हिमालय
पर्वत के गोदी में “तराई” का प्रदेश था. जो अब ‘नेपाल’ में आता है. भारतीय सीमा से
काफी नजदीक है. उसमे शाक्य वंश के “जयसेन” नामक राजा राज्य करते थे. उनका गोत्र
“आदित्य” था. उन्हें १. “सिन्ह्हनु” और २. “अंजन” नामक दो पुत्र थे. वे मरने के
बाद उनके राज्य का विभाजन हुआ. दोनों भी “रोहिणी” नदी के आर-पार रहते थे. दोनों के
खेती में नदी का पानी लागु था. फिर भी उनमे कभी कभी पानी के लिए झगड़े होते ही रहते
थे. सिन्ह्हनु की राजधानी “कपिलवस्तु” रही तो अंजन की राजधानी “देवदह” रही. सिन्हहनु
को १. शुद्धोधन, २. शुक्लोधन, ३. धौतोधन, ४. अम्रुतोधन और ५. शाक्योधन पुत्र तथा ६.
प्रमिला ७. अमृता उर्फ़ अमिता नामक पुत्री थी. तो रोहिणी नदी के उसपार अंजन के परिवार
में १. दण्डपाणी उर्फ़ पुंडरिक पुत्र और १. महामाया और २. गौतमी ऐसी दो पुत्रिया
थी. दोनों पडोशी मुल्को में आपसी रिश्तेदारी होती थी. सिन्ह्ह्नु के राज्य को
“शाक्य” गणराज्य तो अंजन के राज्य को “कोलिय” गणराज्य कहा जाता था. सिन्ह्हनु और
अंजन के मृत्यु उपरान्त शाक्य नगरी में “शुद्धोधन” का तो कोलिय नगरी में
“पुण्डरिक” उर्फ़ दंडपानी का राज्यकारभार आया. इनमे में रोहिणी नदी के पानी वाटप के
झगड़े हुआ करते थे. शुद्धोधन को जो दो पत्निया थी. वह राजा दण्डपाणी की ही बहने थी,
जो बड़ी महामाया तो छोटी गौतमी थी. महामाया को सिद्धार्थ (शाक्य) तो अमृता का ब्याह
सप्रबुद्ध नामक कोलिय से हुआ था, उनके लड़के का नाम देवदत्त (कोलिय) था. १. महानाम
और २. अनिरुद्ध यह दोनों शुक्लोधन के पुत्र थे. “आनन्द” यह अम्रुतोधन (शाक्य) का
लड़का रहा. थुल्लितिस्स यह प्रतिमा (शाक्य) का पुत्र था. तो “यशोधरा” यह दण्डपानी
उर्फ़ पुण्डरिक की कन्या थी, जिसका पुत्र “राहुल” था. “देवदत्त” यह सिद्धार्थ का फुफेरा
भाई था, जिसका बचपन कपिलवस्तु में ही गया था.
कपिलवस्तु नामक शाक्य गणराज्य
मे शुद्धोधन नामक राजा थे. उन्हें महामाया नामक पत्नी थी. उन्हें प्रसुत करने मैके
कोलिय नगरी “देवदह” जाते वक्त रास्ते में शरीर पीड़ा हुयी. रथ रोखा गया. शालवृक्ष
के टहनी को पकड़े हुए शालवृक्ष के छाया में पुत्र को इ.सा.पूर्व ५६३ मे वैशाख
पूर्णिमा के दिन, “लुम्बिनी” वन (जंगल)
इलाखे बालक को जन्म दिया. पुत्र हुआ, जिसका नाम “सिद्धार्थ” रखा गया. माता “महामाया’
कुछ ही दिनों मे चल बसी. उसके बाद उनकी छोटी बहन “गौतमी” (कोलिय कन्या) को राजा शुद्धोधन ने सिद्धार्थ के सेवा मे, दूसरी रानी की. गौतमी के गोद
मे सिद्धार्थ पले और बढे. इसलिए सिद्धार्थ को गौतमी का पुत्र “गौतम” के नाम से भी
जाना जाता है.
एकबार सिद्धार्थ अपने फुफेरे भाई देवदत्त
(कोलिय) के साथ शिकार करने गए, देवदत्त ने पक्षी बान द्वारा एक “हंश” पक्षी की
शिकार किया. पक्षी धीरे-धीरे आसमान से निचे गिरा. सिद्धार्थ ने उसका बान निकालकर
अपने बाहू में लिया, उसे जीवन दान दिया. “हंस” किसका? देवदत्त और सिद्धार्थ में
झगडा हुआ, तक्रार को लेकर शुद्धोधन महाराज के दरबार में पक्षी के मालिक को तय करने
के लिए दोनों गए. तारनेवाला मारनेवाले से महान होता है यह उस पक्षी ने ही साबित किया.
शिकार पक्षी सिद्धार्थ गौतम का हुआ था. देवदत्त नाराज हुआ. यह एक न्याय पूर्ण
क्रांति की सुरुवात थी. मगर इस अपमान के पलों को हमेशा के लिए देवदत्त ने संजोए
रखा. इसका बदला लेने के लिए वे हमेशा गौतम का पिच्छा करते रहे. शाक्य (सिद्धार्थ)
और कोलिय (देवदत्त) संघर्ष की यह सुरुवाती मुल जड़ साबित हुयी.
