शुक्रवार, 5 जुलाई 2013

तानाशाही या जनतंत्र ?


नतंत्र के मुख्य चार पिलर होते है, न की केवल सत्ता. इसलिए केवल सत्ता को ही महत्व देना बेकार की बाते है, जो हमेशा बामसेफ, बीएसपी के लोग कहते आए है. उसमे से सत्ता भी सिर्फ एक अंग होता है. सत्ता हातों में आने मात्र से प्रशासन भी हातों में आता ही है ऐसा भी नही है, सत्ताधीश केवल कानून बना सकते पर उसे लागु करने के लिए प्रशासन की जरूरत होती है. प्रशासन सत्ता का गुलाम नहीं होता, वह बने हुए कानून का सेवक होता है. वैसे ही न्याय व्यवस्था भी प्रशासन के माफिक ही सत्ताधीश के चाकर, नोकर नही होते की राजनेता जैसा कहे उसे ही वह सही मानकर निर्णय, न्यायदान करे, वे भी कानून को ही देखते है, इतनाही नही तो अगर राजनेता या प्रशासक की भी गलती होनेपर उसे जेल में भेज देते है.



प्रशासन, न्याय व्यवस्था के बाद में मिडिया भी राजनेताओं का गुलाम होता है, की मायावती ने कहा की बुद्धधम्म ले लीजिए तो वे भी ले ही लेंगे. देश में जनतंत्र को चलाने के लिए न केवल राजसत्ता को ही महत्त्व देना चाहिए, बल्कि प्रशासन, न्याय व्यवस्था तथा मिडिया को भी तवज्जो देना चाहिए. केवल सत्ता हाथ में आयी आर बाकि तिन अंग हातों से बाहर है तो बनाए हुए कानून का क्या मतलब रहता है? जनतंत्र में सत्ता ही सबकुछ नही है, पर कुछ लोग मानते है, वह उनकी नादानी है. अपने पार्टी के हितों में अंधे होकर टिपण्णीया करते रहते है. उसे बुद्धिमत्ता का दर्जा नही दिया जा सकता, वह केवल जातिवादी, धर्मवादी, स्वार्थ भावनाओं का खेल है.


समाज का एक हिस्सा सत्ता (शासन, प्रशासन, न्यायदान और मिडिया) भी है, उसके अतिरिक्त दूसरा अर्थ, तीसरा धर्म/जाती/निति और चवथा शिक्षा है. इन तिन समाज के अंगो के बिना सत्ता भी हातों में रहने से कुछ भी फायदा नहीं. उन्हें अगर संसदीय सत्ता नही भाई तो वह उसे एक झटके में फेक भी सकते है. उसके लिए फिर चुनाव के तारीखों का मुहूर्त कोई भी मायने नही रहता. मायावती का कोई भी निर्णय अगर केंद्र द्वारा निकाला गया तो पूंजीवादी लोग उसे तवज्जो देंगे ही ऐसा भी नही हो सकता. धार्मिक या जातिवादी लोगों को एखाद सरकारी निर्णय सही नही लगा तो वे भी बगावत कर सकते है, तथा सरकारी सिलेबस अगर टीचर को उचित नही लगा तो वे उसे पढ़ाने के बजाए अन्य भी पढ़ा सकते है. मेरे कहने का मतलब केवल कानून बनाने से ही समाज में ऐच्छिक परिवरतन नही आ सकता. सामाजिक परिवर्तन के शिवाय राजकीय परिवर्तन आएगा तो वह कुछ ही समय के लिए होगा जो सामाजिक परिवर्तन के लिए काफी/उचित साबित नही होगा.


