हिन्दू पर गर्व कर रहे है तो दुसरे मुस्लिम पर गर्व करेंगे, तीसरे शिख पर गर्व की बाते दोहराएंगे और बाद में ख्रिचन, जैन, बौद्ध, इसाई तो भारत में धार्मिक दंगे होने से कोई रोक सकते? हिंसा से शांति कबतक करना चाहिए? अगर विचार करने के लिए समय ही नही देता तब हिंसा जरुरी है... पर हमने संकुचित विचारों पर गर्व करने या न करने के बारे में दुबारा सोचना चाहिए, तीसरी बार भी सोचना चाहिए, नहीं तो चीन और पाक का संकट कभी भी हावी होगा.
नफरत को नफरत से नही तो मुहबत से जीता जा सकता है, नफरत नादानी है और मुहबत हौसीयारी है, कोई अगर निर्लज है तो उसके जैसा ही होना चाहिए यह सोच हमारी नही तो हम जिसका विरोध करना चाहते है उसकी है, हम दुसरे के विचारों के आदि होते है, फिर हमारी खुद की क्या विचारधारा है, हमारा क्या उद्धेश है? तलवार की जुबान इन्सान को मिटा देगी, हो सकता है उसमे हिन्दू ही ज्यादा मारे जाए...
हिन्दू बहादुर होते तो मुस्लिमों को भारत में आने से रोख सकते पर वैसा नही हुआ, बातों में बहादुर होना और हकीकत में बहादुर होना इसमें फर्क है, हिन्दू लोग विभक्त है, जातियों में विभक्त है, क्या जित पायेगी? आझादी के पहले से सावरकर साहब ने हिन्दुधर्म की वकालत की पर सत्ता से उनकी पार्टी (बीजेपी) हमेशा दूर रही, क्यों? उसका नतीजा "अल्पमत" ... गर्व बेकार है, बाजी कब कौन मारेगा, इसकी कोई ग्यारंटी नही... क्या मराठी के मुद्दे पर राज और शिवसेना एक है? कहा गया गर्व?
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