प्राचीन भारतीय इतिहास में सुना है की आर्य बनाम नाग वंशीय लोगों का महान झगडा हुआ था, जिसमे नाग हार गए तो उन्हें गुलाम बनाया गया. (देखे उनका काशी विश्व विद्यालय के सामने दिया हुआ, १९५६ का भाषण) उन्हें दास, दस्यु, असुर नाम दिए गए. नागों को आर्य इसलिए जित सके की वे घोड़ों पर बैठकर जंग में सिरकत की थी तो नाग पैदल होकर जंग में सरिक हुए थे. आर्यों के पास घोड़े नाम के शक्तिशाली साधन थे तो वे कहाँ से आए? क्या घोडा भारत का प्राचीन प्राणी है? अगर नहीं तो वह कहाँ से आया है? संस्कृत में घोड़ों को अश्व कहा गया है. लोकमान्य तिलक खुद को ब्राह्मण मानते थे क्योंकि वे ब्राह्मण मैन-बाप के परिवार, घर में पैदा हुए थे.
जन्म के आधारपर ही वे ब्राह्मण हुए, जन्म के ही आधार पर वे खुद को आर्य वंश का होने का गर्व कर रहे थे. जो तिलक वंश के आधारपर गर्व किया करते थे उन्हें गलत साबित करने के लिए उन्हें बाबासाहब आंबेडकर ने जवाब किया था की, ‘क्या आर्टिक खंड में घोड़े पाए जाते थे?’ अगर वहां से ब्राहमण नामक आर्य वंशीय लोग बाहर से आए है, इसे सही माना जाए तो उनके घोड़े उनके पास कहाँ से आए थे, जो नाग वंशीय लोगों के पास नहीं थे? अगर घोड़े विदेश से नहीं तो उसे भारतीय प्राणी, जानवर माना जाए तो वे फिर प्राचीन नाग लोगों के पास क्यों नही थे? आगे बाबासाहब यह सिद्ध करते है की ‘आर्य’ नाम का कोई भी ‘वंश’ नहीं था, वह एक गुणवाचक शब्द था, जिसका अर्थ श्रेष्ट, महान, विजयी, पराक्रमी, शुर, रॉयल, नोबल होता है, जो वर्ण व्यवस्था के सभी चारों ही गुठों में पाए जाते है.
सिर्फ ब्राह्मण वर्ण ही शुर या आर्य नहीं होते थे, तो अन्य भी वर्णों के लोग “आर्य’ कहलाए जाते थे. इसलिए केवल ब्राह्मणों को ही अगर आर्य समझा जाए तो वह प्राचीन इतिहास के साथ अन्याय होगा. शुद्र वर्ण भी क्षत्रिय वर्ण से ही बना है, जिन क्षत्रिय राजाओ का उपनयन विधि वैदिक शास्त्रों के आधारपर नहीं किया जाता था उन्हें ‘शुद्र’ राजा कहा जाता था. राजा शुद्र भी विजय हासिल किया करते थे पर वह आर्य होने के साथ ही शुद्र वर्ण के ही समझे जाते थे.
