आझाद भारत ने संविधान का शासन अपनाया, पर उसमे समता के लिए विषमतामय जातिवादी धोरण का स्वीकार किया है. भारतीय संविधान की धारा- ३४०, ३४१ और ३४२ यह हिन्दुधर्म के शुद्र और अतिशूद्र वर्ण के लोगो समता प्रदान करने के उद्धेश से स्वीकार की गयी थी. उसकी समय सीमा सविधान लागु होने के बाद केवल दस साल तक ही थी. मगर सन १९६० के बाद भी उसे अभीतक जारी रखा गया है. क्योंकि समता प्रस्थापित करने का लक्ष संविधान ने पूरा नहीं किया.
भारत के जनतंत्र के उद्धेश में समता बहाल करना यह मुख्य उद्धेश है, पर उसे हासिल करने के लिए जातिगत आरक्षण का सहारा लिया गया, वह भी उचित साबित नही हुआ, क्योंकि वह भारतीय कुल जनसंख्या के अनुपात में दिया गया. उसके जरिए पिछड़े वर्ग के केवल १०% लोगो को ही ऊपर उठाने का कार्य हुआ और ९०% पिछड़ों को भगवान भरोसे छोड़ा गया. क्या यह संविधान सभा का उचित कदम था? क्या उनके निर्णय प्रक्रिया में खामी नही रही? अगर खामी नही होती तो अबतक मनुवादी जाती के जहर को संविधान के माध्यम से समाज में फ़ैलाने के कार्यों को क्यों अंजाम दिया होता?
अलाहाबाद के उच्च न्यायालय ने “जाती सम्मलेन लेने पर पाबन्धी लगायी” यह उनका उचित कदम है पर जाती प्रथा को ख़त्म करने के लिए वह अपर्याप्त है. जबतक देश में विषमता बहाल करने के लिए उचित कदम नही उठाए जायेंगे तबतक जातिगत आरक्षण जारी रहेगा और जाती प्रचार भी जारी ही रहेगा, क्योंकि सरकारी दफ्तर ही जब जातिगत, सुविधा और गिनती सुरु रखती है, यानि उनका अप्रत्येक्ष प्रचार की कर रही है, तो जातिप्रथा और उनके परिणाम कैसे क्या ख़त्म किए जा सकते है?
भारतीय प्राचीन इतिहास वर्णवादी रहा है, समाज पर उसके विपरीत परिणाम गिरे, जिससे देश में विषमता बड़े पैमाने पर फैली है. मनुस्मृति यह हिन्दुधर्म का ग्रन्थ है, उसका कठोरता से पालन किया गया. जैसे अंग्रेजो ने भारत का शोषण किया वैसे ही हिन्दुधर्म के सवर्णों ने भी अवर्णों का शोषण ही किया है. इतना ही नहीं तो सवर्णों ने सवर्ण शूद्रों का भी शोषण किया है. शोषण का मतलब गैरफायदा उठाया.
मनुस्मृति के निम्नांकित विचारों से पता चलता है की भारत में विषमता कैसे फैली? जो शोषण में सहाय्यक रही है. “ईश्वर ने ब्राह्मण का धर्म/कार्य पढ़ना और पढ़ाना, यज्ञ करना व कराना तथा दान देना और लेना निश्चित किया है. क्षत्रिय का धर्म रक्षा करना, दान देना, यज्ञं कराना, पढ़ना और संस्कारित रहना. वैश्य का धर्म है, सूद खाना और खेती करना, पढ़ना, व्यापार करना. शुद्र का केवल एक ही धर्म है, अपने से ऊँचे वर्णों की श्रद्धा के साथ सेवा करना.” (१, ८७, ९१).
आर्थिक विषमता जबरन फ़ैलाने के लिए मनुस्मृति में ईश्वर के नाम पर ब्राह्मणों ने लिखा, “ब्राहमण शुद्र (सवर्ण हिन्दू) की संपत्ति को बिना संकोच ले (हड़प) सकता है. क्योंकि वह किसी सम्पत्ती का मालिक नहीं होता. जो कुछ सम्पत्ती उसके पास है, वह उसके स्वामी (ब्राह्मण) की है.(८, ४१७). वास्तव में शुद्र को सम्पत्ती इकठ्ठा करते देखकर ब्राह्मणों को दाह उत्पन्न होती होता है. (१०, १२९).
