मंगलवार, 18 जून 2013

डॉ. अम्बेडकर धम्म विलावट से आहत


त्रि-पिटक के मिलावट का असर “द बुद्ध एंड हिज धम्म” पर भी दिखाई देता है. जिसे छुपाने के लिए बाबासाहब आंबेडकर ने सन्दर्भ देना उचित नही समझा और बिना सन्दर्भ का ही ग्रन्थ लिखा. इसलिए बुद्ध और उनके क्रान्तिकारी धम्म को समझने के लिए “रिवोल्यूशन एंड काउन्टर रिवोलुशन” तथा “बुद्ध और मार्क्स” को इस ग्रन्थ के साथ पढ़ने का सुझाव दिया है. जिन्होंने उनका सुझाव नही माना और उनके जाने के बाद उनके ही अनुयायी बुद्ध को भगवान समझ बैठे, विपस्सना विधि के तंद्री में शान्त बैठे है तथा पूजापाठ को धम्म समझ बैठे है. जिसका विरोध करना अभी भिक्षुओं को भी उचित लग रहा है.

डॉ. भदन्त सावंगी मेधंकर लिखते है, “पुराने ज़माने मे पढाने के लिए किताबे नही होती थी. बुद्ध से जो सुनते थे उसी का मनन-चिंतन करते थे, इसी कारण बुद्ध ने ध्यान भावना पर जोर दिया था. त्रिपिटक मे जहाँ-वहाँ बुद्ध को कहते देखा जाता है “झायथ भिक्खवे” भिक्षुओ ध्यान करो. नियम के अनुसार भिक्षु कोई शारीरिक काम नही कर सकते. पढ़ने को कुछ नही, तो फिर एक बचाव था ‘ध्यान भावना’. मगर उस काल मे या बाद मे भी पूर्णकाल ध्यानी उपासक नही थे. यदि उपासक पूर्णकाल ध्यानी बना तो समाज बिगड जायेगा, क्योंकि संसार के प्रति उसका नकारिय दृष्टिकोण बन जायेगा. एक सिमित समय के लिए मन को एकाग्रता की ट्रेनिंग देने के लिए ठीक है. या फिर सेवानिवृति के बाद पारिवारिक झमेलों से अलिप्त करने के लिए अच्छा है.

“बाबासाहब ने धम्म दिया. शिक्षा देने के लिए उनके पास समय नही था. उनके उत्तराधिकारियो ने उसे आवश्यक नही समझा. समाज बिखर गया. नेतृत के अभाव मे लोग उसकी खोज करने लगे. कोई त्रैलोकी बने तो कोई विपस्सी ही रहे एवं धीरे-धीरे उनमे बाबासाहब के प्रति अंध:श्रद्धा पैदा हो रही है एवं वे उनके विरोधी बन रहे है, इसका उनको भी पता नही चल रहा है. आज सारा विपस्सना संघ आर.एस.एस. के कब्जे मे चला गया. समाज धीरे-धीरे विपस्सना के माध्यम से आम्बेडकर के विचारों से दूर होते जा रहा है. “मै कोई महान व्यक्ति नही हूँ और न कोई युगद्रष्टा या युगनिर्माता पर बुद्धिजीवी समाज इसे अवश्य याद रखे की यदि चुप-चाप बैठे रहे तो इसका परिणाम बड़ा भयानक होगा.” (संदर्भ:- बुद्ध पुत्र की गाथा, बुद्धभूमी प्रकाशन, नागपुर. प्रकासन- २००१. पृष्ठ- ३११ एवं ३३७, ३३८.)

“भगवान” क्या है? जो अर्थ संघरक्षित महास्थविर (टिबिएम) ने दिया है यह उनका कहना नही है तो यह आम बौद्धों का कहना है जो महायानी लोग प्रयोग में लाते रहे. वान यानि तृष्णा और भग का मतलब त्याग. इसका अर्थ तृष्णा का त्याग. तृष्णा क्या है? यह एक ईच्छा का प्रकार है. जिसे हम अंग्रेजी में विल कहते है. इच्छा को त्यागना ही "भगवान" हम मानते है, तो प्रश्न यह उठता है की, बुद्ध (इन्सान) जो जीवित थे वे भी इच्छाओं का त्याग कर चुके थे? वे इच्छा तिन प्रकार की होती है, ऐसा धम्म कहता है. फिर इसमें से किस प्रकार के इच्छा का त्याग करना और न करना इसके बारे में कोई बोध "भगवान" शब्द से होता है? अगर सभी प्रकार के इच्छाओं का त्याग समझा जाए, तो कोई भी व्यक्ति अपने जी ते जी भगवान नही बन सकता. बुद्ध अगर व्यक्ति थे तो वे जीते जी “भगवान” कैसे बन सके? लॉर्ड यह ख्रिश्चन धर्म में "हे लॉर्ड" यानि "हे भगवान" के अर्थ से लिया जाता है, यह धर्म से ही न्याय व्यवस्था में (ईश्वरीय न्यायदान कर्ता- न्यायाधिस के लिए) स्वीकार किया गया शब्द है. 

