती?

मेहनत करे मुर्ग़ा और अंडा खाय फ़क़ीर!


ज्ञान प्राप्त कर कोई भी उस अवस्था को प्राप्त हो सकता है, यह तो बढ़े आसानी से कह दिया, पर वह अवस्था क्या है? उसकी दूरी, लंबाई, मोटायी और राश्ता क्या है? वह अवस्था कम से कम कितने समय में पायी जाती है? क्या उसे पाने के लिए आपने कभी प्रयास किया? अगर नही किया हो तो आपके लिए वह महत्वपूर्ण नही है? जो अवस्था आपके लिए महत्वपूर्ण नही है तो वह दूसरे के लिए कैसे हो सकती है?

नि = नही और वान = तृष्णा (?) वान = शरीर है, न की तृष्णा। शरीर का न होना, मरना ही निर्वाण है। मृत्यु प्राप्ति के लिए धम्म तत्वज्ञान नही था, यह महायानी पंथ की दिशाभुल करने की छद्म राजनीति रही है। किसी विचार धारा को हम अगर ख़त्म नही कर सकते तो उसे भ्रमित करे, बौद्ध लोग भ्रमित हुए तो उनके वार निरर्थक साबित होंगे जिससे ब्राह्मण लोगों को दुखपत नही होगी।

"अपने तर्क की कसौटी पर खरा नही उतरे नहीं, तो उसके ऊपर यकीन मत करो, उसको संदेह की दृष्टि में देखो।" ऐसा बुद्ध अगर बुद्धमत है तो पागल इंसान भी यह कहेगा की मेरे तर्क के आधार पर बुद्ध धम्म ग़लत है, तो क्या वह पागल व्यक्ति बुद्ध धम्म के अनुसार चल पाएगा? तो उसका अन्य कोंसे रास्ते से कल्याण होगा? हर व्यक्ति की तर्क करने की क्षमता अलग अलग होती है।

पागल से सही तर्क करने की अपेक्षा हम नही कर सकते। कालम सुत्त में यह लिखा है की "किसी ग्रंथ, परम्परा, गुरु द्वारा, सम्मानित व्यक्ति द्वारा, या तर्क को भी सही लगे तो भी मत मानो।_अगर मेरा धम्म मत "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, आदि कल्याण- मध्य कल्याण-अंत्य कल्याण" कारक नही साबित होता है तो उसे मत अपनाओ।" कसौटी कल्याण की है न की तर्क की।

"दुख है तो दुख का कारण है, कारण है तो कारण का निवारण है।" परंतु सवाल यह है की, दुःख का कारण क्या है? उसका उगम कैसे होता और कैसे उसे ख़त्म किया जा सकता है? ब्राह्मण वर्ण/जाती/वर्ग और इंसान भी है, वह मानव प्राणियों को दुःख देने के लिए तरकीबें बनाते आए है और वह काम हम कहने मात्र से बंद नही करेगा, उसे जबतक हम "बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय" पाठ सही ढंग से नही समझा पाएँगे तबतक हमारे किए पर पानी गिरते रहेगा।

दुःख कायिक, वाचिक और मानसिक होता है, मानव निर्मित दुःख अज्ञान वश आते है, नैसर्गिक दुःख संसार के प्राकृतिक बदलाव के कारण आते है परंतु जिसे प्राकृतिक नियम का सत्य पता चला वह उसे बरदास्त करता है, वह सत्य है - अनित्य = सतत बदल, परिवर्तन। वह उसे स्वीकारने की मनोदशा में रहता है।

दुःख आए भी तो परेशान नही होता, उसे सहजता से बरदास्त करता है। वह उसे अनित्य सिद्धांत का फल मानता है, आना-जाना मानता है, अनित्य का मतलब सभी चीज़ें एक जैसे नही रहती, इसे स्वीकारना, बुद्ध ने नैसर्गिक दुःखों से मुक्ति का मार्ग नही दिया, मानवनिर्मित (अंध:श्रद्धा) से उत्पन्न दुःख से मुक्ति का मार्ग दिया है।_ मै मानव निर्मित दुःख से मुक्त हूँ ।

यह काम बुद्ध ने उनके ज़माने में सही ढंग से किया था, उन्होंने बुद्ध की शरण ली, दुनिया में कोई काम ऐसा नही है जो किया नही जा सकता इतना ही है की उसके लिए उचित साधनो की ज़रूरत होती है, जिनके पास है उन्हें इन बातों से कुछ लेन - देन नही है। 

एक मज़दूर काम करता है तो परिवार (बहुजन) कल्याण करता है और एक वीपस्सी ध्यान करता है तो वह ख़ुद (अकेले) का कल्याण करता है। दोनो भी मेहनत करते है, एक बौद्धिक तो दूसरा शारीरिक, फल मात्र ग़रीबों के तुलना में अमीरों को ही ज़्यादा क्यूँ ? क्या उनका पेठ बढ़ा है? इन दोनो में भाईचारा कैसे पैदा होगा? क्या बुद्ध धम्म भाईचारे के शिवाय सम्भव है?