मंगलवार, 18 जून 2013

मै हिन्दुधर्म में पैदा हुआ, पर मरूँगा नहीं !



सिद्धनाक महार और उनके जातिबांधव अगर पेशवाई के विरोध में भीमा कोरेगांव (पुना, महाराष्ट्र) की दिनांक १ जनवरी १८१८ में जंग हार लेते तो “रामजी” (बाबासाहब आंबेडकर के पिता) का अंग्रेज सैन्य में सुभेदार बनना संभव नही था. क्योंकि पेशवा ब्राम्हण थे, हिन्दू धर्म तत्वों के अनुसार महारों का दर्जा अछुत था. जिन्हें शास्त्र या युद्ध करने का कोई कोई भी अधिकार नही था. अगर अंग्रेज भारत में नही आते, तो भारतीय अछूतों के दुखो की क्या हालत होती? इसलिए डॉ. बाबासाहब आंबेडकर कहते थे, “विश्वासों मे उदासीनता होना यह सबसे बड़ा रोग है, जो सारे समाज को बीमार कर सकता है." वे हमेशा आशावादी रहे और अपने वर्तन से प्रेरणा दी.

भीमराव अपने पिता के नोकरी से १८९४ में निवृत्ति होने पर सातारा (महाराष्ट्र) में चले गए. वहन पर सामान में पेशवाई, हिन्दुधर्म का प्रभाव रहा. स्कुल, कॉलेज, रास्ते, दुकान, बाजार आदि जगहों पर छुआछुत की सितारी परेशान करती थी. हिन्दू धर्म यह छुआछुत का धर्म है, जिसे ब्राम्हण वर्ग संचालित करते रहा है. सातारा में भी हिन्दू-धर्मीय लोग अछूत और सछुत दल दो भागो में बंटे थे. सछुत हिन्दू अछूतों पर अपनी (हिन्दू) धार्मिक तानाशाही चलाया करते थे. 

भीमराव आंबेडकर को उसका पग पग पर प्रत्येय हुआ जिस वजह से वे हिन्दू धर्म को समाप्त करना चाहते थे. हिन्दू धर्म की अछूत की बीमारी यह मानवी जीवन कलंग समझकर बाबासाहेब उसे मिटाने के लिए अध्ययन करते रहे. भीमराव आंबेडकर १९०७ में मुंबई से (मराठी) मॅट्रिक में पास हुए. महार जाती के वे पहले छात्र थे जो यह परीक्षा पास कर सके. इस उपलक्ष में मराठा शिक्षक कृष्णाजी अर्जुन केलुस्कर ने “भीमराव का सत्कार” समारोह आयोजित किया और उसमे स्वयांलिखित “भगवान गौतम बुद्ध चरित्र” सप्रेम भेट दिया. भीमराव के बालक दृष्टि पठल पर उसका आजन्म प्रभाव रहा.

विदेश जाकर उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा हासिल की और सन १९१८ में उन्होंने “द प्रिंसीपल ऑफ़ सोशल रिकंस्ट्रकशन” विषय पर शोध प्रबंध लिखा. जिस पर बुद्ध विचारों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है. बाबासाहेब ने विदेश से आयु. शिवतरकर को सन्देश लिखा था, ‘कर्तव्य करते जाओ, सफलता मिले या न मिले, अन्य लोग हमारे कार्य की प्रशंसा करे या न करे, परन्तु कार्य में जुटे ही रहो. जब यह सिद्ध हो जाएगा की हमारे उद्देश अच्छे है और हम सच्चाई के साथ लोककल्यान का कार्य कर रहे है, उस समय हमारे विरोधी भी हमारे समर्थक बन जाएंगे, हमारी प्रशंसा और सत्कार करेंगे. प्रतिष्ठा और इज्जत की इच्छा करना कोई गैरकार्य नही है. परन्तु मान सन्मान तुम्हे न भी प्राप्त हो, तो भी तुम्हे परेशानी में संघर्ष का मार्ग छोड़ना नही चाहिए.” (मूकनायक, पहला अंक, १९२०)