अंग्रेज भारत आए, उन्होंने जुल्मी कानून बनाए, उन्होंने भारत को लुटा है, वे अन्यायी है, एक समुदाय ने दुसरे समुदाय के साथ लुट करना गल्त है तो उन्हें भारत से उनके देश में भगाने के लिए सन १८५७ से १९४७ तक जंग चडी गयी. जिन लोगों ने अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई तो उनसे अन्यायी होने की अभिलाषा कोई व्यक्ति या समाज कर सकता क्या? फिर भी जिन्हें हमने न्यायी समझा उन्होंने ही विषमता के आधार पर मनुवादी आर्थिक परिणाम कैसे क्या लागु किए? भारतीय संविधान के माध्यम से उसे सही करार कैसे क्या दिया गया? मनुस्मृति के विषमतावादी परिणाम भारतीय संविधान के “धारा-३१” में स्वीकार क्यों किए गए?
मनुस्मृति ने देश में विषमता को जन्म दिया. उससे समाज में भाईचारा ख़त्म हुआ, देश विविध गुटों में बंट गया. भारत में अगर अंग्रेज का शासन गल्त था तो मनुस्मृति का शासन सही कैसा था? अंग्रेजो के विषमता वादी परिणामो को मिठाने के लिए उनके सम्पत्ती पर धावा बोला और उनकी पूरी सम्पत्ती अपने कब्जे में ली गयी. फिर मनुस्मृति के कानून के तहत जिन लोगों/वर्गों ने लुट मचाई और शुद्र, अतिशूद्र हिन्दुओ को लुटा, उन्हें लाचार बनाया, शोषण किया, अपाहिज बनाया, अपमानित किया गया. अब उस गुटों के ९०% लोग गरीबी में जीवन यापन कर रहे है, कुपोषित है, फांसी लगा रहे है, तो उनके साथ संविधान में न्याय हुआ है? देश में संविधान के धारा -३१ ने मनुस्मृति के माध्यम से लुटे गए सम्पत्ती को उचित, सही करार कैसे क्या दिया है? यह कारनामा संविधान सभा में बहुमतों में उपस्थित कांग्रेस के मनुवादियों ने किया, उसे आझादी के बाद भी शासन, प्रशासन, न्यायाधीश और प्रिंट मिडिया ने सही करार कैसे क्या दिया है?
भारत में जाती व्यवस्था को जड से उखाड़ना चाहते है तो सबसे पहले उसके परिणामो को हटाना पड़ेगा. यानि जो सम्पत्ती उच्च वर्णीय लोगों ने धर्म/मनुस्मृति के नामपर लुटी है, उसे सरकार ने अपने कब्जे में लेनी चाहिए. अर्थात ‘धारा-३१’ को निष्प्रभ करना चाहिए. व्यक्ति को सम्पत्ती धारण करने के उनके संविधानिक मुलभुत अधिकारों को ख़त्म करना चाहिए, क्योंकि उनके पास अभी जो सम्पत्ती है, वह मनुस्मृति के कानून का परिणाम है, और जिनके पास सम्पत्ती नहीं वह भी मनुस्मृति के कानून का ही परिणाम है. संविधान की धारा-२५ व्यक्ति को धर्म पालन का अधिकार देती है, उसके तहत जातिप्रथा को भी पालन करने की इजाजत मिलती है, क्योंकि वह हिन्दू धर्म का ही एक हिस्सा, भाग है. धर्म के नामपर जातिप्रथा को बढ़ावा मिल सकता है, इसलिए इस धारा-२५ को भी निरस्त करना चाहिए.
जातिगत भेदभाव को बढ़ावा देनेवाले कानून को यानि धारा-२५, जातिगत आर्थिक भेदभाव को सही साबित करनेवाली धारा-३१ को तथा जातिगत आरक्षण की पेशकश करनेवाली धाराए- ३४०, ३४१ तथा धारा-३४२ को भी निरस्त करना चाहिए, इसमें से एक भी धारा अगर संविधान में रहेगी तो जातिप्रथा का अंत करने का मनसुभा कभी भी कामयाब नही हो सकता. जातिवाद रोखने के लिए सभी प्रयोग अधूरे के अधूरे ही रहेंगे. इतना ही नही तो देश मुट्टीभर लोगो के गुलाम रहेंगे, जो वे नहीं रहना चाहते है, जिस वजह से देश में ‘नक्षलवाद’ फ़ैल रहा है, वह उसका जीता जागता सबूत है.
