धर्म पालन से धार्मिक कट्टरता
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भारतीय जनतंत्र में ख़ामियाँ है, (१) धार्मिक आझादी, (२) राज्य समाजवाद का आभाव। जिसका प्रतिफल यह है की दुनिया हमें गालियाँ दे रही है, हमारे जनतंत्र से ऊपर कोई भी धर्म नही है, फिर भी हम धर्म विचारों को संविधान से ऊपर मानते है, धर्म रीति रिवाजों का पालन करते हुए हुए यह भी भूल जाते है की इससे देश का कितना नुक़सान होगा?
भारतीय जनतंत्र में ख़ामियाँ है, (१) धार्मिक आझादी, (२) राज्य समाजवाद का आभाव। जिसका प्रतिफल यह है की दुनिया हमें गालियाँ दे रही है, हमारे जनतंत्र से ऊपर कोई भी धर्म नही है, फिर भी हम धर्म विचारों को संविधान से ऊपर मानते है, धर्म रीति रिवाजों का पालन करते हुए हुए यह भी भूल जाते है की इससे देश का कितना नुक़सान होगा?
धर्म निरपेक्ष की हमने ग़लत परिभाषा की है, कांग्रेस सर्वधर्म समभाव और बिजेपी धार्मिक समरचता, यह दोनो ही परिभाषा संविधान के दृष्टि से ग़लत है, संविधान के अनुसार धर्म की ज़रूरत नही यानी धर्म की अपेक्षा करना ग़लत है।
हम जब तक हिंदू धर्म प्रचार करना चाहते तबतक धर्म के नाम पर पाखंड, अंध:श्रद्धा फैलाते है, जब हम ही पाखंड फैला रहे है तो दूसरे मुस्लिम, सिख, ईसाइयों को धर्म प्रचार करने से मना नही कर सकते। धर्म अफ़ीम है, नशा है, ज़हर है, वह जनतंत्र को भुलाने के लिए ही है।
बुद्ध ने धम्म की निर्मिती किसी पाखंडवाद पर नही की, विज्ञानवाद पर की, उसका पालन करने से हमारे देस की और दूसरे देश के लोग प्यार से देख सकते है। जापान बुद्धिष्ट है, तरक़्क़ी कर रहा है, हमें उनसे सिखना चाहिए।
रामायण, महाभारत या मनुस्मृति से हमारा देश बर्बाद होगा। बुद्ध धम्म हमारे देश की प्राचीन सभ्यता है, संसदीय जनतंत्र के लिए उपयोगी है, राज्य समाजवाद पर निर्भर है, दुनिया बुद्ध की तस्वीर लगा रही है पर मनु की क्यौं नही लगा रही?
बुद्ध आशा है, मनु निराशा है, सिर्फ़ ब्राह्मण लोग ही अपनी दुकानदारी बरक़रार रखने के लिए अपने "राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ" संस्था की महानता बताने में नही सकते है, हमें उनकी बेवक़ूफ़ी को बरदास्त करने के बजाए पैरों तले रेंधना ज़रूरती है, नही तो यह प्राचीन भारत देश रहने लायक़ नही रहेगा।
इस देश को बचाना है तो अभी बचा सकते हो, २-३ साल के बाद इसे बचाना भी बहुत मुसकिल होगा, क्यूँकि बिघाड़ने कार्य ज़ोरों से चल रहा है।
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