आधुनिक
विज्ञान ने यह सिद्ध किया
की, विश्व को ईश्वरने नही बनाया. शरीर में आत्मा या परमात्मा नाम की कोई भी वस्तु
नही. भौतिक जगत के अनेक शोध और संशोधन यह सिद्ध करते जा रहे है की, पदार्थ हमेशा गतिशील है. पल-पल परिवर्तन उसका मूलाधार है. मानव और उसकी
बुद्धि भी परिवर्तनीय है. बुद्धि कल्याणकारी होगी तो सुख, नही तो दुःख
होगा. कोई भी विचार केवल आर्थिक नही होता, उनके शैक्षणिक, सांस्कृतिक
तथा राजकीय भी परिणाम होते है. किसी भी विचारधाराओं का विचार करते समय उसके
सामाजिक सभी अंगों पर ध्यान देना जरुरी है. दुनिया के हर धर्म सर्वांगीन
रहे. उनका समाज पर सर्वांगीन असर हुआ. वह कभी सही तो
कभी गलत भी रहा. विश्व में कई व्यक्तियो ने सुख के रास्ते बताएं. आजसे करीब २५७६
साल पहले (इ.सा.पू. ५६३ में) सिद्धार्थ गौतम बुद्ध का जन्म हुआ. उनकी निति वैज्ञानिक,
जनतांत्रिक और कल्याणकारी रही. आज से २०१३ साल पहले जेरुसलेम में येशु ख्रिस्त
का जन्म हुआ. मुहम्मद पैगम्बरने (मृत्यु-इ.सा. ६३२) पुरोहितों और सामंतो के
खिलाफ लड़कर शोषितों का शासन प्रस्थापित किया.
जर्मनी में सन १८१८ में कार्ल मार्क्स का उदय हुआ. उन्होंने काफी धर्मों का अध्ययन किया, जिसमे ईसाई और मुस्लिम धर्म प्रमुख रहे. उन्होंने अपने अध्ययन से यह निष्कर्ष निकाला की हर ‘धर्म’ के ठेकेदार ईश्वर के जरिए भक्तों का आर्थिक शोषण करने में मदत करते है. उसके पोप, मुल्ला, पंडित आर्थिक विषमता को बढ़ावा देने के लिए स्वर्ग-नरक की लालच या डर बताकर लोगों को वास्तविक जीवन से गुमराह करते रहे. हर धर्म कार्ल मार्क्स के नज़रों में “अफीम” रहा. सन १८८३ में उनके प्रेरणा से ही रूस (रशिया) में पुरोहितों का मजहबी शोषण और सामंती झारशाही ख़त्म हुयी. आगे चीन का सन १९३६ में ७७% अफीमी (महायानी, हिन्दू) विचारों का खात्मा किया. अभी-अभी युगांडा में “आर्थिक क्रांति” हुयी, जिसमे ‘इदी अमिन’ नामक शासक ने सभी निजी उद्दोगों का राष्ट्रीयकरण किया. अभी-अभी सामंती, आतंकी गदाफ़ी को गोलियों से भुना व शोषित जनता ने उनके शासन पर धावा बोला.
बाबासाहब आंबेडकरने “गोलमेज परिषद” में कहा था, जब भी स्वतंत्र भारत का संविधान बनेगा वह “एक व्यक्ति, एक मत” के साथ “एक व्यक्ति, एक मूल्य” के पायाभूत सिद्धांत पर निर्भर हो, जिससे “आर्थिक जनतंत्र” की बहाली हो, इस क्रान्तिकारी भूमिका का आग्रह किया था. वही उनके जीवन का अंतिम उद्धेश रहा था, उसे विशद करने के लिए सन १९४६ में भारत का संविधान कैसा हो? इस विषय पर एक “प्रारुप” लिखा, जो बाद में भारतीय कांग्रेसी नेताओं के सामने चर्चा के लिए दिया गया. पर भारतीय शोषित-पीड़ित लोगों के हितों को दुर्लक्षित करते हुए उसे भुला दिया गया. अकेले बाबासाहब आंबेडकर के मतों से वह क्रान्तिकारी विचार भारतीय संविधान के धारा के रूप में पास नही हो पाए. दिनांक १७ दिसंबर १९४६ के संविधान सभा में भी बाबासाहबने “आर्थिक जनतंत्र” का ही जिक्र और आग्रह किया. फिर भी केवल मनुवादी, कांग्रेसी नेताओं के विरोध के कारण भारत में “राज्य समाजवाद” नही आ सका. जिसका नतीजा आज भारत में अमीर और गरीब वर्ग है.
