गुरुवार, 10 सितंबर 2020

अब्दुल कलाम प्रेरणा के लायक़ नही



समाजाचे मुख्ये अंग १.सत्ता, २.संपत्ती, ३.शिक्षण आणि ४.संकृती आहेत. भारताला इंग्रजांनी सत्तेचे हस्तांतर केले. भारताची राज्यघटना बनली. राजकीय लोकशाही आली. मात्र आर्थिक आणि सामाजिक लोकशाही आली नाही. सत्ता चालविणाऱ्यांवर ती जबाबदारी घटनेच्या उद्देश पत्रिकेत दिली आहे. मात्र उद्देश पुर्तीच्या दिशेने कार्य झाले नाही.
आज देश पुंजीवादी आणि जातीवादी तर आहेच पण अंधश्रद्धा आणि विविध विकृतीने व्याप्त आहे. जनता जगायचे आहे म्हणून जगत आहे, मात्र जगण्याचा उद्देश राहिला नाही. घटना चांगली पण तिची अंमलबजावणी शून्य आहे.
भारतात आर्थिक लोकशाही प्रस्तापित करून समान नागरी कायदा, कमाल संपत्ती धारण कायदा आणि समान वेतन आयोग इत्यादी महत्वपूर्ण बदल घडविले गेले तरच ही घटना जनतेला सुख देऊ शकेल अन्यथा केवळ घटना सांभाळून गरीबांना नागवत ठेवणेच होईल.
ही परिस्थिती लवकर बदलवली गेली नाही तर देशांतर्गत यादवी युद्ध होईल, संविधान सुद्धा जाईल त्या शिवाय देश सुद्धा गुलामीत जाईल. काळजीवाहू लोकांनी घराबाहेर निघून एकत्रित चर्चा करून सुयोग्य पद्धतीने विचार करून त्यावर त्वरित अंमलबजावणी करण्याची वेळ जवळ आली आहे.
भारत देश के लोग कहते है की भारत का माजी राष्ट्रपति बहुत बड़ा वैज्ञानिक है, वह विज्ञान से जुडा हुआ है, एक मुस्लिम होने के बाद भी वह राष्ट्रिय है, उनका राष्ट्रीयवाद कही हिंदुत्व से प्रेरित तो नही है? उनके सर पर जो बडाये गए बाल है, वह किसी माता के आज्ञा का परिणाम तो नही है? उनके जैसे विज्ञान के छात्र रहे व्यक्ति बाद में राष्ट्रपति भी बने मगर उनकी सोच हमेशा अंधभक्त की रही है, तो भारत के नागरिक, छात्र-छात्राए उनसे क्या शिक ले सकते?
उत्तराखंड में जो लोग मरे है वह देश में बढ़े अंध:भक्तों की कोई कमी नही है, यह बात साबित करती है, कोई भी आए और उसे देवी-देवता-भक्ति-भाव के चक्कर में मुर्ख बनाए... रामदेव बाबा भी अंधश्रद्धा को बढ़ावा देनेवाला जातिवंत छद्म सन्यासी है. माजी राष्ट्रपति अब्दुल कलाम और बाबा रामदेव से क्या प्रेरणा मिलती है? अंधभक्त बनो, राजनेता और स्वार्थी लोगों द्वारा लुटवाते रहो... हा हा है...!

गरीबो! अपनी जंग खुद लड़ो!