“भगवान” का तृष्णा त्याग अर्थ बौद्धों की किस शब्दकोष में है? किसी भी कोष में यह अर्थ नही है. और न सामान्य जनता की मान्यता है की भगवान का अर्थ तृष्णा त्याग ही है. भगवान का अर्थ है, भग + वान; भग= भोक, छिद्र, गड्डा, होल तथा वान = काया, शरीर, देह. शरीरधारी केवल मानव प्राणी ही धरती पर नही है. फिर भी यह मानते है की यह मानव के बारे में ही अर्थ ले तो “भोक में से निकली काया” या शरीर यानि “भगवान” है. क्या बुद्ध के अलावा अन्य प्राणी या मानव भी भोक से नही निकले? फिर यह उपाधि सिर्फ बुद्ध के ही सामने रहनी चाहिए, बाबासाहब आंबेडकर के नाम के सामने क्यों नही?

“भगवान” का भारत में सामान्य जनता जो अर्थ लेती है, वह है- ईश्वर, परमेश्वर, अल्ला, महावीर, येशु, शंकर, विष्णु, महेश आदि. फिर यही शब्द अगर हम बुद्ध के नाम के सामने लगाकर कहते है तो वह होता है बुद्ध भगवान, अल्ला बुद्ध, ईश्वर भगवान या देव बुद्ध या बुद्ध देव. बुद्ध का तत्वज्ञान अनिश्वरिय रहा. फिर भी हम उनके नाम के आगे अवैज्ञानिक उपाधि चिपकाते है और ईश्वर के जैसे ही उनके मूर्ति की भी पूजा शुरु करते है, उनके सामने जो अगरबत्ती होती है, उसकी राख अपने गले को लगाते है. 

धम्म को बाबासाहब आंबेडकर ने जानबुजकर अपनाया. उनपर बचपन से कबीर बुद्ध का प्रभाव था. बुद्ध के तत्वज्ञान को उन्होंने धर्म कहने पर आपत्ति लगायी और अपने लिखे ग्रन्थ का नाम "द बुद्ध एंड हिज धम्म" रखा. न की "द बुद्ध एंड हिज धर्म". धर्म यानि रिलिजन है, पर धम्म बनाम धर्म है. धर्म यह व्यक्तिगत तो धम्म यह सामाजिक सोच है. धर्म का रिश्ता ईश्वर से है जो व्यक्ति से संबध रखता है. तो धम्म ही निति है, जो ईश्वर के एवज में व्यक्ति या समाज से सम्बन्ध प्रस्थापित करती है. बुद्ध के धम्म में अगर ईश्वर और आत्मा का वास होता तो वह धर्म के परिभाषा में आता मगर वह अनिश्वरिय और अनात्मवादी होने से वह धर्म से खलास हो जाता है. धर्म की क्या धारणा होती है? इसका जब विचार करते, या अद्ययन करते है तो पता चलता है की, बुद्ध विचार धर्म नही हो सकते, वह धम्म यानि निति है.

बुद्ध के बाद कॉर्ल मॉर्क्स (जन्म- ५ मे १८१८, मृत्यु- १४ मार्च १८८३) ‘साम्यवाद’ के जनक रहे. उनके विचारों से भी दुनिया बहुत प्रभावित रही. इनके विचार भी क्रांतिकारी रहे. यह सभी बाते भी अर्थशास्त्र के विद्यार्थी होने के कारण बाबासाहब आंबेडकर के अद्ययन में आयी. तभी उन्होंने तुलना किया. बुद्ध युद्ध विरोधी थे, तो मार्क्स युद्ध वादी. बुद्ध सम्पूर्ण सामाजिक परिवर्तन चाहते थे, तो मॉर्क्स सिर्फ आर्थिक. बुद्ध समाज के १. आर्थिक, २. शैक्षणिक, ३. सांस्कृतिक और ४. राजकीय इन चारो अंगो में परिवर्तन (क्रांति) चाहते थे. क्या मॉर्क्स भी इसी चारों अंगो में परिवर्तन चाहते थे? या सिर्फ अर्थ में ही? शोषण यह सिर्फ आर्थिक ही होता है, यह मार्क्स की भुल थी, जो बाबासाहब को समझी. इसलिए शोषितों का तानाशाही साम्यवाद बाबासाहब ने स्वीकार करने के बजाए बुद्ध के धम्मक्रांति का स्वीकार किया. जिसे आत्मा, ईश्वर और पूजा के अभाव से "अफीम" नही कहा जा सकता. क्या बुद्ध ने पूजा द्वारा कोई आशीर्वाद पाया था?