संविधान सभा में दिनांक १९ नवम्बर १९४८ को बाबासाहबने और आर्थिक जनतंत्र की पेशकश की, “राजनैतिक जनतंत्र को प्रतिपादित करते हुए हमारी यह भी इच्छा है कि, आर्थिक जनतंत्र को आदर्श स्वरुप प्रतिपादित किया जाना चाहिए....इस संविधान सरकार के घटकों के सम्मुख भी एक आदर्श रखना चाहता है. वह आदर्श है, “आर्थिक जनतंत्र” का, मेरे ख्याल में इसका अर्थ है – “एक व्यक्ति, एक मूल्य.” भारत आझाद होने पर उनके सत्ता और संपत्ति का मसला छुड़ाने के बारे में कहीं मतभेद थे, हिन्दू और मुस्लिम इन विषय पर एक नही हो सके इसलिए देश का विभाजन हुआ. जिन्हा और गाँधी के विचारों में यह मतभेद कायम रहा. एकसंघ भारत के लिए गाँधी अपने विरोधक जिन्हा को नही समझा सके तथा सवर्ण हिन्दुओंने अपने अड़ियल धोरण के वजह से जिन्हा को हिन्दुओं के साथ रहना सही नही लगा.
दिनांक १४ अगस्त १९४७ में धार्मिक आधार पर अंग्रेजों के सत्ता और संम्पत्ति का बटवारा हुआ. जो मुस्लिम लोग जिन्हावादी थे वे पाकिस्तान गए और गाँधीवादी मुस्लिम लोग भारत में रहे. किसी भी धार्मिक अल्पसंख्याक व्यक्ति पर आझाद भारत में अन्याय हो इस विचार के बाबासाहब थे. इसलिए उन्होंने “स्टे्ट एंड माइनॉरिटीज़” के अपने राज्य समाजवादी धोरण को गाँधीवादी कांग्रेस के नेताओं के सामने विचार करने के लिए रखा पर उसका नतीजा निराशाजनक रहा. जबतक हिन्दू मेजारिटी देश में अन्य धार्मिक अल्पसंख्याक लोग सुखी नही रहेंगे, तबतक वे हिन्दुओं के खिलाफ बगावत करते रहेंगे और जनतंत्र के सामने हमेशा खतरा बना रहेगा. उसका नतीजा यह होगा की हमारा देश और किसी दुसरे किसी देश के गुलामी में चल बसेगा. देश में दुबारा देशी-विदेशी गुलामी न रहे. सभी को न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुभाव जीवन के हर स्तर पर प्राप्त हो, इस दृष्टी से बाबासाहब के प्रयास थे.
वर्णवादी मोहनदास गांधीने मुस्लिमों को ज्यादा हिस्सा दिया इसलिए उन्हें भारत का दुश्मन समझकर भारतीय सवर्ण ब्राह्मणों के संघटन आर.एस.एस के माध्यम से उन्हें ३० जनवरी १९४८ को नाथूराम घोडसे के जरिए मारा गया. बाबासाहब आंबेडकर अखंड देश के साथ थे. तिलक का सपना “स्वराज” था पर बाबासाहब का सपना “सुराज” प्रस्थापित करना था. भारत को आदर्श जनतंत्र देना बाबासाहब का सुरु से ही प्रयास रहा. इसलिए भारत को “सुराज” बनाने के प्रयास सुरु किये थे. हर व्यकीने अपने चुने प्रतिनिधियों के जरिए अपनी सत्ता प्रस्थापित करना चाहिए तथा अंगेजों के संपत्ति का सामान बटवारा होना चाहिए, इस विषय पर उन्होंने अपना मत दिया था की जनता में संपत्ति बांटने के बजाए सभी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण किया जाए.
