मंगलवार, 9 जुलाई 2013

भारतीय जनतंत्र और जातिवादी धोरण

शाहू महाराज के बारे में बीएसपी क्यों ज्यादा प्रचार कर रही है? महाराष्ट्र में अम्बेडकरी/ महार/बौद्ध जातियों से ज्यादा वोट मराठो के है, जो अभी ‘शिवधर्म’ के पास है. मराठे लोग शाहू महाराज को अपना राजा मानते है. अगर मराठो के वोट लेना है तो छत्रपति शाहू महाराज जिस जाती, वर्ण के है, चाहे फिर वे जातिवादी, वर्णवादी क्यों न हो, उनके स्मारक  को मुद्दा बनाया जाए. यह माया की जातिवादी निति है. 

अपने पार्टी के हितों में वह देश में जातिवाद बढ़ाना चाहती है. देश हितो से पार्टी हित उन्हें महान लगता है. यह उनका जातिवादी कदम राष्ट्रिय हितों के विपरीत है. जिसका हमेशा निषेध होते रहना जरुरी है. शाहू महाराज के जीवनी को मै इसलिए यहाँ पर देना उचित समझता हूँ की, उन्होंने अपने जीवन में कोण कोंसे महान कार्य किए है? जिसे इतना कुछ हवा दिया जा रहा है. उनकी जीवनी निम्नप्रकार से रही है...

छत्रपति शाहू महाराज (उर्फ़ यशवंत जयसिंग घाटगे) के नाम जा जन्म २६ जुलाई १८७४ में हुआ था, उन्हें उम्र के ७ वे साल दत्तक लिया गया था. उनके पिताजी का देहांत २० मार्च १८८६ में हुआ, उससमय शाहू महाराज केवल १२ साल के थे. उनकी महाविद्यालय शिक्षा (सन १८८६-८९ में) राजकोट (सौराष्ट्र) के राजपरिवार में हुयी. उन्होंने १८८८ में कोल्हापुर–मिरज रेलवे मार्ग का निर्माण किया. सन १८८९ से १८९३ तक यानि लगबग चार साल तक एस.एम्. फ्रेजर (अंग्रेज) के मार्गदर्शन में विदेशी शिक्षा हासिल की. दिनांक १ एप्रिल १८८९ में उनका ब्याह हुआ. 

कोल्हापुर में लार्ड हेरिस के हातों से दिनांक २ एप्रिल १८९४ में उनका राज्यभिषेक हुआ. सन १८९७ में उन्हें पहला पुत्र प्राप्त हुआ. सन १८९९ से १९०५ तक उन्होंने (ब्राह्मनेत्तर) वेदोक्त आन्दोलन चलाया. सन १९०१ में उन्होंने ब्राह्मण जाती के लिए स्वतंत्र छात्रावास की निर्मिती की. उनके प्रशासन में दिनांक २६ जुलाई २०२६ को उन्होंने मराठो के लिए ५०% जातिगत आरक्षण की घोषणा की और ३% ब्राह्मणों के लिए बाकी ५०% रखी थी. 

हर राज्य में ज्यादातर लगबग १५% ही प्रशासकीय रिक्त पद होते है, यह भी बाते ध्यान में रखना चाहिए. शाहू महाराज के प्रशासन में एक भी महार जाती का व्यक्ति न मास्टर था और न पटवारी, पर ‘चमार’ जाती के कुछ मास्टर जरुर थे. तो अंदाजा लगाना चाहिए की अछूतों के लिए उनके राज्य में कितने प्रतिशत जातिगत आरक्षण था? शाहू महाराज जैसे उच्चवर्णीय हिन्दुओ ने भिक के रूप में जातिगत आरक्षण लागु किया और से पिछड़े जोतिवादी लोग अपना अधिकार समजकर उसे छोड़ना नहीं चाहते, धन्य हो बीएसपी का जातिवाद !

