गौतम बुध्द ने धम्म प्रचार के लिए भिक्षुसंघ की स्थापना की. सुरु में भिक्षु सैनिक रहे और बुद्ध उनके नायक रहे. धम्म की चर्चा दूर दूर तक होने लगी. कपिलवस्तु में भी इसकी चर्चा हुयी. उनके कुछ मित्र और स्वकीय भी खुश हुए. सिद्धार्थ का चुलत भाई “आनन्द”, मित्र उपाली, और सेवक “छन्” और ऐसे कही लोग मिलने आए और भिक्षु संघ में दीक्षित हुए, उसमे गौतम का फुफेरा भाई “देवदत्त” (कोलिय) भी आया और भिक्षुसंघ में सम्मिलित हुआ. संघ में रहते हुए उन्होंने हमेसा संघ को विभाजित करने के लिए सम्भ्रम फ़ैलाने का कार्य किया. विरोधी जैन साधुओं से दोस्ती बढाई तथा ब्राह्मणों और राजाओं से भी दोस्ती सिर्फ इसलिए की की सिद्धार्थ का प्रभाव समाज पर न गिरे. बाद में सारीपुत्त को बौद्धिक गुणवत्ता, त्याग और निष्ठा के आधार पर संघ का सेनापति बनाया था. सारिपुत्त के मित्र महामोग्ल्यायन रहे. दोनों भी महान विद्वान और ब्राह्मण थे, फिर भी उन्हें तथागत बुद्ध ने ज्ञान और तर्क से प्रभावित किया. भिक्षु सारिपुत्त के नेतृत्व मे भिक्खुसंघ और भिक्खुनी संघ वर्ण व्यवस्था को अविरत तोड़ते रहे. सारिपुत्त को इतना तर्क ज्ञान था की, उनके सामने ब्राह्मण भी चुप्पी बनाये रखते थे.
एक बार देवदत्त ने बहला- फुसलाकर कुछ लोगों को अलग जगह लिजाया था, यह बात उन्हें सारिपुत्त के जरिए मालूम हुयी तो बुद्ध के कहने से सारिपुत्त ने नवदीक्षित ५०० लोगों दुबारा शिक्षित कर संघ में दाखिल किया था. इसका भी बदला लेने के लिए उन्होंने हो सकता है ब्राह्मणों साथ लेकर सारिपुत्त को मरवाया हो. क्योंकि सारिपुत्त से ब्राहमण बुद्धी द्वारा नही जीत पा रहे थे. और देवदत्त हमेशा भिक्षु संघ के सेनापति बनने के इच्छुक थे पर बुद्ध ने उनका हमेशा विरोध किया था. हो सकता है देवदत्त भी कभी कभी ब्राह्मणों के बहकावे में आकर संघ विरोधी कार्य करते रहे हो. सारिपुत्त के बाद उनके मित्र की भी हत्या की गयी. बुद्ध का भी वध करने के हिसाब से देवदत्त का फाफी बार प्रयास किया. क्योंकि उनसे वे बुद्धी द्वारा जितना असम्भव हुआ था. देवदत्त ने पर्वत से बहुत बढ़ा पत्थर फेंक कर पर्वत के निचे जा रहे बुद्ध की जान लेने की कोशीस की थी. बुद्ध उसमे बचे, सिर्फ पाँव को कुछ चोंट आयी थी. फिर भी बुद्धने प्रतिहिंसा का रास्ता किसी के भी विरोध में नही अपनाया. न उसके विरोध में किसी भी राजा से मदत मांगी. वर्ण व्यवस्था के जंग मे ब्राह्मणोंने ब्राह्मणों की भी हत्या की थी, यह बाते प्राचीन भारतीय इतिहास से सिद्ध हुयी.