प्राचीन भारत
में जनतन्त्र प्रणाली कार्यरत थी, जहाँपर संघ सदस्यों को अपने विचार रखने की पूरी
आझादी होती थी. उसमे हर सवालों पर चर्चा होती थी. संघ बहुमतों से निर्णय लेता था.
इतना ही नही तो वे सदस्य स्वयं झगडे में भी सम्मिलित होते थे. केवल निर्णय ही लेना
उनका कार्य नही तो उसे अन्जाम तक पहुँचाना भी उनका कार्य था. बहुमतों का आदर करते
हुए लिए निर्णय पर राजाओ को भी कार्य करना जरुरी होता था. यह प्रथा भारत के
जनतान्त्रिक प्राचीन विचारों को उजागर करती है. यह प्रथा हिमालयीन प्रदेश में जारी
थी. कपिलवस्तु नगरी में यह जनतांत्रिक प्रथा सदियों से चलते आयी. “शाक्य संघ” के
रितीनुसार राज्य के लोगों की सुरक्षा और हिफाजत करना यह कार्य उनपर था. राजाओं के
अलावा यह एक क्षत्रियों के शाक्य परिवार का मण्डल या संघ था. सिद्धार्थ गौतम भी
उनके सभासद थे. शाक्य गणराज्य के पड़ोस मे रोहिणी नामक नदी बहती थी. रोहिणी नदी के
पानी वाटप को लेकर और बड़ा झगड़ा हुआ. नदी के उसपार का कोलिय परिवार भी युद्ध के लिए
तयार था. अब बारी कोलियों की आ चुकी थी. इधर शाक्य संघ के सभासदों की मीटिंग बुलाई
गयी.
कपिलवस्तु नगरी में यह
जनतांत्रिक प्रथा चलते आयी थी. क्षत्रिय वंश का शाक्य संघ भी इसी जनतांत्रिक
विचारों पर अधिष्ठित था. संघ सभासद होने की एक निश्चित उम्र होती थी. सिद्धार्थ उस
संघ के सभासद थे. शाक्य संघ भले ही क्षत्रियों का था परन्तु उसका सेनापती (मुखिया)
पुरोहित (ब्राह्मण) था. समाज में वर्णवादी व्यवस्था होने से इस संघ पर भी
ब्राह्मणों का ही वर्चस्व होता था. “ब्राह्मण हो भ्रष्ट फिर भी तिन्ही लोकी
श्रेष्ठ” यह समाज की धारणा रही. इस पानी बंटवारा के झगडे में “देवदत्त” (कोलिय)
किसके पक्ष में होंगे यह कल्पना की जा सकती है.
शाक्य संघ एक प्रकार की संसद
थी उसमे सिद्धार्थ भी एक सांसद ही थे. “शाक्य संघ” पर ब्राह्मणी समाज व्यवस्था का
असर होने से भी सही निर्णय लेने के लिए “संघ सभासद” सक्षम नही हुए हो. (या सकता है
की जो पराभव राजा शुद्धोधन के “राज दरबार” में ”हंस” पक्षी को लेकर देवदत्त का हुआ
था, उसका बदला लेने के लिए “शाक्य संघ” के सेनापति (ब्राह्मण) के जरिए “देवदत्त”
ने ही की हो. क्योंकि उनका रहना भी कपिलवस्तु नगरी में ही था.) जो लोग समाज के
रक्षा के लिए नही, तो उनका संहार करने में अपना उचित कार्य मानते थे. सेनापती के
नेतृत्व मे कोलियों से युद्ध करना यह बहुमतों से तय हुआ. गौतम ने उसे विरोध किया,
युद्ध से हिंसा होगी, जीवित हानि होगी. सिद्धार्थ
को पूरी उम्मीद थी की आपसी समझौते से मसला दूर होगा, पर उनके
पक्ष मे अल्पमत रहा, बहुमतों से तय हुआ की, युद्ध को विरोध करने के जुर्म मे गौतम को दण्डित किया जाए. सिद्धार्थ ने संघ निर्णय का आदर किया. सिद्धार्थ गौतम ने दंड को अपनाया. संघ
के इस जनतान्त्रिक विचारों में कुछ खामिया रही थी. उसका समाधान तलाश करने के लिए
गृहत्याग किया, चिन्तन किया, तपश्चर्या की.
“शाक्य संघ” ने उन्हें तीन पर्याय दिए गए, उनमे से एक पर्याय गौतम को चुनना था, वह चुना और
शाक्यों के कपिलवस्तु नामक नगरी से वे जंगल की ओर निकल गए. उस समय श्रमण और
ब्राह्मण ऐसी दो सभ्यताए विराजमान थी. श्रमण श्रम करके जीते थे, उन्हें “श्रमिक” ही कहा जाता था. ब्राह्मण बुद्धी के सहारे जीते थे. उनके
गुरुकुल पाठशालाए चलती थी. वे गावों के बाहर
होती थी. सिद्धार्थ गौतम ने गुह्त्याग करने के बाद जंगल मे कही ब्राह्मण शिक्षकों
से ज्ञान हासिल करने की कोशिश की, किन्तु आखिर तक उसमे वे असंतुष्ट, अतृप्त रहे.
