सोमवार, 11 मई 2020

मेहनत करे मुर्ग़ा और अंडा खाय फ़क़ीर!


ज्ञान प्राप्त कर कोई भी उस अवस्था को प्राप्त हो सकता है, यह तो बढ़े आसानी से कह दिया, पर वह अवस्था क्या है? उसकी दूरी, लंबाई, मोटायी और राश्ता क्या है? वह अवस्था कम से कम कितने समय में पायी जाती है? क्या उसे पाने के लिए आपने कभी प्रयास किया? अगर नही किया हो तो आपके लिए वह महत्वपूर्ण नही है? जो अवस्था आपके लिए महत्वपूर्ण नही है तो वह दूसरे के लिए कैसे हो सकती है?

नि = नही और वान = तृष्णा (?) वान = शरीर है, न की तृष्णा। शरीर का न होना, मरना ही निर्वाण है। मृत्यु प्राप्ति के लिए धम्म तत्वज्ञान नही था, यह महायानी पंथ की दिशाभुल करने की छद्म राजनीति रही है। किसी विचार धारा को हम अगर ख़त्म नही कर सकते तो उसे भ्रमित करे, बौद्ध लोग भ्रमित हुए तो उनके वार निरर्थक साबित होंगे जिससे ब्राह्मण लोगों को दुखपत नही होगी।

"अपने तर्क की कसौटी पर खरा नही उतरे नहीं, तो उसके ऊपर यकीन मत करो, उसको संदेह की दृष्टि में देखो।" ऐसा बुद्ध अगर बुद्धमत है तो पागल इंसान भी यह कहेगा की मेरे तर्क के आधार पर बुद्ध धम्म ग़लत है, तो क्या वह पागल व्यक्ति बुद्ध धम्म के अनुसार चल पाएगा? तो उसका अन्य कोंसे रास्ते से कल्याण होगा? हर व्यक्ति की तर्क करने की क्षमता अलग अलग होती है।

पागल से सही तर्क करने की अपेक्षा हम नही कर सकते। कालम सुत्त में यह लिखा है की "किसी ग्रंथ, परम्परा, गुरु द्वारा, सम्मानित व्यक्ति द्वारा, या तर्क को भी सही लगे तो भी मत मानो।_अगर मेरा धम्म मत "बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय, आदि कल्याण- मध्य कल्याण-अंत्य कल्याण" कारक नही साबित होता है तो उसे मत अपनाओ।" कसौटी कल्याण की है न की तर्क की।

"दुख है तो दुख का कारण है, कारण है तो कारण का निवारण है।" परंतु सवाल यह है की, दुःख का कारण क्या है? उसका उगम कैसे होता और कैसे उसे ख़त्म किया जा सकता है? ब्राह्मण वर्ण/जाती/वर्ग और इंसान भी है, वह मानव प्राणियों को दुःख देने के लिए तरकीबें बनाते आए है और वह काम हम कहने मात्र से बंद नही करेगा, उसे जबतक हम "बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय" पाठ सही ढंग से नही समझा पाएँगे तबतक हमारे किए पर पानी गिरते रहेगा।

दुःख कायिक, वाचिक और मानसिक होता है, मानव निर्मित दुःख अज्ञान वश आते है, नैसर्गिक दुःख संसार के प्राकृतिक बदलाव के कारण आते है परंतु जिसे प्राकृतिक नियम का सत्य पता चला वह उसे बरदास्त करता है, वह सत्य है - अनित्य = सतत बदल, परिवर्तन। वह उसे स्वीकारने की मनोदशा में रहता है।

दुःख आए भी तो परेशान नही होता, उसे सहजता से बरदास्त करता है। वह उसे अनित्य सिद्धांत का फल मानता है, आना-जाना मानता है, अनित्य का मतलब सभी चीज़ें एक जैसे नही रहती, इसे स्वीकारना, बुद्ध ने नैसर्गिक दुःखों से मुक्ति का मार्ग नही दिया, मानवनिर्मित (अंध:श्रद्धा) से उत्पन्न दुःख से मुक्ति का मार्ग दिया है।_ मै मानव निर्मित दुःख से मुक्त हूँ ।

यह काम बुद्ध ने उनके ज़माने में सही ढंग से किया था, उन्होंने बुद्ध की शरण ली, दुनिया में कोई काम ऐसा नही है जो किया नही जा सकता इतना ही है की उसके लिए उचित साधनो की ज़रूरत होती है, जिनके पास है उन्हें इन बातों से कुछ लेन - देन नही है। 

एक मज़दूर काम करता है तो परिवार (बहुजन) कल्याण करता है और एक वीपस्सी ध्यान करता है तो वह ख़ुद (अकेले) का कल्याण करता है। दोनो भी मेहनत करते है, एक बौद्धिक तो दूसरा शारीरिक, फल मात्र ग़रीबों के तुलना में अमीरों को ही ज़्यादा क्यूँ ? क्या उनका पेठ बढ़ा है? इन दोनो में भाईचारा कैसे पैदा होगा? क्या बुद्ध धम्म भाईचारे के शिवाय सम्भव है?

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