सोमवार, 18 मई 2020

धम्मक्रांति का जनतांत्रिक सफ़र - ६


सम्राट अशोक (जन्म, ईसापू- ३०४, राज्यभिषेक- ईसापू- २७०) ने कलिंग युद्ध में एक लाख लोग मारने के बाद बौद्ध धम्म स्वीकार किया. वे राजा रहे और उनके अधीन भारी मात्रा में प्रजा रही. वे अकेले निर्णय लेते थे और बाकि सभी प्रजा उनके निर्णयों का पालन करती थी. ऐसे व्यवस्था को जनतांत्रिक कौन कहेगा? यह तो राजतंत्र हुआ. भिक्षुसंघ के जनतांत्रिक विचार राजतन्त्र में कैसे लागु हो सकते? राजतंत्र पर बुद्ध विचारों का असर कुछ पैमाने में जरुर रहा है, पर वह राजसत्ता को, तानाशाही को कायम रखने के लिए ही.
सम्राट अशोक ने अपने धम्म गुरु “मोग्गलीपुत्त तिस्स” इस थेरवादी भिक्षु के नेतृत्व में “तिसरे धम्म संगीति” को अंजाम दिया, जो ९ माह तक जारी रही. उसमे छद्म ६०,००० भिक्षुओं को भिक्षुसंघ से निरस्त किया गया. देश विदेश में धम्म प्रचार के लिए भिक्षुओं को भेजा गया. शक्ति से प्राणी हिंसा तथा यज्ञ पूजा का विरोध किया गया. क्या शक्ति का नाम धम्म है? क्या अहिंसा ही धम्म है? अहिंसा के क़दमों से जैन मुनि तो खुश हुए, मगर ब्राह्मण नाराज हुए.
सम्राट अशोक खुद को “देवानंपिये पियदसि लाजा” अर्थात “देवोंको प्रिय दर्शी राजा” समझते थे, अभितक इस “देव” का अर्थ नही समज रहा है, यह धम्म में कैसे आते रहा. सम्राट अशोक अगर स्वर्ग का राज्य चाहने वाले राजा थे ,तो उनके लिए “देव” का अर्थ “ईश्वर”, भगवान नही होगा ऐसा नही कहा जा सकता. क्या इस देवों का विज्ञानमय धम्म में स्वागत होना चाहिए? सम्राट अशोक अपने शिलालेख में लिखवाया था, “धर्म मंगल कार्य चिरकाल पुन्यमय होता है. अगर इस लोक में फलसिद्धि नही हुयी तो परलोक में बहुत फलप्राप्ति होती है. अगर इस लोक में ही उससे उद्धेश पूर्ति हुयी तो धर्ममंगल कार्य में दोहरा लाभ मिल सकता है. इससे इस जन्म में कार्यसिद्धि होती है वैसे ही परलोक में भी अनंत पुन्य प्राप्ति होती है.” (सम्राट अशोक आणि त्यांचे शिलालेख, लेखक- डॉ. वा.ना. मेश्राम, पृष्ट-६३, युगसाक्षी प्रकाशन, नागपुर-२२)
सम्राट अशोक ने अपने कलिंग शिलालेख में लिखवाया था, “ सभी लोग मेरे पुत्र है. उन्हें भी इहलोक और परलोक में सुख प्राप्त होना चाहिए, यह मेरी इच्छा है.....अगर हम अच्छे व्यवस्थित हो तो भी आप यह बातों को ख्याल में रखो. न्याय देते समय कुछ लोगों को कारागृह में डाला जाता या उनका छल किया जाता. इस स्थिति में कारागृह से मुक्ति का आदेश अचानक मिलेगा परन्तु दुसरे लोग कारागृह में कष्टमय यातनाए भुगत रहते है. ऐसे अवस्था में हमने मध्यम मार्ग का अवलंब करने का प्रयास करना चाहिए...... जो इसमें (राजाओं के ॠणमुक्ती से) चुकते है वे न स्वर्ग प्राप्त करते है और न राजाओं को प्रसन्न कर सकते.” (सम्राट अशोक आणि त्यांचे शिलालेख, लेखक- डॉ.वा.ना. मेश्राम, पृष्ट- ७६- ७७, युगसाक्षी प्रकाशन, नागपुर-२२)
सम्राट अशोक के पट पोते का भरे दरबार में उसके ही नोकर ब्राह्मण सेनापति, पुष्यमित्र शुंग ने इसापू- १८५ में वद किया और हिन्दुधर्म की पताका फहराई थी. जिसका प्रभाव क्षेत्र बहुत कम रहा पर वह एक प्रतिक्रान्ति की बिगुल थी. तभी से मनुस्मृति का उगम होना सुरु हुआ. वह अपना विषमतावादी उग्र रूप दिखा रही थी जो बाद में “सुमती भार्गव” नामक ब्राह्मण के हातों से लिखी गयी. मनु स्मृति यह मन की स्मृति थी, हिन्दू मन की वह आहट थी, अभिलाषा थी, न की किसी मनु व्यक्ति की स्मृति थी. मनुस्मृति ग्रन्थ द्वारा चातुर्वर्ण्य को शक्ती से भारत में लागु किया गया. जो भारतीय समाज में “पीनल कोड” के रूप में प्रभावशाली रही. भारतीय जाती भी उसी का एक छोटा रूप है. तथा जाती का महा गन्दा रूप अछुत प्रथा रही.