बाबासाहब आंबेडकरने “राज्य समाजवाद” को निम्नलिखित शब्दों में स्पष्ट किया था, “राज्य समाजवाद योजना में, राज्य के प्रभुत्व में, सामूहिक ढंग की खेतीबाड़ी के साथ कृषि और औद्धोगिक क्षेत्र में, संशोधित रूप में, राज्य समाजवाद की स्थापना की गयी है. इस योजना में कृषि और उद्धोग में, पूंजी लगाने का दायित्व राज्य पर सोंपा गया है. राज्य द्वारा पूंजी लगाए बगैर न भूमि और न ही उद्धोग बेहतर उत्पादन दे पाएंगे. इसमें बिमा राष्ट्रीयकरण की प्रस्तावना दोहरे उद्धेश से की गई है. राष्ट्रीयकरण की हुई बिमा कंपनी एक निजी बिमा कंपनी की तुलना में व्यक्तिगत धन के सुरक्षा की गारंटी अधिक देती है. राज्य विमा कंपनी, चाहे कैसी भी परिस्थितिया हो, धन लौटाने का पूरा उत्तरदायित्व लेती है. इसमें व्यक्ति को किसी प्रकार का भय नहीं रहता है. राज्य के पास बिमा कंपनी द्वारा नियमित एक निश्चित पूंजी आ जाती है, जिसे वह अपने औद्धोगिक कार्यों में लगा सकता है, अन्यथा राज्य के खुली बाजार से पूंजी लेनी पड़ती है, जिसके ब्याज की दरे ही बहुत ऊँची होती है. अता राज्य को घाटा उठाना पड़ता है. भारत में, तेजी के साथ औद्धोगिकीकरण के लिए “राज्य समाजवाद” अति आवश्यक है.” (डॉ. आंबेडकर और भारतीय संविधान; लेखक- एल. आर. बाली; दूसरा संकरण, पृष्ट-४९-५०)
भारतीय संविधान में कांग्रेसी प्रयास से ‘धारा-३१’ (काली धारा) के तहत संपत्ति को व्यक्ति का मौलिक हक़ दिया गया. व ‘धारा- २४’ के तहत संपत्ति का मुहवजा दिए बगैर नही छिना जा सकता. व्यक्ति को उसके संपत्ति का मुहावजा दिए बिना नही छीन सकती. सरकार व्यक्ति के सामने अपाईज बनी. इन दो धाराओं के जरिए पूंजीवाद को जन्म दिया. जिससे आर्थिक विषमता को बढावा मिला. इसे बाबासाहब कांग्रेसी बहुमतों का नतीजा मानते रहे. कांग्रेस का पाप वे अपने सिर ढोने को और तयार नही थे. इसी वजह डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर अपने ही हातों से भारतीय संविधान को ही जलाना चाहते थे. जो संविधान आर्थिक विषमता को पैदा करता है, वह अब ९९% गरीबों के लिए किस काम का है? उसके समाप्ति के बगैर भारत में ‘आर्थिक जनतंत्र’ आना असंभव है. बिना आर्थिक जनतंत्र के भारत में सार्वजानिक जनकल्याण असंभव है.