क्या लोगों को याद नही है, की भारत का इतिहास जातिवादी लेखको ने लिखा है? जिस जाती/वर्ण/वर्ग/पंथ का लेखक है उन्होंने अपनी ही बाते बढ़ा चढ़कर लिखी है, उसपर जाती/धर्म निरपेक्ष विचार/लेखन होना चाहिए. भारत कभी भी पुरे ढंग से बौद्ध नही बना. भारत के अमीर लोग यानि जैसा पूरा भारत नही साबित होता, वैसा ही भारतीय राजा/रानी यानि पूरी प्रजा/देश नही साबित होती है. सम्राट अशोक का शासन भारत में था पर वह जनतंत्र पर निर्भर था. उसे जनतंत्र नहीं कहा जा सकता. जनतांत्रिक लोगों ने किसी भी वर्ण/देश के राजाओं की तारीफ नही करनी चाहिए, पर वे अगर करते है तो वे जनतांत्रिक मूल्यों में भरोसा/विश्वाश नही करते, ऐसा ही समझा जाएगा. और समझना भी चाहिए.


सम्राट अशोक ने खुद जिस धम्म की शिक्षा ली थी उसका नाम बौद्ध धम्म है, उसी धम्म के प्रचार के लिए उन्होंने अपने पुत्र-पुत्री को संघ के लिए दान भी दिया था, जो श्रीलंका में धम्म प्रचार के लिए अपने गुरु के साथ चले गए थे. यह उनका महान त्याग है. उन्होंने धम्म के नाम पर धर्म परोसा गया, जो महायान था. महायान का मतलब वैदिक/हिन्दुधर्म धर्म ही था. हर भारत के राजा ने क्षत्रिय वर्ण पर गर्व किया है. क्या क्षत्रियों का यह गर्व बुद्धिज़्म का हिस्सा हो सकता? सम्राट अशोक ने खुद को "देवनाम प्रिय" यांनी "ईश्वर को प्यारा" कहा है. इतना ही नही तो उनका व्यक्ति के पुनर्जन्म पर जय भीमभी विश्वास था. अगर मै इस जन्म राजा का कर्तव्य सही ढंग से, पुन्य प्राप्त करते हुए निभाया तो अगले जन्म में मुझे स्वर्गीय सुख मिलेंगे. क्या यह बुद्ध धम्म की शिक्षा का परिणाम है?


सम्राट अशोक ने "सर्वधर्म समभाव" का शासन दिया. उन्होंने पत्थरो पर धम्म वचन लिखकर देशविदेश में भेज दिया, मुर्तिया/बुत बनाए, विहार/मंदिरों की निर्मीती भी की थी. इसका मतलब यह नही होता की उन्होंने अपने शासनकाल में जैन, वैदिक, महायानियों को भी नही पाला था. उन्होंने बुद्ध के सही विचारों को आगे करने, प्रचारित करने का जो कार्य किया है, दान दिया है, धर्म अमात्यो की निर्मिती की थी उससे ही बुद्ध विचारों के प्रतिस्पर्धी/दुश्मन पैदा हुए, जिसने उनके ही पन्तु, बृहद्रथ राजा का अंत किया. अगर सम्राट अशोकने साम्रदायिक ताकतों से शक्ति या प्रबोधन द्वारा निपटा होता तो बृहद्रथ न हत्या होती, न वैदिको के हातो में देश की सत्ता बटती और न वर्ण व्यवस्था का शक्ति से रजिस्ट्रेशन होता, और न देश मुघलों के अधीन जाता, न अन्य देशी-विदेशी ताकतों के जरिए बुद्धिज़्म को पराजित, अंत करने में किसी की ताकत होती.


बीएसपी अगर देश में सम्राट अशोक के सपनो का भारत बनाना चाहती है तो क्या उनके ही जैसी राजेशाही जनतंत्र के अधीन चलाना चाहती है? उनका सर्वधर्म समभाव के सिद्धांत को ही अम्बेडकरी जनता ने धम्म समझना चाहिए? क्या भारतीय साम्पदायिक तकते चुपचाप बैठकर ही बीएसपी/ कुंवारी मायावती के तानाशाही, जातिवादी शासन देखते रहेंगे? ऐसे काफी सवाल है, जिसके सही सवाल कोई भी जातिवादी, वंशवादी, धर्मवादी व्यक्ति नही दे सकता तो बीएसपी, एक मुर्ख लोगों की पार्टी या वे लोग जो मुलनिवाशी/बामसेफ के नाम से लोगों को ठगते जा रहे है, वे इस अन्छुते सवालों के सही जवाब दे पाएंगे?

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