रविवार, 7 जुलाई 2013

शाहू महाराज और वर्णाश्रम धर्म




महाराष्ट्र के कोल्हापुर संस्थान के राजा शाहू महाराज का अन्तकाल ६ में, १९२२ को हुआ. आजसे करीब ९१ साल पहले उनका देहांत हुआ. उन्हें हिन्दुधर्म सुधारक राजाओ के रूप में जाना जाता है. आधुनिक जगत में अनेक सुधारक रहे पर उनके जातिगत आरक्षण निति के वजह से वे ज्यादा ही पहचाने जाते है. आज जो आरक्षण निति चालू है उनके पितामह उन्हें ही समझा जाता है.



शाहू महाराज का नाम यशवंतराव था, उनके पिता का नाम जयसिंगराव उर्फ़ आबासाहेब घाडगे था. वे कागल (जेष्ट) घराने से ताल्लुक रखते थे. उनके उम्र के सातवे साल उन्हें कोल्हापुर के राजगद्दी के वारस के रूप में ‘दत्तक’ लिया गया. सन १८९४ में उनका राज्यभिषेक हुआ. तभी से १९२२ तक यानि करीब ३० साल तक उन्होंने राजगद्दी संभाली थी.


अपने तीस साल के कार्यकाल में उन्होंने ब्राह्मण लोगोने ने विशेषत: बाळ गंगाधर तिलक (पुणे) ने काफी सताया था. उनसे तंग आकर वे ब्राह्मणों के विरोधक बने और उन्होंने “अब्राह्मण आन्दोलन” को बढ़ावा दिया. वर्णवाद, जातिवाद के आधारपर उनका ब्राह्मणों ने विरोध किया तो उन्होंने भी उसी वर्णवादी, जातिवादी के आधारपर ही अपने आन्दोलन की नीव डाली. ब्राह्मण बनाम अब्राहम जंग चालू हुयी. जाती और वर्ण को जन्म के आधारपर उचित/अनुचित समझा जाता उसे बुद्ध, कबीर, फुले और बाबासाहब ने विरोध किया पर पर शाहू महाराज भी ब्राहमणवाद को नही समज सके और उनके जाल में फंस गए.


सुरु में शाहू महाराज छूत-अछुत के बीमारी से ग्रस्त रहे. अछूतों के स्पर्श होने के केवल आभाष से भी वे खुद को पवित्र, शुद्ध होने के लिए नाह लेते. ब्राह्मण द्वेष के कारण अन्य लोगों को अपने प्रशासन में सामिल करने के लिए उन्हें उत्तम सुशिक्षित प्रशासकों की जरुरत थी, उसकी पूर्ति करने के उद्धेश से ही उन्होंने शिक्षा संस्थानों यानि जातिगत २० हॉस्टल और लगबग उतने ही पाठशालाओ की निर्मिती की थी.


शाहू महाराज के संस्थान में ३% ब्राह्मणों को ५०% आरक्षण था और बाकि ९७% लोगों में से केवल मराठो के लिए ५०% जातिगत आरक्षण था. बाकि तेली, तम्बोली, जैन, लिंगायत, मुस्लिम और अचुतों के लिए कितने गुना आरक्षण था? इसकी कल्पना करने करने की जरुरत है. मराठे क्षत्रिय नही तो शुद्र है ऐसी सोच ब्राह्मणों की थी पर मराठे खुद को शुद्र मानने के बजाए ‘क्षत्रिय’ मानना पसंद करते थे. शुद्र रहे या क्षत्रिय, दोनों भी ब्राह्मणों के वैदिक चातुर्वर्ण्य के ही अंग है, जिसे अभी हिन्दू धर्म में उनका समावेश होता है, वर्णवादी आन्दोलन आगे जातिवादी बना क्योंकि जाती तोड़ने के लिए साहू महाराज ने प्रयास नही किया.


शाहू महाराज के गुरु फ्रेजर रहे है, जिसने उन्हें पश्चिमी धर्ती की येशु भगवान की ‘ईश्वरवादी’ शिक्षा मिली. ईश्वर ने चातुर्वर्ण व्यवस्था और जाती व्यवस्था बनाई है, उसे तोड़ने का प्रयास ईश्वरविरोधी कार्य होगा, इस डर से उन्होंने न कभी वर्ण व्यवस्था को तोड़ने की कोशिस की थी और न जाती व्यवस्था को तोड़ने के लिए उचित कदम उठाए. जिसका परिणाम यह हुआ की उनके सुधारनावादी धोरण का समाज पर ख़ास कोई असर नहीं गिरा.


