शनिवार, 2 मई 2020

कौन सफल, कौन विफल?

कार्ल मार्क्स के विचारों को मानने वाले लोगों ने रशिया, चायना जैसे देश की सरकार बदली, उनकी महानता उन्होंने साबित करके दिखाई, परंतु बाबा साहब अम्बेडकर ने ख़ुद राजनीति की उनके अनुयानी भी कर रहे है तो भारत के ग़रीब भुके क्यू मर रहे है? व्यक्ति वादी नही विचार वादी बनो।

बाबा साहब अम्बेडकर ने " बुद्ध एंड हिज़ धम्म" को समझने के लिए कार्ल मार्क्स को पढ़ने की वकालत क्यू की थी? जो कार्ल मार्क्स कुछ भी नही है तो उनके किताबें पढ़ने के लिए बाबा साहब ने हमें क्यूँ उकसाया था?

पूरे ज़िंदगी भर पूँजीवाद का विरोध करने के बाद भी भारत का पूँजीवाद बाबा साहब द्वारा ख़त्म हो सका तब हताश होकर उन्होंने क्यू कहा था की अगर भारतीय ग़रीबों को न्याय नही मिला तो हमें साम्यवाद का साथ लेना पड़ेगा?

धर्मांतर से ग़रीबी नही जाती, स्वाभिमान मिलता है पर कोई बौद्ध मुझे बता सकता है की वह स्वाभिमान खाकर कितने दिन तक जी सकता है? जिनके पेठ में भोजन है उसके लिए धम्म है, जिनके पेट में भोजन नही सिर्फ़ भूँक है उसे दुनिया अच्छा से अच्छा बुद्ध धम्म बताओ तो वह नही सुनेगा।

अंध अम्बेडकर भक्तों ने हमेशा भारतीय ग़रीबों कि ओर नज़र अन्दाज़ किया है, जिन्होंने ग़रीबों की बात की, उनके हक़ों की बात की तो उसे मार्क्सवादी कहकर लांछन लगाया गया है, जितने ग़रीबों के दुखो के लिए ज़िम्मेवार उच्च जाती के लोग और उनकी संस्थाए रही है उतनी ही आम्बेडकरी पड़े लिखे लोग भी रहे है।

जो आम्बेडकरी लोग नोकरी पर जाता है तो वह कहता है की मुझे समाज जागृति के काम करने के लिए समय नही है। समय मिले तो कहता है की सामाजिक आंदोलन में जाने की इजाज़त नही है। तो यह लोग सिर्फ़ फ़ेसबुक पर भाषण देने से ही आदर्श बौद्ध या आम्बेडकरी साबित होंगे?

अम्बेडकर साहब को पता चला की नए दौर में कार्ल मार्क्स के विचारों को नयी पीढ़ी पढ़ना सुरु कर रही है, वह विज्ञान को चाहेगी, जिस धर्म में विज्ञान नही दिखेगा उसे नकारेगी तब कभी " बुद्ध एंड हिज़ धम्म" बना नही तो " बुद्ध एंड हिज़ ग़ास्पेल" बना होता। सभी धर्म अफ़ीम है यह कार्ल मार्क्स ने साबित किया तब बाबा साहब जागृत हुए और उन्होंने " बुद्ध एंड हिज़ धम्म" लिखा।

ग़ास्पेल यह ईसाई शब्द है जो धर्म के लिए प्रयोग में आता है, धर्म के लिए अंग्रेज़ी में रिलीजन शब्द है, इन शब्दों का इस्तेमाल किया गया तो बुद्धिझम को रिलीजन साबित करना आसान हो जाएगा, और मार्क्सवादी बुद्ध धम्म की ओर नफ़रत से देखेंगे। इससे बचने के लिए बुद्ध विचार धर्म का अंग कैसे नही है? यह साबित करने के लिए धर्म की परिभाषा खंगाली गयी, उसमें बुद्ध विचार नही सकते इस लिए बुद्ध विचारों को धर्म कहने/लिखने के बजाए "धम्म" लिखना अच्छा है, इसका परिणाम है " बुद्ध एंड हिज़ धम्म" ग्रंथ बना।

बाबा साहब अम्बेडकर कार्ल मार्क्स के "कपिटल" की क़ीमत करते थे, उनकी तूफ़ानी शक्ति से वाकिब थे, इसलिए उनसे बचने की कोशिस करते रहे, वे जाने के बाद उनके अंध भक्त लोग भी मार्क्स से बचते दिखाई दे रहे है। कार्ल मार्क्स ने ख़ुद के फ़ायदे के लिए "दास कपिटल" नही लिखा।ग़रीबों को ऊँचा उठाने के लिए लिखा, कोई अंबडेकरी व्यक्ति उसे भी नवाजे तो कोई हर्जा नही, इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नही पड़ता पर हमें उसे मानकर क्या हासिल कर सके ?

आज डाक्टर अम्बेडकर और कार्ल मार्क्स यह दो उभरती शक्तियाँ है, हर किसी के विचार १००% कामयाब नही होते, कुछ कमी मार्क्स में रही है और कुछ कमी अम्बेडकर साहब में परंतु जो दोनो की उपलब्धियाँ रही है उसे एकसाथ मिलाकर ग़रीबों को उनके "भुक" के समस्या से आझादी दिला दे तो क्या हर्जा है? शिवसेना और भाज़पा का उद्धेश एक "हिंदू मत" है, वे सफलता हासिल करने के लिए एकसाथ मिलकर कार्य करे तो क्या तकलीफ़ है? बौद्धों का धम्म तो कोई चुराकर नही ले जाएगा!

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