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने सुरुवात में और अन्त में भी राजकीय परिवर्तन को कुछ खास महत्व क्यों नही दिया उसके कारण यह रहे है, “इतना ही नही तो सामाजिक समश्याओं की ओर नजर अंदाज करने के कारण उनके राजकीय उद्धिस्ट और ही मुश्किल बने, इसे अभी की स्थिती साक्ष दे रही है. उसी वजह से आपस मे दुही दिखाई दे रही है, इस देश मे सामाजिक अन्याय खत्म करना महत्वपूर्ण कार्य है और उसे हरेक देशवासियों ने अपना उचित दायित्व समझकर किए बगैर गत्यंतर नही है. जबतक सामाजिक (जातीय) दुही इस देश मे रहेगी तबतक राजकीय उदिष्टों की पूर्ति करना मुश्किल तो होगा ही मगर अन्य दिशाओं से भी इस देश की उन्नति होंना महाकठिन है." (डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर: चरित्र, चां.भ. खैरमोडे, खण्ड-२, पृष्ट-११४-१५)

बाबासाहब अम्बेडकर ने दिनांक- २० जुलाई १९२३ को “बहिष्कृत हितकारिणी सभा” का गठन किया तो दिनांक १३ मार्च १९२७ को उन्होंने “समता सैनिक दल” की स्थापना की. दिनांक- ४ सितम्बर १९२७ में “समता समाज संघ” का गठन किया था. तो दिनांक- २५ दिसम्बर १९२७ को सहस्त्रबुद्धे नामक (ब्राह्मण) व्यक्ती के हातों से हिन्दुधर्म के “मनुस्मृति” ग्रन्थ का समारोह आयोजन में “दहन” किया. यह हिन्दू धर्म के विषमतावादी विचारों समता में तब्दील करने एक उचित कदम रहा. उसके माध्यम से कही आंदोलनों को शारीरिक, मानसिक और आर्थिक, राजकीय बल मिला. पर हिन्दू के रहनुमाएं बाण नही आए इसलिए १९२९ में जलगाँव तथा १९३३ में नागपुर में धर्म परिवर्तन का संकेत दिया. और नासिक, “येवला” स्थल पर दिनांक १३ अक्टूम्बर १९३५ को “महार परिषद्” में घोषणा, “मै हिन्दू धर्म में भले ही पैदा हुआ हूँ मगर हिन्दुधर्म में नही मरूँगा.” “जो सभी को परस्पर में बांधे वही धर्म है” (डॉ.आंबेडकर, अनिहीलेसन ऑफ़ कॉस्ट, पेज-८१) तो एक साल बाद १९३६ में “स्वतंत्र मजदुर पक्ष” का भी कार्य बाबासाहब ने सुरु किया.

हिन्दू धर्म में व्यक्ति को जोड़ने के बजाएं तोड़ने में कार्य होता है, “हमारे धर्मान्तर का लक्ष्य है, अछूतों के लिए सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक आज़ादी और समानता पाना है धर्मान्तर से ही हमें आज़ादी और समानता जरुर मिलेगी. राजनितिक सुविधाएं ही हमारे लिए सबकुछ नही है और फिर उनके लिए कोई खतरा भी नही है, इसलिए संगठित होकर धर्मान्तर करने का प्रयास हमें बना लेना चाहिए” (डॉ. आंबेडकर और बौद्ध धर्म- डॉ. भागचन्द्र जैन, भास्कर, पृष्ठ ३५)

बौद्धों के प्रतिनिधि इटालियन भिक्षु “लोकनाथ” के नेतृत्व में एक शिष्टमंडल भी १० जून १९३९ को बाबासाहेब के निवास पर इसी धर्मान्तर के सन्दर्भ में पहुंचा था. इन सब के बावजूद उन्होंने किसी को कोई वायदा नही किया” (सन्दर्भ- सोर्स मटेरियल ऑन डॉ. आंबेडकर एंड द मुह्मेंट ऑफ़ अनटचेबल, वालूम-१, १९८२, पेज- १४१) सिख, मुस्लिम, इसाई जैसे प्रमुख धर्मों के लोगों ने उन्हें वश में करने की कोशिश की मगर वे किसी के वश में नही गए. “बाबासाहेब राष्ट्रीयता से ओतत्प्रोत सच्चे नेता थे. यह धर्म, उनके धर्म दृष्टि से राष्ट्रिय धर्म नही थे, विदेशी धर्म थे और उन धर्मों में दीक्षित होकर वे अपने राष्ट्रीयता के प्रति आंच नही आने देना चाहते थे” (ज्ञानदूत, दीवाली अंक, १९६३; टाइम्स ऑफ़ इंडिया, बम्बई; २४-७-१९३६ तथा भास्कर-पर -३६)