प्रतिक्रान्ति के कारण सम्राट अशोक के शासन में जीवित थे. इसलिए उनके परिणाम बाद में महाभयंकर दिखाई दिए. उन परिणामों के बारे में बौद्ध विद्वान डॉ. सुरेन्द्र अज्ञात लिखते है, “इतिहास और बौद्ध व हिन्दू परम्परा यह बताती है की बुद्ध धम्म और हिन्दुइज्म में जान लेवा विरोध रहा है. दिव्यावदान नामक बौध्द ग्रन्थ, तिब्बती लामा तारानाथ का ‘बुद्धिजम का इतिहास’ (इस- १६००) ‘अशोक वदान’ नामक बौद्ध ग्रन्थ बताते है की, हिन्दूधर्मी पुस्यमित्र शुंग ने बौध्दों का बड़े पैमाने पर नरसंहार किया. उनके विहार धराशाही किए, तथा यह घोषणा की, ‘कि: यो में भ्रमण शिरो दास्यति तस्याहं दीनारशतं दास्यामि’ अर्थात जो मुझे एक बौद्ध का सिर लाकर देगा, मै उसे सोने की सौ मोहरे दूंगा.” – (बुद्ध, आंबेडकर और धम्मपद, पृष्ट- ६१, बुद्धिष्ट पब्लिकेशन हॉउस प्राइवेट लिमिटेड, जालन्धर)
प्रतिक्रांति के तानाशाही हिंसक परिणामों पर भारत रत्न भगवान दास लिखते है, “स्कंदगुप्त सम्राट ने जैसा कार्य किया था, उसका अनुसरण करते हुए सुधन्वा राजा ने भी (शंकर इच्छा से) अपने भ्रुतों को यह आज्ञा दी की रामेश्वर के सेतु से हिमालय तक, बौद्धों को मार डालो. उनके बूढ़े-बच्चो तक को न छोड़ो और जो उनके मरने से हिचके, उसे भी मर डालो.” (बापूसाहेब राजभोज इन सर्च ऑफ़ बुद्धिष्ट आइडेंटीटी, लेखक- डॉ. मुंशीलाल गौतम, पृष्ट- १५८, १५९)
सम्राट अशोक ने हिन्दुधर्म के वर्ण, जाती धर्म को न दूर किया बल्कि उन्हें भी धर्म प्रचार के लिए दान-दक्षिणा दी थी. धम्म विचारों को अभय दिया, उन्हें भी दान दिया. धन दान देना और ज्ञान दान देना इसमें काफी अंतर है. सम्राट अशोक ने जनता को भय दान किया, धन दान किया मगर धम्म ज्ञान दान करने में वे पीछे रहे. उनके राज्य में न केवल बौद्ध लोग ही रहते थे. तो जैन और हिन्दू भी रहते थे. उन्होंने न कभी धर्मचर्चाओ का आयोजन किया बल्कि जारी कुछ कुरीतियों को सकती से बंद करवाया. शक्ति से धार्मिक और सांप्रदायिक शक्तियों से निपटा, वैसे आदेश दिए.