अमरीका के १६ वे राष्ट्राध्यक्ष अब्राहम लिंकनने कहा था, “जब आवाज उठाने की जरुरत होती, तब जो लोग चुपचाप बैठते, वे डरपोक होते है और वे डरपोक लोगों की ही फ़ौज बनाते.” तो सुप्रसिद्ध निग्रो क्रांतिकारक मार्टिन ल्युथर किंगने कहा था, “दुर्जनों के दुष्ट और बुरे कर्मों से सज्जनों का मौन अधिक धोकादायक होता है क्योंकि वह दुष्ट कर्मों के लिए ही मौन सम्मति होती है.” तो डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर (सन-१८९१-१९५६) का कहना था, “गुलामों को गुलामी का अहसास करा दो, फिर वही अपने गुलामी की बेड़ियों को तोड़ने के लिए बगावत करेंगे.” तथा संविधान सभा में बाबासाहबने कहा था, “जो लोग आर्थिक विषमता के शिकार है, वे ही लोग बढ़े मेहनत से बनाए इस “राजकीय जनतंत्र” की धज्जिया उडाएंगे. वह दिन भारत के इतिहास में सबसे दुखदायी होगा.”
डॉ. बाबासाहब आंबेडकरने ख्रिश्चन, ईस्लाम, हिन्दू, शिख और जैन धर्म का अध्ययन कर उसमे ईश्वर, भगवान, अल्ला, आत्मा परमात्मा, पूजा-पाठ और स्वर्ग-नर्क की अवैज्ञानिक विचारधारा देखी तथा कार्ल मार्क्स के साम्यवाद में हिंसक तानाशाही को पाया. उन्हें न धर्मो के पास ‘जनतंत्र’ दिखा और न ‘साम्यवाद’ में. हर धर्म के ठेकेदार ईश्वर के शासन की वकालत करते है, जो तानाशाही से लिप्त है तथा जो अधार्मिक साम्यवाद है. उनमे भी जनतंत्र का अभाव पाया. इसलिए उन्होंने ‘सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय’ इस कल्याणकारी नैतिकता (धम्म) का राश्ता अख्तियार किया. गरीब लोगों को आर्थिक समता के लिए धम्म में सम्मिलित किया.
धर्म बनाम धम्म क्यों है? डॉ. बाबासाहब अम्बेडकरने (‘इनसायक्लोपीडिया ऑफ़ रिलिजन एंड इथिक्स’, वालुम-१०, पेज-६६९ के हवाले से) बुद्ध विचारों को तात्विक और वैज्ञानिक होने से धम्म कहा, मगर धर्म नही. इसका मतलब निती, न की रिलिजन या धर्म नही.. बुद्ध के विचार ईश्वर, आत्मा, स्वर्ग-नरक, पूजापाठ के खिलाफ होने से वे धर्म, रिलिजन के परिभाषा में सम्मिलित नही किया जा सकता, ऐसा बाबासाहब का ही तर्क रहा था. उन्होंने जो महत्वपूर्ण ग्रन्थ लिखा उसका शीर्षक “द बुद्ध एंड हिज रिलिजन” के बजाए “द बुद्ध एंड हिज धम्म” इसी कारण रखा. धम्म का मतलब ‘धर्म’ नही, निती है, आर्थिक जनतंत्र है, आदर्श जनतंत्र है.
बाबासाहब अम्बेडकरने दिनांक १५ अक्टूबर १९५६ को नागपुर के अपने भाषण में कहा, “धम्म की जरुरत गरीबों को है. धम्म की जरुरत पिडित लोगों को है. गरीब व्यक्ति आशाओं पर जीता है. Hope! जीवन का मूलाधार आशाएं है. अगर आशा ही नष्ट हुयी तो जीवन कैसा होगा? धम्म आशावादी बनाता और गरीबों को सन्देश देता है, ‘बिलकुल मत डरों, होगा, जीवन आशादायी होगा......इसके विपरीत धर्मों का कहना है, ईश्वर ने सृष्टि, आकाश, वायु, सूरज, चाँद आदी सभी कुछ निर्माण किया. हमें ईश्वर ने कुछ भी और बनाने के लिए बाकी नही रखा, इसलिए ईश्वर की हमने आराधना करनी चाहिए. ख्रिश्चन धर्म के अनुसार तो मृत्यु के बाद एक “निर्णय का दिन” होता है. उसी दिन के निर्णय के अनुसार सभी कुछ तय होता है, उससे ही कोई स्वर्ग या नर्क में जाते है.
