डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर बहुत दूरदर्शी थे. बाल्यवस्था से उनपर संत कबीर और तथागत बुद्ध का प्रभाव रहा है. उन्होंने देखा था, की विश्व में साम्यवाद का दौर जारी है. ख्रिश्चन पाद्रियों के जरिए आर्थिक शोषण को बढ़ावा दिया जा रहा था. उससे परेशान होकर कॉर्ल मॉर्क्स ने सभी धर्मों को “अफू” कहा था. बाबासाहब विचलित हुए. उन्हें डर लगने लगा था की कही भारत का प्राचीन जनतांत्रिक बुद्ध धम्म भी उसके चपेट में न आ जाए. इसी वजह बाबासाहब ने बुद्ध को लॉर्ड्स नहीं तो बुद्धिमान
“ईन्सान” कहा, उनके विचारों को धर्म नही तो “धम्म”, तथा उनके उद्धेश को मानवी दुःख नष्ट करने का मार्ग कहा. बुद्ध धम्म के सामने उन्हें साम्यवाद भारी संकट महसूस हुआ था.
बाबासाहेब ने धम्म के ढाल से कॉर्ल मॉर्क्स का तलवारी, तानाशाही हमला रोका. पर भारत के हिन्दू धर्म को कैसे बचाया जाएगा? साम्यवादी हमले में हिन्दुधर्म तहस नहस होगा. इसलिए हिन्दुओं ने प्राचीन भारतीय जनतांत्रिक धम्म सभ्यता को अपनाना चाहिए, यह उनका प्रयास रहा. विज्ञान के सामने सिर्फ बौद्ध विचारधारा का धम्म ही टिकेगा बाकी सभी धर्मों का विनाश होगा. जिसमे, ख्रिश्चन, सिख, ईस्लाम, जैन, आदि. धर्म आज नही तो कल, मजबूरन क्यों न हो, सभी को बाबासाहेब के पीछे-पीछे बुद्ध की शरण में जाना ही होगा.
भारत देश आज़ाद होने पर भारतीय जनता की स्थिति कैसी सुखी और शांतिमय रहेगी? इस विषय पर गंभीर अध्ययन और चिंतन कर बाबासाहब आंबेडकर ने एक “संविधान का प्रारूप” तैयार किया, जो देश में “एक व्यक्ति, एक मत’ के साथ ‘एक व्यक्ति, एक मत, एक मूल्य” भी देने में सक्षम हो. जो ‘शेड्यूल्ड काॅस्ट फेडरेशन’ द्वारा तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा पंतप्रधान पंडित नेहरु को भेजा गया. पर उस पर कांग्रेसवालों ने कभी चर्चा भी नही की इसलिए बाबासाहब ने उस विषय पर खेद व्यक्त किया था. बाद में सन १९४६ में उसी प्रारूप को “स्टेट एंड मॉयनारिटीज” के नाम से प्रकाशित किया गया.
विश्व में सत्ता के जरिए आर्थिक परिवर्तन करने का प्रयास कही देशों में हुआ, पर वह टिका नही. विश्व में बहुत देश है, उनकी अलग-अलग धारणाए रही, उसमे महत्वपूर्ण समाजवाद तथा बाद में साम्यवादी धारणा ज्यादा प्रचलित रही. “राज्य समाजवाद” यह बाबासाहब आंबेडकर की अपनी एक अलग ही धारणा रही. जिसमे राज्य के अधीन समाज संचालित होगा तथा समाज द्वारा लोग नियंत्रित होंगे. राज्य ही समाज और व्यक्ति से सक्षम रहेगा. स्थायी उपाय के लिए आझाद भारत का संविधान धर्मनिरपेक्ष, राज्य समाजवादी, जनतान्त्रिक रहे, यह बाबासाहब की चाह थी. आझाद भारत का संविधान ऐसा हो जो “राज्य समाजवाद” के जरिए जाती, वर्ण पर अधिष्ठित १. संपत्ति, २. शिक्षा, ३. सभ्यता और ४. सत्ता की विषमताएं दूर करे. सर्वांगीन सामाजिक विषमता के बीमारी पर राज्य समाजवाद ही कामयाब दवा रही मगर उसे प्राशन करने से तत्कालीन भारत सरकार डरते रही.
बाबासाहब आंबेडकर के “राज्य समाजवादी” संविधान में राज्य (सरकार) के अधीन १. जमीन रहेगी, उसपर सामूहिक भेदभाव के बिना खेती की जाएगी २. राज्य के अधीन महत्तम उद्योग होंगे जो सरकार चलाएगी, उत्पादन करेगी ३. राज्य स्वयं बिमा कंपनी चलाएगी; राज्य में बिमा शक्ति से लागु होगा. बिमा से आयी क़िस्त को खेती और उद्योग में सरकार खर्च करेगी, खेती पर जो लोग कार्य करेंगे उनको सीमित हिस्सा मिलेगा, उद्योग में कार्य करने वालों को तनखा मिलेगा, बिमा में कार्य करने वालो को कमीशन मिलेगा. राज्य को खेती, उद्योग और बिमा के जरिए जो मुनाफा होगा वह वंचित लोगों के हित सुखों के लिए खर्चा करेगी तथा कुछ हिस्सा देश के सुरक्षा के लिए केंद्र को भेजेगी. सबकी आमदनी सिमित होती.
व्यक्ति इस राज्य में न कोई जमीन, उद्योग या विमा का मालिक होगा. राज्य सरकार के पास पर्याप्त पूंजी रहेगी जिसके सहारे जो चाहिए वह कार्य आसानी से मर्यादित अवधि में पूरा किया जा सके. कांग्रेसी पूंजीवादी संविधान में भारतीय आझाद है, पर सरकार गरीब है, उसके पास इतनी भी संपत्ति नही होती है, की उसी राज्य के पूंजीवादी व्यक्ति के संपत्ति की बराबरी सरकार नही कर सकती. व्यक्ति अमीर और सरकार गरीब हो तो उस देश में राज्य किसका होगा?
यह राज्य समाजवादी संकल्पना बुद्ध धम्म से प्रेरित है. भिक्खु के पास जैसी सिमित संपत्ति होने पर भी वे अपना जीवन यापन सही ढंग से करते है. क्योंकि समाज उसको भिक्षा देता है, वस्त्र देता है, निवारा देता है, दवा देता है, शिक्षा देता है तथा धम्म सभ्यता को भी सिखाता है. भिक्षु समाज के लिए (सरकारी कर्मचारी के जैसे ही) कार्य करते है. पर भिक्षु समाजपर कभी अपनी तानाशाही नही चलाते. इसलिए भिक्षुओ के जैसी ही व्यक्ति के पास भी सीमित सम्पत्ति चाहिए जो कुछ हद में भिक्षु से थोड़ी अधिक चाहिए. व्यक्ति को मर्यादित संपत्ति चाहिए, अमर्याद नही. आज भारत का जनतंत्र पूंजीवादी व्यक्ति के दया पर पल रहा है. पूंजीवादी व्यक्ति इसलिए सरकार पर दया करते रहे की, सरकार उनके गरीब जनता का शोषण करने का अधिकार उन्हें बहाल करे.
संविधान मे बारम्बार सुधार करते रहना कभी भी उचित नही रहेगा. ऐसा करने से अनिश्चिता पैदा होकर सामाजिक मूल्यों को नुकसान पहुँचता है. भारतीय संविधान की "धारा नं. ३१" यह घटना समिति के ड्रापटिंग कमिटी ने तयार नही किया था. नुकसान मुहावजा विषय के बारे मे कांग्रेस के तिन गुटो के मतभेदिय समझौते का परिणाम यानि “धारा नं. ३१” है. सरदार पटेल इन्हें लैंड अक्बिझिशन कानून के तहत पूरा नुकसान मुहावजा और अन्य समाधान के लिए १५% जादा रूप से नुकसान मुहावजा देना पसंद था. पंडित नेहरू कांग्रेस के तिन गुटीय मतभेदिय समझौते को पूरी करने के चिंताओं से परेशान थे. कांग्रेस के त्रि-दलीय संघर्ष संविधान बनाते वक्त चालू थे.
“धारा नं. ३१” अगर घुमावदार होने के बावजूद भी सार्वजानिक हितों के लिए संपत्ति सरकार के पास रखने के बारे मे काफी लचीली थी. यह बिल चिल्लर होने के कारण इतने महत्वपूर्ण नही है. संविधान यह विश्मयकारी ढंग से ईश्वर के लिए बनाया गया अति सुन्दर मंदिर था. लेकिन ईश्वर की प्रतिस्थापना होने के पहले ही उसपर दानवों ने कब्ज़ा कर लिया है. इसलिए हमें उसे जलाकर नष्ट करना यही कार्य बाकि है. (बिच मे ही आयु. बी.के.पी. सिंह ने बाबासाहब को पूछा, संविधान जलाने के बजाय दानवों को ही क्यों न हटाया जाय?) शैतानों को हटाना अब असम्भव है. शतपत ब्राह्मण पढ़ने पर आपको ऐसा दिखेगा की सुरों को असुर यह हमेशा पराजित करते हुए आये है.

धर्म के नामपर सामाजिक वातावरण प्रदूषित करना न जनता के हितों मे है और न देश के हितों मे. न जाने राजनेता भी सरकारी तिजोरी को मंदिर-मज्जिद को खड़ा करने मे मदत क्यों करते है? क्या वे अपराध के श्रेणी मे नही आते? असली धार्मिक लुटेरें कों जबतक नही पहचानते तबतक आतंकवाद पर काबू पाना असम्भव है. जो लोग धर्म शिक्षा के नाम पर अज्ञान का प्रचार करते है, उन्हें मदत करने के बजाए, कठोर से कठोर शिक्षा मिलनी चाहिए.
बुद्ध शिक्षा का मूलाधार क्या है? इसका ज्ञान जिन्हें हुआ है वे “सुत्त पीटक” के फ़िलहाल के अवस्था को देखकर उन्हें अचंभा लगेगा. सुत्त पीटक फ़िलहाल किस अवस्था में है? गौतम बुद्ध के विचारधारा से विसंगत कल्पना और ब्राह्मणी विचारधारा की पौराणिक कहानियॉ बुद्ध के नाम से उसमे घुसाद दी है. ब्राह्मणी मट्ठ सांप्रदाय के रहन-सहन की अवास्थाव विश्लेषण उसमे सम्मिलित की गयी है. वह रहन-सहन ही आदर्श रहन-सहन है, वह बुद्ध धम्म की की आदरणीय विचार सरणी है, ऐसा दिखाने का प्रयास किया गया है. “सुत्त” पीटक का यह अभी का यह विद्रूप और भयावह स्वरुप देखकर िरहस डेविड्स इन्हें अचम्भे का धक्का लगा. बुद्ध के उद्दात्त शिक्षा का जिन्हें बोध हो चूका है, उन्हें भी ऐसा ही “पीटक” के स्वरुप को देखकर अचम्भा लगेगा.
र्हिस डेविड्स ने अपना मत “प्रास्ताविक” (प्रिफेस-१३, टू द किन्र्डरड सेईंग्स, वालुम-२) में प्रदर्शित किया, “सुत्त पीटक के पत्ते-पत्ते पर सच्चा गौतम दिखता नही. इसका कारण क्या होगा?.... “गौतम बुद्ध के धम्म की मालूमात देते वक्त उनके अनुयायिओं को उनकी मूलविचारधारा जैसी की वैसी जनता को बताना जरुरी समझा गया, यह प्रथा काफी समय तक जारी रही. उसके बाद उसके आनेवाले समय में उपदेशकों को बुद्ध की मूल वचने, जनता को बताते वक्त या उपदेश करते वक्त, अगर निवेदन करते वक्त उसे तोड़मरोड़ की होगी अथवा अपने पास के विचार उसमे घुसाड़ दिए होंगे. मूल वचनों के सम्पूर्ण अर्थ न समझने के कारण उस वचनों को घुमाकर अपने को अभिप्रेत अर्थ को पाने के लिए, ऐसे कही वचनों को बिच-बिच में ही घुसाड दिया होगा....
“यह सभी प्रकार किस प्रमाण में हुए होंगे, यह निश्चित बताना कठिन है. मात्र यह सही है की बहुत धम्म उपदेशकों ने बुद्ध के बाद के हजारो सालों के समय में ऐसे प्रकार हुए है. क्योंकि यह उपदेशक अपने उपदेश मुह से बताते थे. उनके शिष्य यह उपदेश मुखोद्गत करते थे. उसका पठन करते वक्त भी कही तोड़मरोड़ और नए वचनों को उसमे सम्मिलित किया गया हो. यह धम्मोपदेश लिखकर रखे और उनकी नकल बारम्बार की गयी उस समय बदले हुए वचनों में और तोड़मरोड़ तथा उसमे और नई वचने मिलायी होगी..... “बुद्ध के मूल वचनों को कंटस्थ करके उसके बाद जनता को निवेदन करनेवाले उपदेशक, शिक्षक और वह वचने पहले लिखनेवाले लेखक, यह सभी लोग अन्य लोगों से विशेष और आदर्शों से प्रेरित थे. उन्हें जब-जब एखाद वचनो के बारे में या उसके अर्थ के बारे शंका आयी होगी तभी-तभी उन्होंने वह नही वचने बुद्ध या उनके शिष्यों के या इन सभी के बाद के समय में बौद्ध उपदेशकों के मुखों में डाली होगी. इन वचनों का अद्ययन करनेवाले पाठकों ने बुद्ध वचनों का फ़िलहाल का रौद्र स्वरुप देखकर खुद को पूछना चाहिए की जिन प्रसिद्ध व्यक्ति के नाम के निचे अभीतक यह वचने अधिकृत समझी गयी, वे कितने पैमाने में सही थी? फ़िलहाल के प्रदूषित रौद्र रूप के पहले का सुन्दर मूल रूप क्या होगा? इनका भी उन्होंने संशोधन करना चाहिए. उन्होंने यह भी बताना है की बुद्धधम्म का अस्सल ५२% का सोना कौनसा होगा?”......
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डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर ने तारीख- ३ अक्टुम्बर १९५४ को “आकाशवाणी” केन्द्र, दिल्ही से कहा, “मेरे जीवन विषयक तत्वज्ञान में आझादी को महत्वपूर्ण स्थान है. लेकिन अनियन्त्रित आझादी समानता को बाधक है. मेरे दृष्टी से समानता का दर्जा आझादी से ऊँचा है. फिर भी उनमे सम्पूर्ण समानता को तनिक भी तवज्जो नही है, क्योंकि अमर्याद समानता ही आझादी के सामने संकट है. तथापि आझादी को तो महत्व रहना निहायत लाजमी है. मेरे तत्वज्ञान में आझादी और समानता के आक्रमण से सुरक्षा मिलनी चाहिए इसलिए कानून का स्थान महत्वपूर्ण है. फिर भी कानून का स्थान मै बहुत मामुली मानता हूँ. क्योंकि आझादी और समानता के उल्लंघन से कानून भी उसे रोखने में सहाय्यक होगा, इसपर मुझे भरोसा नही है. मै भाईचारे को महत्तम स्थान देने में ईच्छुक हूँ. क्योंकि आझादी और समानता को नकारने के बाद भाईचारा ही सचमुच रक्षक होगा. सहभाव ही भाईचारे का दूसरा नाम है.” ( आंबेडकरवादी मराठी साहित्य, लेखक- डॉ. यशवंत मनोहर, भीमरत्न प्रकाशन, नागपुर; पृष्ठ- ५१) बाबासाहब अम्बेडकर ने स्पष्ट कहा है की, उनका तत्वज्ञान कोई आधुनिक फ्रेन्च राज्यक्रान्ति से नही, तो प्राचीन भारतीय महान उदात्त धम्मक्रान्ति से लिया है, जिसके निर्माता तथागत गौतम बुद्ध है.
बाबासाहब अम्बेडकर भारत में संविधान के तहत ही “समान नागरी कानून” अमल में लाना चाहते थे, जो सभी धर्मों की तानाशाही को वश में लेगी, परन्तु चातुर्वर्ण्य तथा पाखण्डी मुस्लिमों के दबाब में उसे अन्जाम नही दिया गया इसलिए भारत के संविधान को पर्याय समझकर बाबासाहब ने हमें महान उदात्त सर्वांगीन कल्याणकारी मानवतावादी नैतिक बुद्ध दर्शन, धम्म दिया है, जो पूर्णतः आदर्श जनतंत्र की सिख देता है. संविधान से नही तो धम्म से सही, पर “आदर्श जनतन्त्र” की अभिलाषा जारी रहेगी. उन्होंने तारीख- २० में १९५६ को भाषण किया, “जनतंत्र यह जन्त्रान्त्रिक राज्य के जैसा ही सांसदीय सरकार से बहुत भिन्न है.
जनतंत्र का मूलाधार सरकार, संसद या अन्य कुछ भी नही है. जनतंत्र यह सहयोगी जीवन निर्धारित करने की निती है. जनतंत्र का मूलाधार यह है की सामाजिक रिस्तो की तलाश करे, जो समाज में व्यक्ति-व्यक्ति के बिच के आपसी रिश्ते मजबूत करे.” (डॉ. भीमराव आंबेडकर चरित्र, चां. भ. खैरमोडे, सन-१९९२, काही घटना, पृष्ट-१५) समाज क्या है? परस्पर पूरक दयालु, विश्वासु ऐसे सहयोगी कल्याणकारी व्यक्तियों का सक्षम संघ ही “समाज” है. ऐसा समाज और जनतंत्र बनाने के लिए महाकारुणिक तथागत गौतम बुद्ध का धम्म तत्वज्ञान ही सहाय्यक है. बाबासाहब अम्बेडकर ने उसे क्रान्तिकारी विचार समज कर अपने जीवन भर अपनाया था.
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