हाल ही में लोकसभा के जो नतीजे आये वह चौकानेवाले नही है, उससे काफी लोगों ने आश्चर्य महसूस किया है, क्योंकि उनका देखने का नजरिया गलत था.
१. कांग्रेस का पराभव हुआ उसके कारन कही है जिसमे १. घरानेशाही, २. जनता के साथ वार्तालाभ का अभाव, ३. मिडिया के सामने आने से डरना, ४. भ्रष्टाचारी राबर्ट वाड्रा को साथ देना, ५. सरकारी संश्थाओ पर दबाव बनाना. ५. सामाजिक कल्याणकारी योजनाओ के अमल पर दुर्लक्ष करना, ६. व्यक्तिवादी विचारों को बढ़ावा देना, ६. नामदारी प्रधानमंत्री की नियुकि करना, ७. आंदोलन कर्ताओं को जेल भेजना, ८. भाषण कलाओं को नजरंदाज करना. आदि...आदि.
२. एसपी को उत्तर प्रदेश में बहुमत मिला था तो वह मुलायम के दमपर नहीं, उन्हें बीएसपी के निगेतिव्ह वोट मिले थे, उसके जरिए वे राज कर रहे है पर मिले हुए वोटों को बर्कारत रखने के लिए उन्होंने खास प्रयास नहीं किया, भविष्य में एसपी को भी अँधेरे में गुम होने से कोई भी नही रोख सकते.
३. बीएसपी की तानाशाही नेत्री मायावती अपने जातिवादी मुद्धेपर कायम है, उनके नजर में जातियो का अभिमान ही जनता का कल्याण है. जातिगत गर्व के नसे यह डूबी रही, और भूके लोग जातियों के बेड़ियों को तोड़कर आझाद हुए, उन्होंने अपनी मंजिल ढूंडना सुरु किया, जिसका नतीजा उसे करारी हार मिली.
४. जेडीयू का पतन होने के काफी कारन रहे है जिसमे यह प्रमुख है की उसने नक्षलवादी लोगों मांगों को नजर अंदाज किया. गरीब लोगों ने नक्षलवादी राश्ता अख्तियार करने के पीछे के कारन क्या है? मेरे नजर में गरीबी से तंग आ जाना है, जिनके बलपर मुख्यमंत्री का पद मिला पर उसका उपयोग नक्शली आंदोलन को दबाने के लिए किया, गरीबी मिटाने के लिए उन्होंने कुछ भी कार्य नही किया, अगर आर्थिक आधारपर जनता ने चुनकर दिया और उनके साथ द्रोह किया तो जनता उनको दुबारा क्यों चुनकर देगी?
५. तृणमूल के ममता सरकार ने गरीबों को पनाह देने का कार्य किया जिसका नतीजा गरीबो ने उन्हें साथ दिया.
६. दक्षिण भारत के राजनीती पर हिंदू विचारधारा का प्रभाव है पर नेताओं का नही, क्योंकि हिंदुओं के पिछड़े वर्ग पर रामासामी नायकर, पेरियार के विचार, हावी है, उधर भाषा वाद चलता है, हिंदी बनाम तमिल. दक्षिण में अहिन्दू भाषिक राजनीती का प्रभाव है, जिसपर मोदी/संघ के लहर का असर नही हुआ है.
७ आप यानि आम आदमी पार्टी, जिसके नेता अरविंद केजरीवाल है, उन्होंने अपने पार्टी के अंतर्गत ढांचे में जनतांत्रिक परिवर्तन नही किया, जिससे उस पार्टी पर अरविन्द की तानाशाही चली, एक व्यक्ति के निर्णय नाकाम साबित हुए, भावनाओ से ऊपर उठकर विचारों को बढ़ावा देना चाहिए था पर आप लिखी खुदा बाजी का परिणाम है की कांग्रेस के निगेतिव्ह वोटों और फूस गुजराती विकास को उजागर करने में वे नाकाम हुए. राष्ट्रिय समश्यो पर जनमत बनाने के बजाए वे जमीनी/लोकल मुध्यो में घुलमिल गयी, अन्ना के आंदोलन का फायदा उठाने में वे विफल रहे.
८. लालू के पास जनकल्याण की योजनाए नही है और न वे किसी पारंगत व्यक्तियों का मार्गदर्शन लेना पसंद करते है, केवल समय सुचाकता का ही होना राजनीती में जरुरी नहीं है तो उसके साथ संघठन को चलाने के लिए काफी गुणों की जरुरत होती है जो उसके पास कभी नही रहे है, एक बार चारा घोटाला किया, और अभी परिवाद्वाद को बढ़ावा देने को ही वह जनतंत्र समझने लगे, जनता को वे बेवकूफ समझने लगे थे, जिसका नतीजा उनका पतन हुआ.