भारत में राजसत्ता में केवल जनतंत्र है पर अर्थ, शिक्षा, संकृति में मनुस्मृति की ही जोरदार पकड़, शासन है. उसे ख़त्म किये बगैर देश में संविधान का सही में अमल नही देखा जा सकता है. संविधान एक दिखावे के लिए रह जायेगा. संविधान का उद्द्धेश देश में आर्थिक जनतंत्र यानि आर्थिक समता स्थापित करना है. संविधान को चलनेवाले लोग स्वार्थी, भ्रष्ट और मनुवादी है. वे अपने गैर जिम्मेदारी से जबतक बाज नहीं आते तबतक जनता का हाल ही हाल होना तय है. केवल पार्टी बदलने से नहीं तो उनके बुरे सोच को भी बदलना पड़ेगा, क्योंकि यह गलत विचार हर पार्टियों में पाए जा रहे है. भारत में कोंसी पार्टी है, जो पूंजीवाद को पसंद नहीं करती? जो पार्टी पूंजीवाद को सही समझती है वह गरीबों का हित कैसे क्या कर सकती? नेवला और साप एक ही साथ नहीं रह सकते क्योंकि वे परस्पर दुश्मन है, वैसे ही अमीर और गरीब एकसाथ लम्बे समयतक नही रह सकते. उनमे जंग जरुर होगी जो देश के जनतंत्र को जला देगी.
जो भारतीय लोग जाती, धर्म, प्रान्त, भाषा, लिंग के नामपर विभक्त है, एक नही है, फिर भी एक होने का नाटक करते है. वे क्या परदेशी आतंकी ताकतों से जंग जित सकते है? केंद्र के पास देश के जनता को सुखी करने के लिए उचित धन-सम्पत्ती नही है, जिसका जीता-जागता उदहारण है, उत्तराखंड प्राकृतिक आपदा. सरकार लोगों के सामने भिक मांगते हुए नजर आयी. संविधान के “धारा -३१” का एह हलकट परिणाम है. विश्व का महान जनतंत्र भिकारी है.
क्या भिकारी सरकार कल्याणकारी हो सकता? अगर यही सही है तो इस देश में लोग बेरोजगार क्यों है? कुपोषित क्यों है? देश में अमीरी-गरीबी है, यह मनुस्मृति की उपज है. अमीर और गरीबों के लिए समान संधि भी रखी जाए तो वह कोई बुद्धिमानी कदम नहीं है. अमीर ही उस संधि को खा बैठते है क्योंकि वे आर्थिक स्थरपर सक्षम, मजबूत, साधन संपन्न है. जित के लिए उनके पास पर्याप्त साधन है. जिनके पास (मनुस्मृति के धारा-८, ४१७ कर तहत) साधन नहीं है, उनके साथ साधन सम्पन्न लोगों को दौड़ाने का प्रयास अन्यायी है. इससे जनतंत्र को बल नही तो दुर्बलता प्राप्त होगी.
देश में संधि की समानता नहीं तो अस्सल, निर्मल, शुद्ध ‘समानता’ ही चाहिए. संधि की समानता यह कोई जनतंत्र का अंग नही है. जनतंत्र का अंग ‘समानता’ है, जो न्याय, स्वतंत्रता, ‘समानता’ और बंधुता इन चार अंगो में से एक है. जातिगत मनुवादी आर्थिक परिणामो का देश से निष्कासन किए बिना देश में सुख-समृद्धि बहाल होना असंभव है. जातिवाद को रोखने के लिए केवल जातिगत सभाओ पर पाबंधी लगाना ही पर्याप्त प्रयास नहीं है, वह सिर्फ एक ही कदम है पर और भी कदम आगे “आर्थिक जनतंत्र” की मंजील है. राजकीय जनतंत्र के मंजिल को हासिल करने के लिए और भी कुछ कदम बलपूर्वक चलने की जरुरी है. केवल मुट्टीभर लोगो का सुख यानि देश के सभी लोगो का सुख नही है. मनुवादी समाज के केवल एक ऊँगली का आप्रेशन करने से नहीं होगा तो, पुरे समाज का ही आप्रेशन तुरन्त करना जरुरी है.
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