“बुद्ध धम्म में ईश्वर और आत्मा को कुछ भी जगह नही है. बुद्धने बताया विश्व में सभी ओर मानव निर्मित पीड़ा है. ९०% लोग उसके पिडित है. पिडित गरीब लोगों को मुक्त करना बौद्ध धम्म का मुख्य लक्ष है. तथागत बुद्ध के अलावा कार्ल मार्क्सने नया और क्या बताया? बुद्धने जो “सम्यक” तत्वज्ञान बताया उसे ही कार्ल मार्क्सने अलग ढंग से बताया. हमसे हुआ तो धम्म के जरिए हमारे साथ केवल भारत देश का ही नही तो पुरे विश्व का भी उद्धार करेंगे..... बुद्ध का यह नया मार्ग बहुत जवाबदेहि है. हमने कुछ संकल्प किया है, उसे युवकों ने ख्याल में लेना चाहिए. उन्होंने केवल स्वार्थी नही बनना चाहिए तो ‘अपने कमाई का २०% हिस्सा धम्म कार्य में दूंगा,’ ऐसा संकल्प करना जरूरी है. मुझे सभी को बराबर लेना है.”
विश्व के राजनैतिक विचारक ‘भारतीय जनतंत्र’ की ओर बड़े आशा के साथ देखते आ रहे है. आधुनिक भारत का जनतंत्र बुद्ध विचारों की केवल राजकीय उपज है. इसलिए यह “आदर्श जनतंत्र” नही, उसे “आदर्श” बनाने के लिए “आर्थिक जनतंत्र” की जरुरत है. विश्व में पूंजीवादी सरकारों के जरिए मुनाफाखोरी, बेरोजगारी, महंगाई, भुकमरी, अशिक्षा, असुरक्षा, आतंकवाद, नक्षलवाद पनप रहा. केवल भारत में ही नही तो पुरे विश्व में “आर्थिक जनतंत्र” की जरुरत है. पर भारतीय भूमि “आदर्श जनतंत्र” के लिए उत्तम उपजाऊ है. क्योंकि यहाँ पर “राजकीय जनतंत्र” से उसकी मशागत हो चुकी है. भारतीय लोग “जनतंत्र” के आदि हो रहे है. जिस देश में राजकीय जनतंत्र या धम्म है, उस देश में “आर्थिक जनतंत्र” को कायम करना बहुत ही आसान कार्य है. अभी महंगाई की मार अमीरों को नही, लेकिन गरीब लोगों को जरुर महसूस हो रही है. अनाज के अभाव में उत्तर कोरिया के नरभक्षी (आदमखोर) प्रथा का उदय हुआ, वैसी स्थिति भारत में न हो, इसलिए गरीबों के समस्याओं पर सरकारने विशेष ध्यान देने की बहुत जरुरत है. अन्यथा आदमखोरी निर्माण होने से किसी कोई भी सरकार नही रोक सकती. “आर्थिक जनतंत्र” के बिना सभी प्रयास विफल है.
आन्दोलन क्या है? जाती व्यवस्था के शोषित-पीड़ितों
को उस हद तक जागृत करना की वे स्वयं अन्याय के खिलाफ बगावत पर नही उतरते. उन्हें
उनके हकों से अवगत करना. उसके प्राप्ति के लिए समय-समय पर कार्यक्रम देना, उसे
नियंत्रित करना. हमारी मुख्य मांग भारत में “आर्थिक जनतंत्र” की है और उसके अवरोधी
“भारतीय संविधान की “आर्थिक विषमता को बढ़ावा देनेवाली धाराए- २४ और ३१; धार्मिक विषमता को बढ़ावा देनेवाली
धारा- २५ तथा जातीय विषमता को बढ़ावा देनेवाली धारा- ३४०, ३४१ और धारा- ३४२” को
निरस्त किया जाए”. हमारा आन्दोलन राजकीय या धार्मिक नही है, जातिवादी है पर उससे
कम भी नही है, शांतिमय और जनतांत्रिक ढंग से, सन २०१७ तक, इस आन्दोलन का उद्धेश
पूरा करना, करवाना हमारा निश्चित ध्येय है. हमें पुरी आशा है की, शोषित-पीड़ित जनता
इस आन्दोलन के साथ जुडकर, हमारे साथ कंधे से कंधे मिलाकर, अपने हकों व सुखों के
प्राप्ति के लिए सहयोग देंगे.
