बुद्ध और आंबेडकर की मूर्तियों की पूजा करने और करवानेवाले लोगों को कैसा "बुद्धमय भारत" अभिप्रेत है वह मुझे नहीं पता, मगर मूर्ति-पूजक भारत बनाना बाबासाहब आम्बेडकर को पसंद नहीं था, इतना मुझे पता है.
अपने "रानडे, गाँधी और जिन्हा" (डाक्टर अम्बेडकर) किताब में स्पष्ट लिख चुके है, "I am no worshiper of idols. I believe in breaking them." क्या पूजापाठ करना या करवाना यही शिख थी उनकी?
जहाँ-वहाँ मूर्तियाँ की स्थापना करने के बजाय भारत में "आर्थिक जनतंत्र" लाने के लिए प्रयास होने चाहिए. उससे न केवल लोग बुद्धिस्ट बनेंगे बल्कि लोग भी सुखी बनेंगे. लोगों को बुद्धिस्ट बनाने के बजाय सुखी बनाना अधिक अच्छा होगा.
भूखे बुद्धिस्ट क्या बुद्धधम्म का पालन कर पायंगे? भारत में हजारो सालों से पूजापाठ होते आये है उससे अगर कल्याण होता तो अब कोई समस्या ही नहीं रहनी चाहिए. क्या बौद्ध लोगोंकी सभी समस्या हल हो चुकी? फिर "पूजापाठ" को बुद्धधम्म का अंग क्यों बनाया जा रहा है?
क्या पूजापाठ बुद्धिसंगत विचार है? क्या बुद्ध व्दारा त्रिपिटक में कही मूर्तिपूजा का आदेश दिया है? यह तो सही र1स्ते से भटकाने के प्रयास है, बुद्ध-आम्बेडकर की विचारधारा को ख़तम करने के प्रयास है. क्या "सच्चे आम्बेडकरवादी" लोगोने मूर्तिपूजा करनी चाहिए?
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