बाबासाहेब ने गाँधी से पूछा, “यदि मै अछूतों के मंदिर प्रवेश को स्वीकार कर लू और बाद में चातुर्वर्ण्य, जाती प्रथा के समाप्ति के लिए जिद्द करू तो आप किस ओर रहोंगे? यदि आप मेरे विरोध में रहते है, तो मै इस समय आपके पास आने के लिए तैयार हूँ” इसपर गांधीने उत्तर दिया, “मै केवल जन्म से ही हिन्दू नही हूँ, बल्कि मै दृढ़ निश्चय और स्वेच्छा से भी हिन्दू हूँ. मेरे हिन्दू धर्म के विचारों में न कोई कोई छोटा है, और न बड़ा लेकिन डॉ. आंबेडकर वर्णाश्रम के विरूद्ध लड़ते है तो मै उनके कैंप में नही रह सकता; क्योंकि मै वर्गाश्रम में विश्वास करता हूँ, जो हिन्दू धर्म का अभिन्न अंग है. लेकिन धर्म न घर है या न घडी, जो किसी की इच्छा से बदल जायेगी. किसी का भी धर्म अपने शरीर से अभिन्न अंग है. मै निश्चिन्त हूँ की उनके द्वारा तथा जिन्होंने प्रस्ताव पास किया है, उससे उनके उद्देश की पूर्ति नही होगी, जो उद्देश उनके ह्रदय में है. लाखों अच्छे और बिना पढ़े लिखे हरिजन उन्हें पढेंगे भी नही.” (डॉ. आंबेडकर, लाइफ एवं मिशन, पृष्ठ- २१७-२२७)

बाबासाहेब की प्रतिक्रिया रही थी, “भारत को केमाल पाशा तथा मुसोलिनी जैसा तानाशाह चाहिए, जो सामाजिक और धार्मिक मामलों को देखे, भारत के लिए प्रजातंत्र उचित नही है. मेरी इच्छा है, जिसे गाँधी सामाजिक व्यवहार में तानाशाही मानते है, जो टुकड़ों में कर दिया गया, छुआछुत के कारण तुम्हारे (अछूतों से कहा) गुणों को पारितोषिक, इनाम नही मिलता और न कोई न कोई तुम्हारे शारीरिक या मानसिक गुणों की प्रशंसा करता है. इसके कारण तुम्हे (पुलिस और अछूतों) जल सेना से भी वंचित कर दिया जाता है. छुआछुत एक सजा है, जो तुम्हारे सामाजिक अस्तित्व, सम्मान, व नाम को झकझोरने लगती है. जिस प्रकार भारत को स्वराज आवश्यक है, उसी तरह से अछूतों के लिए धर्मान्तर आवश्यक है, दोनों आन्दोलनों का उद्देश स्वतंत्रता की इच्छा ही है, मै तुम्हे बताता हूँ, धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नही. यदि (अछूतों) तुम संगठित होना एवं इकठ्ठा होना चाहते हो तो संसार में तुम सफल होंगे.” (भारतरत्न डॉ. अम्बेडकर और बौद्धधर्म, डॉ भागचन्द्र जैन ‘भास्कर’, प्रकासन सन १९९१, पृष्ट- ४३) 

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने "हूँ वेअर द शुद्राज?" के ७ वे अध्याय मे लिखा है, "यह सिद्ध हो चूका है की शुद्र अनार्य नही है. तो वे क्या थे? उसका उत्तर है १. शुद्र आर्य है. २. शुद्र क्षत्रिय है. ३. शूद्रों का स्थान क्षत्रियों मे उच्च था, क्योंकि प्राचीन काल मे कई तेजस्वी और बलशाली राजा शुद्र थे. यह मत इतना अनोखा है की इसे लोग मानने कों तयार न होंगे. अतेव, अब प्रमाणों की जाँच की जाए. प्रमाण महाभारत, शान्ति पर्व,(६०, ३८-४०) मे है.