९.प्रकाश आंबेडकर ने आर. पि आय. का अर्चम फ़ैलाने के बजाए अपनी पार्टी बनायीं, उन्हें भी वे जनतांत्रिक विचारों से चलाने में नाकाम रहे, उसे वे अपने लिए निजी कंपनी समझने लगे.क्या निजी कंपनी में मजूरों को सम्मान मिलता है? संघटन में अगर बहुमतों से निर्णय नहीं लिए गए तो उसे पुरे करने के लिए जनाधार, सहयोग नही मिलता और धीरे धीरे पतन होते रहता. उसे विकाश, प्रकाश, उजाला, रौशनी कोण कह सकता है?
१०. जातिवादी बामसेफ संघठन को वंशवादी बनाकर बीएमपी बनाई, वामन मेश्राम एक मुख, सनकी, कूपमंडूक, तानाशाही, मुजोर,व्यक्ति है, जिसे कुछ बेवकूफ अंधभक्त लोग उसे नेता मानते है. उन्हें लगा की मै लोकसभा में विजय हासिल करूँगा, पर क्या हुआ? जात, वंश, धर्म के पीछे खड़े रहने से जनता के पथ में भोजन नहीं जाता, भूके लोगों को रोठी चाहिए, महंगाई से निपटने के लिए उचित धन, रोजगार चाहिए पर उसे उजागर करने के बजाए उनका समाधान अगर जाती/वर्ण/वंश में टटोलने का कार्य करे तो हाथ में समाधान आएगा?
भारत को आमिर बनाना है या सुखी ? इनमे से किसी एक को उद्धिष्ट बनाया जा सकता है, दोनों के पीछे जाने को जो प्रयास करेंगे वे बेवकूफ है, नरेन्द्र मोदी प्रथम हिंदू है और बादमे भारतीय, उनका राष्ट्र वर्णवादी है, उनका कोई उद्धेश नही है, वह आर एस एस की कटपुतली है, अब संघ का शाशन संसद में चलेगा जो पूंजीवाद को बढ़ावा देने का कार्य करेगा. पूंजीवाद गरीबों का दुश्मन होता है,गरीबों से कार्य तो करवाता है पर उचित मुहवजा नही देता. गरीबों के दुःख के दिन आ गए, अमीरों के लिए सुख के दिन आ गए. अमीरों ने मोदी को जिताने के लिए ५०० करोड रूपये से ज्यादा का धन खर्च क्यों किया है? उसे हमको समजना जरुरी है.
भारत में राजकीय जनतंत्र आर्थिक जनतंत्र में तब्दील क्यों नही हुआ उसके कारन भारतीय संविधान के धारा ३१ और २४ में छिपे है, उसे छिपाए रखने के लिए डॉ. बाबासाहब आंबेडकर को भारतीय संविधान के रचयिता के रूप में कांग्रेस ने हमेशा प्रचारित किया, जो गलत प्रचार है. कांग्रेस के बहकावे में आकर भारतीय पिछड़े वर्ग ने पूंजीवाद को अपना दोस्त समजा. पूंजीवाद विरोधी लोग पूंजीवादी बने. टाटा - बाटा को आदर्श पुरुष मानकर डिक्की बनायीं गयी.
नक्शली आंदोलन के नेता लोग पूंजीवादी है और अनुयायी पुन्जिविरोधी, गरीब नक्शलीयों के हाथो में क्या मिलेगा? अभीतक तो उनके हातो में बाबाजी का टिल्लू ही मिला है. आर्थिक समशया समाज में पैदा हुयी और उनका हल दुंडने निकले जंगल में तो क्या कभी हल निकलेगा?
गरीब जनता को मेरी राय यही है की वे 'राज्य समाजवाद' को जाने, माने और उनका प्रचार करे उसके पूर्ति के लिए सरकार के सामने प्रस्ताव भेजे, निदर्शन करे, इसे लागु करवाना बाबासाहब आंबेडकर चाहते थे पर सन १९४६ से उनके पीछे उचित जनसँख्या खड़ी नही रही जिसका नतीजा संविधान को पूंजीवादी रूप दिया गया, संविधान को समाजवादी, जतिनिर्पेक्ष बनाने के लिए धारा -३१ और २४ को निरस्त करने के लिए जोरदार बगावत करने की जरुरत है, गरीब संसद में नहीं जा सके तो कोई परवा नही है, उनके लिए राश्ता ही संसद है. उसपर उनका राज्य अभी भी कायम है, और आगे भी कायम रहेगा.