डॉ बाबासाहब आंबेडकर अपने शोध ग्रन्थ मे लिखते है, "सबसे मानवीय प्रमाण मानव शास्त्रान्वेसण का था. पहला अनुसंधान सर हरबर्ट रिजले ने ई.स.१९०१ मे किया. उनका कथन है की, भारत की चार जातीया (वर्ण) - आर्य, द्रविड़, मंगोल और सीरियन का मिश्रण है. सन १९३६ मे डॉ. गुहा ने पुन्हा अनुसन्धान किया. उनके अनुसार भारतीय दो जातियों के है, यानि लंबे सिर वाले और छोटे सिर वाले. पश्चिम मे भी मेडीट्रेनियन के लोग लंबे सिर वाले और अल्पस प्रदेश के लोग छोटे सिर वाले थे. मेडीट्रेनियन लोग यूरोप मे रहते थे और आर्य भाषा बोलते थे, अल्पस एशिया के हिमालय प्रदेश मे रहते थे और आर्य भाषा बोलते थे. अतएवं, हर प्रकार से यह सिद्ध है की आर्यो की दो जातिया थी, जैसा की वृग्वेद से प्रकट होता है. अतएवं पश्चिम के सिद्धांत की आर्य एक जाती है और उन्होंने हिन्दुस्थान मे आकर दासों और दस्सुओं पर विजय पाई, यह सही नही है." (शूद्रों की खोज, अध्याय- ५)
डॉ. बाबासाहब आंबेडकर ने "हूँ वेअर द शुद्राज?" के ७ वे अध्याय मे लिखा है, "यह सिद्ध हो चूका है की शुद्र अनार्य नही है. तो वे क्या थे? उसका उत्तर है १. शुद्र आर्य है. २. शुद्र क्षत्रिय है. ३. शूद्रों का स्थान क्षत्रियों मे उच्च था, क्योंकि प्राचीन काल मे कई तेजस्वी और बलशाली राजा शुद्र थे. यह मत इतना अनोखा है की इसे लोग मानने कों तयार न होंगे. अतेव, अब प्रमाणों की जाँच की जाए. प्रमाण महाभारत, शान्ति पर्व, (६०,३८-४०) मे है. "हूँ वेअर द शुद्राज?" उसका उत्तर भी स्वयम बाबासाहब आंबेडकर ने ही गुणों के आधारपर ही दिया है की, शुद्र भी 'आर्य' ही थे. अगर उसे वंश के आधारपर लिया गया तो बामसेफ, बीएसपी के मुलनिवासी भी विदेशी ही साबित होते है. उन्हें भी आर्य होने के कारण देश से बाहर क्यों नही निकाला जाए? ऐसी भी मांग सामने आ सकती है.
आज के ओबीसी अगर कल के शुद्र, क्षत्रिय, आर्य ही है तो वे देशी कैसे क्या साबित होते है? एससी/एसटी/ओबीसी (हिन्दू) ने खुद को नाग वंशीय घोषित नही करना चाहिए, जैसा आर्य वंश का अभिमान, गर्व व्यर्थ है वैसा ही 'नाग' वंश का गर्व, अभिमान भी बेबुनियादी है. बुद्धधम्म के विचारों से मेल नही खाता, वह ब्राह्मणवादी, संघपरिवारवादी है. न बुद्ध ने कभी नाग पूजा को धम्म में स्थान दिया है, और न बाबासाहब आंबेडकर ने शंकर भगवान के गले में लटके "नाग" को तवज्जो दिया है. नाग वंश का अभिमान हमें बुद्ध के पहले के वैदिक धर्म से जोड़ता है, जिसे बुद्ध ने सिर्फ उसे "पथविहीन रेगिस्थान" कहा है. जिसमे कोई रास्ता नही होता, केवल भटकने का ही डर हमेशा दिमाग में होता है.
जैसे बाबासाहब आंबेडकर आर्यों को वंश के आधारपर स्वीकार करने को तैयार नहीं है, वैसे ही बुद्ध ने भी करीब पौने तिन हजार साल पहले ही “आर्य” शब्द को गुणवाचक ही स्वीकार किया था, जो उनके दर्शन के नाम में ही पाया जाता है, दिखाई देता है, जिसका नाम “आर्य” अष्टांगिक मार्ग है. केवल ब्राह्मण जाती के लोग कूद को श्रेष्ट मानते थे पर वे ही केवल श्रेष्ट नहीं हुआ करते थे इसे साबित करने के लिए महाराष्ट्र के हिन्दुधर्म सुधारक राजा शाहू महाराज भी अपने भाषण में कहते है की, आर्यों को वैदिक् काल में गुणों के आधारपर ही स्वीकार किया जाता था, जन्म के आधारपर नहीं, वंश के आधार पर नहीं. चार वर्णों में से हर वर्ण के लोग भी आर्य हुआ करते थे. इतना ही नहीं तो उन्होंने इसे भी माना है की आर्यों का मूलस्थान तिबेट है. (देखे- राजर्षी शाहू महाराज स्मारक ग्रन्थ, प्रकाशक- महाराष्ट्र इतिहास प्रबोधिनी, कोल्हापुर, प्रकाशन- १००९, पृष्ट- ८३४)
एकतरफ आर्यों को अगर गुणवाचक मानने के बाद उन्हें जन्म के आधारपर स्वीकार करते हुए उनके उगमस्थान को उल्लेखित करने की क्या जरुरत थी? शाहू महाराज भले ही आर्यों को गुणवाचक होने का दावा करते रहे फिर भी वे स्वय नाग वंशीय होने का दावा पेश नहीं कर सके. शाहू महाराज खुद को आर्य वंशीय मानते है और बाबासाहब खुद को नाग वंशीय मानते है. बाबासाहब आर्यों को एकतरफ वंश के आधार पर स्वीकार करने में तयार नहीं, मगर नागों को वंश के आधारपर स्वीकार क्यों करते है? (देखे उनका काशी विश्व विद्यालय के सामने दिया हुआ, १९५६ का भाषण)
पाठको के लिए यही सत्य हो सकता है की, जिसे साबित करने लिए तर्कसंगत सबूत पेश नही किए गए है, वह विचार व्यर्थ है, जो केवल भावनाओं के आधारपर लिए गए है, जिसे ऐतिहासिक सबूतों के अभाव में अस्वीकार करने के शिवाय दूसरा और कोई भी राश्ता नही है. अगर ‘आर्य’ को गुणवाचक शाहू और आंबेडकर मानते है तो उनका ‘नाग’ भी गुणवाचक ही शब्द है, जो नागों के डर से उसे भगवान मानकर उसकी उपासना, पूजा किया करते थे वे ही सिर्फ गुणों के आधार पर नाग है. न की वे किसी भी नागिन के पेट से पैदा हुए लोग है. पूजा या भक्ति यह गुण है, न की उसे वंश समझना चाहिए.
वंशवाद न ब्राह्मणों के लिए सही है और न गैर ब्राह्मणों के लिए. देश में वंश के आधार पर जंग छेड़ने की कोशिस देश में दरार फ़ैलाने का एक प्रयास है, वह चाहे किसी भी गुटों के जरिए फैलाया जा रहा है वह निंदनीय, गैर जनतांत्रिक हिस्सा है. जनतंत्र में ऐसे विचारों को बढ़ावा देना देश के साथ नाइंसाफी होगी. बुद्धिजीवी लोगों ने अपने बुद्धि के जरिए किसी भी प्रकार का भेदभाव न फैले इसके लिए अपने बुद्धि का इस्तेमाल करना चाहिए, न की अपने छद्म जाती, वंश, वर्ण, वर्ग के आधारपर करना चाहिए. जो भाईचारा सभी भारतीयों के बिच बने इस उद्धेश से कार्य करते है वे विद्वान कहलाए जाएँगे बाकि लोगों को सिर्फ जातिवादी आतंकी ही समझे जाएँगे. बुद्धिजीवी ने जातिवादी बनना है या राष्ट्रिय बनाना है, इसे उन्ही ने तय करना है. इसे उन्ही ने तय करना है.
नाना वरन है गाय, एक रंग है दूध, तुम कैसे बम्मन और हम कैसे सूद? संत कबीर अगर खुद को ब्राह्मणों के मतों का खंडन करते हुए खुद को शुद्र मानने से इंकार करते है. तो उनके उपासकों को क्या आपत्ति होती है? जिससे खुद को शुद्र, अतिशूद्र मानने के शिवाय उनका कल्याण नही होगा. कल्याण के लिए या इतिहास में खुद को ऊँचा होने का दावा करना बेकार है, सभी वर्ग के लोग विजित और पराजित हुए है. जो लोग इतिहास को भूलते है वे इतिहास नही बनाते, तो क्या हमारा उद्धेश इतिहास बनाना है? या भविष्य को सुखमय बनाना है? भविष्यकालीन सुखों के हितों में अगर उज्वल इतिहास भी आए तो उसे मिटा देने में ही, उसे भुला देने में ही बुद्धिमानी है, उसे याद रखने में नही.
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