विश्व में आर्थिक शोषण के विरुद्ध कार्ल मार्क्स खड़े हुए. गरीबों के रहनुमा के नाम से उन्हें नवाजा गया. मजदुर वर्ग यह मेहनतकश वर्ग कार्लमार्क्स के पीछे गया. रशिया में झार शाही के खिलाफ उन्होंने अपना मोर्चा खोला. उसमे वे विजयी हुए. लेनिन ने उसमे काफी म्हणत ली. उनकी देखा देखि करके चयन के मेहनतकश वर्ग भी इकट्टा हुए और उन्होंने वहां पर भी झेंडा गाढ़ा.
चाइना यह चाहता है की भारत में भी माओवाद का झंडा ऊँचा रहे इसलिए वह "नक्षलवाद" को अन्दर से सहयोग दे रहा है. जहाँ पे भी गरीबी और शोषण सुरु है ऐसे ही जमीं में माओवाद फलता है, फूलता है. भारत आझाद होने के बाद यहाँ पर बढ़ता हुआ धार्मिक और उनके जरिए आर्थिक शोषण माओवाद को जड़े कायम करने के लिए उचित साबित हुआ.
जातिवाद यह धार्मिक शोषण बहुत पुराना शोषण रहा है. जिसे ख़त्म करने के लिए आझादी के बाद कांग्रेस सरकारने कोई भी कार्य नहीं किया, वर्णवादी अर्थनीति को बढ़ावा दिया. जो लोग वर्ण से ऊँचे थे वे ही ज्यादा पैमाने में आमिर, धनवान बने, उनके ही हाटों में शासन, प्रशासन, न्याय व्यवस्था और मिडिया है. जो मजलूमों की चीखे हमेशा दबाते रहा है.
भारत से धार्मिक और आर्थिक शोषण ख़त्म करने के लिए भारत सर्कार अगर कुछ भी उचित कार्य नहीं क्र रही है. और शिर्फ़ बन्दुक के जरिए अगर बरिबों की चीखे दबाना चाहती है, तो यह नक्षलवाद को ख़त्म करने का उचित रास्ता नहीं है. इससे नक्षलवाद ख़त्म तो नही होगा, बल्कि नक्षलवाद और भी बढेगा. यह दिमागी जंग नहीं तो बारूदी, बन्दुखी जंग सुरु होगी, जिसमे निरपराध काफी लोगों को अपने जानों की क़ुरबानी देनी पड़ेगी.
कहते है की मनमोहन सिंह जो भरत के प्रधान मंत्री है, वे "अर्थशास्त्रज्ञ" है. कांग्रेस में हमेशा अर्थ मंत्री और कहीं बार प्रधान मंत्री होते हुए भी भारत में गरीबों की समस्याए कैसे बढ़ी? जीडीपि बढ़ने से गरीबों के शोषण से मुक्ति हुयी है? कुछ लोग कहते है की भारतीय लोगों का जीवन स्तर बढ़ा है. पर कितिने प्रतिशत लोगों का? केवल मुत्तिभर १०५% लोगों का जीवन अगर सुधर है तो बाकि ९०% गरीबों को उसका क्या फायदा?
गरीबी केवल आदिवाशी में ही नहीं है. जहाँ जहाँ गरीबी है वहा वहां नक्षलवाद फ़ैल सकता है. क्या सिर्फ आदिवाशियों का ही देश में शोषण चालू है? मुझे तो अर्थ शास्त्र के प्रधान मंत्री के अध्ययन पर ही संदेह हो रहा है. आर्थिक शोषण को ख़त्म किये बगैर नक्षलवाद ख़त्म कैसे होगा? शोषण को बढ़ावा देकर क्या नक्षलवाद को ख़त्म किया जा सकता है?
गरीबी हटाओ, अमीरी हटाओ अर्थात "आर्थिक जनतंत्र" को लागु किए बगैर, भारतीय संविधान की "धारा- ३१" को निरस्त किये बगैर भारतीय राजकीय जनतंत्र के सामने नक्षलवादी, आतंकवादी संघर्ष कायम रहेगा. बाबासाहब आंबेडकर ने पहले ही राजनेताओं को हिदायत दी थी की उन्होंने शिग्र ति शिग्र "आर्थिक जनतंत्र" को कायम करने के लिए प्रयास करना चाहिए, अन्यथा राजकीय जनतंत्र को ख़त्म करने के लिए शोषित लोग ही प्रयास करेंगे.
बाबासाहब के वचनों पर कांग्रेस ने हमेशा दुर्लक्ष किया जिसका यह नतीजा है की कार्ल मार्क्स के चेले, माओवादी लोग भारत के जनतंत्र को ख़त्म करके भारत में "साम्यवाद" को, उनके तानाशाही को कायम करना चाहते है. इसमें दोष साम्यवादी लोगों का नहीं है तो भारतीय जातिवादी राजकीय नेताओं का है, जो सिर्फ अमीरों की राजनीती करते जा रहे है.
सभी अमिर भी इकट्टा हो गए तो भी साम्यवाद का अंत अगर रशिया से, बाद में चायना से नहीं कर सके तो इसके बाद भारत से कैसे कर पाएंगे? मनमोहन सिंह नमक भारतीय प्रधान मंत्री ने अपने धमंड को दूर करके बाबासाहब के आर्थिक विचारों पर अमल करने के लिए उचित कदम उठाए. अन्यथा परिस्तिथि और भी बिघड सकती है.
समय रहते हुए बाबासाहब के विचारों पर अमल होनी चाहिए. चाहे सर्कार किशी भी पार्टी का क्यों न रहे, जबतक भारत में मार्क्स के नजरों में धार्मिक "अफु" को नष्ट नहीं किया जायेगा तथा आर्थिक गरिबबरी को नष्ट नहीं किया जायेगा, नक्षलवाद आतंकी हमले करते रहेगा, जो बढे मुस्किल में प्राप्त हुए राजकीय जनतंत्र को खोखला करते रहेगा.
अगर नक्षलवादी जन्तात्न्त्रिक विचारों पर नहीं चलते है. तो वह उनका दोष है, पर क्या सर्कार जनतांत्रिक मूल्यों को भारत में बढाने के लिए कुछ उचित कार्य कर सकी? क्या वह जातिवाद ख़त्म कर सकी? क्या जातिवाद आतंकवाद नहीं है? जातिवाद यह केवल हिन्दुधर्म पर ही कलंक नहीं है तो वह भारतीय जनतंत्र पर भी कलंक है. क्या भ्रष्टाचार करना, करवाना जनतांत्रिक कार्य है? यह भी एक गैरबराबरी का दूसरा नाम है, जो मजलूमों के शोषण को सही साबित करते रहता है. सबसे पहले
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