नरेंद्र मोदी! अच्छे दिन कब आएँगे ...?


नरेन्द्र मोदी ने भारतीय जनता पार्टी के जरिए लोकसभा २०१४ का चुनाव जीता, उसका कारण कांग्रेस की नाकामी रही है, ऐसा वर्णन एल के आडवानी, बीजेपी वरिष्ठ नेता ने किया था. कांग्रेस ने चुनाव में पराजित होने का मतलब यही था की उन्होंने १. डंकल प्रस्ताव को पारित किया, २. भारत की अर्थव्यवस्था का वैश्वीकरण हुआ. ३. निजीकरण को बढ़ावा मिला. देशी और विदेशी पूंजीवादी लोगोने भारत में व्यापार सुरु किया. अधिक मुनाफा करने के दृष्टी से वस्तुओ के दाम बढ़ाना सुरु किया, बढते महंगाई पर रोख लगाने के लिए कदम उठाया जाए तो पूंजीपति लोग भारत से मुह मोड लेंगे फिर और भारत की माली हालत और खराब होगी इसी डर से राजनेता लोग पूंजीवादियों शोषण के खिलाफ कदम उठाने के बजाए चुप रहना ही पसंद कर रहे थे. महंगाई पर लगाम लगाने का मतलब यह होता है की पूंजीपति लोगों मुनाफा करने से रोखना. अगर पूंजीपति नाराज हुए तो वे अपने पेपर मिडिया के जरिए राजनेता की बदनामी करके सत्ता से वंचित करेंगे यह भी एक डर राजनेताओ में रहा है.

टीव्ही मिडिया, बढे उद्धोगी और बढ़ा जमींदार लोग एकसाथ होकर सत्ताधीश नेताओ को काबू में रख रहे है. बीजीपी ने लोकसभा चुनाव २०१४ में इन्ही वर्ग का साथ लेकर विजय हासिल की थी. उन्होंने किया खर्चा निकलने के लिए ३ साल लग जायेंगे, यानि के महंगाई ३ साल तक तो किसी भी हालत में कम नही होगी. तो ४ थे साल से महंगाई काबू में आएगी ऐसा भी नही कहा जा सकता. महंगाई हमेशा पूंजीपतियों के ही हातों में रही है और आगे भी रहेगी. सरकार वस्तुओं के दाम तय नही कर सकती, जिन्होंने वस्तुओं को तयार किया होता है वे ही उसके दाम तय कर सकते है. रेलवे सरकारी संपत्ति है तो उसके किराए के दाम सरकार ही तय कर सकती है, कोई किसान नही तय कर सकता. उसी ढंग से भारत सरकार पर हम विश्वास कैसे कर रहे है की वह महंगाई को काबू में लायेंगे? जो बात, चीज उनके हातो में नही, और न वे उनके मालक है तो उस वस्तुओं के दाम सरकार कैसे कम कर सकती है.

भारत के जनता ने बिना सोचे समझे बीजेपी पर भरोसा क्यों किया? उन्होंने वोट देने के पहले यह तो जानने की कोशिस करना चाहिए था की वह किस योजना के तहत सत्ता में आने पर महंगाई को कम करेंगे? मनमोहन सरकार ने कहाँ था की उनके पास जादू की छड़ी नही है जिससे वे उसे काबू में रख पाएंगे? तो बीजीपी ने कहा था की हमें वोट दो हम कर लेते है. अभी तक महंगाई को कम करने के लिए कोनसी योजना बनाई है? क्या वह योग्य ही है? कैसे? नरेन्द्र मोदी झुटा राजनेता है, उनकी पार्टी भी झूटी है, किये हुए वादे को पूरा नही कर पा रही है इसलिए नरेन्द्र मोदी मुहं दिखाने के लायक नही है, और न रहेगा. जो गलतिया, आर्थिक निति कांग्रेस ने तय की है उसका अमल करने से महंगाई कम होगी, लोगों को राहत मिलेगी यह सोच गलत है. जो बीजीपी भक्त है वे लोग कहते है की नरेन्द्र मोदी के पास क्या जादू की छड़ी है जो इतने जल्दी ही उसे काबू में कर लेगा? उन्हें मुझे पूछना है की अगर ऐसा नही किया जा सकता था तो यह बाते चुनाव के पहले क्यों नही रखी गयी थी? सामान्य गरीब जनता को गुमराह करके वोट हतियाना और उसके जरिए अपनी निजी संपत्ति बनाना, क्या इसे ही उचित राजनीती कहते है?

