शुक्रवार, 22 मई 2020

धम्मक्रांति का जनतांत्रिक सफ़र - ९


डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने नासिक जिले के “येवला” शहर में जो धर्मान्तर की धम्म ललकार दी थी, उसे पूरा करने का दिन आया था. प्राचीन इतिहास में महाराष्ट्र या “महारों का राष्ट्र” रहा है. “नागपुर” यह उनके राजधानी का शहर रहा. वे लोग बुद्ध के धम्मक्रान्ति के वाहक रहे है. इसी प्राचीन ऐतिहासिक स्थान पर बाबासाहब ने आधुनिक युग में धम्म दीक्षा का आयोजन करके यह साबित किया की वे अभी भी बुद्ध के समता मूलक तत्व के वाहक है.
बड़े प्यार से बाबासाहब अम्बेडकर को जिस “कृष्णाजी अर्जुन केलुसकर’ गुरूजी ने स्वलिखित “भगवान् गौतम बुद्धाचे चरित्र” बहाल किया था, उनका इसी तारीख को १९३४ में देहान्त हुआ था. उनके धम्मप्रेम को यादगार करने का यह उचित दिन रहा. इसलिए तारीख- “१४ अक्टूम्बर” का दिन “धर्मान्तर” समारोह समारंभ तय किया गया था. तारीख- १४ अक्टूम्बर १९५६ को इस दिन “माता कचहरी” के मैदान में पाँच लाख लोगों से भी उपर हिन्दूधर्म के “महार” जाती की जनता उमड़ पड़ी थी. बौद्ध जगत के महान विद्वान् और भिक्षु गण उपस्थित हुए थे. अन्याय, गुलामी, विषमता और परस्पर द्वेष फ़ैलाने वाले तानाशाही हिन्दू धर्म से “पर्मानंट” रिश्ता ख़त्म करने का समय करीब आ चूका था.
हिन्दू धर्म से भावनिक रिश्ता तोड़ते वक्त बाबासाहब बहुत भावुक हो चुके थे, मगर सभी पर्याय ख़त्म हो चुके थे. न हिन्दूधर्म बदला और न भारतीय संविधान से आशा रही. पर्याप्त समय उन्हें बदलने को दिया गया, मगर हिन्दू नही बदले. इसलिए बाबासाहब ने स्वयम में परिवर्तन किया. तुम नही तो हम सही, पर क्रान्तिकारी कल्याणमय परिवर्तन, बदल जरुरी है, यह समज कर बाबासाहब ने प्रथम अपने पत्नी के साथ भिक्षु चन्द्रमणि द्वारा दीक्षा ली और बाद में उन्होंने अपने विश्वासु हिन्दू जातीभाईयों को धम्मदीक्षा देना सुरु किया. तब उनके ऑखों से आंसु बह रहे थे. उन्होंने भंते चन्द्रमनी की ओर देखा, वे भी भावुक हो चुके थे. उनके भी आँखों से आँसू बहाना सुरु हुआ. वे भी अपने आँसूओं कों नही रोख सके थे. दोनों देखकर जनता भी अपने ऑखों से आँसू बहा रही थी.
बाबासाहब दीक्षा देते रहे और देखते देखते २२ प्रतिज्ञा लेने का कार्य भी ५ लाख लोगों का पूरा हुआ. इन आंसुओं ने कब लोगों को बुद्ध और उनके धम्म के स्वाधीन किया, इनका पता ही नही चला. सबके ओंठो पर बाद में मुस्कराहट पैदा हुयी. “बाबासाहब करे पुकार, बुद्ध धम्म का करो स्वीकार, तथागत गौतम बुद्ध की...जय! बाबासाहब आंबेडकर की...जय! की घोषणाए चारों दिशाओं में दूर-दूर तक जोरो-शोरों से गूंजने लगी थी. सभी ने बड़ी रहत ली थी की उनकी हिन्दुधर्म के नर्क से मुक्ति हो चुकी है. इतना वह गूंगों के हजारों सालों के इतिहास में यादगार पल था. जिनका आन्तर राष्ट्रिय प्रसार माध्यम भी गवांह रहा. यह एक महान विश्वव्यापी धम्मक्रान्ति रही, जो भारत में ही नही तो पुरे विश्व में आर्थिक समता के साथ सामाजिक सद्भाव को बढ़ावा देने में सहयोग देती रहे.
अगर त्रिपिटक के मिलावट का असर “द बुध्द एंड हिज धम्म” पर हुआ है, तो इन “२२ प्रतिज्ञा” पर उसका गलत असर न होने का दावा कौन कर सकता है? “२२ प्रतिज्ञा” में एक प्रतिज्ञा है की, "मै “१० पारमिता“ का पालन करूँगा" जो की “बोधिसत्ब” को लगातार १० जन्मो तक करना होता है, फिर वह व्यक्ति ‘अर्हत’ (जागृत) होता है. जो अर्हत होता है, वही “बुद्ध” होता है. क्या “दस पारामिता” के आचरण के अलावा व्यक्ति जागृत (अर्हत) नही होता? यह जो बुद्ध तक पहुँचने की सीढ़िया बनाई गयी है, यह सही में वैज्ञानिक है या यह महायानी शिक्षा है? क्या बुद्ध “आत्मा” का अस्थित्व मानते थे? क्या मरने के बाद का जन्म (पुनर्जन्म) बुद्ध ने मान्य किया? क्या अभी का “विज्ञान” या “तर्क” भी इस विषय पर सहमत है? फिर बोधिसत्व की सोच कहाँ से आ टपकी? अनुचित बातों को तवज्जो देने से क्या फ़ायदा होगा?
बोधिसत्व की कल्पना ही "जातक कथा" पर निर्भर है. जिसे कोई भी वैज्ञानिक नही स्वीकार सकता? क्या बाबासाहब को धम्म दीक्षित बौद्धों तक ही सिमित रखना था? या अन्य भी लोगों तक पहुँचाना था? किस आधार पर उसे पहुँचाया जाएगा? जो विचार बाबासाहब ने बताए है उसे हमने “शब्द प्रामान्य” वादी बनकर नही स्वीकारना चाहिए. तो उसे वैज्ञानिक आधार पर और तर्क पर परख पर स्वीकारना चाहिए. “२२ प्रतिज्ञा” में बुद्ध के सामने “भगवान” शब्द छापा गया है उसे अब हमने हटाना जरुरी है, नही तो लोग बुद्ध को ही बिष्णु “भगवान” का नववा औतार मनाकर पूजा आरम्भ करेंगे. बुद्ध के नामपर हजारो सालों से जो कूड़ा-कचरा ढोया जा रहा है उसे अब उतार कर फेंकना आवश्यक है.
“परित्राण सूत्र पाठ कथन” विधी यह एक हिन्दू धर्म के “सत्यनारायण कथा” के नक़ल में बौध्द भिक्षु पेश कर रहे है. क्या इससे धम्म में पुरोहितशाही को उदय नही होगा? बौद्ध धम्म के दुश्मन तो हमेशा चाहेंगे की, ग़लत ढंग से धम्म प्रचार हो, धम्म दीक्षित लोग भ्रमित रहे, हमने पहले यह तो तय करना चाहिए की यह हमारी सभ्यता है, तथा यह हमारा धम्म विचार है. क्या बाबासाहब ने हमें विदेशी धम्म दिया है? फिर हम विदेशी भिक्षुओं के भ्रमित विचारों का सत्कार क्यों करते है? विदेशी बौद्ध धम्म का पालन नही करते, वे सिर्फ धम्म के नाम पर धर्म का पालन करते है जो हीनयान और महायानों के बिच में फँसा हुआ है.
बाबासाहब के बौद्ध धम्म प्रचार के “ब्लू प्रिंट” के मुताबिक धम्म प्रचार से हम वंचित क्यों है इसका भी हमने गंभीर विचार करना चाहिए. केवल “आरपिआय” के कार्य को धम्म का कार्य नही कहा जा सकता. न “एसएसडी” के कार्य को धम्म का कार्य कहा जा सकता. न जाती अंतर्गत विवाह मोहिम चलाने के कार्यों को धम्म कार्य कहा जा सकता है. सुजान बौद्धों का क्या कर्तव्य है? आन्तरजातीय विवाह को प्राधान्य और मान्यता दे. उनका प्रचार प्रसार करे. कोई भी बौद्ध आर्थिक विसमता के पक्ष में नही रहना, चाहिए मगर वह है. क्या गरीब और अमीर एक साथ खंदे से खंदा मिलकर धम्म प्रचार का कार्य निरंतर कर सकता है? समश्याओं को उत्तरों से लिलिट करते रहने से ही धम्म विज्ञान के जरिए आगे लिया जा सकता है. समश्याओं के साथ धम्म का प्रचार करना अपने ही पावों पर कुल्हाड़ी मारने के समान कार्य है.
“भारतीय बौद्ध महासभा” के साथ मिलकर हमने कार्य करने को सीखना चाहिए. उसी के तहत कार्यक्रमों का निर्माण होना चाहिए. विविध विचारों से संघटन चलाने से मतभेद नही जाते. धम्म जो बाबासाहब आंबेडकर के दृष्टी से सही हो उसे ही हमने प्रचारित करना चाहिए. तो ही धम्म दीक्षा के नागपुर का कुछ महत्त्व बन पाएगा. अन्यथा दीक्षाभूमि का महत्त्व मिट जाएगा. ईंट और पत्थरों के विहारों, मठों, स्तूपों से धम्म प्रचार नही होती. धम्म यह विचारधारा है. विचारों से उसका प्रचार होता है. हम अगर विहारों और स्तूपों को बनाने में ही व्यतीत रहे तो बाबासाहब ने धम्म दीक्षा क्यों दी थी और हमारे पुरखों ने क्यों ली थी यह भी हमें पता नही चलेगा. लोग हमेशा पूजापाठ में रहे यह न बुद्ध की सीख है और न बाबासाहब अम्बेडकर की.
पुजारी लोगों को भी तर्क शक्ति होती है, उन्हें भी धम्म समझने की काबिलियत होती है, मगर वह हम ही सही ढंग से नही समझ पाए तो औरों को क्या समझाने के लिए काबिल है? पहले वैज्ञानिक कल्याणकारी धम्म तत्वों को ठीक से समझकर ही दूसरों को समझाया जा सकता है. अब उसे प्रचारित करने का कार्य सिर्फ भिक्षुओं का नही है तो वह उपासको का भी है. उपासकों ने शादी आदि त्यौहारों में केवल “त्रिशरण” और “पंचशील” की पोपटपंची सुनाने के कार्य को धम्म प्रचार का कार्य नही समझना चाहिए. बहुत सारे सम्भ्रमों के बिच भिक्षु और उपासक भी है. पुराने अंधों का अनुकरण किया जा रहा है. न पुराना धम्मी था और न नया धम्मी है.
स्त्री-पुरुष एक दुसरे के गुलाम नही तो मित्र समझे गए. विवाह यह एक तह है. जो दोनों में से किसी को भी भंग करने का अधिकार है. जातिमत विषमता समाज के जिन-जिन अंगों में फैली थी उन सभी अंगों में समानता सत्ता के जरिए नही तो सांस्कृतिक निति के जरिए फैलाने के लिए प्रयास होना जरुरी है. बाबासाहब ने अपनी द्वितीय शादी एक ब्राहमण कन्या से करके जाती प्रथा का जोरदार विरोध किया. यह एक सामाजिक प्यार बांटकर जातिप्रथा विरोधी महान कार्य रहा है. बाबासाहब आंबेडकर ने न केवल बौद्धों को ही धम्म दीक्षा दी थी तो ब्राह्मणों को भी धम्म दीक्षा दी थी. मगर उनसे रिश्तेदारी रखने में बौद्ध कामयाब नही हुए.
केवल हर साल दीक्षाभूमि का दर्शन करने से धम्म नही समझता. उन्हें याद भी करने से धम्म नही समझता. बुद्ध पूजा के जरिए भी धम्म को नही समझा जा सकता, और न केवल प्रवचन सुनने मात्र से धम्म समझता है. धम्म बहुत आसान है मगर जिनके मन में उसे जानने की इच्छा है उसे वह जल्दी समजता है. धम्म कोई कहानी नही है जो याद करनी है. धम्म यह तत्वज्ञान है जो दस मिनिट में भी समझा जा सकता है. उसे समझने के लिए कोई तंद्री लगाने की जरुरी नही है और विपस्सना द्वारा उसे समझा या समझाया जा सकता.
धर्मान्तरित बौद्धों का आर्थिक लाभ क्या हुआ? सन १९५६ के में ८ लाख महार जाती के लोगों से बुद्ध धम्म की दीक्षा ली, उनके साथ अन्य भी जातियों के कुछ गिनेचुने लोगों ने दीक्षा ली थी. मगर वे कोई गिनती में लेने लायक नही थे. भारत में बौद्धों की जनसंख्या सन १९६१ में ३२,००, ३३३, सन १९७१ में ३८,१२,३२५ तथा १९८१ में ४७,१९,७८६ थी. सन २००१ के जनगणना के अनुसार हिन्दू ८०.५%, इस्लामी १३.५% ईसाई २.३%, सिख १.९%, जैन ०.८%, बौद्ध ०.८% और पारसी ०.२% थे. तो अब करीब १.५ करोड़ बौद्ध हो सकते. इनमे से केवल १०% लोग सरकारी कर्मचारी मानते है तो वे १५ लाख होते है. डेड करोड़ से पंद्रह लाख लोग नोकरी के सहारे जी रहे है. इसका मतलब १.३ करोड़ लोग खेती मजदूरी और हाथ मजूरी करके जी रहे है. वे मुलभुत सुविधाओं से वंचित है.

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