सोमवार, 21 सितंबर 2020

सिद्धार्थ ने गृहत्याग क्यूँ किया?

राजपूत्र सिद्धार्थ उम्र के २८ साल तक कोई अपने घर, महल में बंद नही रह सकता, उसके पहले उसकी शादी हुयी और वह भी स्वयंबर रीति से तो क्या उन्हें एक भी भिकारी, वृद्ध, महारोगी या सन्यासी नही मिला? उनके अपने शादी समारोह में उन्हें इनमे से कोई भी नही मिला हो ऐसे कैसे हो सकता?


सिद्धार्थ अपने खेत में भी जाया करते थे, एक बार हंस पक्षी धरती पर उसके आसपास गिरा मिला जिसे बान लगा था, वह उनके मौसेरे भाई देवदत्त में मारा था, यह हंस किसका? उसे मारनेवाले देवदत्त का या उसे बचानेवाले सिद्धार्थ गौतम का? इस फ़साद का निपटारा करने के लिए राजा के दरबार में निकाल लगा, उसे बचानेवाले गौतम का वह हंस हुआ।


कपिलवस्तु उम्र के २० वे साल में क्षत्रिय लोग शाख्य संघ (संघटन) के सभासद हुए थे, वहाँ पर सैनिकी शिक्षा लेना ज़रूरी होता था, सिद्धार्थ ने उसे हासिल किया था, तो क्या वे हमेशा घर के कोठी में ही बंद रहते है? ग़लत लिखनेवाले लिख सकते है पर पढ़नेवाले लोगों ने उसे अपनाने के पहले अपने विवेक से ऊँचे परखना चाहिए, पर ऐसा नही देखा जा रहा, बढ़े दुःख की बात है। सिद्धार्थने गृहत्याग करने के कारण वह चार पीड़ादायक घटनाएँ नही थी, असली कारण शाख्य संघ के नियमाओं का पालन नही करना था, बुद्धा ने रोहिणी नदी पानी बँटवारा के विषय पर कोलिय लोगों से जंग के लिए लड़ने के लिए ना थी, शाख्य संघ सेनापति ने उन्हें ना भरने की शिक्षा सुनाई, ३ पर्याय थे उसमें से उन्होंने गृहत्याग का पर्याय चुना, और संन्यासी बने, जंगल में ऋषि से कुछ सिखने के हिसाब से प्रयास रत रहे। लोग झगड़े करते क्यूँ ? इसका जवाब ढूँढने के लिए उन्होंने काफ़ी प्रयास किया, चिंतन मनन द्वारा उसे हल मिला, उसका नाम "आर्य अष्टांगिक मार्ग" है। यह "बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय" के उद्धेश पूर्ति के लिए उन्होंने दिया, उसके प्रचार के लिए भिक्षु संघ की स्थापना की, उनके ज़रिए जन चेतना की, बुद्ध ने न चार घटना को ध्यान में रखकर सन्यास लिया और न उन्होंने ४ आर्य सत्य को दिया, न उन्होंने ध्यान-समाधि या विपस्सना का प्रचार किया, यह ग़ैरप्रचार ब्राह्मण भिक्षुओं/महायनीयो ने किया। आर्य अष्टांगिक मार्ग आठ अँगो का मार्ग है उसे समझने के लिए पहला मार्ग सच्ची में जानना ज़रूरी है, वह प्रतित्य समु त्पाद के सिद्धांत के उदबोध करता है, जो लोग इसे न जानते हुए धम्म समजने का प्रयास करते उन्हें धम्म नही समझ सकता। वे ख़ुद हमेशा भ्रमित रहते है और औरों को भ्रमिक करते रहते है। बुद्ध ने न श्वर्ग-नर्क पर विश्वास किया और न आत्मा /ईश्वर पर। उनका यही कहना रहा है, इंसान ने इंसान के साथ प्यार, करना, दया भरा व्यवहार करना चाहिए। पूजा-पाठ पर उनका विश्वास नही था। इंसान को समाज में न्याय, स्वतंत्रता, समता और भाईचारा ज़रूरत है, उसे अपने व्यवहार से बाँठे, एक दूसरे को मदत करे, सहयोग की भावना अपनाए तो इंसान को किसी ईश्वर या आत्मा की ज़रूरत नही है, इंसान ख़ुद सुखमय जीवन यापन कर सकता है, इसलिए उन्हें धार्मिक पुरुष के रूप में देखने के बजाए "नैतिक पुरुष" के रूप में देखना चाहिए। उनके फ़ोटो/मूर्ति की पूजा करने के बजाए उनके बताए "आर्य अष्टांगिक मार्ग" का पालन करना चाहिए। तो सारा संसार दुःख से मुक्त होगा, सुखी बनेगा।

रविवार, 20 सितंबर 2020

बुद्ध धम्म और उनका उद्धेश


बुद्ध धम्म का मुख्य उद्धेश बहुजन हिताय बहुजन सुखाय है, इसे पूरा करने के लिए आर्य अष्टांगिक मार्ग दिया, ४ आर्य सत्य महायानी भिक्षुओं ने घुसदा, जिसकी कोई ज़रूरत नही थी, आशावादी अष्टांगिक मार्ग के सामने निराशा वादी ४ आर्य सत्य लगाना सुरु किया, लोग इसी में संतुष्टि मानते है, आर्य अष्टांगिक मार्ग तक नही पहुँच पाते। आर्य अष्टांगिक मार्ग को भी प्रज्ञा-शील-समाधि में विभक्त किया। लोग बुद्धा धम्म को समझने के बजाए समाधि=विपस्सना की और बढ़ते है। अभी तक किसी को समाधि =विपस्सना द्वारा बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का लक्ष प्राप्त नही हुआ।

जो लोग आर्य अष्टांगिक मार्ग उद्धेश पूर्ति के लिए कैसे प्रयोग में लाए इसे समझते है वे ४ आर्य सत्य, विपस्सना के चक्कर नही काटते। आर्य अष्टांगिक मार्ग में पहला मार्ग है सम्यक् दृष्टि - सम्यक् दर्शन/तत्वज्ञान है। जो इसे नही जानते वे धम्म को नही समझ सकते। सम्यक् दर्शन यानी प्रतित्य समु त्पाद है। अनेक करणो से कार्य या घटना का होना है। एक कारण से कोई भी घटना नही घटती। यह १२ अँगो से युक्त है। सुरूवत है अज्ञान से अंत है ज़रा-मरण (व्याधि से मरण)। ज़रा मरण का कारण अज्ञान है जो इसे नही जानते वे दुखी होते है।

ईश्वर, आत्मा और नित्य (सनातन) यह ब्राह्मण धर्म की निव है, इसे मानना यानी अज्ञान को गले लगाना है, इसके जगह हमने हमारे माँ -बाप को मानना चाहिए, उन्होंने हमें जन्म दिया, लालन पालन किया, ४ महाभूत क़ुदरत के गुणों का परिणाम है। इसमें ईश्वर आत्मा या पूजा पाठ का कोई महत्व नही है। जो लोग इस अज्ञान में फँसते है उसे विवेक नही होता, वे तर्क नही कर सकते, वे दूसरे के ग़ुलाम होते है, ग़ुलाम शोषित होते है, वे अधिक दुःख पाते है।

जो व्यक्ति सम्यक् दर्शन पाता है वह ही सम्यक् संकल्प कर सकते है, यह संकल्प बहुजन हिताय, बहुजन सुखाय होना ज़रूरी है। जो संकल्प किया उसके प्राप्ति के लिए सम्यक् वाणी / संवाद करना चाहिए, हम हमारे वाणी द्वारा संकल्प को नही बताए तो दूसरे व्यक्ति का सहयोग नही पा सकते और बिना सहयोग से बहुजन हित-सुख नही कर सकते। सम्यक् वाणी के अनुसार आगे हमारे कार्य का करना है। वाणी-कथनी और करनी में अंतर नही होना चाहिए, तो ही हमारी कृति बहुजन हित-सुख प्राप्ति लायक़ रहती है।

सम्यक् कार्य के का उद्धेश भी बहुजन हिताय बहुजन सुखाय है यह हमारे कार्य से दिखाई देना चाहिए, कार्य ने ख़ुद जताना चाहिए, इतना वह पारदर्शी होना चाहिए तो ही समय सम्यक् आजीविका कर सकते है, समाज में लोग आपकी दिन चर्या को देखते है और वह आदर्श के पात्र है, बहुजन हित-सुख प्राप्ति लायक़ है तो लोग उसे नवाजते है और उसके उपासक बनते है, प्रचार करते है। कारवाँ बनते जाता है।

सम्यक् आजीविका पर निर्भर हमारा सम्यक् व्यायाम है, व्यायाम यानी आदत, कोई भी कार्य हम लगातार २१ दिन तक नही करते वह आदत में तब्दील नही होती जो कार्य आदत में तब्दील नही होता उसे जल्द ही भुला जा सकता है, सम्यक् व्यायाम यानी बहुजन हित-सुख प्राप्ति के उद्धेश को हासिल करने के लिए बारंबार प्रयास करे जबतक उद्धेश की प्राप्ति नही होते उसे करते जाए। सतत प्रयास से लक्ष को प्राप्त किया जा सकता है।

सम्यक् व्यायाम पर निर्भर सम्यक् स्मृति है। उद्धेश के अनुरूप कार्य को करने के लिए याददास्त मज़बूत करना ज़रूरी है, नही तो किया गया व्यायाम ग़लत उद्धेश के पूर्ति में लग जाएगा, बाद में पता चलेगा की इसी कारण से हमारा उद्धेश पूरा नही हो चुका। बहुजन हित-सुख प्राप्ति के कार्य को पूरा करने की बात हमेशा दिमाग़ में संजोए रखे तो ही हम सम्यक् समाधि = उद्धेश पूर्ति कर सकते है।

जबतक सही ढंग से सम्यक् स्मृति नही करे तबतक सम्यक् समाधि प्राप्त करना सम्भव नही है। सम्यक् समाधि यानी लक्ष को पाना है। बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के लक्ष प्राप्त करना है। बौद्धों ने बहुजन हित-सुख के लक्ष को सामने रखते हुए कार्य किए तो उन्हें सुख -संतुष्टि, आनंद ज़रूर मिलेगा, कर भला_ हो भला। सहकारीता का सिद्धांत हमेशा याद रखे, आज हम दूसरों को सहयोग देंगे तो कल उनसे मिलने की सम्भावना अधिक होती है_ सहयोग देना-सहयग लेना ही नैतिक सुखमय जीवन मार्ग है।

आर्य अष्टांगिक मार्ग पहले पर दूसरा, दूसरे पर तीसरा इसी ढंग से परावलंबी है, खुला नही है, एक दूसरे से जुड़ा है। इसे पालन करने से सुख मिल सकता है, बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का उद्धेश पूरा हो सकता है तो पाँच शील और विपस्सना की हमें क्या ज़रूरत है? बुद्धिझम को पलिद करने के दृष्टि से दृष्ट महायानी भिक्षुओं ने यह सब मिलावट करने की कोसिस की जिस वजह से धम्म बोध होने में कठिनाए आती है। परंतु आगे मिलावट से सावधानी नही बरते तो सुख के बजाए दुःख ज़रूर मिलेगा।

भगवान = ईश्वर है, बुद्ध अनिश्वरवादी थे, परंतु ओशो रजनीश ने बुद्ध को और ख़ुद को भी भगवान मानने से कोई कसर नही छोड़ी, वे भी महायानी विचारों के चंगुल में फँसे जिस वजह से "बहुजन हिताय_बहुजन सुखाय" का लक्ष प्राप्ति के मार्ग से वे भटक गए। कल्याणकारी बुद्ध को भोगवादी बनाया और वैसा प्रचार किया। बुद्ध किसी भी दृष्टि से भगवान साबित नही होते, अगर किसे लगता है तो वे साबित ज़रूर कर सकते है। राजानंद मेश्राम_७३०४८३८१२३ rajanandm.blogspot.com

शनिवार, 19 सितंबर 2020

अज्ञान और ईश्वर, आत्मा और सनातन

बुद्धिजम की कमी दिखाने के लिए "अविद्या" का उगम बताने में बुद्ध असमर्थ रहे, यानी बुद्ध बुद्धिमान नही तो बुद्धू साबित हुए है। तथा यह सिद्धांत भी उपनिषद से लिया गया है, यह अगर आरोप दूसरे ने लगाया है तो उसका खंडन करने की ज़िम्मेवारी आपकी है, परंतु उसे आपने नही निभाया। क्यूँकि एक तो उसकी जानकारी आपके पास नही है या आप जानबूझकर दर्शकों को गुमराह करना चाहते है।

सम्यक् दृष्टि का महत्वपूर्ण ज्ञान १२ अँगो से युक्त कार्य कारण सिद्धांत यानी प्रतित्य समुत्पाद से होता है। प्रतित्य सम्मुत्पाद का अर्थ है, प्रत्यय = कारण, सम्मु = समुदाय, समूह और त्पाद = निर्मिती। अनेक करणो से कार्य या घटना की निर्मिती होती है, बिना कारणों के समूह से कार्य / घटना नही होती। अविद्या से ज़रा-मरण तक १२ अंग है। अविद्या वह है जो हमें पता नही है, हम नही थे तो भी हमारे माँ -बाप थे, उनके संतान प्राप्ति के इच्छाओं से मिलन / संबोग़ हुआ, वीर्य माँ के गर्भ में गिरा उसपर संस्कार हुए, विज्ञान (चेतना) आयी, उसके बाद हमारे दिमाग़ में हर बात /घटना प्रिंट होने लगी।

जब हमें चेतना ही नही थी तब माँ -बाप के सम्भोग से विज्ञान प्राप्ति के पहले के अवस्था तक यानी संस्कार तक की जानकारी हमें कैसे हो सकती? हमारे माँ -बाप ने भी सिर्फ़ सम्भोग किया, पर उन्हें भी पता नही था की वीर्य से संतान होगी या नही होगी? ज़िंदा निकलेगी या मुर्दा? पुत्री होगी या पुत्र? काली रहेगी या गोरी? तो वे भी अज्ञान साबित होते है। संतान नाम की घटना घटी पर ना हमारे पूर्वज (माँ -बाप) जानकार थे इसलिए वे भी हमें जानकारी यानी ज्ञान दे सकते है की हमने सम्भोग के बाद गर्भ में इस ढंग से तुम्हें आकर दिया।

जब संतान को जन्म देनेवाले भी नही जानते है की उसकी आँख पहले बनी या बाँहें तो वह घटना की जानकारी हमें या बुद्ध को कैसे होगी? हर व्यक्ति इतना ही बता सकता है की हमें हमारे माँ -बाप ने निर्माण किया, हमारे निर्मिती के कारण वे है। बुद्ध ने यह ज़रूर सवीयर किया की हमारे माँ -बाप ने हमें जन्म दिया है, निर्माण किया है, इसमें किसी ईश्वर का हात नही है। इंसान (संतान) को इंसान (माँ -बाप) ने जन्म दिया, जन्म के लिए कारण साबित हुए, न की ईश्वर। बिना माँ -बाप के ईश्वर कभी भी किसी जीव जो जन्म दिया नही, बनाया नही। संक्षिप्त में ईश्वर है अज्ञान है, ईश्वरवाद अज्ञान है। ईश्वर की पूजा करना अज्ञान है।

वीर्य में जीवाणु होते है, वह हमारे गुणसूत्रो से भी बनते है। इसलिए हमारे वीर्य से निर्माण हुयी संताने हमसे मेल खाती है। हमारी संताने किसी ईश्वर के गुणसूत्रों से मेल नही खाती। माँ -बाप हमें शारीरिक रचना वाला शरीर तो देते है पर वह मुर्दा नही होता, जीवित होता है, वीर्य में से वही जीव गर्भाशय में प्रवेश करता है जो शक्तिशाली और जीवन जीने की चाहत भारी मात्रा में होती है, इसलिए वह अपनी हलचल जारी रखता है और काफ़ी प्रयास के बाद वह गर्भ में अपनी जगह बना लेता है। वीर्य में आत्मा डालने के लिए ईश्वर की कोई भूमिका नही है। इसलिए बुद्ध के सिद्धांत में अनिश्वरवाद के साथ अनात्मवाद को भी जगह मिली है। हमें हमारे म-बाप के कर्मों से जन्म मिला है।

अज्ञान वह है जो पता नही है। जो पता होता है वह ज्ञान है। पता न होना अज्ञान है। हमारे जम के लिए एक कारण बाप है, दूसरा कारण माँ है, तीसरा कारण संसार के प्राणवायु का होना है, चौथा कारण संसार में पानी का होना है, पाँचवा कारण सूर्य किरण/गरमी का होना है, छटा कारण भोजन का होना है, सातवाँ कारण इसे लेने की माँ की इच्छा भी है। संतान नामक घटना के पीछे अनेक कारण जरिरी है किसी एक (ईश्वर) कारण से कोई भी घटना नही घटती। हम बच्चे से वृद्ध होते है, हमेशा आकार बदलता है, इसलिए हम सनातन, नित्य नही है_ अनित्य है, सभी चीज़ें अनित्य है। जीव तथा चीज़ों को सनातन मानना मूर्खता है, अज्ञान है।

उपनिषद में क्या प्रतित्य समुत्पाद का सिद्धांत का उल्लेख है? अगर है तो उसे सबूत के रूप में बताना ज़रूरी था, मगर नही बताया गया, इसलिए उस आरोप को निराधार कहने के सिवाय दूसरा रास्ता नही है। जिन्होंने विषमता वादी वेद, उपनिषद के सिद्धांत को ललकारा उनका नाम गौतम बुद्ध है, इनके वजह से यज्ञ में मिलने वाली दक्षिणा बंद हुयी, सामान्य जनता को ठगना बंद हो गया इसी वजह से ब्राह्मण लोग बुद्ध को और उनके विचारों को गालियाँ बकने में कसर नही करते। बुद्ध के महान बुद्धिमान शिष्य महा मोगलयन के सामने हार बरदास्त नही कर सके तो उनकी दिन-दहाड़े हत्या की गयी थी।