धम्म प्रचार शक्ति से नही तो बुद्धी से होता है, मगर सम्राट अशोक ने धम्म प्रचार के लिए बुद्धी का प्रयोग कम किया और शक्ति का प्रयोग ज्यादा किया था. उन्होंने अपने कर्मचारियों को भी बुद्ध धम्म सही ढंग से नही समझाया था. उसी वजह से राजा बृहद्रथ का वध उनके ही एक नोकर ने किया था. ब्राह्मण सम्राट अशोक के खिलाफ जाने का प्रयास भी नही कर सके. सम्राट अशोक ने अपने लड़के और लड़की को भिक्खु बनाया. संघ और धम्म विचारों को जीवन दान दिया. महायानी हजारों छद्म भिक्खुओं को संघ से बेदखल किया. जिससे ब्राहमण धम्म को नफरत से देखते रहे. अशोक महराज के बाद उनके पंतु "बृहद्रथ" को ब्राह्मण सेनापती ‘पुष्यमित्र शुंग’ ने शिर छेद किया. उन्होंने वर्णाश्रम व्यवथा के साथ-साथ जाती व्यवस्था को कायम किया.
प्रतिक्रांति की सुरुवात हुयी, बुद्ध की धम्मक्रांति समाप्त करने की कोशिश की गई, फिर भी वह काफी मात्रा में जीवित रही. मुस्लिम आगमन हुआ तो उन्होंने भारतीय भिक्षुओं के शिर छेद किए. भिक्षुओं के भगवे चीवर देखकर उन्हें किसी प्रशिक्षित सैनिक होने का भय हुआ, उन्होंने पहले बिना समझाए इस्लाम कबूल करने का आग्रह किया, तो भिक्षुओं ने उसे मना किया. बाद मे मुस्लिमों ने भिक्षुओं की क़त्ल करना सुरु किया. बौद्ध मंदिरों, विहारों, मठों पर ही आघात किया. जहां पर बुद्ध शिष्य, भिक्षु निवास करते थे.
कोई भी राजा हो, उनके शासन को जनतांत्रिक नही कहा जा सकता, फिर राजा सम्राट अशोक हो या उनका पट पोता राजा बृहद्रथ हो या फिर राजा “पुष्यमित्र शुंग” या राजा “सुधन्वा” क्यों न हो. उनका प्रयास तानाशाही ही रहा है जिसमे बहुजन समाज हमेशा दुखी और पीड़ामय रहा है. धर्मों से शान्ति और समाधान मिलता है मगर पेठ नही भरता. राजतन्त्र में भी लोग भूखे रहकर भजन किर्तन किया करते थे. उनके शासन की केवल प्रसंशा ही करना गलती करना है. हर राज व्यवस्था आर्थिक विषमता के पक्ष में रही है. राजसत्ता पर केवल धर्म का प्रभाव होने से वह आदर्श शासन नही बनता.
हिन्दुओं के पवित्र पूजा विधि का शक्ति से विरोध करने का बदला सम्राट अशोक के जीते जी तो ब्राह्मण नही ले सके पर उनके मरने के बाद उनके वंशजो से बदला लेने के लिए उन्होंने बहादुरी दिखाई. राजा का राज्य कुछ ही हद तक प्रभावी होता है, वह जीवन के सभी अंगो पर हावी नही हो सकता. अशोक राजा की सत्ता तो समाज पर थी परन्तु संस्कृति के दृष्टी से ब्राह्मणी व्यवस्था की भी पकड़ थी. सत्ता के शक्ति से बुद्ध धम्म को सम्राट अशोक ने न फैलाया और न हिन्दू धर्म को दबाया. शक्ति से सिर्फ सत्ता की जाती है, पर संस्कृति नही बदली जाती. अगर अशोक के शासन में, उनके राज्य में, प्रतिक्रांति के कारणों को नही पला होता तो प्रतिक्रान्ति की सुरुवात ही नही होती.
चार्ल्स डॉर्विन के सिद्धांतों के अनुसार पृथ्वी और उसपर निर्भर सजीव विकसित हुए है. यही ढाई हजार साल पहले बुद्ध का अनित्य सिद्धांत रहा है. पहले जीव पानी मे विकसित हुआ, बाद मे वह भूखंडपर आया. विश्व मे सबसे ऊँचा हिमालय पर्वत है. इसके इर्द-गिर्द मे पहले सजीव पानी से निकलकर आये और एक से अनेक जीव विकसित होते गए. गोपाल गुरु चक्रनारायण के “लॉर्ड बुद्ध वाज दि फादर ऑफ येशु ख्रीस्त एंड महम्मद पैगम्बर” इस किताब मे मानव प्राणी सबसे पहले भारत मे, तराई के प्रदेश मे विकसित हुआ, जो हिमालय के गोदी मे आता है, इसे सिद्ध किया.