हिन्दू धर्म में जाती है उसके समाज पर चार महत्वपूर्ण अंगो पर विपरीत परिणाम हुआ है. जिससे १. अर्थ में विषमता, २. शिक्षा में विषमता, ३. सभ्यता में विषमता तथा ४. सत्ता में विषमता निर्माण हुयी है, जाती का अंत यानी शिक्षा में समता, अर्थ में समता. समता के लिए ही ममता, बुद्ध धम्म स्वीकार किया गया आन्ताजातीय विवाह को प्राधान्य, और मान्यता दी गई. स्त्री-पुरुष एक दुसरे के गुलाम नही तो मित्र समझे गए. विवाह यह एक तह है, जो दोनों में से किसी को भी भंग करने का अधिकार है. जातिमत विषमता समाज के जिन-जिन अंगों में फैली थी, उन सभी अंगों में समानता सत्ता के जरिए नही, तो सांस्कृतिक निती के जरिए फैलाना जरुरी है.

बाबासाहब आंबेडकर का महाड तालाब सत्याग्रह और कालाराम मंदिर प्रवेश प्रयास एक सामाजिक भाईचारा बढ़ाने का क्रान्तिकारी कदम रहा. प्राचीन काल में भारत का व्यापार विदेशों में भी होते रहा. उनमे अच्छी चीजे और जानवर भी बेचे-ख़रीदे जाते थे. उससे ही सांकृतिक आदान प्रदान हुआ. इसलिए विदेशी और देशी संकृति में कुछ जगहों पर समानताए दिखाई देती है. क्या ब्राह्मण बौद्ध नहीं बने? क्या वे भिक्खु नहीं बने? क्या सत्यनारायण गोयनका का प्रवचन शुद्रों को अच्छा नहीं लगता? सभी मानव एक समान है. सबका आदर होना चाहिए. उनमे वैचारिक कमिया हो सकती है मगर उन्हें बुद्ध के प्रभावशाली विचारों से प्रभावित करने के बजाए उन्हें विदेश भेजने का कार्य आरंभ करना कहाँ तक उचित है?

पूना समझौता क्या है? वह गुंगो के चिखों का परिणाम है. मुंबई मे तारीख- २९ सितम्बर १९३४ को बाबासाहब आंबेडकर ने कहां, “करीब पिछले दो हजार सालों से अछूतों को इस देश के समाज का एक अभिन्न अंग के रूप मे नही समझा गया. इसके पहले किसी भी राजकीय या सामाजिक कार्य पर बिचार करने की मोहलत अछूतों को कभी भी नही मिली. सन-१९३२, “गोलमेज परिषद” मे अछूतों के प्रतिनिधि को उपस्थित रहने के लिए भारतीय राज्य कर्ताओं की ओर से बुलावा आया. वह घटना इस बदलते हुए समय का आरम्भ है, ऐसा मै समझता हूँ. इसके पहले भारतीय इतिहास ने जो कभी दुआ, मुस्लिम बादशाही मे जो नही हो सका, मराठों के हिन्दवी स्वराज्य मे जो हो नही सका वह २० वे शतक मे हो चूका.

अछूतों के भावना और आशाओं को सम्मिलित किये बिना वह “निर्णय” अधूरे रहेंगे ऐसा राजकर्ताओं को लगा. इतना ही नही तो उस “निर्णय” पर अधिष्ठित राज्य संस्था को सच्चे जनतंत्र का स्वरुप प्राप्त नही हो सकता. यह समज ब्रिटिश राज्यकर्ताओं को हुयी और उसी वजह उन्होंने अछूतों के प्रतिनिधि को “गोलमेज परिषद” का बुलावा दिया. अछूतों के प्रतिनिधि को इतिहास मे कभी न मिले “समानता” का, उच्च समझे जानेवाले समाज के बराबरी का मान मिला. पुरे भारत के हितों मे अछूतों के हित सम्बन्ध निहित है और उनके हकों का स्वरक्षण किये बिना देशा का विकास होना असंभव है. 