हिन्दुधर्म में भारतीय स्थर पर जितनी भी अछूतों की जातिया थी, उसमे पहला मत्रिक पास होनेवाला लड़का महार जाती का था, जो कोल्हापुर इलाखे से नही तो मुंबई इलाखे से था, जिनका नाम भीमराव रामजी अम्बेडकर था. उनका जन्म मध्यप्रदेश के महू में हुआ पर बचपन शाहू महाराज के सांगली, सातारा जिलों में हुआ था, जहाँपर अछूतों के साथ किस ढंग से अनगिनत अत्याचार, भेदभाव चालू थे? इसकी जानकारी भीमराव आंबेडकर के पूर्व जीवनी से ही पता चलती है.


शाहू महाराज के इलाखे में अछूतों के क्या हाल थे? उसे देखते हुए १९२० के मानगाव परिषद में खुद शाहू महाराज ने ही कबूल किए थे. महारो को वतनदारी थी, जिसमे कुछ भी ख़ास फायदा नहीं था, उनसे जबरन काम किया जाता था पर उनके उचित मुहावजे की कोई गारंटी नही थी. गाँव के बाहर गावों की रखवाली करने की जिम्मेवारी उनपर दी गयी थी. भीमराव उर्फ़ बाबासाहब के आग्रह के बाद उसे ख़त्म करने के लिए शाहू महाराज ने अपने अंतिम दिनों के पहले २ सालो में उसका अध्याधेश निकाला था.


मानगाव परिषद के अपने अध्यक्षीय भाषण में शाहू महाराज ने महार जातियों को कहा था, की अछूतों को उनका सही नेता भीमराव अम्बेडकर के रूप में उन्हें मिल चूका है. इसका अर्थ यह हुआ की वे केवल अछूतों के ही नेता है, न की अन्य हिन्दू, अब्राह्मण आन्दोलन के नेता. अगर अब्राहमन आन्दोलन के नेता के रूप में उसे अगर कहा होता तो वे उनके चमार, मराठे, जैन, मुस्लिमो के भी नेता हो सकते थे. पर उससमय के लोगों की जातिवादी सोच शाहू महाराज के दिमाग में ऐसी बैठी थी की केवल ‘क्षत्रिय’ वर्ण ही श्रेष्ट है, न की अतिशूद्र, महार, मांग आदि अछुत जाती, भटके विमुक्त या जंगली जातिया.


शाहू महाराज का ब्राह्म्नेत्तर आन्दोलन जातिवादी ही रहा है. बाबासाहब भीमराव आंबेडकर ने उन्हें अपने मित्र के रूप में माना आदर दिया पर वे अपने ब्राह्मनेतर आन्दोलन में उन्हें न स्वीकार कर सके और न उनके जाने के बाद उनके आदोलन के कार्यकर्ताओ ने बाबासाहब का साथ निभाया. उनके आन्दोलन से समाज में जातिवाद फैला पर नष्ट नही हुआ, अगर सही में उनके आन्दोलन के जरिए जातितोड़ो आन्दोलन किया होता तो जातिविरोध के अम्बेडकरी आन्दोलन में अर्थात धर्मान्तर में महार जातियों के अलावा अन्य जातियों ने भी सहभाग दिया होता.


शाहू महाराज जिस चमार जाती के समझे जाते थे, उन चमार जाती में भी वे यह जाग्रति नही की की जातिवादी सोच को पालना बेवकूफी है. अछूतों में से महार जाती को नीच समझकर उनके साथ, बुद्धिजीवी बाबासाहब के साथ न केवल उच्च वर्णीय, लोगों ने भेदभाव नही किया था तो अछूत समझे जानेवाले मांग, ढोर, चमार जातियों ने भी भेदभाव किया था और अभी भी कर रहे है, जो महारों का बुद्धधम्म समजकर उनके साथ बेटी व्यवहार करने में उत्सुक नहीं है.


चमार का लड़का अगर मराठो ने दत्तक लिए और उन्हें राजा बनाए, तो वे खुद को महान, क्षत्रिय समज रहे है. वर्ण और जाती व्यवस्था को सही समझ रहे है, उसे जाती, वर्ण गर्व, अज्ञान, पुराणपंथी नही कहना चाहिए तो और क्या? उनके स्मारक बनाकर चौराहे पर खड़े किए जाए तो उनसे प्रेरणा क्या मिलेगी? चातुर्वर्ण सही है, ईश्वर ने उसे निर्माण किया है, वेदों के विचार सही है, जातिवाद सही है और उसे तोड़ने के बजाए उच्च जातीयों के द्वेष के लिए निम्न जातियों के लोगों ने जातिवाद को बिना छोड़े अपने ही देश में हिन्दुधर्म में हमेशा संघर्षरत रहे.