इंसानों के शरीर मे आत्मा होती है, शरीर मरता है पर आत्मा ऊपर उडकर भगवान के पास जाती है; भगवान ऊपर स्वर्ग मे होता है, स्वर्ग आकास मे होता, ईश्वर का न रंग होता और न रूप; न वह जलता और न गलता है; बस्स, वह महान है! ऐसी सोच सभी धर्मो की रही है. विज्ञान के हिसाब से देखा जाए तो न ऊपर आकास मे १० – १२ कि.मी. दुरी पर पाणी या भांप है, तो जीवात्मा कैसे हो सकता? क्या बिना जीव से “आत्मा” का जिन्दा रहना सम्भव है? आकास मे धरती से ४० कि.मी. दूरी पर वातावरण नहीं होता, फिर भी क्या बिना वातावरण से जीव, आत्मा, ईश्वर जिन्दा रहते है? ऊपर १००० कि.मी. दूरी पर हवा नहीं होती; तो बिना हवा से शरीर, जीव, आत्मा, ईश्वर का होना सम्भव है? जो भी बदला हुआ हमें दिखता है. वह पदार्थ के अनित्य, परिवर्तनिय गुणों का रूप है. बुद्ध कहते थे की “सब्ब अनित्य” यानि “सभी सदा के लिए नहीं है, बदलने के लिए है”.
ख्रिस्त पूर्व विश्व बौद्ध था, उनपर धम्म का प्रभाव था जो हमें अनेक विदेशी वैज्ञानियो पर भी दिखाई देता है. “चार्ल्स डॉर्विन” ने अपने खोज पाया की मानव यह निसर्ग निर्मित पहला और आखरी रूप नहीं है, वह विकसित हुआ है. आज जैसा मानव है वैसे ही स्थिती मे हजारों-लाखों साल पहले नहीं था और आज जैसा है वैसा ही बाद मे नहीं रहेगा. जीवों मे बड़ा परिवर्तन धीरे-धीरे दिखाई पड़ता है, किन्तु वह हर पल होते ही रहता है.
येशु ख्रिस्त एक कुँवारी मॉ का लड़का है, जो उम्र के बारहवे साल से किसी व्यापारी के साथ भारत आया, उसने बौद्ध मठों में धम्म का अध्ययन किया और वह अपने देश लौटा. ख्रिश्चन धर्म की स्थापना की जो अभी भी फलते-फूलते रहा है. उन्होंने खुद को ईश्वर का पुत्र बताया. बुद्ध के मतानुसार ईश्वर ही नही है और न उनके होने का कुछ आधार है. फिर येशु स्वयं को ईश्वर के पुत्र कैसे मान सकते? हकिकत यह रही है की, येशु ने जो सन्देश पाया वह शिलालेखों मे लिखित था. उसे उसने परमपिता ईश्वर का सन्देश कहा. न येशु ने ईश्वर को देखा और न येशु ईश्वर के पुत्र है.
जिस तरह येशुने शिलालेख को समाज मे प्रचारित किया उसीप्रकार से महमद पैगम्बर को भी वहम हुआ. मेरे पास ईश्वर ने मानवों के लिए पैगाम भेजा, यह पैगाम जनता के कल्याणकारी है, खुद को ईश्वर का आखिरी पैगम्बर घोषित किया. जो उस सन्देश को नही मानेगा वह मरने के बाद नर्क मे जायेगा. उसे नर्क में काफी शिक्षा होगी. उससे बचने के लिए ईश्वरी पैगाम का पालन करना जरुरी है, ऐसा डर बताया. असल मे जो पैगाम मुहम्मद पैगम्बर ने लाया था, वह बुद्ध का ही सन्देश था, जो सम्राट अशोक द्वारा देश-विदेश के शिलालेखों में लिखा था.
