शनिवार, 12 सितंबर 2020

धम्मक्रांति का जनतांत्रिक सफ़र - 3

सिद्धार्थ गौतम बुद्धने ईसापू- ५२८ में “अश्विन शुद्ध पूर्णिमा” के दिन सारनाथ (वाराणसी, काशी) के ॠषिपत्तन, मृगदाव बन में ब्राहमण संन्याशी १. कौण्डिन्य, २. वप्प, ३. भद्दीय, ४. महानाम, और ५. अश्वजित को क्षेम कुशल पूछने के बाद धम्म प्रवचन दिया जो “धम्मचक्र परिवर्तन सूत्र” में मौजूद है. तथागत गौतम बुद्ध ने पांच ब्राह्मण सन्यासियों को धम्म का प्रथम सन्देश दिया, “अनादी काल से ... (चातुर्वर्ण्य व्यवस्था को चलाने के लिए ब्राह्मणों द्वारा ईश्वर, आत्मा, यज्ञ, पूजा, पाप-पुन्य, स्वर्ग, नरक की बेबुनियाद कल्पना चल रही है जिसका व्यक्ति और समाज के हितों से कोई भी रिश्ता और लगाव नहीं है, उसे कुछ मुट्टीभर लोगों के हितों में बढावा दिया जा रहा है. जो नही होना चाहिए. इसलिए ... )
“भिक्षुओं! “कामवासना” और “शरीरपीड़ा” इन दो के अतियों को नही अपनाना. मैंने नया मध्यम मार्ग खोज निकाला है, जो नई दृष्टी देनेवाला है. वह यही “आर्य (परम) अष्टांगिक मार्ग” है. जैसे की “सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प.....सम्यक स्मृति, सम्यक समाधी.

“मेरे धम्म का उद्देश विश्व की निर्मिती करना नही है, उसकी पुनर्रचना करना है, बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, लोकानुकम्पाय, आदि कल्याण, मध्य कल्याण और अन्त्य कल्याण करना है तथा जो असामान्य (ब्राह्मण, देव (मुनि), बुद्धिमान) और सामान्य (श्रमण, गृहस्थ, अनाड़ी) इन लोगों के लिए सुखकर है...वह दुख निरोध गामिनी, प्रतिपदा परम सत्य, “आर्य अष्टांगिक मार्ग” है.” वह इस प्रकार है.
१. सम्यक दृष्टि: सम्यक दृष्टी यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ठ, (मध्यम) आदर्श विचार है. यह “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति के महत्तम, मुलभुत “आदर्श विचार” है.
सम्यक दृष्टी में निम्नलिखित पांच महत्वपूर्ण सिद्धांत है.
अ. प्रतित्यसम्मुत्पाद- कारणों से ही कार्य होता, विज्ञान कार्य है, तो उसकी जड कारण है.
१. अज्ञान – सहवास – परिवार, सहजीवन, स्त्री-पुरुष
२. संस्कार – गर्भ – चार महाभूत – पृथ्वी, आप, तेज, वायु
३. विज्ञान – चेतना – जागृत मन, चित्त
४. नामरूप – सजीव – सप्त धातु – रस, रक्त, मांस, मज्जा, अस्थि, मेद, वीर्य
५. षडायतन – इन्द्रिय – मस्तिष्क, आँखे, कान, नाक, जिन्हा, त्वचा
६. स्पर्श – जन्म – विचार, आहार, विहार, संशोधन, संयोग
७. वेदना – तर्क – समझ, देखना, सुनना, सूंघना, चव, संवेदना, सुख, दुःख, पीड़ा
८. संज्ञा – व्याख्या – पहचान. कुशल, अकुशल, योग्य, अयोग्य
९. उपादान – निषेध – तृष्णा, इच्छा के कारणों को मिटाकर इच्छा पूर्ति करना
१०. भव – समाज – रिश्ते, नाते, माँ, बाप, भाई, बहन, पडोसी, मित्र, शत्रु, संसार
११. जाती – विकास – गॉव, शहर, देश, दुनिया में प्रसिद्धी
१२. दुःख – मृत्यु – महाभूतों का विलग, इच्छाओं का अंत, बदल, रोना, हँसना, शोक अज्ञान से संस्कार, संस्कार से विज्ञान, विज्ञान से नामरूप, नामरूप से षडायतन, षडायतन से स्पर्श, स्पर्श से वेदना, वेदना से संज्ञा, संज्ञा से उपादान, उपादान से भव, भव से जाती, जाती से जन्म और जन्म से मृत्यु के कारण बताए है. व्यक्ति बिना कारणों से नही तो बहुत कारणों से ही बना है, बनता है और बिघड़ता भी है.
ब. अनित्य - पदार्थ नित्य नही है. वैसा ही व्यक्ति में भी पलपल परिवर्तन होता है. पदार्थ नित्य कैसा?
क. अनात्म - आत्मा नही है. आत्मा न होने से व्यक्ति अमर, अजर, अविनाशी कैसा? आत्मा कहा है?
ड. अनीश्वर - ईश्वर नही है, व्यक्ति को माँ-बाप ने बनाया. बिना कारण ईश्वर की घटना सम्भव कैसी?
इ. अ-सर्वज्ञ – संसार में कोई भी व्यक्ति बुद्धी से सर्वज्ञ नही, परिपूर्ण नही है. तो ईश्वर सर्वज्ञ कैसे?
२. सम्यक संकल्प :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श हौसला है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति का महत्तम, मुलभुत “आदर्श निर्धार” है.
३. सम्यक वाचा :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श वाणी है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति की महत्तम, मुलभुत “आदर्श संवाद” है.
४. सम्यक कर्म :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श कार्य है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति का महत्तम, मुलभुत “आदर्श कार्य” है.
५. सम्यक आजीविका :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श आचरण है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति का महत्तम, मुलभुत “आदर्श आचरण’ है.
६. सम्यक व्यायाम :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श आदत है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति का महत्तम, मुलभुत “आदर्श प्रयास” है.
७. सम्यक स्मृति :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श स्मरण है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति का महत्तम, मुलभुत “आदर्श स्मरण” है.
८. सम्यक समाधी :- यह उच्च, उचित, परम, श्रेष्ट, (मध्यम) आदर्श एकाग्रता है. यह “बहुजन हिताय- बहुजन सुखाय” के उद्धेश पूर्ति की महत्तम, मुलभुत “एकाग्रता” है. (मन लगाकर काम करना)
सम्यक दृष्टी और सम्यक संकल्प से “न्याय”; सम्यक वाणी और संम्यक कर्म से “स्वतंत्रता”; सम्यक आजीविका और सम्यक व्यायाम से “समता” तथा सम्यक स्मृति और सम्यक समाधी से “भाईचारा” का बोध होता है. जनतंत्र के लिए काफी उद्बोधक यह क्रान्तिकारी नैतिक मूल्य है, नैतिक कृति है. उसी प्रकार सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प से प्रज्ञा; सम्यक वाचा, सम्यक कर्म, सम्यक आचरण से शील तथा सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधी से “करुणा” प्रकाशित होती है. गौतम वर्ण व्यवस्था के खिलाफ हमेशा चिंतित रहे, उनके विनाश के लिए नए अहिंसक रास्ते की तलास करते रहे, चिंतन से जो ज्ञान प्राप्त किया. उन्हें वही ज्ञान, वर्ण व्यवस्था से लड़ने के लिए पर्याप्त लगा. उसपर ही वे समाधानी हुए, उसी ज्ञान के मदत से उन्होने ब्राह्मणों के ज्ञानदान कार्य पर अतिक्रमण किया.
‘वासेट्टा सुत्त’ में बुद्ध वशिष्ट और भारद्वाज से चर्चा में चातुर्वर्ण्य व्यवस्था की पोल खोलते है, “प्राणियों की जातियों में एक दुसरे से जाती भेद है, तृण और वृक्ष में भी जानते हो (इसके लिए) वह प्रतिज्ञा नही करते, जाती का लिंग है, उनमे जातिया एक दुसरे से (भिन्न) है. फिर किट, पतंग से चीटी तक .....जैसा इन जातियों में जाती का अलग अलग लिंग है. इस प्रकार जाती, लिंग मनुष्य में अलग नही है.
........मनुष्य के शरीर में एक (भेदक लिंग) नही मिलता.
........मनुष्य में भेद (सिर्फ) संज्ञा में है.
.......माता और योनी से उत्पन्न होने के कारण मै ब्राहमण नही कहता. जो बिना दूषित (चित्त) किए गाली, बढ़ और बंधन को सहन करता है, क्षमा बल ही जिसके बल (सेना) का सेनापति है, उसे मै ब्राह्मण कहता हूँ. जो अक्रोधी, ब्रती, शीलवान, बहुश्रुत, संयमी (दांत) और अंतिम शरीरवाला है, उसे मै ब्राह्मण कहता हूँ.
.......अज्ञों की धारणाओं में जो चिरकाल से (यह) घुसा हुआ है. जाननेवाले नही कहते – ब्राह्मण जन्म से होता है. जन्म से न ब्राह्मण होता है, न जन्म से अब्राह्मण. कर्म से ब्राह्मण होता है, कर्म से ही अब्राह्मण. कर्म से कृषक होता है, और कर्म से ही शिल्पी. कर्म से ही बतिया होता हैं, कर्म से ही प्रेस्यक. कर्म से ही चोर होता है, योद्धा जीव भी कर्म से. कर्म से याजक होता है, राजा भी- कर्म से प्रतीत्य समुत्पाद दर्शी कर्म विपाक को विद, पंडित इस प्रकार कर्म को यथार्थ से जानते है.” (बापूसाहेब राजभोज इन सर्च ऑफ़ बुद्धिस्ट आइडेंटीटी, लेखक- डॉ. मुंशीलाल गौतम, पृष्ट- १५९-१६०)
बुद्धने कोई ऐसे सवाल बाकि नही रखे है जिसके जवाब उन्होंने नही दिए हो. “दस अव्याकृत बातों” का भी उन्होंने अपने इन दर्शन में उत्तर दिए है. यह “१० बाते” इसलिए अव्याकृत कही गयी थी क्यों की उसका “समाज के पुनर्रचना” से कोई ताल्लुख नही था, उनका ताल्लुख सिर्फ विश्व निर्मिती से था. जो बुद्ध धम्म के उद्धेश विपरीत बाते, थी उस विषय पर क्यों वक्त बर्बाद करना चाहिए? वह “१० अव्याकृत बांते” कोंशी है?
१. क्या लोक (दुनिया) नित्य है?
२. क्या लोक अनित्य है?
३. क्या लोक अन्तवान है?
४. क्या लोक अनन्त है?
५. क्या जीव और शरीर एक है?
६. क्या जीव दूसरा, शरीर दूसरा है?
७. क्या मरने के बाद तथागत (मुक्त) होते है?
८. क्या मरने के बाद तथागत नही होते ?
९. क्या मरने के बाद तथागत होते भी है, नही भी होते है?
१०.क्या मरने के बाद तथागत, न होते है, न नही होते है ?
तथागत बुद्ध ने कहा था, “मालुंक्यपुत्त! मैंने इन्हें .... अव्याकृत (इसलिए).... (कहा) है. (क्योंकि)...यह (इनके बारे में कहना) सार्थक नही, भिक्षु-चर्या (ब्रह्मचर्य) के लिए उपयोगी नही, (और) न यह निर्वेद, वैराग्य, निरोध (शान्ति) ...परम ज्ञान, निर्वाण के लिए (आवश्यक) है. इसलिए मैंने उन्हे अव्याकृत किया. (बौद्ध दर्शन, राहुल संकृत्यायन, किताब महल, १९९२, पृष्ट-३८)
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