कॉर्ल मॉर्क्स ने धर्म को आर्थिक शोषण का एक महत्वपूर्ण अंग माना. धर्म में ईश्वर की पूजा करके उसके आशीष पाने का जो मनगढ़ंत कार्य होता है, वहां से ही "पुजारी", पादरी, मुल्ला, बाबा शोषण सुरु कर देते है. भक्तो को गुमराह करने का पादरियों का कार्य रहा है यह कार्ल मार्क्स ने करीब से देखा इसलिए उन्हें सिर्फ अमीरों का ही दुश्मन नही तो पादरियों, पंडो, पुजारियों का भी दुश्मन समजा जाता है क्यों की उसने धर्म को अफु, अफीम, नशा कहा. कही बुद्ध के धम्म को भी अफु, नशा समजने की भुल कोई मॉर्क्सवादी न करे इस उद्धेश से ही बुद्ध के विचारों को बाबासाहब ने धम्म नाम से संकलित किया है. जब की “पाली” साहित्य के “धम्म” का अर्थ हिंदी, मराठी में “धर्म” होता है और “धर्म” का अर्थ “रिलिजन” है. इसलिए बुद्ध के विचारों को कॉर्ल मॉर्क्स के हमले से बचाने के लिए बाबासाहब ने बुद्ध विचारो को दूरदृष्टि से "धम्म " मगर यह बाते भदंत आनंद कौसल्यायन को नही समझी और उन्होंने ही सब गडबड की. उन्होंने बुद्ध को भगवान भी माना जब की बाबासाहब ने उसे स्वीकार नही किया. क्या "दी बुद्ध एंड हिज धम्म" का हिंदी अनुवाद "भगवान बुद्ध और उनका धर्म" सही है? क्या “द बुद्ध एंड हिज धम्म” का शीर्षक “द बुद्ध एंड हिज गॉस्पेल” या “लॅार्ड बुद्ध एंड हिज धम्म” है?

अम्बेडकरी विचारधारा जाती, धर्म, वर्ण, वर्ग, भाषा, वंश और लिंग के आधारपर भेदभाव को नही मानती. फिर भी कुछ लोग जनता को गुमराह करने के लिए बाबासाहब अम्बेडकर को ही जाती, वर्ण, वंशवादी सिद्ध करने पर तुले है, उनके बुद्धी पर बडी हंशी आती है. बाबासाहब ने ब्राह्मण और ब्राह्मणी विचारों मे भेद किया और भेदभावपूर्ण विचारों की डटकर आलोचना की, मगर यह जातिवादी लोग व्यक्ति विरोध के लिए अम्बेडकरी संघटन चला रहे है और ब्राह्मणवाद को मदत करते है. डॉ. बाबासाहब आम्बेडकरने "रानडे, गाँधी और जिन्हा" नामक किताब मे कहा था की "मै मूर्ति पूजक नही हूँ, मूर्तिभंजक हूँ" मगर अफ़सोस से यह साबित हो चूका है की उनके लोग मुर्तिभंजक नही है, मूर्तिपूजक है. कभी बुद्ध की तो कभी बाबासाहब की मुर्तिया पूजी जा रही है. मूर्तिपूजा को धम्म वन्दना का दर्जा दिया जा रहा है. ‘मूर्ति को माला और विचारों को ताला’ है. मूर्तिपूजा को धम्म समझना गलत है. "गल्त समझे यह बुद्धिमान गौतम की बसारत को, बलाए बुत प्रसति ने किया बर्बाद भारत को." - हफीज जालंधरी. धम्म का पालन यानि विचारों का पालन करना है, न की उनकी मूर्तियों को पूजना.

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