सन १००८ में शाहू महाराज के रास्ते पर बम रखा गया था, पर वे उसमे बच गए. सन १०१० में उन्हें मारने के लिए धमकिया आने लगी तो वे चिंतित रहने लगे. शाहू महाराज ने सन १८१८ में कोल्हापुर में ‘आर्य समाज” (चातुरवर्ण्य) की स्थापना की थी और कहा था, “मै ह्रदय से खुद आर्य समाजवादी हु.” उन्होंने कोल्हापुर के शंकराचार्य पीठ पर डा. कुर्तकोटी की नियुक्ति की थी. 

शाहू महाराज ने दत्तोबा पवार के जरिए मुम्बई में बाबासाहब आंबेडकर से भेट की. उनके मूकनायक पत्र के लिए २५००/- रूपये की मदत की और उनके बारिस्टरी शिक्षा के लिए शिष्यवृत्ति भी दी थी. दिनांक २२ मार्च १९२० में खेतिहर मजदूरों को न्याय दिलाने हेतु मानगाव (जिल्हा-कोल्हापुर) में परिषद का आयोजन हुआ. उसमे वे अध्यक्ष थे और बाबासाहब भीमराव अम्बेडकर प्रमुख मेहमान और मार्गदर्शक भी थे. महार वतन (सिर्फ ४ आर जमीन की मलकीयत थी, जिसमे गावों की सुरक्षा करने के काम थे पर उनका अनिश्चित मुहवाजा था, जिसमे न सही ढंग से पेट भरता था और न बदनपर वस्त्र, उसमे जातिगत गुलामगिरी के शिवाय और कुछ भी नही था.) कानून ख़त्म करने के आग्रह के बाद उन्होंने एक माह के अन्तराल में महार वतनदारी कानून ख़त्म करने का कानून जारी किया. 

कानपूर, उत्तर प्रदेश के कुर्मी लोगों ने उन्हें १९ अप्रैल १९१९ को सन्मानपूर्वक वैदिक “राजर्षि” पदवी बहाल की. उसमे उनका लम्बा, वैदिक, ऐतिहासिक भाषण हुआ. उसमे उन्होंने लोगों को बताया की आर्य समाज के सभासद बने. वैदिक चतुरवर्ण्य व्यवस्था का पालन करे. अंग्रेज सरकार के साथ हमदर्दी रखे. आखिर दिनांक ६ में १९२२ को उनका मुंबई के ‘पन्हाला अतिथि गृह’ में निधन हुआ और कोल्हापुर के “श्री. शिवाजी वैदिक महाविद्यालय’ के विद्यार्थियों के जरिए वेदोक्त मंत्रोच्छारण से पंचगंगा नदी के किनारे पर उनके शरीर अवशेषों का विषर्जन किया गया. ऐसा उनका वर्णवादी, जातिवादी कार्यकाल रहा है.

बीएसपी यह चमार जाती को एक कामयाब जाती दिखाना चाहती है, जिसका तानाशाह चमार ही रह सकता, अन्य जाती, वर्गों के लिए उसमे सिर्फ झंडे और डंडे उठाने के अलावा और कोई भी दूसरा काम बाकी नहीं है, बीएसपी तानाशाह, कुंवारी मायावती ने ब्राहमणवादी सतीशचंद मिश्रा से दोस्ती चालू की है, चमार जाती के हितों में योजना बनाना है, उसे लागु करना होगा तो उनकी शंख बिना बजे नहीं किया जाएगा. यानि शंख सतीशचन्द्र मिश्रा बजाएगा, उसके बाद ही मायावती/बीएसपी का हाथी चलते जायेगा. 

जाती अभिमान, गर्व के कारण ही सन २०१२ में नागपुर के ‘कस्तूरचंद पार्क’ के सभा में मायावती ने एहलान किया था की, अगर उनकी सरकार महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ होती है तो वह  कोल्हापुर में १०० एकर जमीन पर “छत्रपति शाहू महाराज स्मारक” बनाएगी. मराठो के वोट बीएसपी को नही जाने चाहिए. इसलिए कांग्रेस कमिटी के राजनेताओ ने उनके स्मारक के लिए पहल सुरु की है. 