केवल अपने राजेशाही को उच्चवर्णीय ब्राह्मणों के हमलों से बचाने के लिए उन्होंने शिक्षा और नोकरियो के लिए कुछ ही हदतक बढावा दिया. जिसका खास फायदा पिछड़े जातियों को नही हुआ. जैन भी ठीक, मुस्लिम भी ठीक, हिन्दू भी ठीक, लिंगायत भी ठीक, मराठे भी ठीक ऐसे वे ही लोग कहते है जो सत्ता से हटकर समाज का मुल्यमापन नही करते. अगर लोगों के आचार-विचारों और मन्येताओं में जमीन-असमान का फर्क रहने पर भी उसे ख़त्म करने की पहल करने के लिए उचित पहल करने के बजाए केवल उपरी स्थर पर लिपा-पोथी करने से क्या फायदा?


न कोई व्यक्ति अपने पिछड़े जाति के आधारपर महान होता है और न कोई व्यक्ति अपने अगड़े जाति के आधारपर महान हो सकता. जिनके विचार जनतंत्र के लिए उचित साबित होते है, जनतंत्र को बढ़ाने में सहाय्यक होते है, उन्ही के देश में स्मारक होने चाहिए, अन्यथा जातिवादी, वर्णवादी, वंशवादी लोगों के पुतले, बुत सार्वजनिक क्षेत्र में खड़े करने से देश में जातिगत आतंक और अनाचार फैलेगा जो मानव हितों से विपरीत होगा.


शाहू महाराज धर्म से एक हिन्दू राजा थे, जो हिन्दुधर्म के अंतर्गत अपने को क्षत्रिय वर्ण के अंतर्गत सम्मान की अभिलाषा करते थे पर सामान्य जनता को हिन्दुधर्म के नर्क से आझादी दिलाने के बजाए उसी में फँसाने के लिए उपनयन, आर्य समाज का प्रचार किया करते थे. उनके कार्य में और बाबासाहब अम्बेडकर के कार्य में काफी फर्क रहा है. शाहू महाराज ‘हिन्दुधर्म सुधारक’ रहे है तो भीमराव उर्फ़ बाबासाहब आंबेडकर ‘समाज क्रांतिकारक’ रहे है.


डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर से जातीयवादी ईर्षा करने के उद्धेश से बीएसपी/बामसेफ ने ‘शाहू महाराज के स्मारकों’ को बढ़ावा देने का वर्णवादी, जातिवादी कार्य नही करना चाहिए, जो न देश के जनतंत्र के लिए उचित है और भारतीय गरीब समाज के लिए हितावह है. क्या अब पथ विहीन रेगिस्थान के समान, वैदिक चातुरवर्ण के ईश्वरीय भेदभावी विचारों से जनतंत्र चलना चाहिए?


बाबासाहब भीमराब आंबेडकर के मतानुसार अगर हिन्दू धर्म ही नरक है, तो चातुर्वर्ण्य की वकालत करने से, ऐसा कोनसा स्वर्ग मिलेगा? वर्णवादी वकालत करनेवालबाल गंगाधर तिलक प्रेरणादायी हो सकते, न सरदार वल्लभभाई पटेल प्रेरणादायी हो सकते, न मोहनदास गाँधी प्रेरणादायी हो सकते आर न छत्रपति शाहू महाराज प्रेरणादायी हो सकते. इसे देश के जनतांत्रिक जनता ने गंभीरता से सोचना चाहिएत और उसके बाद ही उसका समर्थन करना चाहिए. यही मेरी जनतांत्रिक भारतीय जनता से गुजारिश है.

2 टिप्‍पणियां:

  1. छान ..सर आपला लेख आवडला आणि आणि तो अनेकांनी वाचवा म्हणून
    http://sangharshmitrmandaldeogaon.blogspot.in/ आपल्या नावानिशी येथे टाकत आहे आपली काही हरकत असल्यास कळवावे

    जवाब देंहटाएं
  2. संघर्ष मित्र मंडल आपको मेरी मंज़ूरी है। जहाँ पर भी डालना है ज़रूर डाले।

    जवाब देंहटाएं