भारतीय आझादी के पहले से भारत में अन्यायी निति रही है. उस अन्याय को देखते हुए डा. बाबासाहब अम्बेडकर ने आझाद भारत कैसा होना चाहिए? इस विषय पर "स्टेट एंड मायनारिटीज" यानि आझाद देश में अल्पसंख्यकों की समस्याओ का भी ख्याल रखना चाहिए, नही तो वे अन्याय के खिलाफ बगावत करेंगे और बढे मुस्किल से मिल रहे आझादी को और एक बार खोना पड़ेगा. ऐसा नही हो इसलिए उन्होंने ३ मुख्य विचार बताए, १) जमीन का राष्ट्रीयकरण, २) उद्धोगों का राष्ट्रीयकरण और ३) बिमा का राष्ट्रीयकरण... यह विचार उन्होंने सन १९४६ में तत्कालीन कांग्रेस नेता १) पंडित नेहरू और २) डॉ. राजेन्द्रप्रसाद के पास विचार विनिमय करने के लिए भेजे थे, पर उसे कचरे के टोकरी में फेंका गया.
भारत के संविधान बनाने के लिए उन्हें काँग्रेसने निमंत्रण भेजा तो बाबासाहब ने खुसी से स्वीकार किया और २ साल, ११ माह, १८ दिनों में उसका कार्य पूरा किया, उस दरम्यान उन्होंने काफी प्रयास किया की भारत का संविधान राष्ट्रीयकरण के हर एक मुद्ये को अपनाए, पर संविधान सभा में पूंजीवादी सरदार पटेल जिसे अमीरों का रहनुमा कहा जाता था, उन्होंने हमेशा बदमाशी की और कांग्रेस के वर्णवादी नेताओं को अम्बेडकरी विचारों से दूर रहने की हिदायत दी,कांग्रेसी नेता लोग संविधान सभा में अनेक थे जिनका बहुमत साबित होता था और बहार से आए अम्बेडकर साहब का अल्पमत होता था, इसलिए भले ही संविधान बनाने में समय सबसे ज्यादा बाबासाहब ने दी थी पर बहुमतों का दिमाग वर्णवादी था, मोहनदास गाँधी अगर वर्णवादी थे तो उनके चेले कांग्रेसी नेता वर्णवादी नही थे, ऐसा कौन कह सकता?
संविधान की हर धारा वर्णवादी कांग्रेस के नेताओ के बहुमतों से संविधान सभा में बनी, उस समय क्या बाबासाहब तानाशाह थोड़ी ही थे की अपने अकेले के बुद्धि से हर धाराओ को क़ानूनी रूप दे! कांग्रेस के नेहरू ने बाबासाहब के राष्ट्रीयकरण के विचारों को बगल देने के लिए संविधान में "धारा-३१" (काली धारा) को घुसड़ दिया, बहुमतों से पास किया, जिनको बाबासाहब का विरोध था, क्योकि लोग अमीर बनेंगे और गरीबों को वंचितों को सहारा और सांत्वना देनेवाली सरकार हमेशा गरीब और भिकारी रहेंगे तो लोग सुखी कदापि नहीं होंगे, इसलिए उन्होंने संविधान को पेश करते वक्त हिदायत दी थी की यह संविधान केवल राजकीय जनतंत्र दे सका पर वह आर्थिक जनतंत्र बहाल करने में असफल रहेगा, वंचित लोग कभी भी अपने हकों के लिए बगावत करेंगे और इस संविधान का शासन ख़त्म कर देंगे. वह दिन भारत के इतिहास में काला दिन कहलायेगा.
भारतीय संविधान की "धारा- ३१" भारतीय लोगों को संपत्ति धारण करने का मुलभुत अधिकार बहाल करती है. इस धारा के वजह से जिसके पास आझादी के पहले जितनी संपत्ति थी उसे नियमित, कानूनन धारण करने का अधिकार मिल गया, और जिसके पास कुछ भी नहीं थी उसे भी कुछ (नील बटे सन्नाटा) संपत्ति धारण करने का अधिकार मिल गया. जो लोग वर्ण व्यवस्था के शिकार थे, जिनके ऊपर वर्ण व्यवस्था ने आर्थिक भी गुलामी थोंपी थी उसे जायज समझा गया. सरकार इस धारा के वजह से सार्वजानिक हितों के लिए भी उनकी संपत्ति भले ही वर्ण व्यवस्था के अन्यायी कानूनों से बनाई गयी थी, उसे छिनने का अधिकार भारतीय सरकार को भी नहीं रहा.
उनके निजी संपत्ति को स्वरक्षण, सुरक्षा प्रदान करने के लिए और एक धारा संविधान सभाने पास की थी, जो "धारा २४ " बनकर सामने आयी, इन में निजी संपत्ति को अगर सरकार अधिग्रहित करना चाहती है तो उसने व्यक्ति को उचित मुहवाजा देना जरुरी है, यह कहा गया है... सरकार जनता के संपत्ति की रक्षा करेगी पर छिनने का प्रयास नही कर सकती... इन दोनों भी धाराओ को बाबासाहब ने एतराज जताया था पर उनकी अल्पमत में गिनती हुयी और उनके विचार प्रभाव हिन् हो गए...संविधान बना,,, सरकार उसे लोगों के हितों में चला रही पर उनके पास पर्याप्त साधन और संपत्ति नही रही...
वंचित लोग मार्क्स के प्रेरणा से साम्यवादी बने और गरीबों की जंग लढ रहे है, जिन्हें हम नक्सलवादी कहते है, उनकी जंग आर्थिक है, पर वे गरीबों की तानाशाही लाना चाहते है, न की जनतंत्र. वे वोटों पर नही तो बन्दुक पर भरोसा करते है, अगर भारत के संविधान में धारा ३१ के जरिए निजीकरण को कायम नही किया जाता तो राष्ट्रीयकरण के अम्बेडकरी दृष्टी से साम्यवाद को पनपने के लिए भारत में जगह ही नही होती. नेहरु का समाजवाद वर्णवादी साबित हुआ. जो वल्लभ भाई पटेल के उँगलियों पर नाचता था, यह संविधान अमीरों के लिए वरदान साबित हुआ इसलिए यह गरीबों की फ़िक्र नही करता.
जातिगत आरक्षण से वर्णवादी विषमतावादी परिणाम नही मिटाए जा सकते इसकी जानकारी बाबासाहब को थी इसलिए उन्होंने "स्टेट एंड मायनारिटीज" में आरक्षण पर आधारित संविधान की पेशकश नही की थी, तो उन्होंने "राष्ट्रीयकरण" को महत्व दिया था. कांशीराम और उनके चमचे पिछड़े तबके के सरकारी कर्मचारी जो मुर्ख है यह बाते नहीं जान पाए और जातिगत आरक्षण को ही भारत के विषमता को ख़त्म करने का अम्बेडकरी हतियार समझ बैठे. जिसके वजह से अम्बेडकरी आन्दोलन गलत दिशा में भटक गया. और भारत में "आर्थिक जनतंत्र" बहाली का अम्बेडकरी सपना भूल गए.
देश की केवल उच्च वर्णीय जनता संपत्तिवान बनी और नीच वर्णीय लोगों को सुविधाए पहुचाने का दावा करनेवाली सरकार भिकारी बनी...जब भिक मिलने की गुन्जैस नही रही तब उन्होंने कर्ज लेना सुरु किया, कभी देशी लोगों से तो कभी विदेशी सरकार से ... भारत के उच्च वर्णीयकांग्रेस के लोगों ने अनैतिक मार्गो से भी सरकार के संपत्ति का दोहन करने का हमेशा कार्य किया है.. आझादी के पहले के वर्णवादी परिणामों को जायज बनाने वाली "धारा-३१" देश में है तबतक पूंजीवाद कैसे ख़त्म होगा? कोई अगर इस धारा को जबरन हटा भी लेता है तो अमीरों से बगावत भी हो सकती है.. पर जब अमीर ही अपने बासिन्दे संसद में भेज रहे है तो भारत का पूंजीवाद ख़त्म कैसे होगा? इसके लिए सत्ता की जरूरत नहीं तो जनांदोलन की जरुरत है, जो हमेशा आन्दोलन रत रहे और अपने हिंतों की पुरजोरी करते रहे...
भारत का विकाश यानि भारत के सौ प्रतिशत गरीबों का उत्थान करने का सही मार्ग जनसंख्य के अनुपात में मिलनेवाला जातिगत आरक्षण नही है, वह हजारो सालों तक भी बर्कारत रहे तो भी शत प्रतिशत जातिगत वंचितों का कल्याण नहीं होगा, अगर किसी को लगता है की जातिगत आरक्षण से ही फायदा होता तो उन्होंने मुझे समझाने की कोशिश करना चाहिए, बिना विचार किए केवल अन्धानुकरण करने से नहीं होगा. इसलिए भारतीय गरीबों को मेरी नम्र बिन्ती है की उन्होंने अपनी एक राय बनाए और अपने मांगो के लिए हको को प्राप्त करने के लिए रास्तो पर उतरो, अपनी मांग हमेशा जारी रखो. नहीं तो निजीकरण के पूंजीवादी बाजारू दौर में कभी भी चाहे किसी के भी पार्टी की सरकार आए, कुछ भी सही परिवर्तन नही होगा, गरीब मरते रहेगे और ईश्वरीय दुओ के बलबूते जीवन यापन करते रहेंगे. जय भीम ... जय भारत !
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