बुद्ध का सम्यक मार्ग ही उनका तत्वज्ञान है, नियम नही. नियम व्यक्ति को मारते है तो तत्व व्यक्ति को तारते है. नियम तानाशाही है, तो तत्व जनतंत्र है. नियम लादे जाते है, तो तत्व समझाए जाते है, जिसे चाहे तो स्वीकार किया जाता है. धम्म तत्वज्ञान है, इसमें न आदेश है और न बिन्ती है. बताना बुद्ध का मकसद है, सुनना या न सुनना दूसरों का काम है. सुनकर उसका आचरण करते है तो सुख मिलेगा, नही तो दुःख है ही है.
सजीव और निर्जीव ऐसे दो प्रकारों से सृष्टि बनी है, सजीव मे वनस्पती और प्राणियों का समावेश होता है. निर्जीवों से सजीव बने है. सजीव पृथ्वी, आप, तेज और वायु इन ‘चार’ निर्जीव भौतिक पदार्थों से बने है. भौतिक पदार्थ अनु और रेणु से बने है, विशिष्ट अनुकूल परिस्थिति रहने पर जीवन का निर्माण होता है. जिसे हम चेतना भी कहते है, जिव का दूसरा नाम चेतना है, अनु-रेनु के आपस मे टकराने से उर्जा होती है. बिजली, हवा, पानी यह भौतिक पदार्थ है. पदार्थो कों किसी ने निर्माण नही किया, उसका विकास हुआ. प्राणियों का भी उसी तरह से विकास हुआ. कोई भी जन्म नही लेता है और कोई न मरता है, जो बदलाव दिखता है वह विकशित रूप है, उसे हम घटना, जन्म या उदय कहते है.
सुख या दुःख किसी ईश्वर के आशीष पर निर्भर नही तो वह व्यक्ति के विचार और आचार पर निर्भर है. एक परिवार में जो जानेगा वह जागेगा और उसके अनुसार कार्य करेगा वह सुखी होगा मगर न दूसरा जानेगा, जागेगा और कार्य करेगा तो वह दुखी रहेगा. धम्म परिवार के हर सदस्य को समझना चाहिए, समझाना चाहिए तथा हरेक ने दुसरे पडोसी को समझाना चाहिए. तभी बह बढ़ेगा. उसी से धरती बुद्धमय होगी, धम्ममय होगी तथा संघमय होगी. बुद्ध समाज के सभी १. आर्थिक, २. शैक्षणिक, ३. सांस्कृतिक और ४. राजकीय अंगो में समानता चाहते थे. उनका आदर्श संघमय शासन है. उनका शासन सीमातित था. जहाँ भी मानव प्राणी है, वहां पर उनका शासन सुरु होता है. राजा सिमित प्रदेश में शासन करते है, तो बुद्ध पुरे विश्व पर शासन करते है. तलवार की शक्ति सिमित होती है, मगर बुद्धि की शक्ति असीमित होती है.
बुद्धी कही पर भी अपना शासन बना ही लेती है. सम्यक दृष्टी और सम्यक संकल्प से “न्याय”; सम्यक वाणी और सम्यक कर्म से “स्वतंत्रता”; सम्यक आजीविका और सम्यक व्यायाम से “समता” तथा सम्यक स्मृति और सम्यक समाधी से “भाईचारा” का बोध होता है. जनतंत्र के लिए काफी उद्बोधक यह क्रान्तिकारी नैतिक मूल्य है, नैतिक कृति है. उसी प्रकार सम्यक दृष्टी, सम्यक संकल्प से प्रज्ञा; सम्यक वाचा, सम्यक कर्म, सम्यक आचरण से शील तथा सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधी से “करुणा” प्रकाशित होती है. गौतम वर्ण व्यवस्था के खिलाफ हमेशा चिंतित रहे, उनके विनाश के लिए नए अहिंसक रास्ते की तलाश करते रहे, चिंतन से जो ज्ञान प्राप्त किया. उन्हें वही ज्ञान, वर्ण व्यवस्था से लड़ने के लिए पर्याप्त लगा. उसपर ही वे समाधानी हुए, उसी ज्ञान के मदत से उन्होने ब्राह्मणों के ज्ञानदान कार्य पर अतिक्रमण किया. मगर बुद्ध के क्रांति की राह जनतांत्रिक रही है.
कुछ ब्राह्मण भिक्खु बने. वे भी वर्ण व्यवस्था पर जबरदस्त आघात करने लगे इसलिए कुछ कूप-मंडूक ब्राह्मणों ने बुद्ध को अपमानित करने की चेष्ठा भी की थी, उनके फुफेरे भाई देवदत्त को भडकाया जाते रहा. गौतम को "अरे गौतम" (भो गौतम) अपमानित करने में कहा गया. गौतम ने ज्ञान के सहारे सबको चुप किया. बुद्ध शान्ति सन्देश देते-देते हिन्दुधर्म के मुलभुत तत्वों पर आघात करते रहे. राजकिय और धर्म व्यवस्था पर उन्होंने अप्रत्येक्ष दृष्टि से काफी प्रहार किए.
“भगवान” समर्थक महावीर का जैन धर्म भी हिन्दू धर्म की ही एक प्रगत शाखा रही है. जो ईश्वर को तो मानती थी पर यज्ञ तथा चातुर्वर्ण्य व्यवस्था का भी विरोध करती थी. इसका हिन्दुओं पर कोई खास बुरा असर नही गिरा. हिन्दू जैन भाई भाई के रिश्ते से हमेशा रहे है. दोनों मिलकर बुद्ध, उनका धम्म और उनका संघ इनका मुकाबला करते रहे. क्योंकि दोनों के विचारों से हटकर और डटकर बुद्ध की क्रान्तिकारी विचारधारा रही है. जो दोनों के धर्म विचारों को मारक थी.
बौद्ध धम्म के ग्रंथो को ज्यादातर हिन्दू मानसिकता के ब्राह्मण भिक्षुओँ ने लिखा है. उसे सारे संप्रदाय मानते रहे. जिसे बहिष्कृत किया था उसे भी त्रिपिटक में स्थान दिया गया. बुद्ध का धम्म जनतंत्र पर अधिष्टित है, जो केवल राजकीय जनतंत्र के पक्ष में नही तो “आर्थिक जनतंत्र” के भी पक्ष में रहा है. बुद्ध ने भिक्षुसंघ को आदर्श जनतंत्र का प्रायोगिक सबूत बनाया. असीमित भौगोलिक साधनों के अभाव में भी “आदर्श जनतंत्र” का पालन किया जा सकता है. जिसके जरिए न्याय, स्वतन्त्रता, समता और बंधुभाव के नैतिक मूल्यों की निरन्तर शिक्षा निश्चित दी जा सकती है, यह बुद्ध ने साबित किया.
बुद्ध का धम्म व्यक्तिवादी नही तो विचारवादी है, शारीरिक नही तो बौद्धिक है, बुद्धि के जरिए शारीरिक तथा मानसिक परिवर्तन करने के लिए सहाय्यक है. हिन्दुधर्म व्यक्तिवादी है, वह विचारवादी नही, बौद्धिक नही है. व्यक्ति का जन्म ही उसमे महत्वपूर्ण है. वह किस जाती, वर्ग, वर्ण, लिंग, वंश या प्रदेश में जन्मा है, इस पर उनकी गुणवत्ता निर्भर की जाती है. उसी से वह श्रेष्ट या कनिष्ट समझा जाता है. बुद्ध ने अगर व्यक्ति द्वेष किया होता तो ब्राह्मण व्यक्ति को अपने संघ में सम्मिलित नही किया होता. ज्ञान दान का कार्य ब्राह्मणों के हातों में नही सोंपा होता.
बुद्ध जन्म पर निर्भर वर्णव्यवस्था के विरुद्ध थे, मगर ब्राह्मणों के नही. ब्राह्मण व्यक्ति है, विचार नही. ब्राह्मणों पर भी बुद्ध ने विश्वास किया की यह लोग उनका धम्म जनता को सही ढंग से समझा सकते है. उन्होंने ब्राह्मण सारिपुत्त को संघ सेनापती नियुक्त किया. ब्राह्मण लोग बुद्ध के नजर मे अगर बुरे होते तो उन्होंने ऐसा नही किया होता. बुद्ध को अपने बुद्धी पर इतना भरोसा था की, चाहे वह कितना भी कपटी और खुन्कार व्यक्ति क्यों न हो, उसे समझाया जा सकता है, विचारों से काबू मे लिया जा सकता है. मगर जातिवादी लोग अपने विचारों कों उतने प्रभावी ढंग से नही रख पाते, उनके पास ज्ञान के एवज अज्ञान है. बुद्ध सर्वज्ञ नही थे मगर ज्ञानी थे, महाज्ञानी थे. व्यक्ति का जन्म किस जाती, वर्ग में हुआ यह महत्वपूर्ण नही तो वह किस विचारधारा का अनुकरण करता है? यह महत्वपूर्ण है.
ज्ञान से अज्ञान पर विजय पाना सम्भब है, इसपर बुद्ध को महत्तम विश्वास था, इसलिए वे ज्ञान ही बाँटते गए. ज्ञान देना और भिक्षा लेना यह उनका कार्य रहा. ज्ञान देना अगर कार्य है तो उसका मूल्य बुद्ध ने क्या लिया तो सिर्फ भिक्षा चाहे वह ताजी हो या बासी. मगर आज उसका दाम कितना लिया जा रहा है? ज्ञानी व्यक्ति, कपटी को भी जल्दी पहचानते है. तथा उससे कैसे निपटाया जाए इसका भी मार्ग जानते है. ‘ब्राह्मण जातियों के वजह से महान है और अन्य लोग नही’, ऐसा बुद्ध ने कभी भी नही कहा. कोई भी व्यक्ति अपने जाती के दम पर छोटा या बड़ा नही, तो अपने विचारों, आचारों से छोटा या बढ़ा होता है.
तथागत गौतम बुद्ध ने अपने माता, पत्नी, पुत्र और मित्रों को भी जनतान्त्रिक भिक्षु संघ में सामिल किया, वर्ण व्यवस्था को नष्ट कर उसके जगह पर नई वर्ण विरहित, वर्ग विरहित जनतन्त्र प्रणाली लागु करने के लिए उनमे जोश पैदा किया. बुद्ध का संघ, संघटन जोर जबरदस्ती पर निर्भर नही था तो वह जनता के मर्जी पर निर्भर था. जनता ने उसे सही माना, उसके उद्धेशों को सही माना, उनके कार्य प्रणाली को सही माना और सहयोग दिया, जिससे संघ हमेशा बढ़ते ही गया. फलते-फूलते ही रहा. कभी इस राज्य में तो कभी उस राज्य में तो कभी इस देश में तो कभी उस देश में. लेकिन वह अविरत जिन्दा रहा. जबतक सम्पूर्ण सामाजिक पुनर्रचना जनतान्त्रिक विचारों पर नही नियन्त्रित होती तबतक उसकी मानव समाज को जरुरी है, तथा उसके बाद भी उसे संचालित करने में उसका सहयोग और अस्तिव हमेशा बना रहेगा.
बौध्द ग्रन्थ “दिव्यावदान” और “महावंश” के अनुसार बुद्ध ने अपने जीवन काल में ८४ बड़े और मुख्य प्रवचन किए थे. उन्होंने अपने प्रवचनों से उस समय के सभी विचारधाराओं का शक्ति से उत्तर दिया है. ऐसे कोई भी प्रश्न पीछे नही छोड़े है की जिसके उत्तर उन्होंने उस समय नही दिए है. तथागत बुद्ध ने अपने प्रथम धम्मचक्र प्रवर्तन में भी “आर्य अष्टांगिक मार्ग” को ही सुखी जीवन का मार्ग बताया और अंतिम क्षण में भी “आर्य अष्टांगिक मार्ग” का ही बोध किया, जो इसे जानेगा वहीँ जागृत होगा. बुद्ध ने अपने बाद किसी को भी नियन्ता, नियन्त्रक, तानाशाह निर्माण नही किया. बुद्ध ने अपने किसी व्यक्ति को महत्वपूर्ण स्थान देने के बजाए विचारों को महत्वपूर्ण स्थान दिया. वे विचार यानि जनतान्त्रिक धम्म विचार है. उन्होंने अपने बाद “धम्म’ को ही सर्वोच्च स्थान दिया.
तथागत ने अपने अन्तिम प्रवचन में कहा, “सुभद्र! तथागत के धम्म-विनय में आर्य अष्टांगिक मार्ग है. इसलिए तथागत के धम्म-विनय में श्रमण भी है, स्रोतापन्न, सकृदागामी, अनागामी तथा अर्हत (जागृत) है. दुसरे मत श्रमणों से शुन्य है. लेकिन हे सुभद्र! यदि इस धम्म-विनय में सम्यक जीवी होंगे, तो संसार कभी अर्हतों से शून्य नही होगा! (बुद्ध और उनका धम्म, अनुवादक- डॉ. भदन्त आनन्द कौसल्यायन, समता प्रकाशन, नागपुर. २००३, पृष्ट-३०२) सभी लोगों के शंकाओं का निरसन करने के बाद ही उन्होंने “वैशाख पूर्णिमा के रात्री तीसरे प्रहार इसा पूर्व ४८३ (चार सौ त्रासी) में अपने प्राण छोड़े,
गौतम बुध के मरने के पहले भिक्षु संघ में तो गुट मौजूद थे. एक सिद्धार्थ (शाक्य) वादी तो दूसरा देवदत्त (कोलिय) वादी. कुछ ब्राह्मण भिक्षु पर वर्णवाद का प्रभाव रहा वे हमेशा देवदत्त के खंदे पर बन्दुक रखकर बुद्ध, धम्म और उनके संघ पर वार करते रहे. कट कारस्थान करते रहे. देवदत्त तो बुद्ध के पहले ही मर चुके थे. मरने के पहले उन्होंने बुद्ध से मांफी भी मांगी थी की उन्होंने बहुत गल्त कार्य किया था. पर बुद्ध मरने के बाद आनंद (क्षत्रिय) बनाम महाकाश्यप (ब्राह्मण) ऐसे दो गुटों में भिक्षु मानसिक रूप से बंट चुके थे. पर उनके मतभेद समाज में वे नही दिखाना चाहते थे. क्योंकि समाज से ही दोनों को दैनंदिन भिक्षा की अभिलाषा थी. यह उनके भिक्षुओं की कमजोरी थी. इसी मतभेदों ने सामने हीनयान और महायान का रूप लिया.
हिनयानी भिक्षु ज्यादातर रोहिणी नदी के उसपार के “कोलियों” पक्ष में खड़े होगर बुद्ध का तथा भिक्षु आनन्द का विरोध करते रहे, तो इस ओर के “शाक्य” घराने की प्रसंशा बाकि का पिछडे वर्ग का गुट करते रहा. इसका बहुत गल्त असर धम्मक्रान्ति पर हुआ. धम्म आसानी से समझने योग्य नही रहा. उसे अपने अपने ढंग से ढाला गया.
पोस्ट पढकर मै बहुत ही अधिक खुश हू कि मुझे अब सही रास्ता मिल गया है
जवाब देंहटाएंइसके लिए मै भारतीय बौध्द महासभा को साधुवाद कहता हू
नमो बुध्दाय जय भीम