दुनिया पीड़ा पर नही, धम्म पर खड़ी करनी है..! धम्म न्याय, आझादी, समानता और भाईचारे का नैतिक तत्वज्ञान है. यह समाज न केवल एक अंग में सहयोगी है तो आर्थिक, शैक्षणिक, सांस्कृतिक और राजकीय स्थर पर भी महत्वपूर्ण है. बाबासाहब अम्बेदकर का यह चिन्तनशील मत रहा है, “सामाजिक और आर्थिक जनतंत्र ही राजकीय जनतंत्र की कोशिका और स्नायु है. यह दोनों भी जितने मजबूत रहेंगे, उतनी ही ज्यादा शरीर को मजबूती मिलेगी. जनतंत्र का दूसरा नाम समानता है.” (डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर: राइटिंग एंड स्पीचेश, वालुम– १०, पेज- १०८) बुद्ध का धम्म ही “आदर्श जनतन्त्र” है, जिसकी गरिमा हमें “आर्य अष्टांगिक मार्ग” से मिलती है.
तथागत बुद्ध से लेकर आजतक का विचार किया जाए तो हमें मालूम होता है की बुद्धधम्म के उपासक कही राजा लोग रहे है. उनके पास राज्य के सुरक्षा के लिए सैन्य भी होते थे. सिद्धार्थ (बुद्ध) खुद सैनिकी शिक्षा ले चुके थे. सैन्य का क्या कार्य होता है? यह उन्हें अच्छी ढंग से पता था. फिर भी उन्होंने सैनिकों का कार्य करने के बजाए युद्ध ही न हो और जंग में जान गंवाने की किसी भी मानव प्राणी पर नौबत ही न आए, इस विषय पर कार्य किया. युद्ध हमेशा व्यक्ति के दिमाग में चलता है. दिमाग विचारों से चलता. जैसे विचार वैसे आचार.
मन से मानव विरोध की गल्त असामाजिक विषमतामय धारणाओं को निरस्त करने के लिए उन्होंने यह धम्म दुनिया को दिया. यह मानव प्राणी की हिन्सा रोखने के लिए दिया. न की उनका संहार करने के लिए. पर बुद्ध धम्म को लोग मानव को रोखने के बजाए अन्य प्राणियों के हिन्सा को रोखने के लिए किया जा रहा है. व्यक्ति आपस में इसलिए लढता और झगड़ते रहता है क्योंकि उनकी मुलभुत आवश्यकताए पूरी नही होती. मानव प्राणियों ने एक जगह बैठ कर वंचित लोगों के दुखों का हल धुंडने का कार्य करना चाहिए.
मानव यह अभी भी व्यक्ति नही तो प्राणी ही है, जानवर है. जैसे जानवर में अपने ही पेठ की ज्यादा फ़िक्र होती है वैसे ही ज्यादातर मानव समूह के बुद्धी में स्वार्थ की भावना कुट-कूट कर भरी है. वे अपने फायदे के लिए आपस में लड़ते रहते है. ऐसे वक्त बुद्ध पहले समझाने का, जागृत करने का बोध करते है, जैसा की प्रसेनजित राजा के “वस्सकार” मन्त्री को किया था. वज्जी घराने से इसलिए नही जीता जा सकता है की उनमे कुछ सद्गुण है, सदाचार है. उनके शत्रु भी उनके गुणों को देखकर उनसे युद्ध करने के बारे में दस बार सोचते थे. इसका दूसरा अर्थ यह है की सद्विचार ही अप्रत्यक्ष ढंग से युद्ध को पराजित करते है. युद्ध को टालते है. युद्ध से पराजित करते है और हिन्सा होने से समाज बचता है.
बुद्ध ने राजा प्रसेनजित को युद्ध करने से नही रोका था या न हिंसा करने से रोका था. बुद्ध ने अपने उपासक राजाओं को यह कभी नही कहाँ की “सैन्य भर्ती बंद करो.” इसका दूसरा अंग यह है की जरुरी है, तो उनका प्रयोग करना उचित है. बुद्ध ने “जरुरत होने पर हिन्सा भी करना उचित समझा था.
पंचशील की निर्मिती यज्ञ में होने वाले अन्य प्राणियों के हत्याओं को रोख लगाने के उद्धेश से जैनों ने की थी. पंचशील यह जैनों के पाच बल है. वे नियम है, न की कोई तत्व. यह जैनों के कठोर नियम रहे. जो हर बातों में अति का भाव दर्शाते है. “मै हिंसा नही करूँगा” क्या इस वाक्य में किसी स्थिति का बोध होता है? फिर कैसे कहेंगे की, इस अवस्था में उनका उल्लंघन भी जरुरी है?
पंचशील की निर्मिती यज्ञ में होने वाले अन्य प्राणियों के हत्याओं को रोख लगाने के उद्धेश से जैनों ने की थी. पंचशील यह जैनों के पाच बल है. वे नियम है, न की कोई तत्व. यह जैनों के कठोर नियम रहे. जो हर बातों में अति का भाव दर्शाते है. “मै हिंसा नही करूँगा” क्या इस वाक्य में किसी स्थिति का बोध होता है? फिर कैसे कहेंगे की, इस अवस्था में उनका उल्लंघन भी जरुरी है?
विचार, संकल्प, वाणी, कर्म, आचरण, प्रयास, स्मरण और चित्ताग्रता की बाते बुद्ध ने क्यों बताई थी? हर ऐसा कार्य करने के लिए बुद्ध ने अपने “सम्यक मार्ग” में अनुमति दी है, जो ‘बहुजन हिताय और बहुजन सुखाय’ है, फिर चाहे वह हिंसक हो या अहिंसक हो. जो विचार पंचशील के नियमों में है, क्या उसके बारे में बुद्ध के सम्यक तत्वज्ञान में विचार नही हुआ? किसी पंडित नेहरू (ब्राह्मण) ने कहा की यही बुद्ध के विचार है, तो हमने उसपर कुछ भी दुबारा विचार नही करना चाहिए? जो तत्व बुद्ध के थे, महायानी भिक्षुओं ने उसे छुपाने की कोसिस की और गल्त विचार सामने प्रचारित किया. क्या दुनिया में ऐसा कोई व्यक्ति है की उसने जीवनभर “पंचशील” का पालन किया है? जो विचार तर्क पर भी खरे नही उतरते और समाज में सम्भ्रम फ़ैलाने का कार्य करने है, ऐसे विचार बुद्ध देशना नही हो सकते.
सम्राट अशोक को युद्ध करना जरुरी था तो उन्होंने किया. क्या उन्होंने पंचशील का पालन किया था? उन्होंने मानव हिंसा भी की तथा अन्य प्राणी हिंसा भी की थी. कोई हमारे घर में तलवार लेकर आए और हम उसके सामने पंचशील का पाठ पढाए तो क्या वह “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय’ का धम्म मार्ग होगा? जब एक ही नही बचेगा तो बहु कैसे बचेंगे? बहुजनों का हित कैसे होगा? बाबासाहब आंबेडकर ने जनतंत्र की परिभाषा की और उसमे कहा. “बिना खून का बूंद बहाए जनता के सामाजिक और आर्थिक जीवन में होने वाला क्रान्तिकारी परिवर्तन ही जनतंत्र है.” (भी. रा. अम्बेडकर : चरित्र ग्रन्थ, खंड- ११, चां. भ. खैरमोडे, प्रकाशन- १९९०, पृष्ठ- २९) तो दूसरी ओर बाबासाहब अम्बेडकर हर साल के १ जनवरी को “भीमा कोरेगाव” को मानवंदना करने जाते रहे. क्या “भीमा कोरेगाव का क्रान्ति स्तंभ” बिना खून बहाए खड़ा हुआ? बाबासाहब आंबेडकर ने “साइमन कमीशन” को क्यों निवेदन दिया था की अछूतों को सैन्य और पुलिस में भर्ती करना चाहिए?
डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने नागपुर स्थित “सिरसपेठ” के मैदान में, तारीख- १९ जुलाई १९४२ में आवाहन किया था, “यह (द्वितीय महायुद्ध) तानाशाही और जनतन्त्र के बिच में है. जर्मनी की तानाशाही किसी भी नैतिक मूलों पर खडी नही है. नाझीवाद ने सभी मनुष्यों के अस्थित्व के लिए महान संकट खड़ा किया है. इस संसार के भूतल पर अधिष्ठित मानव प्राणियों के बिच मानवता के रिश्ते बनाने वाले जनतन्त्र अन्त न हो इस के लिए आपने महापराक्रम करना चाहिए. इसी वजह बहिष्कृत लोगों ने संसार के अन्य जनतांत्रिक देशों के साथ जनतांत्रिक मूल्य और सभ्यता के रक्षा करने के लिए कान्तिकारी संघर्ष करना चाहिए.” (द्वितीय महायुद्ध आणि डॉ. आंबेडकर, लेखक- विमलसूर्य चिमनकर, सन- १९९३, पृष्ट-१५३ का अनुवाद)
व्यक्ति-व्यक्ति में भाईचारा बढ़ाने वाले जनतन्त्र को बचाने के लिए और व्यक्ति-ब्यक्ति में वांशिक नफरत फैलानेवाले जर्मन तानाशाह हिटलर का खात्मा करने के लिए अंग्रेज सैन्य में भर्ती होने का आग्रह किया था.” इन तीन प्रसंगों से बौद्धों ने यह सिख लेनी चाहिए की जब जरुरी है, तो हिन्सा करने की धम्म और अम्बेडकरी विचारों में आझादी है. प्राचीन भिक्षु सारिपुत्त और महामोग्ल्यायन भिक्षुओं के बिना खून बहाए नही आयी है. बुद्ध ने भी अपने देवदत्त के हमले में खून बहाया था. अपने मुक्ती के लिए खून बहाना धम्म विचारों में वर्जित नही है. बुद्ध-अम्बेडकर यह महामानव शांतिवादी नही तो क्रांतीवादी थे. पहले कलम नहीं तो बन्दुक, जो जब जरुरी हो तब किसी भी साधनों का इस्तेमाल करने की आझादी धम्म में है, उसका उद्धेश मात्र “बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय” होना चाहिए.
केवल “त्रिशरण” की रट लगाने से या “पंचशील” का पालन करने से धम्म पालन नही होता. अब यह बताने की जरूरत है की उसका पालन ‘मै तो करूँगा ही, पर तुमने भी करना चाहिए’. ‘हम संन्यासी और तुम चोर’; ऐसी विसंगत स्थिती समाज में नही चाहिए. लोगों को बौद्ध बनाना तो ठीक ही है, त्रिशरण, पंचशील को पालान करने या २२ प्रतिज्ञाओं का पालन करने के लिए नही तो "आर्थिक जनतंत्र" को धम्म द्वारा बहाली कर सुख-शांति बहाल करने के लिए "आर्य अष्टांगिक मार्ग" के मध्यम मार्ग पर. दुखी बौद्धों की देखभाल भी करना उससे भी बड़ी जिम्मेदारी है.
हम अगर हमारे विचारों के लोगों के दुखी जीवन से अस्वस्थ होकर दूर भागते रहे, तो बुद्ध धम्म भारत में कैसे फैलेगा? वह सही ढंग से विदेश में कैसे जाएगा? अन्य धर्मो के लिए पर्याय कैसे बनेगा? कार्ल मार्क्स के तानाशाही साम्यवाद का मुकाबला कैसा करेगा? क्या बाबासाहब आंबेडकर ने साम्यवाद के बजाए धम्मक्रांति को इसलिए गले लगाया की उन्हें "आर्थिक विषमता" पसन्द थी? बाबासाहब की जंग न सिर्फ वर्ण, जाती, वंश, धर्म, पंथ, लिंग वाद के अलावा वर्ग वाद से भी प्ररित रही थी. कॉर्ल मॉर्क्स के मकसद को बाबासाहब ने नही कोसा क्यों की वह समता का समर्थन करता है. सिर्फ उसे पाने के लिए जो साधन और निति को अपनाया गया था उसे बाबासाहब ने जोरदार कोसा.
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