जातिगत वोटों के दबाव में आकर कांग्रेस भी सरकार चला रही है. अगर मुस्लिमो ने मुंबई में कसाब का स्मारक बनाने की पेशकश की तो क्या कांग्रेस पार्टी ने उसे भी पूरा करना चाहिए? ऐसे जातिवादी विचारों से देश का जनतंत्र हजारो जातियों के टुकडो में बटने से कोई भी पार्टी नही रोख पायेगी. जातिगत महापुरुषों के पुतले, स्मारक बनाने की दौड़ कहीं तो भी बंद होनी चाहिए और देश के ९०% गरीब जनता को सुखी, समृद्ध, भयमुक्त करने के लिए उचित उपाय योजना कामयाब करने के लिए ध्यान देना चाहिए. 

शाहू महाराज के जरिए उतने बड़े संस्थान में केवल करीब २० छात्रवास जातिगत और उतने ही जातिगत विद्यालयों का निर्माण किया गया, अछूतों के लिए भी एक छात्रालय खोला गया था, जिसमे पर जातिगत भेदभाव के वजह से महार जाती और ढोर जाती के लिए अलग अलग छात्रावासों का निर्माण किया गया. जिसका उद्धेश शाहू प्रशासन के लिए उत्तम गुणवत्ता से परिपूर्ण प्रशासक मिले इतना ही था. नागपुर के “संत रविदास छात्रावास” के चमार जातीय (जातिवादी हिन्दू) लोग भी कांशीराम को चमार जाती का महापुरुष मानते थे, उनका गौरव् भी किया था. नागपुर के प्राध्यापक पि. एस. चंगोले (चमार, बीएसपी के प्रचारक, जिन्होंने अपनी शादी वैदिक पद्धति से की थी.) भी कांशीराम तथा शाहू महाराज को अपने जाती का पुरुष मानते है. 

बीएसपी को जातिवादी पार्टी कहा जा रहा है, जो देश में जातिवाद का जहर घोल रही है. जातिगत गुट, संघटन, पार्टी और उनके सभा, सम्मलेन और प्रचार पर सरकार ने रोख लगानी चाहिए. नहीं तो आतंकवाद, नक्षलवाद के भी ज्यादा खतरनाक जातिवादी जंग ही साबित होगी जो देश के राजकीय जनतंत्र की धज्जिया उड़ा देगी. रोटी-बेटी व्यवहार से भारत का जातिवाद ख़त्म नही होगा, जाती यह एक वैचारिक समश्या है, उन्हें विचारों से ही ख़त्म करना चाहिए. 

महामानव सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के विचारों में वह शक्ति है की जो जाती, वंश, वर्ण, वर्ग के मिथ्या, छद्म अभिमान को जड़ से ख़त्म कर सकती है, पर जरुरत है की उसे उचित ढंग से प्रचारित करने के लिए सरकारने ने प्रावधान करना चाहिए. जबतक भारत बुद्धमय नही होगा, तबतक जाति-भेदभाव का कलंक देश में जारी रहेगा, जो पुरे समाज को और एकबार भिकारी, गरीब और गुलाम बनाएगा. 

विश्व का हर राजा अमीर और पूंजीवादी होता है, जो आम लोगो के शोषित करता है और जीता है, जिसे वह अपना धार्मिक अधिकार बताता है, जो की वह एक गैर, तानाशाही और निराधार धारणा रही है. जिसका समर्थन करने के लिए उनके स्मारक गरीब जनता के लिए प्रेरणा के बजाए सिर्फ तिरस्कार के प्रतिक बन जायेंगे. जातिवादी गन्दी राजनीती से सरकारने बाज आना चाहिए.

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