पुराने गुरुओं को छोड़कर नए-नए गुरुओं के तलाश में निकलना भी क्रान्तिकारी विचारों
की भूक कितनी ज्वलंत थी! इसका अंदेशा ही करना मुश्किल है. समाज के बुरे विचारों को
ख़त्म कर लोगों को सुखी बनाना यही उनका मकसद रहा. बिना मकसद से ज्ञान, रास्ता नही
ढूंढा जाता और न वह मिलता है.
वर्ण जन्म पर अधिष्टित है, बुद्धिपर नही. भारत मे जब सिद्धार्थ पैदा हुए तो वर्ण, जाती व्यवस्था थी, सिद्धार्थ
भी उनके शिकार बने. शाक्यसंघ वर्ण व्यवस्था पर निर्भर था, जिनके
शिक्षा को भुगतने के लिए सिद्धार्थ को कपिलवस्तु नगरी, माँ-बाप,
मित्र, पुत्र और पत्नी को भी त्यागना पड़ा.
उसके लिए वर्ण व्यवस्था जबाबदार है, इसका सिद्धार्थ को पता
था. समाज में वर्ण व्यवस्था होने से न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारे का अभाव
था. समाज के आर्थिक, शैक्षणिक, सांकृतिक और राजसत्ता पर उसका गहरा प्रभाव था. वर्ण
व्यवस्था ईश्वरवादी विचारों पर निर्भर थी. ईश्वर की तलाश की, वे न मिलने से बुद्ध
ने निरिश्वरिय विचारधारा का अंगीकार किया.
आखिर मे अपने अनुभव, चिंतन-मनन से गौतम ने अपेक्षित ज्ञान की प्राप्ति की, यह ज्ञान उन्हें गया मे पीपल वृक्ष के निचे चिंतन करने पर प्राप्त हुआ. उस
वृक्ष को “बोधीवृक्ष” के नाम से पहचाना जाता है, जो अब गया
नामक गाव से करीब मे स्थित है. बुद्ध ने किस अपेक्षा से ज्ञान प्राप्ति का प्रयास
किया था? यह बात जानना जरुरी है. हिन्दुधर्म के प्रभाव मे
वर्ण बने, बाद मे जातिया बनी, उसपर पवित्रता का चढ़ावा भी चढ़ाया
गया. क्षत्रियों को जंग के सिवा दूसरा कार्य करना मना था. उनका कार्य केवल हिंसा
ही करना था. सोचना, चिंतन, मनन और
शिक्षा पर पूर्णता ब्राह्मण वर्ण का हक समझा जाता था, ब्राह्मण
सेनापती का आदेश न मानना गौतम को कितना महंगा हुआ, यह गौतम ही सही जानते थे.
जंगल मे ६ साल तक ज्ञान हासिल
करने के लिए सिद्धार्थ ने काफी प्रयास किया. लेकिन वर्णव्यवस्था को खत्म करने का
ज्ञान किसी भी सन्यासी से नही मिला और वे हमेशा असंतुष्ट रहते थे, जिसका परिणाम यह हुआ की उन्हें "गया" के जंगल मे अलग से विश्व
की पुनर्रचना करने के विचारों पर चिंतन चिंतन सुरु किया. दीर्घ चिन्तन से उन्हें
चिंतन से यह अहसास हो गया था की, यही सही ज्ञान है, सही बुद्धी है, जो वर्ण
व्यवस्था को समाज के जड़ से खत्म करने के लिए पर्याप्त है, उसी
समय उन्होंने संतुष्टी हुयी और कल्याणकारी रास्ता जनता को बताने का निर्णय लिया.
जो लोग वर्णाश्रम व्यवस्था के
पीड़ित थे वे सुख का राश्ता खोजने सन्यासी बनकर जंगल में तपश्चर्या करने लगते थे.
उन्हें ही समाज के असत्य के जड़ की तलाश रही. वे त्यागी होते थे. समर्पित होते थे.
घर परिवार की उन्हें चिन्ता नही होती थी. वे समाज में तन और मन लगाकर कार्य कर
शकते थे, वे पूर्णकालिन कार्यकर्ते थे, जो सिर्फ भिक्षा मांगकर समाज को सही दिशा बतलाकर
सुखी करना चाहते थे. ऐसे ही लोगों की बुद्ध को तलाश थी. क्योंकी यह विश्व की
पुनर्रचना करने का कार्य था, जो केवल अकेले व्यक्ति के बस का नही था. बुद्ध को
अन्य लोगों की जरूरत थी, जो उनके विचारों से सहमत हो सके. ऐसे समविचारी, सम
उद्देशी लोगों के संघटन को बनाने के कार्य में सदस्यों के तलाश में बुद्ध “बोध गया” से “वाराणसी”
(काशी) निकल पड़े.
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें