बुधवार, 3 जुलाई 2013

धम्मक्रांति और बामसेफ


भारत में हजारो वर्षों से वर्ण व्यवस्था का समाज पर प्रभाव रहा है, उसके मुख्य अंग चार थे, ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र. ब्राह्मण ब्रह्मा के मुख से, क्षत्रिय भुजाओं से, वैश्य जांघों से और शुद्र पैरों से. क्या विश्व के इतिहास में ऐसा कभी हुआ है? अगर इसी ढंग से संतति निर्माण हुयी होती तो शादी ब्याह की झंझट ही ख़त्म हुयी होती. प्राचीन अवैज्ञानिक सोच को इस वैज्ञानिक दौर में तवज्जो देना मुर्ख लोगों का कार्य है. 

वर्नाभिमान धारण करनेवाले लोग फिर किसी भी वर्ण के क्यों न हो उन्हें बुद्धिजीवी कहना मुस्किल है. जैसे ब्राह्मण अपने वर्ण की वकालत करते है वैसे ही क्षत्रिय भी अपने छात्र, क्षत्रिय वर्ण का अभिमान, गर्व करने में पीछे नहीं है. वैश्य भी अपने वर्ण की तरफदारी करते है तो शुद्र भी अपने वर्ण को सही समजते है और उनकी वकालत करते है, जिससे वर्णाश्रम धर्म को और भी बल मिलता है, इसी धर्म ने बाद में अपने विचारों को हिन्दुधर्म के रूप में स्वीकार किया, जिससे हिन्दू, हिंदुत्व और हिन्दू परम्परा, हिन्दू स्वाभिमान, हिन्दू गर्व की भावना सामने आयी है, जिसे राष्ट्रिय (?) स्वयं सेवक संघ ने तवज्जो दिया.


हिन्दुधर्म के ठेकेदार ब्राह्मणों को कहा जाता है, वे जो भी कहेंगे, वो सही ही होता है, ऐसी मान्यता के कारन हिन्दू धर्म ब्राह्मणों के विचारों से चलता है, जिसका मुख्य कार्यालय नागपुर के रेशिमबाग इलाखे में है. संघ परिवार के सभासद वीर (?) सावरकर ने बाबासाहब आंबेडकर के धर्मान्तर को आपत्ति जताई थी, तो बाबासाहेब ने कहा था, ‘लोग कहते है की, सावरकर अपने मुख से जहर उगला है, पर मै कहता हूँ की वह नरक उगला.”सन १९३५ में बाबासाहब आंबेडकर ने एहलान किया था की, मै हिन्दू धर्म में पैदा हुआ, यह घटना मेरे हातों में नही थी, पर हिन्दूधर्म में मै कदापि नही मरूँगा.” इस विचारों पर मोहनचंद गाँधी भी विरोध दरसाया था. 

बाबासाहब के धर्मान्तर के खिलाफ ही थे. बाबासाहब हिन्दू धर्म के एक बुद्धिजीवी नेता, विद्वान् थे पर गाँधी जैसे ऊँचे जातिवादी लोगों ने उन्हें कुछ भी महत्त्व नहीं दिया. क्योंकि वे हिन्दुधर्म के सीडियों के मुताबिक एकदम निचले पायदान पर जन्म ग्रहण करनेवाले समझे जाते थे. इसलिए उन्हें हमेशा अन्याय, अपमान और परेशानी को जीवनभर झेलनी पड़ी. अगर हिन्दू धर्म में रहेंगे तो और भी उच्च जातियों की गुलामी ढोनी पड़ेगी, उससे छुटकारा पाने के लिए उन्होंने १९५६ में धर्मान्तर किया.


महार जाती के ज्यादातर लोगों ने उनके साथ धर्मान्तर किया. पर "शेदुल्ड कास्ट फेडरेशन " के अन्य जातीय लोगों ने धर्मान्तर को उचित कदम नहीं समझा. फिर भी वे बाबासाहब के अन्य कार्यों से काफी प्रभावित रहे, पर उन्हें दोष देने में भी कोई कसर नही छोड़ी. बामसेफ नाम के संघटन के तहत चमार जाती के कांशीराम ने “पूना समझौते” का विरोध किया. महार बनाम चमार का संघर्ष जारी रहा. उन्होंने बुद्धधम्म को हिन्दुधर्म के एक शाखा के रूप में ही देखा और उनके धर्मान्तर को कुछ भी महत्त्व नहीं दिया. 

जो लोग बाबासाहब के धर्मान्तर को याद करने में नागपुर आते थे उन्हें लखनऊ के “दलित प्रेरणा स्थल” में रोखने की उत्तम तय्यारी की. कांशीराम ने धर्मान्तर की घोषणा की थी मगर वह खोखला थी, यह अब सभी जानकर मानते है. बामसेफ ने “बीएसपी” को जन्म दिया. आगे और कितनी पार्टिया बनेगी इसकी कोई गिनती नहीं. सत्ता की सबकुछ है, यह प्रचार धम्म का विचार नहीं है, फिर भी उसे प्रचारित किया जा रहा है, और धम्म प्रचार को दुय्यम स्थान दिया जा रहा है.


कांशीराम तो चल बसे पर उनके जातिवादी, आंबेडकर विरोधी विचार उनके चेलो में अभी भी जीवित है. सुनील खोब्रागडे, हल्ली मुक्काम मुंबई. यह महाशय ‘जनतेचा महानायक’ नाम से मराठी में दैनिक वृत्तपत्र निकलते है. वे कांशीराम भक्त है. उन्होंने कुछ दिनों से अपने वृत्तपत्र से “बौद्ध विवाह कायदा: नान इश्युचा इश्यु” इस विषय पर ९ भागो में क्रमशः विचार प्रकाशित किए. 

उन्होंने यह जताने की कोशिश की है की बौद्धों ने अलग “बौद्ध विवाह कायदा” यानि “बौद्ध व्याह कानून” को मुद्दा बनाकर उसे पास कराने के लिए पहल नहीं करनी चाहिए. वे हिन्दू धर्म का ही एक अंग बनकर रहे. अगर भारतीय संविधान के ‘धारा-२५” के अंतर्गत शिख, बौद्ध और जैनों की गिनती होती है तो क्या हर्ज है? क्या यह हिन्दुधर्म विचारों का समर्थन करने की पहल नहीं है? 

बाबासाहब ने हिन्दुधर्म को छोड़ दिया, उनके साथ सात लाख लोगों ने भी त्याग दिया, वे हिन्दुओ के जैसे सप्तपदी का अपने ब्याह समारोह में संस्कार भी नही करते फिर भी उनके विचारों के साथ रिश्तेदारी निभाने का सलाह देना कहाँ तक सही है? अम्बेडकरी धम्म क्रांति के सामने दिक्खते खड़े कर उन्हें भ्रमित करने का उनका यह प्रयास नहीं है? कानूनन बौद्धों को विरोध दर्शाने के इरादे से यह उनकी पहल कांशीराम के जातिवादी मानसिकता का नमूना है.


शाहू महाराज का १९ एप्रिल १९१९ में कानपूर, उत्तर प्रदेश में भाषण हुआ था, उसमे उन्होंने कहा था, की मै कोई दूसरा नहीं हु, मुझे तुम तुम्हारा ही समझो. तो कानपूर के लोगों ने उनका ही चमार जाती का राजा समझकर उन्हें ‘राजर्षी’ पदवी बहाल की. कानपूर में भी चमड़ों के वस्तुओं का बड़ा ब्यापार होता है. वैसा कोल्हापुर की भी कोल्हापुरी चप्पल ज्यादा ही प्रचलित और प्रसिद्ध है.

कांशीराम भी बाबासाहब से कुछ ज्यादा ही शाहू महाराज से प्रभावित था, यह नजर आता है. महाराष्ट्र में सबसे पहले आरक्षण निति को बढ़ावा दिया था, तथा उनके ही विचारों को बाबासाहब ने भी संविधान में ढाला है, ऐसी उनकी धारणा रही है, जो बेबुनियाद है. शाहू महाराज ने राजकीय आरक्षण की कभी पहल नही की थी और बाबासाहब ने कभी नोकरियों के जनसँख्या के अनुपातवाले जातिगत आरक्षण की कभी वकालत नहीं की थी.


भारतीय संविधान में एससी/एसटी को जो आरक्षण मिला है वह पूना करार के तहत राजकीय आरक्षण उच्च वर्णीय हिन्दुओं ने मंजूर किया था वह मिला है. सबके लिए सुविधाए होनी ही चाहिए तो फिर ओबीसी के लिए क्यों नही? इसलिए “धारा-३४०’ का उदय हुआ. आरक्षण के निति जाती के आधारपर होने से जातिवाद हमेशा ही कायम रहेगा तथा उसके विपरीत परिणाम भी समाज को भुगतना पड़ेगा. न जातियों का अंत होगा और न उनके परिणामो से छुटकारा मिलेगा. जातिगत आरक्षण से केवल १०% पिछड़ों को फ़ायदा हो सकता है, फिर भी बहुत बढ़ा ९०% पिछड़े हिन्दुओं का शोषण हमेशा के लिए बरकरार रहेगा. 

ऐसे में शाहू महाराज की आरक्षण निति या उच्च वर्नियों द्वारा दी गयी “पूना समझौतों” की भिक देश के जातिगत, वर्णगत शोषित लोगों को कैसे क्या सुखी बनाने में सहयोगी है? इसे जनता के सामने बामसेफ, बीएसपी के बुद्धिजीवी (?) चमचो ने समझाना चाहिए, जिनके लिए वे हमेशा वर्णवादी शाहू महाराज की तरफदारी करते रहे है. “पादुका” पूजक लोग बौद्ध धम्म के सामने नया संकट खड़ा करने के लिए “सदधर्म” और “आदिधर्म” की स्थापना कांशीराम भक्त कर चुके है, इतना ही नही तो उनका प्रचार भी चालू है.


बामसेफ के जरिए अगर बौद्ध धम्म का प्रचार ईमानदारी से किया जाता तो उनके सहयोग के बिना “शिवधर्म” की निर्मिती हुयी होती? क्या शिवधर्म बुद्धधम्म है? ‘हम पहले लोगो को जागृत कर रहे है, फिर एकसाथ बौद्ध समारोह लेंगे और बुद्धमय भारत करेंगे’ ऐसी बामसेफ की मानसिकता हो सकती है पर उनके मानशिकता को कांशीराम ने तहसनहस किया की नहीं? ‘अगर ओबीसी बौद्ध बन भी जाते है तो उनके साथ बौद्ध लोग भेदभाव नहीं करेंगे, इसकी क्या ग्यारंटी है? ऐसे बेतुकी सवाल जो बामसेफ के एजंट करते है, तो उनकी मानसिकता बौद्ध धम्म को आगे बढ़ाने या प्रचारित करने की है या नहीं? इसका अंदेशा सहज लग जाता है. दूध माँगनेवाले बर्तन को छुपाकर दूध नही मांगते. 

अगर ओबीसी को बामसेफ ने जागृत किया तो वे "शिवधर्म" में क्यों भाग गए? क्या शिवधर्म के लोग छुआछात नही कर रहे है? क्या यही सही जाग्रति है? पुराने महार आज के बौद्ध हमारे रिश्तेदार कैसे बन सकते? इस छुआछूत के डरको पलनेवाले ओबीसी लोग जागृत हुए है? बामसेफ/बीएसपी ने किसी को भी जागृत नही किया तो उल्टे जो बौद्ध धम्म में धर्मान्तरित होने के इंतजार में थे उन्हें रोखकर रखा है. बामसेफ/बीएसपी यह अम्बेडकरी बौद्ध जनता की हिमायती नहीं है तो वह दुश्मन है. अम्बेडकरी धम्म क्रान्ति के लिए घातक है.

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