आर्थिक जनतंत्र ‘जनआंदोलन’ से क्या फायदा होगा? विश्व के हर व्यक्ति को उत्तम १. अनाज, २. कपडे, ३. मकान, ४. शिक्षा, ५. आरोग्य, ६. मनोरंजन तथा ७. रोजगार की जरुरत है. क्या विश्व की कोई भी पूंजीवादी सरकार इसे बहाल करने में सक्षम है? संपत्ति धारण करने का हक़ हर व्यक्ति को मालक बनाता है, इससे अगर कुछ लोग मालिक है, तो कुछ निर्धन लोग गुलाम होते है. क्या मालक और गुलाम के रिश्तों में न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारे के नैतिक मूल्य पाए जाते है? हजारों सालों से मानवीय समाज संपत्ति के मालिकाना हक्कों को पाने के लिए हमेशा संघर्षरत रहा है. आदर्श नैतिक मूल्यों को शोषको ने हमेशा नकारा, उसका नतीजा विश्व में दुःख की बढौतरी हुयी है.
वर्णव्यवस्था अब व्यापार के रूप में जीवित है. मुनाफाखोरी से ही आर्थिक शोषण और विषमता बढ़ी है. उत्पादन के सभी साधन सरकारी हो. सभी लोग सरकार के अधीन निर्धारित काम ईमानदारी से करे. सरकार उन्हें उचित मोबदला दे. खाजगी शोषण के सभी दरवाजे बंद हो. इसे नकारनेवालों को जल्दी से जल्दी उचित और कठोर सजा मिले. सहकारी ढंग से मानवीय समाज में व्यवहार हो. व्यक्ति संपत्ति (पैसे) का गुलाम न बने. पैसा व्यक्ति का गुलाम रहे. पैसे से प्यार, समता, न्याय नही खरीद सकते. पैसा इंसानियत से बढ़कर नही. पैसे के लिए मानवी मूल्यों का ध्वंस करना, गुनाह है. आर्थिक जनतंत्र में व्यक्ति के सामने पैसा, संपत्ति दुय्यम है, न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुभाव ही अहम् है.
आर्थिक
जनतंत्र को कायम करने से....!
१.
जमीन, उद्योग, तथा बिमा का राष्ट्रीयकरण होगा.
२.
अनाज, वस्त्र, निवारा, आरोग्य, शिक्षा, मनोरंजन व रोजगार की पूर्ति व सुरक्षा मिलेगी.
३.
हर व्यवहार सहभाव, सहकार से चलेगा, न की निजी मुनाफे से.
४.
सभी के लिए मर्यादित किन्तु परिवर्तनीय “समान वेतन आयोग” होगा.
५.
‘एक देश, की एक भाषा’ होगी, जिससे राष्ट्रिय भाईचारा बढेगा.
६.
‘समान नागरी कानून’ द्वारा जनसँख्या नियंत्रण किया जायेगा.
७.
राष्ट्रीयता, मानवतावाद, पर्यावरण सुरक्षा, वैज्ञानिक विषयों पर शिक्षा
का प्रचार होगा.
८.
जातिवाद, वर्णवाद, वंशवाद, भ्रष्टाचार, नक्षलवाद तथा धार्मिक आतंकवाद
ख़त्म होगा.
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