हाल ही में लोकसभा के जो नतीजे आये वह चौकानेवाले नही है, उससे काफी लोगों ने आश्चर्य महसूस किया है, क्योंकि उनका देखने का नजरिया गलत था.
१. कांग्रेस का पराभव हुआ उसके कारन कही है जिसमे १. घरानेशाही, २. जनता के साथ वार्तालाभ का अभाव, ३. मिडिया के सामने आने से डरना, ४. भ्रष्टाचारी राबर्ट वाड्रा को साथ देना, ५. सरकारी संश्थाओ पर दबाव बनाना. ५. सामाजिक कल्याणकारी योजनाओ के अमल पर दुर्लक्ष करना, ६. व्यक्तिवादी विचारों को बढ़ावा देना, ६. नामदारी प्रधानमंत्री की नियुकि करना, ७. आंदोलन कर्ताओं को जेल भेजना, ८. भाषण कलाओं को नजरंदाज करना. आदि...आदि.
२. एसपी को उत्तर प्रदेश में बहुमत मिला था तो वह मुलायम के दमपर नहीं, उन्हें बीएसपी के निगेतिव्ह वोट मिले थे, उसके जरिए वे राज कर रहे है पर मिले हुए वोटों को बर्कारत रखने के लिए उन्होंने खास प्रयास नहीं किया, भविष्य में एसपी को भी अँधेरे में गुम होने से कोई भी नही रोख सकते.
३. बीएसपी की तानाशाही नेत्री मायावती अपने जातिवादी मुद्धेपर कायम है, उनके नजर में जातियो का अभिमान ही जनता का कल्याण है. जातिगत गर्व के नसे यह डूबी रही, और भूके लोग जातियों के बेड़ियों को तोड़कर आझाद हुए, उन्होंने अपनी मंजिल ढूंडना सुरु किया, जिसका नतीजा उसे करारी हार मिली.
४. जेडीयू का पतन होने के काफी कारन रहे है जिसमे यह प्रमुख है की उसने नक्षलवादी लोगों मांगों को नजर अंदाज किया. गरीब लोगों ने नक्षलवादी राश्ता अख्तियार करने के पीछे के कारन क्या है? मेरे नजर में गरीबी से तंग आ जाना है, जिनके बलपर मुख्यमंत्री का पद मिला पर उसका उपयोग नक्शली आंदोलन को दबाने के लिए किया, गरीबी मिटाने के लिए उन्होंने कुछ भी कार्य नही किया, अगर आर्थिक आधारपर जनता ने चुनकर दिया और उनके साथ द्रोह किया तो जनता उनको दुबारा क्यों चुनकर देगी?
५. तृणमूल के ममता सरकार ने गरीबों को पनाह देने का कार्य किया जिसका नतीजा गरीबो ने उन्हें साथ दिया.
६. दक्षिण भारत के राजनीती पर हिंदू विचारधारा का प्रभाव है पर नेताओं का नही, क्योंकि हिंदुओं के पिछड़े वर्ग पर रामासामी नायकर, पेरियार के विचार, हावी है, उधर भाषा वाद चलता है, हिंदी बनाम तमिल. दक्षिण में अहिन्दू भाषिक राजनीती का प्रभाव है, जिसपर मोदी/संघ के लहर का असर नही हुआ है.
७ आप यानि आम आदमी पार्टी, जिसके नेता अरविंद केजरीवाल है, उन्होंने अपने पार्टी के अंतर्गत ढांचे में जनतांत्रिक परिवर्तन नही किया, जिससे उस पार्टी पर अरविन्द की तानाशाही चली, एक व्यक्ति के निर्णय नाकाम साबित हुए, भावनाओ से ऊपर उठकर विचारों को बढ़ावा देना चाहिए था पर आप लिखी खुदा बाजी का परिणाम है की कांग्रेस के निगेतिव्ह वोटों और फूस गुजराती विकास को उजागर करने में वे नाकाम हुए. राष्ट्रिय समश्यो पर जनमत बनाने के बजाए वे जमीनी/लोकल मुध्यो में घुलमिल गयी, अन्ना के आंदोलन का फायदा उठाने में वे विफल रहे.
८. लालू के पास जनकल्याण की योजनाए नही है और न वे किसी पारंगत व्यक्तियों का मार्गदर्शन लेना पसंद करते है, केवल समय सुचाकता का ही होना राजनीती में जरुरी नहीं है तो उसके साथ संघठन को चलाने के लिए काफी गुणों की जरुरत होती है जो उसके पास कभी नही रहे है, एक बार चारा घोटाला किया, और अभी परिवाद्वाद को बढ़ावा देने को ही वह जनतंत्र समझने लगे, जनता को वे बेवकूफ समझने लगे थे, जिसका नतीजा उनका पतन हुआ.
९.प्रकाश आंबेडकर ने आर. पि आय. का अर्चम फ़ैलाने के बजाए अपनी पार्टी बनायीं, उन्हें भी वे जनतांत्रिक विचारों से चलाने में नाकाम रहे, उसे वे अपने लिए निजी कंपनी समझने लगे.क्या निजी कंपनी में मजूरों को सम्मान मिलता है? संघटन में अगर बहुमतों से निर्णय नहीं लिए गए तो उसे पुरे करने के लिए जनाधार, सहयोग नही मिलता और धीरे धीरे पतन होते रहता. उसे विकाश, प्रकाश, उजाला, रौशनी कोण कह सकता है?
१०. जातिवादी बामसेफ संघठन को वंशवादी बनाकर बीएमपी बनाई, वामन मेश्राम एक मुख, सनकी, कूपमंडूक, तानाशाही, मुजोर,व्यक्ति है, जिसे कुछ बेवकूफ अंधभक्त लोग उसे नेता मानते है. उन्हें लगा की मै लोकसभा में विजय हासिल करूँगा, पर क्या हुआ? जात, वंश, धर्म के पीछे खड़े रहने से जनता के पथ में भोजन नहीं जाता, भूके लोगों को रोठी चाहिए, महंगाई से निपटने के लिए उचित धन, रोजगार चाहिए पर उसे उजागर करने के बजाए उनका समाधान अगर जाती/वर्ण/वंश में टटोलने का कार्य करे तो हाथ में समाधान आएगा?
भारत को आमिर बनाना है या सुखी ? इनमे से किसी एक को उद्धिष्ट बनाया जा सकता है, दोनों के पीछे जाने को जो प्रयास करेंगे वे बेवकूफ है, नरेन्द्र मोदी प्रथम हिंदू है और बादमे भारतीय, उनका राष्ट्र वर्णवादी है, उनका कोई उद्धेश नही है, वह आर एस एस की कटपुतली है, अब संघ का शाशन संसद में चलेगा जो पूंजीवाद को बढ़ावा देने का कार्य करेगा. पूंजीवाद गरीबों का दुश्मन होता है,गरीबों से कार्य तो करवाता है पर उचित मुहवजा नही देता. गरीबों के दुःख के दिन आ गए, अमीरों के लिए सुख के दिन आ गए. अमीरों ने मोदी को जिताने के लिए ५०० करोड रूपये से ज्यादा का धन खर्च क्यों किया है? उसे हमको समजना जरुरी है.
भारत में राजकीय जनतंत्र आर्थिक जनतंत्र में तब्दील क्यों नही हुआ उसके कारन भारतीय संविधान के धारा ३१ और २४ में छिपे है, उसे छिपाए रखने के लिए डॉ. बाबासाहब आंबेडकर को भारतीय संविधान के रचयिता के रूप में कांग्रेस ने हमेशा प्रचारित किया, जो गलत प्रचार है. कांग्रेस के बहकावे में आकर भारतीय पिछड़े वर्ग ने पूंजीवाद को अपना दोस्त समजा. पूंजीवाद विरोधी लोग पूंजीवादी बने. टाटा - बाटा को आदर्श पुरुष मानकर डिक्की बनायीं गयी.
नक्शली आंदोलन के नेता लोग पूंजीवादी है और अनुयायी पुन्जिविरोधी, गरीब नक्शलीयों के हाथो में क्या मिलेगा? अभीतक तो उनके हातो में बाबाजी का टिल्लू ही मिला है. आर्थिक समशया समाज में पैदा हुयी और उनका हल दुंडने निकले जंगल में तो क्या कभी हल निकलेगा?
गरीब जनता को मेरी राय यही है की वे 'राज्य समाजवाद' को जाने, माने और उनका प्रचार करे उसके पूर्ति के लिए सरकार के सामने प्रस्ताव भेजे, निदर्शन करे, इसे लागु करवाना बाबासाहब आंबेडकर चाहते थे पर सन १९४६ से उनके पीछे उचित जनसँख्या खड़ी नही रही जिसका नतीजा संविधान को पूंजीवादी रूप दिया गया, संविधान को समाजवादी, जतिनिर्पेक्ष बनाने के लिए धारा -३१ और २४ को निरस्त करने के लिए जोरदार बगावत करने की जरुरत है, गरीब संसद में नहीं जा सके तो कोई परवा नही है, उनके लिए राश्ता ही संसद है. उसपर उनका राज्य अभी भी कायम है, और आगे भी कायम रहेगा.
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