गाँधी को हिंदुओं का नेता नही कहा जा सकता. हिंदुओं के सच्चे नेता पंडित मदन मोहन मालवीय यह है और उन्ही के नेतृत्व मे अखिल भारतीय हिंदुओं के नेता मानकर उस समय के सभी समझौते चालू थे, इसलिए इन समझौते पर पहले हस्ताक्षर “पंडित मदन मोहन मालवीय“” के है. इस समझौते से अछूतों ने निर्दयी हिंदुओं को अछूतों के राजकीय अस्तित्व कबुल करने को मजबूर किया. इसलिए “पुना समझौता” को अछूतोंने अपना “राजकीय दिन” समझकर मनाना चाहिए. इस समझौते से प्राप्त हकों को प्रयोग मे लाया जा रहा है या नही? इस विषय पर इकट्टा होकर विचार करते रहना जरुरी है....बाप-जादाओं के नामपर ऐय्याशी करने की मनोकामना छोडकर, मै खुद कुछ तो भी करके दिखाऊंगा ऐसी धारणा दिल मे रखनी चाहिए. (संदर्भ- जनता-१७ जुलाई १९३६ के भाषण का अनुवाद) सन १९४२ से बाबासाहब अम्बेडकर ने “स्वतन्त्र मजदुर पक्ष” को बर्खास्त कर “अखिल भारतीय शेड्युल्ड कास्ट फेडरेशन” इस राजकीय पक्ष की स्थापना की. इसका कार्य उन्होंने १३ अक्टूम्बर १९५६ तक किया. उसके बाद जातिवादी पार्टी का कार्य बन्द करने का अह्लान किया.

संविधान सभा मे २६ जनवरी १९५० से हम राजकीय जनता को पायेंगे मगर सामाजिक व आर्थिक स्तर पर विषमता रहेगी. यह क्रांति नही तो प्रतिक्रान्ति की पताका है. उसका सही पर्याय धम्म ही है. धम्म शासन ही महान शासन है. वह जीवन के आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और राजकीय अंग को सहाय्यक है. इस वजह दिनांक २ मे १९५० में बौद्ध विहार, नई दिल्ली में बौद्ध जयंती के अवसर पर भाषण देते समय बाबासाहब ने कहा, ‘अछुतता को कठोर चार दीवारों के अन्दर रहना अव मुश्किल है. बुद्ध के समानता की बराबरी न राम करता और न कृष्ण. इसे जल्दी हटाना जरुरी है. समाज बिना धम्म के भी रह नही सकता, इसलिए अछूतों को भी अब परंपरागत हिन्दू धर्म छोड़कर नए धम्म की आवश्यकता होगी.” (बी जी कुंठे, सोर्स मटेरियल ऑन डॉ. बी आर आंबेडकर एंड द मुह्मेंट आफ अनटचेबल, वालूम-१, पेज- ३६६) बाबासाहब आंबेडकर ने बुद्धधम्म को भारत में पुनर्जीवित करने का निश्चय किया. (बौद्ध विहार, नयी दिल्ली, मई १९५१ का भाषण) 

जापान-हिन्दू सांस्कृतिक परिषद् के उपाध्यक्ष एम. आर. मूर्ति के सम्मान समारोह में (फरवरी १९५३) भोज अवसर पर बाबासाहेब ने कहाँ की, भावी पीढ़ी को अब बुद्ध या कार्ल मार्क्स “इन दोनों के सिद्धांतों में से किसी एक सिद्धांतों को चुनना होगा. इस समय पूर्व पश्चिम की अपेक्षा अधिक महत्वपूर्ण हो गया है. यदि बुद्ध के सिद्धांतों का अनुकरण नाही किया गया तो यूरोप के मध्य का संघर्षमय इतिहास एशिया में भी दोहराया जाएगा.” (दिनांक- १६ फ़रवरी १९५३) इसके दो माह बाद अपने ६२ वे जन्मदिन के अवसर उन्होंने कहा की, अब उनका शेष जीवन बौद्ध धम्म के प्रचार-प्रसार में बीतेगा.

दिनांक- ३ अक्टूम्बर १९५४ में देल्ही “आकाशवाणी केन्द्र” से बाबासाहब अम्बेडकर ने किया जिसमे हिन्दू धर्म के “सत्व, रज और तम” इन त्रिगुणों की धज्जियाँ उड़ाई. दिनांक- १४ जनवरी ५५ मुंबई, (जनता- २२ जनवरी ५५) बुद्धने कहाँ, “संपत्ति मानवी जीवन के लिए आवश्यज है, संपत्ति संचय करो परन्तु उसका उपयोग दूसरों को सताने या गुलामी में डालने के लिए कभी भी न करे” “भारत देश की संस्कृति एकस्वरूप है, ऐसा विद्वानों ला दावा र/आहा है, पर उसका इतिहास झूठा है यहाँ पर संस्कृतियो के दो प्रकः, धाराएं चालु है. एक ब्राह्मणी (हिन्दू) धर्म तथा दूसरा बौद्ध धम्म. ब्राम्हणी धर्म का गन्दा पानी बुद्ध धम्म के स्वच्छ पानी में एकजीव हुआ. हिन्दू धर्म के गंदे पानी में एकजीव हुआ. हिन्दू धर्म के गंदे पानी को नाली बनाकर अलग निकालकर बुद्ध धम्म के स्वच्छ, शुद्ध पानी को बाजू में करना होगा. कृष्ण ने गिता में क्या बताया है? मारो, हत्या करो. गरीबो के उत्थान के लिए कुछ कहा है? उसका कुछ फायदा नही. मै गिता पर लिखनेवाला हूँ. 

“मैंने बुद्ध धम्म की जानकारी प्राप्ति के लिए बहुत ग्रंथो का अध्ययन किया. इसका पतन क्या हुआ? वह मै लिख रहे ग्रन्थ में आएगा. धर्मान्तर के लिए जल्दी नही करूँगा. अभिहि आपको कोकरू के समान नही ले जाना चाहता. उसके लिए मै एक किताब लिख रहन हूँ. बुद्धधम्म दीक्षा स्वीकार करने पर उसके तत्वों के अनुसार चलना चाहिए. तलवार के धार के माफिक आचरण करनेवाले पाच ही अनुयायी अगर मिलते है तो भी चलेगा.” (मुंबई, भाषण, दिनांक- २४ में १९५५, प्रबुद्ध भारत- २ जून १९५६)

बौद्धों के लिए सही धम्म प्रचार का कार्य करे, इस उद्धेश से बाबासाहब आंबेडकर ने सन १९५५ में “भारतीय बौध्द महासभा” का गठन किया. उन्होंने अपने भाषण में कहा था, “पिछले पाच सालो से मै बुद्ध धम्म पर एक किताब लिखने में व्यस्त था. उस किताब का प्रकाशन मेरे रिक्शा के पहले वैशाख माह में हो, इस हेतु से मै मुंबई आया. परन्तु मै एक विचित्र बिमारीसे व्यथित होने के कारण वश मुझे वह किताब जल्दी लिखकर ख़त्म करना असंभव हुआ. किताब ७०० पृष्ठ है, और वह अंग्रेजी में होने के कारण अपने में बहुत लोगों को समझने में वह कठिन जाएगा. इसलिए जल्दी मै उसका मराठी अनुवाद करवा कर लूँगा, केवल इसी कारण से मुझे (बुद्ध जयंती, २५००वि, निमंत्रण होने पर भी) रंगून को जाना संभव नही हुआ. फिर भी मेरे सामने उपस्थित जन सैलाब को देखकर मुझे बेहद ख़ुशी हो रही है. “अक्रोधेन जयेत् क्रोध!आर” का अर्थ “क्रोध को नम्रता से निपटे” ऐसा होता पर बाबासाहब माँ का क्रोध और हत्यारों के क्रोध में फर्क करके हमें मौ के क्रोध की करनी जरुरी है, और हमने माँ के क्रोध के जरिए क्रान्ति को अपनाना चाहिए. इसका वे जोरदार समर्थन करते है. क्या बिना क्रोध क्रान्ति सम्भव है? (दिनांक- १२ दिसम्बर १९५५, मिलिन्द महाविद्यालय समारोह, भाषण) 

डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने दिनांक- २४ में १९५५ को मुंबई के भाषण में कहा था, “बुद्ध का जो अफाट भिक्षुसंघ था उसमे ७५% ब्राम्हण थे. यह सावरकर को पता है? सारिपुत्र, मोगल्यायन जैसे पंडित ब्राम्हण थे. यह सावरकरने कभी नही भूलना चाहिए, मुझे सावरकर को ऐसा सताल करना है, पेशवे कौन थे? क्या वे भिक्षु थे? फिर उनके हातों से अंग्रेजों ने शासन कैसे छिना? इसलिए ऐसे नादान और बेजबाबदार लोगों के पीछे हमने नही लग्न चाहिए, कुछ लोग कहते है की, सावरकर ने विषैली उलटी किया, मगर मै कहता हूँ की उसने अपने पेट से नरक उगला......

“अभी बुद्ध धम्म की लहर आएगी तो कभी वापस जानेवाली नही है. इस अफाट सागर को भरती आएगी लेकिन ओहटी नही आएगी. गौतम बुद्ध के संगठन में कुछ तृटिया रही, कुछ भोंक रहे. जिसमे से बहार का पानी अन्दर आया और बुद्ध धम्म का प्रवाह थोडा दूषित हुआ. परन्तु अभी उस धम्म की मरम्मत कर उस छिद्रों को मै बुझानेवाला हूँ. मार्क्सवादियों को क्या बताना? उन्होंने बुद्ध तत्वज्ञान अवश्य पढना चाहिए. दुःखी-पिडित जनता को दुःख से मुक्ति का सही मार्ग बुद्धने ही दिया. हजारों पीड़ितों को उन्होंने स्वयं प्रकाश से दुःख मुक्त किया... 

“मै मेरा धर्मान्तर इस अक्टूम्बर (१९५५) को मुंबई में करूँगा. उसके पहले इस धम्म पर मेरा एक किताब मै प्रकाशित करने वाला हूँ. गौतम बुद्ध के धम्म में जो तृतीय, कमिया, खामिया रही है उसका सविस्तर विचार मै उस किताब में प्रकाशित करनेवाला हूँ. बुद्ध धम्म में ‘उपासको’ को धम्म दीक्षा नही दी जाती थी. संघ दीक्षा पर उसका विपरीत प्रभाव होता है. उपासको के मन की परिपूर्ण तैयारी नही होती. मेरे धम्म में उपासकों को भी धम्मदिक्षा दी जायेगी, उसके पहले मै जो किताब लिख रहा हूँ, उसे सबने खरेदी करना चाहिए. उस किताब से कुछ महत्वपूर्ण सवालों के जवाब भी हर एक को देना होगा. तभी उसे बुद्ध धम्म में प्रवेश मिलेगा, बुद्ध धम्म प्रवेश करते वक्त हर एक ने शुभ्र वस्त्र परिधान करना चाहिए....

“धम्म नष्ट कब होता इसका “मिलिंद प्रश्न” में खुलासा है. धम्म को करीबन ३ कारणों से ग्लानी आती है. पहला कारण यानी “धम्म तत्व अबाधित न रहना” या पूरा विचार मंथन बिना किए धम्म तत्वों की रचना करना. दूसरा कारण धम्म में “वितंडवाद बढ़ना” जिस ओर वादविवाद तज्ञ ज्यादा होते है, उस धर्म पंथों का हमेशा विजय होता और तीसरा कारण “धम्मतत्व सामान्य जनता को समझने योग्य” न होना. अभी धम्म की लहर आएगी तो कभी भी वापस जानेवाली नही है. धम्म स्थापने के लिए मंदिरों की अत्यंत जरुरी है. लेकिन अपने स्वप्रयास से एक मुझे ऐसा मंदिर बनाना है की जो आपने कभी भी नही देखा होगा. मगर मै उसके लिए लाचार होकर किसी धनवान के सामने हाथ नही फैलावुंगा, आप पैसे जमाकर दोंगे, तो बान्दुगा, अच्छा बनाऊंगा. अपने स्वयं पराक्रम से बनाऊंगा, किसी दूसरों के हातो से नही बनवाऊंगा.”

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें