शुक्रवार, 28 जून 2013

आर्य बनाम नाग वंश : बामसेफ का गलत प्रचार


रक्षण का मतलब सुरक्षा है. ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था को अपने फायदे के लिए निर्माण किया. वर्ण व्यवस्था जन्म पर निर्भर है. व्यक्ति जिस वर्ण में पैदा होता, उसी में पलता, उसी में दिए हुए कार्य करता तथा वह उसी में मरता है. ब्रह्म के मुख से पैदा हुआ वह ब्राह्मण, बाहू से पैदा होनेवाला क्षत्रिय, जांघो से पैदा होनेवाला वैश्य और पैरों से पैदा होनेवाला शुद्र कहा गया. वर्णवाद जन्म पर निर्भर है. सबसे ऊँचा वर्ण ब्राह्मण, उसके बाद क्षत्रिय, उसके बाद वैश्य (श्रेष्ठ) है और इन तिन वर्णों की सेवा करने के लिए ही शुद्र वर्ण बनाया गया. जिनका वर्ण में समावेश है वे सवर्ण और जिनका वर्ण में समावेश नहीं है वे अवर्ण. अवर्ण में अछूत, भटके और वनवाशी जातियों का समावेश किया गया तथा उसे हिन्दू धर्म का ही हिस्सा समझा गया. चार वर्ण और तिन अवर्ण ऐसे कुल सात गुठों का हिन्दुधर्म बना है.

जन्म के आधारपर पहले वर्ण बने, उन्ही का हिस्सा जन्म के आधार पर ही जाती बनी और जन्म के ही आधारपर वंश का भी गठन हुआ है. ब्राह्मणों ने खुद को द्विज कहा, अर्थात उनके दो जन्म होते है. पहला माँ के कोख से तो दूसरा मुंज होने के बाद. जिसकी मुंज होती है उसे ही ब्राहमण कहते है, जिसकी मुंज नही होती उसे ब्राह्मण नही कहा जाता. ब्राह्मण भारत को मातृभूमि मानते है, इसका मतलब उनकी पितृभूमि कही और जगह पर है, ऐसी उनकी धारणा है. (पर वे गलत है, इसे बाबासाहब ने सिद्ध किया.) वर्ण व्यवस्था के अनुसार सबके काम बांटे हुए है. ब्राह्मणों ने शिक्षा, क्षत्रियों ने रक्षा, वैश्यों ने व्यापार और शुद्रो ने सेवा. सवर्णों को "संपत्ति धारण करने का अधिकार" था पर अवर्णों को नही था. उन्हें सिर्फ लाचारी का जीवन जीने के लिए मजबूर किया जाता था. काम तो दिया जाता था पर उसका उचित दाम नहीं. 

भारतिय आझादी आन्दोलन के दौरान भीमराव रामजी अम्बेडकर का अछूत जाती में जन्म हुआ जिसका नाम “महार” जाती था. उन्होंने भारतीय समाज व्यवस्था का अध्ययन किया तो उनको समझ में आया की जन्म पर आधारित वर्ण, जाती, वंश प्रणाली ब्राहमण वर्ग के कुछ लोगों ने बनाई है. जिसे उन्होंने अपने सुरक्षा के लिए सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया है. उन्हें यह प्रणाली अन्यायी लगी, उसे ख़त्म करने के उद्धेश से ही बगावत सुरु की, उनके साथ उनके जाती के लोग भी सहयोग देने लगे, नेतृत्व उभरता गया. आगे बाबासाहब के नाम से उनके लोग उन्हें फुकारने लगे. वे अछूतों के पिता बने. भारत को अंग्रेजो के गुलामी से मुक्ति तो मिलनी ही चाहिए पर उन्हें हिन्दुधर्म के अन्यायी धार्मिक रिवाजों से भी मुक्ति चाहिए थी. राजकीय आझादी के साथ धार्मिक आझादी भी चाहिए थी.

हजारो सालो से जो धार्मिक गुलामी अवर्ण समुदाय पर सवर्ण हिन्दू लोगों द्वारा थोंपी गयी थी, उसे पहले हटाए बगैर भारत को आझाद न मिले, अर्थात अंग्रेजोने अवर्णों को सवर्णों के गुलामी को ढोने के लिए मजबूर नही करना चाहिए. इस मांग को ध्यान में लेते हुए भारतीय कांग्रेस लीग को बताया था की भीमराव अम्बेडकर की मांग वाजिब है. हिन्दू धर्म का जातिगत सवर्ण बनाम अवर्ण का झगड़ा आपस में बैठकर पहले समेट लो, उसके बाद ही भारत को आझादी मिलेगी. सवर्णों के राजकीय नेता मोहनदास गांघी थे पर धार्मिक नेता मदन मोहन मालवीय थे. बाबासाहब अम्बेडकर ने किये राजकीय मांगो के विरोध में पूना के येरवडा जेल में गाँधी ने आमरण अनसन सुरु किया और २४ सप्टेम्बर १९३२ को छोड़ा.

सवर्ण हिन्दू डर गए, वे अवर्णों के खिलाफ और भी आक्रोशित हो गए. बाबासाहब को भी जान से मारने की धमकिया आने लगी. उनकी पत्नी रमाबाई भी काफी घबरा गई थी. गाँधी के प्राण रक्षा के लिए सवर्णों ने बाबासाहब से भिक मांगना सुरु किया था. ज्यादा अपने मांगो/घटना को लम्बा खीचा जाए तो वह टूट भी सकती है, अनर्थ भी हो सकता इसलिए 'माध्यम मार्ग' को अपनाया. जो भी ठराव सवर्णों ने ठहराया था उसपर बाबासाहब ने गाँधी के प्राण बचने चाहिए और उनपर गाँधी के प्राण लेने के ऐवज में किसी ने भी दोषी नही समझाना चाहिए इसी बातों को ध्यान में रखकर समझौते पर सही की. ठराव बनाया था सवर्णों ने उसे सही करके सिर्फ स्वीकार किया अवर्णों ने. यानि जाती के आधारपर राजकीय आरक्षण देने का प्रस्ताव सवर्णों का था, उसे बाबासाहब को दोषी धरना अनुचित है. यह आरक्षण जनसँख्या के अनुपात में था. यह केवल सत्ता में भागीदारी का आरक्षण था जिसमे सिर्फ संविधान लागु होने के बाद सिर्फ १० साल तक ही देने का वादा किया गया था. 

शिक्षा और प्रशासनिक स्तरपर लागु करने की वकालत बाबासाहब ने नही की थी. क्योंकि उन्हें पूरी उम्मीद थी की वे संविधान को आदर्श बनाने के लिए कांग्रेस के संविधान सभा के सभासदों को मनाने में कामयाब होंगे और भारत में "आदर्श जनतंत्र" बहाल कर पाएंगे. जिसमे केवल अवर्णों के ही हितों की देखभाल नही होगी तो सभी भारतियों का कल्याण होगा. पर वे कांग्रेस के वर्णवादी राजकीय नेताओ को मनाने में वे कामयाब नही हुए. तब वे भी डर गए. उन्होंने संविधान सभा पर बहिष्कार किया. लगातार तिन दिन तक वे संविधान सभा से दूर रहे. कांग्रेसी नेताओ को भी डर लगा, कही ऐसा तो न हो की बाबासाहब अंग्रेजों पास "पूना समझौते" का पालन नही किया गया, तो वे सिकायत करेंगे. अंग्रेज आझादी सौंपने के लिए और भी समय न लगा दे. तथा यह भी हो सकता है की बाबासाहब संविधान बनने के पहले ही लोगों को कांग्रेस के खीलाफ भड़का न दे, उससे देश में काफी गड़बड़ी हो सकती थी. 

कांग्रेस बाबासाहब को केवल अछूतों के ही प्रतिनिधि मानती थी, जब भी वे अन्य गुठों के हितों की वकालत किया करते थे तो "संविधान सभा" में आपत्ति ली जाती थी और उन्हें चुप किया जाता था. जब पूना समझौतों में किये वादे पूरा करने में उन्होंने संविधान सभा में बहुमत साबित करने के लिए सहयोग देने का वादा किया तभी ही बाबासाहब संविधान सभा के कामकाज में सम्मिलित हुए और पूना समझौते के सवर्णों के वायदों के मुताबिक भारतीय संविधान में राजकीय आरक्षण मंजूर किया गया. “फुल (आर्थिक, आदर्श जनतंत्र) नही तो, फुल की पगडण्डी (राजकीय जनतंत्र के साथ जातिगत आरक्षण) ही सही,” ऐसा मानकर बाबासाहब ने दम लिया. उनके मर्जी और बुद्धी के अनुसार संविधान की हर एक धारा नही बनी और न बन भी सकती थी क्योकी धाराए एकमत से नही तो बहुमतों से बनती थी. 

भारतीय संविधान के तहत उन्होंने केवल “एक व्यक्ति, एक मत” के राजकीय जनतंत्र को ही बहाल करने में अपनी कामयाबी मानी पर उसपर वे संतुस्टता मानने को तयार नही थे. आजादी के बाद भारत में “एक व्यक्ति, एक मूल्य” के “आर्थिक/आदर्श जनतंत्र” के बहाली की वे कामना करते रहे, पर वह मांग उनके जीते जी पूरी नही हो सकी, जिसके वजह से वे देहातों में रहनेवाले खेतिहर मजदूरों के हालात को लेकर उनके निजी सहयोगी, नानकचंद रट्टू के पास खेद भी प्रकट कर चुके थे. 

बाबासाहब जाने के बाद पढेलिखे लोग जो पुरे के पुरे बामसेफ संघटन के तहत अपना तन, मन, धन देने लगे और जातिगत प्रशासनिक और राजकीय मांगो को आगे बढ़ाते रहे. जाती से ही जाती मिट सकती, इस विचार से बामसेफ ने पिछड़े जातियों के सरकारी कर्मचारियों को संघटित करना सुरु किया, कर्मचारियों में की गयी जाग्रति को सामाजिक जाग्रति का नाम दिया गया, जो गलत था. उनके कर्मचारियों के संघटन के नेता लोग राजकीय आन्दोलन करने चले गए, उन्होंने बीएसपी नाम की पार्टी गठित की और सरकारी कर्मचारी उन्हें मदत करते गए.

बामसेफ ने पिछड़े जातियों को जोड़ा, पर तोडा नहीं. जाती को तोड़ने के लिए “अन्हीहिलेसन आफ कास्ट” का हवाला भी दिया गया, जिसमे जाती जोड़ने पर नही तो तोड्ने पर जोर दिया था. जाती जोड़ने के ही कार्य को वे जाती तोड़ने का कार्य करके पेश करते रहे. लेकिन हकीकत एक न एक दिन तो सामने आती ही है. अब यह बात भी सिद्ध हो चूकी है, कांशीराम ने ही कहा था की 'जाती तोड़ने का कार्य असंभव है, उसे हम नही कर सकते, हम जातियों को जोड़ने का ही कार्य करते रहेगे.'

स्वर्गीय कांशीराम ने "बहुजन" का नारा दिया, जो ८५% लोगों के लिए प्रयोग में लाया गया, जो सिर्फ और सिर्फ जातीवाद के आधार पर ही निर्भर था. उससे भी आगे जाकर कांशीराम के नारे को ख़ारिज करते हुए. वामन मेश्राम ने मूलनिवासी का नारा दिया. इसमें ब्राह्मण जाती को छोडके सभी जातीयों का समावेश किया गया. आर्य वंश के लोग विदेशी है, भारतीय नहीं, जिसमे सिर्फ ब्राह्मण लोग ही आते है. आर्य वंश के लोगों ने भारत के मुलनिवाशी लोगों हराया और उसे गुलाम बनाया, उसे दास, दश्यु, असुर, शुद्र, "नाग" कहा गया. इस प्रकार की वल्गना की गयी. आर्य विदेश से कौनसे साल आए? क्या नाग लोग साप के पेठ से पैदा हुए, जिसे नाग समझा गया? ब्राहमण और बामसेफ अगर आर्यों को जन्म के आधारपर स्वीकार करते है तो नाग को किस आधार पर स्वीकार करते है? जन्म के या गुणों के? अगर नाग वंशीय होने के सबूत गुण के आधारपर है तो आर्य होने के सबूत वंश के आधारपर क्यों ? 

अभी भारत आझाद है, भारतिय संविधान के आधारपर जिसका जन्म जिस गाव में हुआ वह उस गाव का मुलनिवाशी होता है. क्या संविधान के अनुसार मुलनिवाशी को वंश के आधारपर स्वीकार करना चाहिए? या केवल बामसेफ कहती है इसलिए उसके कहने पर मुलनिवाशी या विदेशी ठहराना चाहिए? बुद्ध का धम्म विश्व में फ़ैलाने का बाबासाहब का सपना था. तो क्या भारतीय धम्म को देसी/विदेशी के मुद्यो के आधारपर बाहार देश के लोग भी नही नकार सकते? बाबासाहब ने अपने संघटन में ब्राह्मणों का भी स्वागत किया था, बुद्ध ने भी उनका स्वागत किया, फिर बामसेफ के झंडूबाम लोगों को ही क्या हुआ? बाबासाहब ने ब्राह्मणवाद को यानि उनके उंच/नीच के विचारों को विरोध किया, न की उन जाती के व्यक्तियों को... जेधे-जवलकर के प्रस्ताव को बाबासाहब ने क्यों नकारा था? बाबासाहब ब्राह्मणों के खिलाफ नहीं थे, वे सिर्फ ब्राह्मणवाद के खीलाफ थे. पर बामसेफ ब्राह्मणवाद को स्वीकार करती है और ब्राह्मणों को नकार रही है, क्या यह अम्बेडकर विरोधी विचार नही है? 

बामसेफ और बीएसपी जातिगत आरक्षण की पेशकश करती है. क्या यह उनका कदम जातिवादी नहीं है? जातिगत प्रशासनिक आरक्षण से केवल ९.७% लोग ही लाभान्वित हो सके, बाकि लगबग ९०% पिछडो का क्या? वे जब रोजगार के लिए सरकारी कर्ज मांगने जाते है तो उन्हें दो गारंटर मांगे जाते, बैंक उसके बगैर कर्ज नही देती. ९०% लोगों को गारंटर ही नही मिलते और वे वापस घर लौट आते, तो दुबारा कर्ज के लिए बैंक जाना उचित नहीं मानते. केवल सरकारी कर्मचारियों के हितों के लिए ही अगर संघटन को चलाया जाता है तो उसे समाज जाग्रति कर उन्हें लाभान्वित किये जाने के बारे में सहाय्यक कहा जाता, यह बाते कहातक नही है?

बामसेफ/ बीएसपी झूट के पुलिंदे के शिवाय और क्या है? अगर वे सही होते तो कोर्ट में चक्कर क्यों लगाते? एस ऍफ़ गंगावने/ बी डी बोरकर के नजर में वामन मेश्राम चोर, झुटा, बदमाश नही होता तो उन्हें संघटन से बाहार जाने की क्या जरुरत थी? डीएनए रिपोर्ट का हवाला देते हुए, आर्य विदेशी है ऐसा कहा जाता है. यह रिपोर्ट शरीर से सम्बंधित होती है, जिसमे ९९.९ % समानता होती है. इसका मतलब हर विश्व का इंसान एक दुसरे का भाई है, दुश्मन नही. अगर कोई दुश्मन भी बनता है तो वह वैचारिक मतभेदों के द्वारा ही बनता है, जिन जिन बातों मतभेद है उसे अगर विचारो द्वारा ही खलास किये गए तो क्या हर्जा है? 

महामानव बुद्ध ने भी इसके अलावा और क्या किया, उन्होंने भी तो ब्राह्मणवाद से निपटने के लिए बुद्धि का ही उपयोग किया. उसी के आधार पर उनके संघ में ७५% ब्राह्मण जाती के भिक्षु थे. अगर ब्राह्मणों को मारा भी गया तो उनके विचार जिन लोगों के दिमाग में घुसे हुए है, तो वे जाती के आधारपर भेदभाव नहीं करेंगे? तो क्या उन्हें भी देश से भगाना चाहिए? बौद्धिक मुजोरी को बुद्धिमानी नही कहा जा सकता, वह एक प्रकार का पागलपन ही है. बौद्धिक भ्रष्टाचार है. अगर जातिवादी पागलपन को नही रोखा गया तो वह जातिवादी आतंक भी फैल सकता, वंशवाद भी आतंकित हो सकता. भारतीय जनतंत्र के सेहत के लिए किसी भी प्रकार का भेदभाव बहुत घातक है. अम्बेडकरी लोगों ने किसी भी प्रकार के आतंकवादी विचारों से दूर रहना चाहिए. नही तो बुद्ध और बाबासाहब के नाम को बदनाम करने और धोका देने का आरोप उनपर भी लग सकता है.

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