जबतक निजीकरण और खुली अर्थव्यवस्था भारत में रहेगी तबतक महंगाई कभी भी सरकार के वश में नही रहेगी. महंगाई कम करने के वादे हर राजनेताओ के झूटे साबित हो चुके है, और आगे भी सही साबित नही हो पाएंगे. नरेन्द्र मोदी की पढाई क्या है? क्या वे अर्थशास्त्र के छात्र रहे है? मुझे नही लगता की वे अर्थशास्त्र के छात्र भी रहे है. तो क्या वे प्रशासकीय अधिकारियो के बनाए योजना को लागु करेंगे? मैंने सुना है की उन्हें उत्तम, बुद्धिमान मुख्य सचिव की जरुरत है, तलाशी है. वह जबतक नही मिलता तबतक नरेन्द्र मोदी मनमोहनी रूप धारण करके रहेंगे. मेरा तो यह कहना है की कितना भी अच्छा प्रशासक चुना जाए वह भारत में बढते हुए महंगाई को ३ साल में तो हजारों सालो तक भी शासन किया तो उसे वश में नही कर पाएंगे. जनता ने झूटे राजनेताओ के वादों पर भरोसा करना छोड देना चाहिए, पहले उसकी गुणवत्ता देखना चाहिए, उनकी परीक्षा लेना चाहिए उसके बाद ही उसे चुनाव में उमीदवारी देना चाहिए. अनपढ़, गवार लोगो को देश के गरीबो के दुःख की चिकित्सा करने की जिम्मेवारी नही देनी चाहिए.

अगर नरेन्द्र मोदी को महंगाई हमेशा के लिए अपने हातो में रखनी है तो वे रख सखते है, तब के काबू भी रख सकते है, मगर वह छड़ी उन्हें पता है नही है और न भारतीय सनातनी विचारवंत लोगो को पता है, वे भी हतबल है की देश में बढते हुए महंगाई को कैसे रोक सकते है? अगर उनके पास ज्ञान होता तो उन्होंने कांग्रेस के मनमोहन को भी दिया होता. इसका मतलब सनातनी प्रशासकीय अधिकारी भी भारत की महंगाई को वश में करने के योजना को नही बना सकते यह बात अबतक तो सच ही साबित हो चुकी है. अगर महंगाई और २ साल तक ऐसे ही बढते रही तो देश में गरीब लोग रास्ते पर उतरेगी, सांसद लोगो को रास्तो पर चलना भी भारी महंगा पड़ेगा. नरेन्द्र मोदी सरकार के जगह राष्ट्रपति शाशन लग जाएगा. अगर इसे रोखना है, नरेन्द्र मोदी ने किये वादों को पूरा करना है तो एकमेव रास्ता उपलब्द है और वह रास्ता है, "राज्य समाजवाद" को सकती से लागु करना. वह है जादू की छड़ी.

राज्य समाजवाद पर संसद में एक दिन चर्चा करना और भारी मतों से उसे पारित करना, दूसरे दिन राज्य सभा में चर्चा करना और उसे भी उसी दिन पास करना और तीसरे दिन राष्ट्रपति के पास पहुंचा कर उसपर अनुमति हासिल करना. ३ दिन के अंदर यह काम हो गया तो चवथे दिन से महंगाई मोदी के वश में रहेगी. तभी ही वे पांच साल तक सत्ता में रहेंगे नही तो कदापि नही. अच्छे दिन लाना है तो यही उनके पास जादू की छड़ी है बस उसने घुमाना है और अच्छे दिन ४ दिन बाद ही आयेंगे. "इनकम चवन्नी और खर्चा रूपया" करना चाहा तो कैसे होगा नरेन्द्र मोदी? एक तो "अच्छे दिन लाने का किया हुआ वादा पूरा करो नही तो प्रधानमंत्री पद का त्यागपत्र दे दो. जनता ने अबतक राजनेताओ को बहुत झेला है, आगे भी झेलते ही रहेंगे ऐसी उम्मीद करना बहुत महंगा पड़ेगा, अच्छे दिन....? अच्छे दिन......? अच्छे दिन ......?