इस ७११ को मुहम्मद बिन कासिम से मुस्लिम आक्रमण भारत में होना सुरु हुआ तो अभी तक जारी ही है. मुस्लिम लोगों का कहना है की, मरने के बाद हम जन्नत मे जाना चाहिए. वे इस् जीवन कों इसलिए जीते है की, अगले जीवन में उसे जन्नत, स्वर्ग मिले. यह “जन्नत” का प्रभाव सम्राट अशोक के शिलालेखों का परिणाम है, इस् जीवन मे जो कर्म करेंगे उनके फल इसी जीवन मे मिलते है. जेल मे जाना ही नर्क मे जाना है. अगले बार कोनसे जन्म जानेवाले है? इसकी सही दिशा किसे भी पता नहीं फिर भी उसे अपने कल्पना से हम गढ़ लेते है. धार्मिक ठग लोगों कों उचित शिक्षा का प्रावधान होना चाहिए. आर्थिक चोरों कों हम जेल देते है फिर धार्मिक लुटाऊ कों क्यों छोड़ते है?
शिवाजी महाराज का जन्म भोसले नामक कुल में, तारीख-१० अप्रैल १६२७ में, पूना से ५० मैल दुरी पर “शिवनेरी” किला पर, सोमवार को हुआ था. वे क्षत्रिय घराने से थे. देवराज महाराणा नामक रजपूत राजा ने महाराष्ट्र में क्षत्रिय राजवट शुरू की थी. अयोध्या प्रान्त में शिसोदे नामक सूर्यवंशीय राजे थे. उनमे से कोई एक व्यक्ति नर्मदा नदी किनारे आकार स्वतंत्र राज्य बनाकर रहने लगे. आगे शालिवाहन नामक शक राजा हुए. उसने क्षत्रिय राजा को पराजित करके उनका राज्यहरण किया. उस समय राजरानी अपना पांच साल का लड़का लेकर नर्मदा नदी के उत्तर दिशा में स्थित मेवाड प्रान्तों में विंध्य पर्वतों के पास गई और वंहा पर एक ब्राह्मण के घर में अपने लड़के को गय्यों की देखभाल करने रखकर आश्रय लिया.
गय्यों की रखवाली करते-करते एक बार जमीन में छुपाई अमाफ संपत्ति मिली. वह शिसोदे परिवार सदस्य ने ब्राह्मणों को दिखाकर “मै कौन हूँ, कहा से आया?” आदि सभी बाते विदित किया. उसके बाद उस ब्राह्मणों ने उन्हें “स्वराज्य स्थापन” करने के कार्य को दिल से सहाय्य किया. वह पहाड़ी भाग भिल्लों के हातों में था. उनसे लड़कर उन्होंने विजय हासिल किया. उन पहाड़ों में “भवानी” माता का मंदिर था. उनके पास एक किला बनाकर उनका नाम “चित्रकूट” रखा. “भवानी मंदिर” का जीणोद्धार करके उनके समीप, उन किल्ले में और “एक लिंगजी सांभा” (शंकर) का मंदिर बनवाया इसी व्यक्ति के वंशजों ने चित्रकूट में पांचसौ साल तक राज्य किया. यह चित्रकूट किल्ला अब “चितोड़” इस नाम से इतिहास में प्रसिद्ध है.
उत्तर भारत में संत कबीरने हिन्दू और मुस्लिम इन दोनों धर्मो के पाखण्ड पर प्रहार किया. सन्त कबीर पर भी बौद्ध दर्शक का प्रभाव रहा. महाराष्ट्र में भी सामान्य जनता पर महायानी साहित्य दर्शन का असर रहा, जिससे ज्योतिराव फुले तथा कृष्णाजी अर्जुन केलुस्कर जैसे मराठो पर असर दिखता है. जोतीराव फुले के “विद्या विना .....शुद्र खचले” और तथागत बुद्ध के “अज्ञान से......मृत्यु” तक का वर्णन वाले प्रतीत्यसम्मुत्पाद के सिद्धान्त में क्या अन्तर है? कृष्णाजी केलुस्कर ने तो “भगवान गौतम बुद्धाचे चरित्र” ही लिखा था. महाराष्ट्र से धर्मानन्द कोसंबी पर भी “महायानी” विचार हावी था जिसके वजह से वे भिक्षु बने थे. भिक्षु महापण्डित राहुल सांस्कृत्यायन तथा भदन्त आनन्द कौसल्यायन पर भी महायानी पन्थ का प्रभाव रहा है. भारत से बौद्ध भिक्षु चले गए, बौद्ध गृहस्थ रहे, उन्होंने हिन्दुधर्म के विचारों से जमकर मुकाबला किया इसलिए उन्हें पंडितोने बहिष्कृत किया.

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